Sunday, March 31, 2013

हथियारों के साथ ‘पंचहत्यारी’

‘पंचहत्यारी’ शिवाजी की सैन्य शब्दावली का एक शब्द है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानों इसका रिश्ता पाँच जनों की हत्या करने वाली से हो। दरअसल यह एक विशेषण, पद या उपाधि है जिसका अर्थ है बंदूक, भाला, ढाल, तलवार और तीर-कमान से सज्जित सैनिक या शिकारी पशु। यहाँ अभिप्राय मुख समेत चारों पंजों के ज़रिये शिकार को चीर-फाड़ करने से है। पंच से तो पाँच स्पष्ट है, हत्यारी क्या है ? दरअसल मराठी में हथियार को हत्यार ही लिखते और बोलते हैं। ‘पंचहत्यार’ का तात्पर्य पाँच हथियारों से है। हिन्दी में ‘हत्यार’ का आशय ‘हत्यारा’ से है और हत्यारी यानी हत्या करने वाली स्त्री।
ऐसे ही बनती है। मराठी में हथियार की 'थ' ध्वनि से 'ह' का लोप होकर 'त' शेष रहा। मध्य वर्ण 'य' चूँकि अन्तस्थ व्यंजन है इसलिए 'त' में निहित 'इ' स्वर य से जुड़ गया और 'त' का बर्ताव अर्धव्यंजन की तरह होने से हथियार का देशी रूप ‘हत्यार’ हुआ। उधर हिन्दी का ‘हत्यार’ दरअसल ‘हत्यारा’ से बन रहा है। इसके मूल में ‘हत्या’ है। जिसका अर्थ किसी के प्राण लेना है। संस्कृत के हत से हत्या का रिश्ता जोड़ा जाता है। वैसे वैदिकी में ‘हथ’ शब्द भी है जिसका अर्थ है मारना, जान लेना, धकेलना, वार करना आदि। इस हथ से साबित होता है कि वैदिक संस्कृत में भी हस्त से ‘हथ’ रूप बन चुका था जिसमें हाथ से सम्बन्धित का भाव था। गौर करें हथियार का रिश्ता दरअसल ‘हाथ’ से नज़र आता है। प्राकृत में ‘हत्थ’ शब्द का अर्थ हाथ है। ‘हत्थ’ का संस्कृत या वैदिक रूप ‘हस्त’ है। ये दोनों शब्द हिन्दी के हाथ के पुरखे हैं। हथेली, हथौड़ी, हत्था, हाथी जैसे अनेक शब्दों के मूल में हस्त ही है। ‘हथिया’ में ‘आर’ प्रत्यय लगने से हथियार बना जिसमें ऐसे उपकरण का आशय है जिसे हाथ में पकड़ कर या हाथों से फेंक कर कोई काम किया जाए या किसी पर घात किया जाए। मूलतः हथियार में शस्त्र का भाव है।
थियार हिन्दी का बहुप्रयुक्त शब्द है। शस्त्रास्त्रों के लिए इसका इस्तेमाल आम है। मराठी में इसकी प्रकृति बदल गई और यह ‘हत्यार’ हो गया। हथियार से जुड़े कई मुहावरे प्रचलितहैं जैसे हथियार डालना यानी पराजय स्वीकार करना, हथियार चलाना यानी लड़ाई छेड़ना, हथियार बांधना या हथियार लगाना यानी संघर्ष के लिए सुसज्ज होना। चलताऊ या बाज़ारू हिन्दी में ‘हथियार’ शब्द का प्रयोग पुरुष जननेन्द्रिय के लिए भी होता। हथिया से ही ‘हथियाना’ क्रिया भी बनती है जिसका अर्थ है जबर्दस्ती कब्ज़ा करना, अपने स्वामित्व में लेना आदि।

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Friday, March 15, 2013

ऐश-ओ-आराम से ऐषाराम से

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भी ‘ऐषाराम’ सुना है ? संस्कृत शब्दावली का शब्द लगता है। बौद्ध विहारों के संदर्भ में सुने हुए ‘संघाराम’ जैसा । यह हिन्दी का नहीं बल्कि मराठी का शब्द है और इसका आशय हिन्दी के ऐशो-आराम से है । यूँ हिन्दी का ऐशो-आराम मूलतः फ़ारसी के ‘ऐश-ओ-आराम’ से आ रहा है जिसमें आनंद, विलास या सुखोपभोग का आशय है। मराठी के ऐषाराम में ऐश और आराम है। हिन्दी वाले इसी तर्ज़ पर ऐशाराम सपने में भी नहीं लिखेंगे। ‘ऐश’ अरब का शब्द है और आराम फ़ारसी का। यूँ भारत ईरानी परिवार का होने के नाते आराम संस्कृत, हिन्दी में भी मौजूद है। मज़े की बात देखिए कि अरबी के ‘ऐश’ में शकर वाला ‘श’ है और षट्कोण वाला ‘ष्’ संस्कृत की अपनी खूबी है। इसके बावजूद मराठी ने ऐश औ आराम से ‘ऐषाराम’ यूँ बना लिया कि किसी को इसके विदेशी होने का शक भी न होगा। यूँ माधव ज्यूलियन के मराठी-फ़ारसी कोश में ‘ऐषाराम’ का ‘ऐशाराम’ रूप ही दिया गया है मगर यू.एम.पठाण के मराठी-फ़ारसी कोश में इसका रूप “ऐषाराम’ है।
ज हर कोई ऐश करने की जुगत में लगा हुआ है। बिना काम किए अच्छी गुज़र बसर, यानी ऐश। फ़ारसी ने हमें ‘ऐश’ सिखाया अलबत्ता शब्द फ़ारसी में भी अरबी से दाखिल हुआ। अरबी में इसकी धातु ऐन-या-शीन (ع-ى-ش) है जिसमें सुख के साथ जीना, चैन की गुज़र-बसर या विलासयुक्त जीवन का आशय है और इससे बनी आश क्रिया में रोज़, रोटी, जीवनचर्या जैसे भाव हैं। दिलचस्प बात यह कि किसी ज़माने में ऐश का वह मतलब नहीं था जो आज प्रचलित हो चुका है। अरबी में ऐश का मूल अर्थ था रोटी, रोज़ी, आजीविका, जीवन, किसी के साथ रहना आदि। ऐश के दार्शनिक अर्थ पर विचार करें तो यह सच भी है। इन्सान को हवा-पानी तो ईश्वर ने मुफ्त में दिया। मगर इसके बूते उसकी जिंदगी चलनी मुश्किल थी। उसने तरकीब लगाई। मेहनत की और रोटी बना ली। बस, उसकी ऐश हो गई। हर तरह से वंचित व्यक्ति के लिए सिर्फ रोटी ही जीवन है। रोटी जो अन्न का पर्याय है, अन्न से बनती है। लेकिन बदलते वक्त में ऐश में वे तमाम वस्तुएँ भी शामिल हो गईं जिनमें से सिर्फ रोटी को गायब कर दिया जाए तो उस तथाकथित ऐश से हर कोई तौबा करने लग जाए।
श के मूल आश के साथ अरबी उपसर्ग ‘म’ लगने से बनता है मआश जो इसी कड़ी से जुड़ता है। मद्दाह के कोश में मआश का अर्थ है जीविका, रोज़ी, जागीर जो किसी काम के इनामस्वरूप मिले। मआशदार यानी जागीरवाला। मआशी यानी जीविका सम्बन्धी और मआशियात यानी अर्थशास्त्र। मआश की मौजूदगी वाला फ़ारसी का हिन्दी का एक मज़ेदार शब्द हिन्दी में आकर रच-बस गया है- बदमाश। इसमें फारसी के बद उपसर्ग की भी मौजूदगी देखी जा सकती है। इस बद् यानी bad शब्द का अंग्रेजी के bad बैड से अर्थसाम्य का रिश्ता तो है मगर दोनों का जन्म से रिश्ता नहीं है। बद् यानी बुरा, निकृष्ट, अशुभ, खराब, अपवित्र, अमंगल, गिरा हुआ, बिगड़ा हुआ आदि। भाषा विज्ञानियों के मुताबिक बद् शब्द पुरानी फारसी के ‘वत’ से बना है । यह भी सम्भव है कि इसकी व्यत्पत्ति का आधार संस्कृत की ‘पत्’ धातु हो जिसमें नैतिक रूप से गिरना, अधःपतन, नरक में जाना जैसे भाव शामिल हैं। पतित, पातकी, पतन जैसे शब्द भी इससे ही बने हैं। बहुत सम्भव है कि फारसी के बद् की रिश्तेदारी पत् से हो। अरबी के ‘मआश’ का मतलब होता है आजीविका, जीवन, रोज़ी। इस तरह बदमाश का शुद्ध रूप हुआ बदमआश जिसका मतलब है गलत रास्ते पर चलनेवाला, बुरे काम करनेवाला, ग़लत तरीक़ों से रोज़ी कमाने वाला, जिसके जीने का ढंग ग़लत हो। मआशदार का अर्थ अय्याश है।
श से ही बनता है अय्याश (ऐयाश) जिसका अर्थ है विलासिता से रहने वाला, कामुक, लम्पट, ऐश करने वाला। अय्याश के लिए एक और प्रचलित शब्द ऐशबाज भी है। ऐशबाजी, अय्याशी जैसे शब्द आरामतलबी और आडम्बरपूर्ण जीवन शैली के संदर्भ में इस्तेमाल होते हैं। अय्याश का जिक्र होते ही एक नकारात्मक भाव उभरता है। सुखविलास के सभी साधनों का अनैतिक प्रयोग करनेवाले के को आमतौर पर अय्य़ाश कहा जाता है। मद्दाह साहब के शब्दकोश में तो लोभी, भोगी के साथ व्यभिचारी को भी अय्याश की श्रेणी में रखा गया है। यह अय्याश शब्द भी ऐश की ही कतार में खड़ा है और उसी धातु से निकला है जिसका मूलार्थ जीवन का आधार रोटी थी मगर जिसका अर्थ समृद्धिशाली जीवन हो गया। उर्दू-फारसी-अरबी में लड़कियों का एक नाम होता है आएशा / आयशा ayesha जो इसी कड़ी का शब्द है मगर इसमें सकारात्मक भावों का समावेश है। आयशा का मतलब होता है समृद्धिशाली, सुखी, जीवन से भरपूर। पैगम्बर साहब की छोटी पत्नी का नाम भी हजरत आय़शा था और उन्हें इस्लाम के अनुयायियों की माँ का दर्जा मिला हुआ है।
शो-आराम का दूसरा पद यूँ तो फ़ारसी शब्द है मगर यह इसी अर्थवत्ता अर्थात खुशी, प्रसन्नता या इन्द्रिय आनंद के साथ संस्कृत और हिन्दी में भी है। आराम: मूलत: रम् धातु से बना है जिसमें आराम, अन्त, उपसंहार, बंद करना, स्थिर होना, रुकना, ठहरना जैसे भाव शामिल हैं। इन्द्रियों को शिथिल करने अथवा उनकी क्रियाशीलता को रोकने से शांति उपजती है। यह शांति ही आनंद, उल्लास, प्रसन्नता और तृप्ति का सृजन करती है। आराम शब्द के मूल में यही सब बाते हैं। इसमें ‘वि’ उपसर्ग लगाने से बने विराम शब्द में भी थमना, रुकना, बंद करना, उपसंहार जैसे भाव हैं मगर इसका अर्थ आराम नहीं होता है बल्कि किन्हीं क्रियाओं या स्थितियों के अंत का इसमें संकेत है। आराम को भी विराम दिया जाता है अर्थात विराम दरअसल सक्रियता की भूमिका भी हो सकती है। भगवान राम के नाम का मूल भी यह रम् धातु ही है। राम का अर्थ भी आनंद देने वाला ही होता है। इसके अलावा रमण, रमणीय, रमणी, रमा, राम, संघाराम, रम्य, सुरम्य, मनोरम, रमाकान्त, रमानाथ, रमापति जैसे शब्द भी इसी कड़ी में हैं। अवेस्ता यानी ईरान की प्राचीन भाषा ने आरामः को ज्यों का त्यों अपना लिया। फिर ये आधुनिक फारसी में भी जस का तस रहा। फारसी से ही उर्दू में भी आराम आया। यहां इस शब्द का अर्थ बाग-बगीचा न होकर शुद्ध रूप से विश्राम के अर्थ में है।

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Sunday, March 10, 2013

‘बिलंदर’ की बुलंदी

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त्रकार एम. हुसैन ज़ैदी की मुंबई माफ़िया पर लिखी क़िताब डोंगरी टू दुबई मराठी अनुवाद पढ़ते हुए एक नए शब्द से साबका पड़ा- बिलंदर। दाऊद इब्राहिम के अंडरवर्ल्ड में बढ़ते असर के संदर्भ में उसे बिलंदर कहा गया। कुछ कुछ अंदाज़ तो था कि इस बिलंद का हिन्दी-फ़ारसी के बुलंद से रिश्ता होना चाहिए। जिसमें पक्का, परम, कारगुज़ार, कद्दावर, असली जैसी अर्थवत्ता है। फ़ारसी शब्द चोला बदल कर जिस तरह से मराठी भाषा में पैठ गए हैं, वैसा हिन्दी में नहीं है। इस पर विस्तार से कभी लिखेंगे, फ़िलहाल बात बुलंद की। हिन्दी में भी बुलंद का एक रूप बिलंद होता है पर यह क़रीब-क़रीब अप्रचलित है। हिन्दी फ़ारसी में जहाँ बुलंद, बुलंदी में सकारात्मक भाव हैं वहीं वहीं मराठी के बिलंदर में आमतौर पर ठग, लुच्चा, चोर, भामटा या नीच जैसी अर्थवत्ता है। अर्थात बुलंद में निहित तमाम विशेषताएँ निम्न श्रेणी में प्रयुक्त होती हैं। हालाँकि सकारात्मक प्रयोग भी होता है पर कम है। देखा जाए तो बिलंदर का इस्तेमाल हिन्दी में किया जा सकता है।
हिन्दी-उर्दू के बुलंद, बुलंदी में ऊँचाई, उच्चता का भाव है। बुलंद इरादे, बुलंद हौसला जैसे वाक्याँश की मुहावरेदार अर्थवत्ता से यह ज़ाहिर है। इसके अलावा गुरुतर, भव्य, शीर्ष, उत्तुंग, मुख्य, भारी, प्रमुख, प्रतिष्टित, प्रतापी जैसे आशय भी इसमें हैं। मराठी में बुलंद अल्पप्रचलित है और बिलंद, बिलंदी या बिलंदर जैसे शब्द यहाँ मौजूद हैं। बिलंद रूप हिन्दी में भी है। बिलंदर मराठी का अपना आविष्कार है। फ़ारसी में बिलंदर नहीं है। वहाँ बुलंद ही चलता है। तब भी शुद्धता के नज़रिये से बलंद उच्चार ज़्यादा सही माना जाता है। बुलंद फ़ारसी ज़बान का शब्द है और इसके मूल में जो उच्चता, श्रेष्ठता, परम या खरा असल जैसा भाव है इसका रिश्ता बहुत गहराई से न सिर्फ इंडो-ईरानी भाषा परिवार से जुड़ता है बल्कि इसकी अर्थछायाएं पश्चिम एशियाई सांस्कृतिक आधार वाली भाषाओं यानी सुमेरी ( मेसोपोटेमियाई), बाबुली (बेबिलोनियन) और इब्रानी (हिब्रू) में भी नजर आती है।
सुमेरी यानी मेसोपोटेमियाई भाषा में यह शब्द बेल है और हिब्रू में बाल Baal के रूप में मिलता है। बाल शब्द बहुत महत्वपूर्ण है और इसकी अर्थवत्ता बहुत व्यापक है जिसमें शीर्षस्थ, प्रकाशमान, ऊपरी, बड़ा, परम शक्तिमान, भव्य, देवता अथवा स्वामी जैसे भाव समाए हैं। हिन्दी, उर्दू व फारसी में भी यह प्रचलित है। बाल में निहित ऊँचाई दूध की ऊपरी परत बालाई में नज़र आती है। हिन्दी में इसे मलाई कहते हैं जो फ़ारसी बालाई से ही बना है। लोगों को रत्ती भर खबर हुए बिना अंजाम दी गई कारगुजारी को बाले बाले (बाला) कहते हैं। यहाँ ऊपर ऊपर मामले को निपटाने का भाव ही प्रमुख है। पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाखाना कहते थे। बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान या कोष्ठ। अग्रेजी की बालकनी में भी ऊँचाई का ही भाव है और बालाख़ाना से बालकनी का ध्वनिसाम्य भी गौरतलब है।
सुमेर और अक्कादी मूल से उठ कर ही बाल शब्द फ़ारसी में भी दाख़िल हुआ। बाला ऐ ताक़ का अर्थ है किसी चीज़ को ऊपर रख देना। बालानशीं का अर्थ होता है सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च, सर्वोत्तम। मराठी में कही हुई बात, उल्लेख, ज़िक़्र, चर्चा के लिए फ़ारसी के मज़क़ूर शब्द का खूब प्रयोग होता है। उर्दू में मज़क़ूरे-बाला टर्म का प्रयोग ‘उपरोक्त’ यानी ऊपर लिखी हुई बात की तर्ज़ पर किया जाता है। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की ‘भ’ ध्वनि फारसी, ईरानी समेत सेमिटिक भाषाओं में जाकर ‘ब’ में बदलती रही है। संस्कृत के भर्ग में भी ऊँचाई का भाव है। इसका फारसी रूप बुर्ज होता है जिसका अर्थ मीनार या ऊंचा गुम्बद है। बुर्ज का huangshan ही यूरोपीय भाषाओं में बर्ग, बरो में रूपांतर होता है। कई स्थान नामों में यह जुड़ा नजर आता है। प्राचीन मनुष्य की शब्दावली और उसकी अर्थवत्ता का विकास प्रकृति के अध्ययन से ही हुआ था।
प्रायः ऊँचाई को इंगित करनेवाले शब्दों का मूलार्थ रोशनी, चमक, दीप्ति था। प्रकाशमान वस्तु के रूप में मनुष्य ने आसमान में चमकते खगोलीय पिण्डों को ही देखा था। पूर्व वैदिक भाषाओं में ‘भा’ ध्वनि में इसीलिए ऊंचाई के साथ चमक, कांति का भाव भी निहित है। संस्कृत के भर्गस् में एक साथ चमक, प्रकाश, भव्यता का भाव निहित है। The Nostratic macrofamily: a study in distant linguistic relationship पुस्तक में एलन बोम्हार्ड, जॉन सी कर्न्स ने विभिन्न भाषा परिवारों में प्रकाश और ऊंचाई संबंधी समानता दर्शानेवाले कई शब्द एक साथ रखे हैं। प्रोटो एफ्रोएशियाटिक भाषा परिवार की धातुओं bal और bel का अर्थ भी यही है और प्रोटो सेमिटिक के bala / bale में भी यही भाव है।
स्पष्ट है कि प्राचीन भारोपीय ध्वनि भा यहां बा में बदल रहा है। गहराई से देखें तो भा ध्वनि में निहित चमक का भाव विभा, विभाकर, भास्कर जैसे शब्दों में साफ है। तमिल-तेलुगू के pala pala में भी कांति, दीप्ति, चमक का भाव है। भा के बा में बदलने की मिसाल वजन के अर्थ में हिन्दी के भार और फारसी के बर या बार (बारदान, बारदाना, बोरी) से भी स्पष्ट है। ध्यान दें, बहुत महीन अर्थ में यहां भी ऊँचाई का भाव है। जिसे ऊपर उठाया जाए, वही भार है। अंग्रेजी के बर्डन में यही बार छुपा हुआ है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। रूस की बोल्शेविक क्रांति दुनिया में प्रसिद्ध है। बोल्शेविक का शाब्दिक अर्थ हुआ बहुसंख्यक। मगर इसमें भी बाल यानी सर्वशक्तिमान की महिमा नजर आ रही है।

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Tuesday, March 5, 2013

बर्ताव, आचरण और व्यवहार

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हि न्दी की प्रचलित शब्दावली में ‘बर्ताव’ शब्द का शुमार भी है। व्यवहार, ढंग, आचरण या शैली के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग होता है मसलन- “उनके बर्ताव को सही नहीं कहा जा सकता”। हिन्दी शब्दकोशों में हालाँकि बर्ताव की वर्तनी ‘बरताव’ बताई गई है मगर अब आम चलन बर्ताव का ही है। बर्ताव के मूल में संस्कृत ‘वर्तन’ है जिसमें घूमना, फिरना, जीने का ढंग या व्यवहार आदि आशय है। वर्तन के मूल में वैदिक धातु ‘वृत’ है। इसमें भी मूलतः घूमना, फिरना, घेरा, गोल, टिके रहना, होना, दशा या परिस्थिति आदि भाव हैं। ‘वृत’ से बने ‘वृत्त’ में घेरा या गोलाई स्पष्ट है। आचरण, स्वभाव के संदर्भ में ‘वृत्ति’ शब्द का प्रयोग भी हम करते हैं जैसे-“वह अच्छी वृत्ति का व्यक्ति है।”। आचरण दरअसल क्या है? इसमें ‘चरण’ है जो चलते हैं। चरण जो करते हैं, वही चलन है अर्थात ‘चाल-चलन’ ही आचरण है।
र्तन में निहित घूमना, फिरना, जीने का ढंग या व्यवहार सम्बन्धी जो आशय हैं वे ‘वृत’ में निहित घूमने-फिरने के भाव से जुड़े हैं। व्यक्तित्व घूमने-फिरने से ही बनता है। विचार भी इससे ही बनते हैं और आचरण भी। ध्यान रहे विचार में भी ‘चर’ यानी गति का भाव है। मानसिक विचरण से ही विचार बनते हैं। वर्तन में भी यही सब है। ‘वृत्ति’ का एक अर्थ जीविका भी है और दूसरा अर्थ आचरण भी। जीविका के लिए भी घूमना पड़ता है, गतिशील रहना पड़ता है इसीलिए वृत्ति का एक अर्थ आजीविका है और दूसरा अर्थ आचरण। ‘वर्त’ में घूमने का भाव एक अलग ढंग से यात्रा करता हुआ ‘वर्तिका’ जैसा शब्द बनाता है जिसका अर्थ है दीये की बाती। कपास को जब उंगलियों के ज़रिये घुमाया जाता है, उसका वर्तन किया जाता है तो वर्तिका बनती है। संस्कृत में इसके लिए ‘वर्ती’ या ‘वर्ति’ शब्द भी हैं। हिन्दी में इससे ही ‘बत्ती’ या बाती जैसे शब्दों का निर्माण होता है। कपास के वर्तन से ही धागा बनता है जिसे सूत कहते हैं जिसका मूल सूत्र है। आर्य भाषाओं में व ध्वनि ब में बदलती है। वर्ति > बत्ती होता है। मराठी में वर्तिका > वट्टिका > बट्टिआ > वाट बनता है। ‘वाट लगना’ आज लोकप्रिय मुहावरा है जिसका अर्थ है किसी चीज़ को नष्ट कर देना। मूल भाव है जल कर नष्ट होना। दीये की बत्ती जल कर नष्ट ही होती है। दूसरी ओर किसी चीज़ को जलाने के लिए उसे बत्ती छुआई जाती है। हिन्दी में ‘बत्ती देना’ मुहावरा है जिसका अर्थ भी नष्ट करना ही है।
र्तन में गति के साथ साथ स्थिरता या ठहराव भी है। घुमाव, वृत्त गति से वर्तन में भी गति का आशय व्यापक रूप लेता है और इसमें चाल-ढाल, बोल-चाल, हाव-भाव का समावेश होता है। लगातार ‘वर्तन’ के बाद ही कोई विशिष्ट गुण वृत्ति के रूप में स्थिर होता है। वेतन के रूप में वृत्ति में भी यही स्थिरता है। प्रतिदिन, प्रतिमाह या प्रतिवर्ष दिया जाने वाला तयशुदा मेहनताना। वृत्ति में ही व्यवसाय, रोज़गार या पेशा का भाव भी आ गया। रसोई में काम आने वाले पात्र गोल होते हैं। ये बरतन कहलाते हैं। यह भी वर्तन से बना शब्द है। वर्तन में हिन्दी का आव प्रत्यय लगने से बर्ताव शब्द बनता है जिसमें उसी ढंग से आचरण या व्यवहार की अर्थवत्ता स्थापित होती है जिसकी ऊपर व्याख्या की गई है। वर्तन से ‘बरतना’ क्रिया भी बनती है। बरतने का भाव ही दरअसल बर्ताव है। किन्हीं लोगों के किए जाने वाले व्यवहार, किन्ही वस्तुओं के उपयोग के तरीके को बरताव कहते हैं। हमारे हाव-भाव, बोल-चाल और अन्य क्रियाएँ जिनके ज़रिये हम लोक के सम्पर्क में आते हैं, बरताव के दायरे में आती हैं।
चरण शब्द बर्ताव की तुलना में ज्यादा व्यापक है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि आचरण में ‘चलना’ यानी ‘चर’ क्रिया प्रमुख है। आ+चरण यानी चल कर पहुँचना, यह रूढ़ अर्थ हुआ। चरित्र में भी यही ‘चर’ है। परिनिष्ठित भाषा में इसमें निहित ‘चल कर पहुँचना’ वाले भाव का विस्तार किसी काम को करने की शैली में प्रकट होता है। कहना, सुनना, ओढ़ना, पहनना सब कुछ इसमें आता है। ‘चाल चलन’ मुहावरे में आचरण के तमाम भाव हैं। बोल-चाल, हाव-भाव सब कुछ। आचरण या बर्ताव के लिए हिन्दी में ‘व्यवहार’ शब्द का प्रयोग खूब होता है जो आपटे कोश के मुताबिक वि + अव + हृ के मेल से बना है। संस्कृत की ‘हृ’ धातु में ग्रहण करना, लेना, प्राप्त करना, ढोना, निकट लाना, पकड़ना, खिंचाव या आकर्षण, हरण जैसे भाव हैं। संस्कृत-हिन्दी के ‘अव’ उपसर्ग की अनेक अर्थछटाएँ हैं जिनमें एक व्याप्ति भी है। इस तरह ‘वि’ उपसर्ग के अनेक अर्थ आयामों में क्रम, व्यवस्था का समावेश भी है। कुल मिला कर व्यवहार में किसी कार्य को व्यवस्थित करना। बाद में इसमें आचरण, बर्ताव, व्यापार, लेन-देन, कार्यव्यापार, शिष्टाचार जैसे अर्थ भी शामिल हो गए। बर्ताव की तुलना में आचरण और ज्यादा व्यापक है और आचरण की तुलना में व्यवहार का दायरा और भी विशाल है। आचरण और बर्ताव दोनों ही व्यवहार में शामिल हैं मगर व्यवहार में शामिल लेन-देन, व्यापार जैसी अर्थवत्ता इन दोनों शब्दों में नहीं है।

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Friday, March 1, 2013

असली ‘दारासिंह’ कौन?

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मूचे भारतीय उपमहाद्वीप में ‘दारा’ नाम शक्ति का प्रतीक माना जाता है। पश्चिम में पेशावर से लेकर पूर्व में पूर्णिया तक ‘दारा’ नामधारी लोग मिल जाएँगे जैसे हिन्दुओं में दारा के साथ ‘सिंह’ का प्रत्यय जोड़ कर दारासिंह जैसा प्रभावी नाम बना लिया जाता है वहीं मुस्लिमों में ‘खान’ या ‘अली’ जैसे प्रत्ययों के साथ दाराख़ान या दाराअली जैसे नाम बन जाते हैं। कहते हैं यह ख्यात पहलवान, अभिनेता दारासिंह के नाम का प्रभाव है कि ‘दारा’ नाम के साथ ताक़त जुड़ गई। चलिए मान लिया। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाँचवे-छठे दशक में उनके नाम का वो ज़हूरा था कि वे एक चलती-फिरती किंवदंती बन गए थे। उनका नाम मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने लगा और कहावतें तक चल पड़ीं। सवाल यह है कि वो ‘दारा’ कौन था जिससे प्रभावित होकर दारासिंह के पिता ने अपने बेटे का नाम रखा और इस नाम के मायने क्या हैं ?
ब्दों का सफ़र में अक़्सर इतिहास में गोते लगाने की नौबत आ जाती है। इतिहास में ऐसे क़िरदार या प्रतीक मशहूर हो जाते हैं जिनकी खूबियाँ मनुष्य खुद में देखना चाहता है। नतीजतन वे लोग प्रतीक / संज्ञा-नाम में बदल जाते हैं। लोग अपनी संतानों, नायक-नायिकाओं को उन नामों से बुलाने लगते हैं। ऐसा ज्यादातर पुरुषवाची नामों के साथ ही होता है। उदाहरण कई हैं जैसे राम ( रामदयाल, रामकृपाल, रामनरेश, आयाराम, गयाराम आदि), कृष्ण (रामकृष्ण, हरिकृष्ण, रामकिशन आदि), बहादुर (वीरबहादुर, रामबहादुर), सिंह (रामसिंह, वीरसिंह, बहादुरसिंह) आदि कई नाम हैं। इसी कड़ी में दारा का नाम भी आता है जो ईरान के प्रसिद्ध हखामनी वंश के संस्थापक साइरस प्रथम जितना ही महान, वीर और महत्वाकांक्षी नरेश था। इस राजवंश का चौथा शासक था। दरहक़ीक़त हम जिस दारा की बात कर रहे हैं, वह इतिहास में डेरियस प्रथम के नाम से जाना जाता है। फ़ारस के इतिहास में दो साइरस और तीन डेरियस हुए हैं।
यूँ तो तीनों ही डेरियस वीर, लड़ाके थे मगर इतिहास में दारा के नाम से जो डेरियस प्रसिद्ध हो गया वह चौथा हखामनी शासक डेरियस प्रथम ( 521- 486 ) ही था। इतिहास में फ़ारस के हख़ामनी वंश को ही भारत पर चढ़ाई करने वाला पहला विदेशी वंश माना जाता है। इस वंश के संस्थापक साइरस ने 551-530 के बीच अपना साम्राज्य पेशावर से लेकर ग्रीस तक फैला लिया था। डेरियस का पिता विष्तास्पह्य भी हखामनी राजवंश का क्षत्रप था। समझा जाता है कि उसने साइरस के अधीन भी काम किया था। बहरहाल, डेरियस ने साइरस महान की आन, बान और शान को कायम रखा था इसीलिए उसके जीवनकाल में ही उसे भी डेरियस महान कहा जाने लगा था। हखामनी वंश की राजधानी पर्सेपोलिस के शिलालेखों पर ऐसा ही दर्ज है। पुरातत्व पर्यटन के लिए मशहूर पर्सेपोलिस शहर डेरियस की राजधानी हुआ करता था। ऐसा माना जाता है कि यह शहर उसने ही बसाया था। पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ परशियनों का शहर। ध्यान रहे ईरान का पुराना नाम फ़ारस था जिसके मूल में अवेस्ता का पार्श (संस्कृत का पर्शु) शब्द था। पार्श से ही फ़ारस बना। ग्रीक संदर्भों में इसे पर्शिया कहा गया। ग्रीक भाषा के पोलिस प्रत्यय का अर्थ वही होता है जो हिन्दी में पुर या पुरी का होता है। इस तरह पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ पर्शुपुरी अर्थात पारसिकों की राजधानी हुआ।
प्राचीन फ़ारसवासी अग्निपूजक थे। भारत के पारसी उन्हें के वंशज हैं। इस्लाम की आंधी में उजड़ कर वे भारत आ बसे, फ़ारस के पारसी मुसलमान होते चले गए। दारा का मूल दरअसल डेरियस भी नहीं है। पर्सेपोलिस के शिलालेख के मुताबिक उसका शुद्ध पारसिक उच्चारण दारयवौष है। शिलालेख में दर्ज़ कीलाक्षर लिपि वाले मज़मून का रोमन और देवनागरी उच्चार इस तरह है- Dârayavauš दारयवौष xšâyathiya क्षायथिय vazraka वज्रक xšâyathiya क्षायथिय xšâyâthiânâm क्षायथियानाम xšâyathiya क्षायथिय dahyunâm दह्युनाम Vištâspahya विष्तास्पह्य Haxâmanišiya पुश puça हक्ष्मनिषिय hya ह्य imam इमम taçaram तशराम akunauš अकौनष। इसका अर्थ है- “यह प्रासाद हखामनी वंश के विस्ताष्पह्य के पुत्र और महाराज, राजाधिराज, राज्याधिपति दारयवौष के द्वारा बनवाया गया है”। विद्वानों ने इसे पहलवी का प्राचीन रूप बताया है जो अवेस्ता के क़रीब थी। अवेस्ता को संस्कृत की मौसेरी बहन समझा जाता है।
ह समझना आसान है कि अवेस्ता के दारयवौष का ही ग्रीक रूप डेरियस हुआ होगा। ग्रीक इतिहासकार हेरियोडोटस के उल्लेखों से यही रूप प्रचलित हुआ। इसी तरह वर्णसंकोच के साथ दारयवौष का परवर्ती रूप दारा हुआ। दारयवोष के रूपान्तर की दो दिशाएँ रहीं। दारयवौष > दारयवश >दारयस > दारा (फ़ारसी) > डेरियस (ग्रीक) । पश्चिम की ओर यह डेरियस हुआ जबकि पूर्व की ओर इसका रूपान्तर दारा हुआ। दरअसल का दारा रूप ही अब व्यावहारिक तौर पर प्रचलन में है। ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश आदि में दारा कई नामों में मौजूद है जैसे- दाराबख्त, दाराअली, दाराखान, वीरदारा, दारा शुकोह, दाराप्रसाद, दारानाथ, दारासिंह आदि। दारायवौष की पूर्व में दारा के नाम से प्रसिद्धी की बड़ी वजह उसके पंजाब और सिंध अभियानों की कामयाबी रही। वर्तमान पाकिस्तान का पेशावर प्रान्त दारा के आधिपत्य में था। पश्चिम में मिस्र, ग्रीस, उत्तर में आमू दरिया और पूर्व में पंजाब-सिंध दारा के साम्राज्य की सीमाएँ थीं। यही उस काल का ज्ञात विश्व भी था।
देखते हैं दारा का, प्रकारान्तर से दारियवौष का अर्थ क्या है, इसका जन्मसूत्र क्या है। आज की फ़ारसी में दारा का दाराब रूप भी मिलता है। भारत-ईरानी भाषाओं के अध्येता क्रिश्चियन बार्थोलोमिए ने (1855-1925) ने दारयवौष को अवेस्ता का शब्द माना है और इसे जरथ्रुस्ती शब्दावली में स्थान दिया है। इसका अर्थ है धारण करने वाला। राज्य को धारण करना, प्रजा को धारण करना, शासन को धारण करना, नायकोचित गुणों को धारण करना और सद्गुणों को धारण करना इसमें निहित है। दारियवौष के मूल में प्रोटो भारोपीय धातु dher है। भाषाविद् जूलियस पकोर्नी इसका रिश्ता वैदिक धातु धर् से जोड़ते हैं। धर् में उठाने, सम्भालने, देखभाल करने, अंगीकार करने जैसे भाव है। धारण करने में ये सारे भाव निहित हैं। धर् से संस्कृत, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के अनेक शब्द बने हैं। पृथ्वी को धारिणी कहा जाता है। धरती में यही धर है। आधार यानी टिकाव, पड़ाव, फाऊंडेशन में भी यही ‘धर’ है जिसमें स्थिरता है। डॉ रामविलास शर्मा ‘धर्’ के एक रूप ‘स्थर’ की कल्पना करते हैं। संस्कृत ‘दारु’, ‘द्रुम’, ‘तरु’, ग्रीक ‘द्रुस’, अंग्रेजी के ‘ट्री’ में दरअसल धर् के रूपान्तर ‘दर्’ और ‘तर्’ हैं । यह भी दिलचस्प है की ‘धर’ में निहित स्थिरतामूलक धारण करने के भाव से ही गतिवाचक धारा शब्द भी बनता है । धारा वह जो धारण करे, अपने साथ ले जाए । धर, धरा के मूल में धृ धातु है । स्थिरता का परम प्रतीक ध्रुव का जन्म भी इसी धृ धातु से हुआ है । दारयवौष् से बने दारा का अर्थ हिन्दी फ़ारसी में सर्वशक्तिमान, भगवान, राजा, पालक आदि है।
स्पष्ट है कि ताक़त, वीरता आदि के पर्याय के रूप में दारा नाम डेरियस अर्थात दारयवौष् से आ रहा है। इसका प्रचार अनेक देशों में हुआ। नायकोचित नामकरण की अभिलाषा में अनेक दारा सामने आए मगर भारत में तो पंजाब के दारासिंह की ख्याति ने डेरियस द ग्रेट को भी पछाड़ दिया।

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