Monday, February 25, 2013

क़िस्सा दक़ियानूस का

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दु नियाभर में प्रचलित मुहावरों-कहावतों में शासकों या प्रभावशाली लोगों का अत्याचारी, सनकी चरित्र भी झलकता है। ऐसे क़िरदारों में रावण, कंस, नीरो या तुग़लक जैसे नाम स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। कुछ नामों के पीछे न तो कहानी नज़र आती है न ही क़िस्सा। ऐसा ही एक नाम है दक़ियानूस जो सिर्फ़ एक संज्ञा भर नहीं बल्कि एक प्रसिद्ध रोमन सम्राट था। आज के तुर्की और प्राचीन अनातोलिया का इफ़ेसस शहर इसके राज्य में शामिल था। अंधविश्वासी या पुरानी सोच वाले व्यक्ति को दक़ियानूस कहते हैं। बोलचाल की हिन्दी में यह शब्द खूब प्रचलित है। इसी तरह दकियानूसी शब्द के तहत पुरानी सोच वाला, रूढ़ीवादी और अधिक उम्र वाला, कोई बेकार, पुरानी और मनहूस चीज़ या पुरातनपंथी विचारधारा आती है। मसलन दक़ियानूसी लोग, दक़ियानूसी बातें, दक़ियानूसी चीज़े। अरबी-फ़ारसी में दक़ियानूस शब्द का सही रूप दक़्यानूस है।
हिन्दी-फ़ारसी के कोशों में अव्वल तो दक़ियानूस के संदर्भ में ज्यादा जानकारियाँ नहीं मिलतीं। कुछ कोशों में तो इसका संदर्भ बतौर रोमन शासक भी नहीं मिलता और कहीं पर उसके अत्याचारी सम्राट होने जितनी ही संक्षिप्त जानकारी मिलती है। ग्रीक संदर्भों में दकियानूस का उल्लेख बतौर देसियस मिलता है। पश्चिम एशिया के समाज-संस्कृति पर यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों धर्मों की गहरी छाप पड़ी है। ईसाइयत पर यहूदी धर्म का असर और इस्लाम पर अपने पूर्ववर्ती यहूदी और ईसाई चिन्तन का असर नज़र आता है। बाईबल के गोस्पेल और कुरान के सूरों (सुरह) की अनेक कथाओं में समानता से यह साबित भी होता है। बाइबल और कुरान दोनों में ही थोड़ी बहुत भिन्नता के साथ देसियस या दक़्यानूस के बारे में लगभग एक जैसी ही कहानी है।
सा के जन्म के वक़्त पश्चिम एशिया और समूचे यूरोप में मूर्तिपूजा का ही बोलबाला था। ईसा के बाद भी रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा का चलन था। किन्हीं संदर्भों में इतिहास प्रसिद्ध इस निरंकुश सम्राट को 359 ईपू. का बताया गया है मगर यह भ्रामक है। दक्यानूस यानी देसियस का काल ईसा के क़रीब ढाई सदी बाद का है। रोमन साम्राज्य में शासकों की मूर्तिपूजा सम्बन्धी सनक, अत्याचार और उत्पीड़न का इतिहास ईसा के सूली पर चढ़ने के बाद सातवीं आठवीं सदी तक भी जारी रहा रहा। देसियस या दक़्यानूस का रिश्ता अनातोलिया से जोड़ा जाता है और माना जाता है कि तुर्की के प्रसिद्ध तारसस और इफ़ेसस शहरों पर उसका शासन था। ईसाई धर्म के महान प्रचारक सेंट पॉल का जन्म तारसस में ही हुआ था। माना जाता है कि कि तारसस का नाम तार्कु के आधार पर पड़ा है जो हित्ती भाषा का शब्द है। इस इलाके में बसने वाले आदिजन हिट्टाइट ही थे। तार्कु एक देवता था जिसकी पूजा हित्तीजन करते थे। वैसे अधिकांश संदर्भो में इफ़ेसस से इसका सम्बन्ध जोड़ा जाता है। यह वही इफ़ेसस है जहाँ का आर्टेमिस का मंदिर सात अजूबों में गिना जाता है। अरब-फ़ारसी संदर्भों में इफ़ेसस को अफ़सूस कहा जाता है।
देसियस मूर्तिपूजा में विश्वास रखता था। उसका शासन बड़ा सख़्त और पूजा-विधान के आधार पर चलता था। कहने की ज़रूरत नहीं कि ईसाइयत के बढ़ते प्रभाव की वजह से रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा के लिए आग्रह ज्यादा बढ़ा-चढ़ा था। देसियस का नज़रिया इस सिलसिले में ज्यादा सख़्त था। पूरे राज्य में उसके जासूस फैले हुए थे जो राई-रत्ती की खबरें देते थे। मूर्तिपूजा के विरोधियों को देसियस बर्दाश्त नहीं करता था। ईश्वर एक है और अदेखा है जैसी बातों पर यक़ीन करने वालों को वह आनन-फ़ानन में सज़ाए मौत सुना देता था जिसके तहत दोषियों को ज़िंदा जलाने, ज़मीन में गाड़ देने, हाथ-पैर काट कर पशुओं का ग्रास बनाने जैसे अमानवीय तरीके  शामिल थे। बहरहाल, बाइबल में वर्णित कथा के अनुसार इफ़ेसस के सात युवा लोगों ने शहर की देवी के मंदिर में सिर झुकाने से इनकार कर दिया। किन्हीं संदर्भों में यह घटना 156ईस्वी की भी बताई गई है। देसियस के कोप से बचने के लिए उन्होंने शहर के बाहर पहाड़ी गुफा में शरण ली। थके हारे सातों लोग गुफ़ा में जाते ही नींद के आग़ोश में चले गए। उधर देसियस को जब ख़बर लगी तो उसने गुफ़ा का दरवाज़ा चट्टानों से बंद करवा दिया ताकि वे अंदर ही मर-खप जाएँ। गोस्पेल के मुताबिक ये लोग दो सदियों तक सोते रहे। इसके आगे क्या हुआ ये जानने से पहले इस कहानी के इस्लामी संस्करण का जायज़ा लिया जाए।
गोस्पेल की तरह कुरान के अध्यायों को सूरा (सुरह) कहा जाता है। गुफ़ा में सोए लोगों की कहानी कुरान के सूरह-कह्फ़ (18वाँ अध्याय) में आती है। कहानी के मुताबिक अफ़सूस शहर (ग्रीक इफ़ेसस) में सात लोगों का एक समूह था जो ईसाइयत में भरोसा रखते थे। दक्यानूस के कहर से बचने के लिए उन्होंने गुफ़ा में शरण ली, जिसका दरवाज़ा उसके ही हुक्म से बंद करा दिया गया। इस्लामी संदर्भों में इन सात लोगों को अस्हाबे-कह्फ़ कहा गया है। अस्हब का अर्थ होता है पैग़म्बर के कृपापात्र, मोहम्मद के दोस्त। मूलतः अस्हब, साहिब का बहुवचन है जिसका अर्थ है साहिबान, मान्यवर आदि। इसी तरह कह्फ़ का अर्थ होता है गुफ़ा, कंदरा, गार आदि। कह्फ़ अरबी का शब्द है लेकिन, गुहा, गुफा, कोह, खोह जैसे इंडो-ईरानी परिवार के शब्दों से इसकी साम्यता गौरतलब है।
गोस्पेल के मुताबिक क़रीब दो सौ साल ये लोग सोते रहे जबकि सूरह् के मुताबिक इनकी नींद 309 साल बाद टूटी। जो भी हो, नींद टूटने पर इनमें से कुछ लोग भोजन की तलाश में पास की बस्ती तक पहुँचे। उन्होंने कुछ रोटियाँ खरीदी। जब नानबाई को इन्होंने कुछ सिक्के दिए तो वह हैरत में पड़ गया। सिक्के उसके लिए अनजाने थे। धीरे-धीरे ये बात पूरे बाज़ार में फैल गई कि कुछ अनोखे लोग वहाँ आए हैं। जानकारों ने देख-परख कर पहचाना कि इन सिक्कों पर दक़्यानूस नाम के राजा की तस्वीर छपी है जो क़रीब तीन सदी पहले हुआ था और बेहद ज़ालिम था। नींद से जागने वालों के लिए अब हैरत में पड़ने की बारी थी। उन्होंने बताया कि बेशक दक़्यानूस ज़ुल्मी है और उससे बचने के लिए ही तो वे कल शहर छोड़ कर भागे थे। वो तो झपकी लग गई और वे नींद में ग़ाफ़िल हो गए। तीन सदी लम्बी नींद उनके लिए ही नहीं, सबके लिए बड़ी ख़बर थी। फिर यह हुआ कि वे सातों लोग वहीं रहने लगे। उनकी यही चाहत थी कि जिस काल की गुफा में सदियों तक सोते हुए उन्हें ईश्वरीय अनुभूति हुई है, उनकी उम्र पूरी होने के बाद वे हमेशा के लिए भी उसी गुफा में सोएँ। शहरवासियों ने उनकी यह इच्छा भी पूरी की। बाद के दौर में आम लोगों में भी यह धारणा बनी कि उस गुफा में दफ़नाए जाने पर उन्हें मोक्ष मिलेगा।  पुरातत्ववेत्ताओं को एशिया व यूरोप में तुर्की, जॉर्डन से लेकर चीन के उईगुर प्रान्त तक में ऐसी गुफाएँ मिली हैं जिन्हें स्थानीय लोग अस्हाबे-कह्फ कहते हैं। इन सभी स्थानों पर कब्रें हैं। 
क़िस्सा-कोताह यह कि इस्लाम और ईसाई दोनों ही धर्मों में इस कहानी का प्रयोग अपने अपने पैग़म्बर की महानता स्थापित करने में किया। लोगों को यह पता चला कि कुल मिला कर एकेश्वरवाद ही सही रास्ता है। ईश्वर एक है और उन्होंने ही ज़ालिम के कहर से बचाने के लिए अपने सात नेक बंदों को सदियों तक सुलाए रखा। कहानी जो भी कहती हो, धर्मों की बात धर्मोपदेशक जानें, शब्दों के सफ़र में हमें तो दक़ियानूस लफ़्ज का सफ़र जानना था, जो जान लिया। अल्लाह के उन सात नेक बंदों का नाम आज कोई नहीं जानता। हाँ, जुल्मी दक़ियानूस को हम क़रीब क़रीब रोज़ ही याद कर लेते हैं।

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Thursday, February 14, 2013

अगर, मगर, वरना, लेकिन…

question

ल्पना करें कि किसी सुबह आपको ये फ़रमान सुनने को मिले कि दिनभर आप जो भी बोलेंगे, उसमें ‘अगर’, ‘मगर’, ‘वरना’ या ‘लेकिन’ का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो क्या इसे मंजूर कर लेंगे? व्यक्तिगत रूप से मैं इस चुनौती को स्वीकार नहीं कर पाऊंगा। यह नामुमकिन है। ये जानकर भी ताज्जुब हो सकता है कि ‘अगर’, ‘मगर’, ‘लेकिन’ या ‘वरना’ हिन्दी के अपने नहीं बल्कि फ़ारसी से आयातित अव्यय हैं। यही नहीं, ‘मगर’ तो फ़ारसी-अरबी का संकर है। इन शब्दों के आसान हिन्दी पर्याय यदि, किन्तु, परन्तु, अन्यथा हैं पर इनका प्रयोग अगर’, ‘मगर’ या ‘वरना’ की तुलना में काफ़ी कम है। आप जब ये चुनौती स्वीकार करेंगे, तब इसकी आज़माइश भी हो जाएगी।
बसे पहले बात करते हैं ‘अगर’ की। बोलचाल में अगर बेहद लोकप्रिय अव्यय है इसका पर्याय यदि है जो हिन्दी की तत्सम शब्दावली से आता है। ‘अगर’ की व्युत्पत्ति के बारे में उर्दू-फ़ारसी के शब्दकोश ज्यादा जानकारी नहीं देते हैं। अली नूराई के फ़ारसी-अंग्रेजी व भारोपीय भाषाओं के व्युत्पत्ति कोश में ईरान के भाषाविद् एम.एच. तबरिज़ी और जर्मन भाषाविद पॉल होर्न के हवाले से ‘अगर’ की व्युत्पत्ति का रिश्ता अवेस्ता के ‘हाकरत’ से जुड़ता नज़र आता है। गहराई में जाने पर पता चलता है कि ‘हाकरत’ का ‘हा’ अवेस्ता के ‘हम’ (सर्व) और ‘करत’ ‘कर्त’ [काट(ना), धार(ना)] से आ रहा है। जोसेफ़ एच पीटरसन की “डिक्शनरी ऑफ़ मोस्ट कॉमन अवेस्ता वर्ड्स” के मुताबिक इसमें एक बार या कभी-कभी का भाव है।
हरहाल, जॉन प्लैट्स के कोश के मुताबिक ‘यदि’ के अर्थ वाले अगर में अरबी का ‘मा’ उपसर्ग (मा+अगर) लगने से मगर बनता है। अरबी के ‘मा’ उपसर्ग में ‘ना’ की अर्थवत्ता है। इस मगर में लेकिन, किन्तु, परन्त की अर्थवत्ता है। फ़ारसी का मुहावरा “अगर-मगर” करना हिन्दी में भी लोकप्रिय है। इसी तरह “किन्तु-परन्तु” में भी वही भाव है। हील-हवाला, टालमटोल, आनाकानी या मामले को लटकाने का आशय यहाँ उभरता है। अगर और मगर में जड़ता, यथास्थितिवादिता उजागर होती है।नूराई के कोश की एक अन्य प्रविष्टि में ‘अगर’ का अर्थ ‘IF’ यानी ‘यदि’ या ‘अगर’ बताया गया है किन्तु उसके आगे ‘cut once’ भी लिखा है।अवेस्ता में ‘अक’ (ak) भी है जिसमें अक्ष, धुरी का भाव है। ‘कभी कभी’ के मद्देनज़र यदि पर गौर करे तो लगता है कि यदि में निश्चयात्मकता नहीं है। परिस्थिति प्रमुख है। अक्ष के एक पलड़े पर ‘अगर’ है और दूसरे पर ‘मगर’ है। ‘अक’ या ‘हकरत’ में ही ‘अगर’ के बीज छुपे हैं। ‘ह’ ध्वनि का लोप होकर सिर्फ़ ‘अ’ स्वर बच रहा है और ‘क’ रूपान्तर ‘ग’ में हो रहा है। अन्तिम ‘त’ भी लुप्त हो रहा है।
न्यथा की अर्थवत्ता वाला ‘वरना’ भी हिन्दी में खूब चलता है। ‘वरना’ में ‘नहीं तो फिर’ या ‘और नहीं तो’ की अर्थवत्ता है। उर्दू-फ़ारसी में इसका ‘वगरना’ रूप देखने को मिलता है। क़तील शिफ़ाई साहब का एक शेर है- “चलो अच्छा हुआ, काम आ गई दीवानगी अपनी / वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते”। वरना के बीच में इस ‘ग’ के वजूद के क्या मायने हैं? दरअसल ‘वरना’ के मूल में भी ‘अगर’ छिपा है। जॉन प्लैट्स के कोश के मुताबिक वरना एक वाक्याँश है “वा अगर ना”। इसका संक्षेप हुआ वगरना। उर्दू हिन्दी में यह ‘वरना’ रह गया। इसकी एक और वर्तनी है वर्ना जिसमें सिर्फ़ ढाई आखर रह जाते हैं “वा अगर ना” में जो ‘वा’ है वह अवेस्ता के अप से आ रहा है जिसमें पुनः, फिर, पार्श्व, परे, दूर जैसे भाव हैं। अगर का एक अन्य संक्षेपरूप है ‘गर’। “गर ऐसा हो जाए”, “गर वैसा हो जाए” जैसे वाक्य भी हिन्दी में चलते हैं। “वा अगर ना” का एक रूप “वा गर ना” भी हो सकता है जिससे ‘वगरना बना होगा।गर्चे या अगर्चे जैसे रूपों में ‘यद्यपि’ का भाव है।
हिन्दी में किन्तु, परन्तु के आशय वाला ‘लेकिन’ शब्द भी खूब चलता है यूँ कहें कि ‘लेकिन’ के बिना तो काम चलना ही मुश्किल है। कोशों के मुतबिक लेकिन शब्द अरबी के ‘लाकिन’ से आ रहा है जिसका अर्थ यदि, किन्तु, परन्तु जैसा ही है । सेमिटिक भाषाओं के ख्यात विशेषज्ञ मायर मोशे ब्रॉमन (1909-1977) अपनी पुस्तक स्टडीज़ इन सेमिटिक फ़िलोलॉजी में सम्भावना जताते हैं कि लाकिन के मूल में प्रोटो अरेबिक रूप ‘इल्ला-कान’ है । इल्ला दरअसल ‘ला’ का मूल रूप है जिसमें यदि, सिवाय, परन्तु जैसे भाव हैं । ‘कान’ सहायक क्रिया है । इस तरह इल्ला-कान का रूपान्तर ही लाकिन हुआ जो फ़ारसी (लाकेन) होते हुए हिन्दी का ‘लेकिन’ बना ।

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Saturday, February 9, 2013

होशियारी की बातें

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हि न्दी के प्रचलित शब्द भंडार में होशियार, होशियारी जैसे शब्द भी हैं जिसका इस्तेमाल रोज़मर्रा की भाषा में खूब होता है । होशियार शब्द दरअसल फ़ारसी मूल से भारतीय भाषाओं में दाख़िल हुआ है जिसका प्रयोग बतौर विशेषण सजग और बुद्धिमान के अर्थ में किया जाता है । चतुर, निपुण, कुशल, सावधान, समझदार और दक्ष की व्यंजना भी इसमें निहित है । होशियारी एक संज्ञा है और इसकी अर्थवत्ता में होशियार के सभी गुण शामिल हैं । हिन्दी में होशियार के होश्यार, हुशियार, होश्यार, हुस्यार, होशयार जैसे रूप प्रचलित हैं । मराठी में इसे हुशार कहा जाता है ।
होशियार या होशियारी के मूल में फ़ारसी का होश है जो इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । जोसेफ़ एच पीटरसन की डिक्शनरी ऑफ़ मोस्ट कॉमन अवेस्ता वर्ड्स में उषी शब्द है । जॉन प्लैट्स के कोश में इसका पहलवी रूप हुश या होश है जबकि डी.एन.मैकेन्जी की पहलवी डिक्शनरी के मुताबिक अवेस्ता उशी का पहलवी रूप ओश होता है जिसका एक अर्थ है ज्ञान, बोध, दूसरा अर्थ है मृत्यु और तीसरा अर्थ है उदय, प्रभात, सवेरा आदि । भाषाविज्ञानी एकमत है कि उशी, ओश जैसे शब्द वैदिक भाषा के उषः, उषा जैसे शब्दों के समरूप हैं जिसमें प्रभात, उदय या सवेरा का भाव है । वैदिक उष् धातु में ताप, तपाना जैसे भाव भी हैं । पहलवी ओश में पूर्व दिशा का भाव भी है । सूर्योदय के साथ ही ताप का एक नाम उष्मा भी है । उष्मा के मूल में भी यही उष् है । उष्मा से प्रकाश निकलता है । प्रकृति में उष्मा और प्रकाश का आदिप्रतीक सूर्य ही है जो पूर्व दिशा से उगता है । यही सारे संकेत वैदिक उष और पहलवी ओश में हैं ।
फ़ारसी में आकर ओश का रूपान्तर होश होता है और इसमें ज्ञान, बोध जैसे भाव स्थायी हो जाते हैं तथा सूर्योदय, प्रभात जैसे भाव इसमें से विलीन हो जाते हैं । पहलवी में सतर्क, जागरुक, सचेत के लिए ओशयार (osyar) शब्द है । इसका अगला रूप फ़ारसी का होशयार है । हिन्दी-उर्दू में यह होशियार बनता है । मुहम्मद मुस्तफ़ा खां मद्दाह के कोश में होश का अर्थ बुद्धि, समझ, अक़्ल, चेतना, संज्ञा, ख़बरदारी, विवेक, तमीज़ और नशे में उतार की अवस्था जैसे अर्थ बताए गए हैं । होशयार शब्द में जो यार है वह भी इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । यार शब्द का अर्थ है मित्र, दोस्त, बंधु, सखा, साथी आदि। यार शब्द की अर्थवत्ता में प्रेमी, आशिक , माशूक भी समाए हैं। इसके अलावा यह शब्द मददगार, सहायक का भाव भी रखता है। जॉन प्लैट्स के उर्दू इंग्लिश हिन्दुस्तानी कोश के मुताबिक यार शब्द की संभावित व्युत्पत्ति जारः से बताई गई है। संस्कृत के जारः शब्द में मूलतः प्रेमी, आशिक, उपपति का भाव है। किसी स्त्री के आशिक के अर्थ में जारः शब्द की अर्थवत्ता फारसी के यार में भी कायम है । यार शब्द बाद में सामान्य मित्र के अर्थ में समाज में रूढ़ हुआ । फ़ारसी का बे उपसर्ग लग कर बेहोश शब्द बनता है जिसका अर्थ है जिसमें चेतना न हो, अचेत ।
होशयार का अर्थ है जिसकी अक्ल से दोस्ती हो । अक़्ल का दुश्मन मुहावरा भी हिन्दी में प्रचलित है । ऐसे व्यक्ति के लिए उर्दू में होशबाख़्त शब्द है । इसके अलावा होशमंद, होशमंदी जैसे शब्द भी प्रचलित हैं । होशरुबा शब्द का अर्थ है चेतना हर लेने वाला, होश उड़ा देने वाला । हिन्दी में होशो-हवास पद भी खूब प्रचलित है । यह संकर पद है अर्थात होश फ़ारसी से आया है और हवास अरबी से । हवास शब्द अरबी धातु हा-सीन-सीन से बना है (ح س س ) जिसमें स्पर्श, संवेदना या समझ का भाव है । इससे बने हास्सः का अर्थ होता है इन्द्रियाँ जो स्पर्श, संवेदना की वाहक हैं । हास्सः का बहुवचन है हवास । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक इसका अर्थ है इन्द्रियाँ, संवेदना, चेतना, संज्ञा, होश आदि । ज़ाहिर है होश-हवास में वही भाव है जो हिन्दी के सुध-बुध में है । सुधि और बोध दोनो जहाँ स्थित हो वही होश-हवास की स्थिति है ।
होश से जुड़े अनेक मुहावरे व कहावतें हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे होश उड़ना, होश गुम होना या होश फ़ाख़्ता होना । इन सभी में भय, आशंका, चिन्ता या फ़िक़्र से सुध-बुध खोने या डर जाने की अभिव्यक्ति होती है । होश आना यानी ग़लती सुधार लेना, समझदार हो जाना आदि । होश दंग होना यानी चकित रह जाना । होश ठिकाने आना अर्थात सबक मिलना, बुद्धि जाग्रत होना, अधीरता या व्याकुलता मिटना, होश की दवा करना यानी अक्ल हासिल करना, समझदारी पाना आदि ।

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Monday, February 4, 2013

“हिन्दी सराय” से गुज़रते हुए

स बार पेश है डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल की ताज़ा पुस्तक "हिन्दी सरायः अस्त्राखान वाया येरेवान" की चर्चा । पुस्तक सोलहवीं-सत्रहवी सदी के उन भारतीय व्यापारियों की जड़ों की तलाश के बहाने से समूची भारतीय / हिन्दू संस्कृति की वैश्विक धरातल पर विद्वत्तापूर्ण पड़ताल करती है जो भारत से रूस के अस्त्राखान जा बसे थे।
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क़रीब दो साल पहले की बात है । अगस्त महिने की 21-22 तारीख़ की दरमियानी रात डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल को फ़ैसबुक पर मैसेज किया कि 11 सितम्बर 2011 को मै दिल्ली पहुँच रहा हूँ, क्या मुलाक़ात मुमकिन है ? 22 अगस्त की खुशनुमा सुबह । सात बजे डॉक्टसाब के फोन से ही नींद खुली । पता चला कि वे तो उन दिनों दिल्ली से बहुत दूर येरेवान-अस्त्राख़ान में होंगे ।
paggBपुरुषोत्तम अग्रवाल भारतीय इतिहास, साहित्य और संस्कृति के गंभीर अध्येता हैं । जेएनयूँ में सत्रह बरस पढ़ाने के बाद इन दिनों संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य हैं।
मध्यएशिया के इन दो शहरों का नाम सुनते ही रोमांचित हो उठा । पुलक के साथ डॉक्टसाब से अनुरोध किया कि वे यात्रावृतान्त ज़रूर लिखें और तस्वीरें भी लें । डॉक्टसाब ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में कहा था-“ कोशिश पूरी होगी बंधु, अगर सब कुछ ठीक रहा तो क्योंकि वक़्त बहुत कम है ।” सात-आठ दिन का दौरा कर डॉक्टसाब लौट आए पर उनकी यात्रा तब तक अधूरी रहनी थी जब तक उनकी खोज-यात्रा के अनुभव जिल्द में बंध नहीं जाते । खुशी की बात है कि क़रीब एक साल के भीतर डॉक्टसाब ने येरेवान-अस्त्राख़ान यात्रा-वृत्तान्त पूरा कर लिया और बीते नवम्बर माह में उसका धूमधाम से लोकार्पण भी हो गया । हिन्दी जगत में आज इस क़िताब की खूब चर्चा है । ये सिर्फ़ यात्रावृत्तान्त नहीं बल्कि सांस्कृतिक अध्ययन है । एक संस्कृतिकर्मी के द्वारा वोल्गा और गंगा के बीच की दूरी को पाटने वाले उन पदचिह्नों की तलाश का आख्यान है जो सदियों से इस विशाल भूक्षेत्र में उभरते रहे ।
ब्दों का सफ़र करते हुए अपन बरसों से भूमध्य सागर समेत एशिया के मध्य, पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों का मानचित्र पर्यटन करते रहे हैं । हिन्दी-उर्दू समेत इस मुल्क़ की तमाम बोलियों में पूरा संसार नुमांया होता है । मग़रिब में छुपा मोरक्कों, ब्रुनेई में छुपा वरुण अगर सामान्यतौर पर नज़र नहीं आता तो यह भी कहाँ पता चलता है कि खजानेवाला कारूँ तुर्की का सनकी क्रोशस था और जिस शाबाशी की थपकी पीठ पर महसूस होती है उस शाबाश का रिश्ता फ़ारस की खाड़ी में स्थित बंदरअब्बास के संस्थापक शाहअब्बास से भी हो सकता है । शब्दों का सफ़र करते हुए ही इन तमाम इलाक़ों से परिचय होता गया ।  बृहत्तर भारतीयता का सांस्कृतिक परागण पूरी दुनिया में सदियों से होता रहा है । चाहे पूर्व में कम्बोडिया जैसा देश हो जहाँ अवध के अयोध्या की छाया अयुथाया में नज़र आती है या फिर सुदूर पश्चिमोत्तर का पेशावर हो जिसका नाम कनिष्क के ज़माने में पुरुषपुर था । बहरहाल, डॉक्टसाब ने अपनी किताब का नाम प्रतीकात्मक रखा है- हिन्दी सरायः अस्त्राखान वाया येरेवान । हिन्दी में एक तो वैसे ही सफ़रनामे कम लिखे जाते हैं । ऐसा नहीं कि हिन्दी वाले यात्रा नहीं करते मगर उस दृष्टि का क्या कीजे जो एक सच्चे लेखक के मन में होती है । लेखक अपने दौर का कालयात्री होता है । उसकी लिखी एक एक इबारत अपने समय की सच्चाई होती है । अपनी कल्पना से वह ऐसे अनेक पुलों का सृजन करता है जिससे समाज को विभिन्न समयावधियों के बीच से गुज़रने का मौका सुलभ होता है ।
स्त्राख़ान की जो यात्रा वाया येरेवान दिल्ली से शुरू हुई उसका बीज तो लेखक की चर्चित कृति “अकथ कहानी प्रेम की” की सृजनयात्रा के दौरान ही पड़ गया था । इसका ज़िक़्र लेखक ने अनेक स्थानों पर किया भी है । अस्त्राख़ान से अपना परिचय भी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान पर भोलानाथ तिवारी के विद्वत्तापूर्ण लेखन के ज़रिये हुआ था । उन्होंने हिन्दी में समाए विदेशज मूल के अनेक शब्दों की पड़ताल की थी इसके लिए उन्होंने मध्यएशिया के अनेक देशों की यात्रा भी की । डॉ अग्रवाल की यह यात्रा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है । सदियों पहले दक्षिणी रूस में वोल्गा के मुहाने पर बसा अस्त्राखान मध्यएशिया का बड़ा व्यापारिक केन्द्र था । हिन्दुस्तान के सिंध, मारवाड़ और पंजाब से कई व्यापारी वहाँ जाकर बसते रहे थे जो मूलतः वैष्णवपंथी थे । ऐसे समाज में जहाँ व्यापार के लिए सात समंदर पार करना निषिद्ध हो, ये कौन वैष्णव व्यापारी थे जिन्होंने सुदूर रूस के अस्त्राखान शहर को अपने पुरुषार्थ और व्यवसाय बुद्धि का अखाड़ा बनाने की सोची ? लेखक ने इस संदर्भ में विद्वत्तापूर्वक स्थापित किया है कि दूर-देशों की यात्रा करना भारतीयों का स्वभाव रहा है । पश्चिम की ओर जो व्यापारी जत्थे गए दरअसल वे रामानुज सम्प्रदाय से अलग हुए रामानंदी वैष्णव थे जिन्होंने रूढ़ धार्मिक मान्यताओँ के आगे अपने पुरुषार्थ और आस्था का ऐसा सन्तुलन बनाया जिसने भारत-रूस व्यापार का एक नया रास्ता खोल दिया ।
स्त्राख़ान बरास्ता येरेवान यह सफ़र लेखक के लिए एक तीर्थयात्रा जैसा था । पुरखों की खोज में की गई एक यात्रा जिसका मक़सद था अपनी जड़ों की तलाश । प्राचीनकाल से ही समूची दुनिया में जितने भी फेरबदल, उथल-पुथल और सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव आए हैं उनमें कारोबारी गतिविधियों की भूमिका ख़ास रही है । सौदागरों के ज़रिये ही न सिर्फ जिन्सों और माल-असबाब का कारोबार हुआ बल्कि उससे कई गुना ज्यादा और स्थायी व्यापार हुआ शब्दों, भाषाओं हिन्दी सरायऔर रिवायतों का । सदियों पहले भारत से अस्त्राखान जा बसे व्यापारी समुदाय के बारे में इतिहासकारों की दिलचस्पी कभी क्यों नहीं जागी, लेखक को यह सवाल लगातार मथता रहता है । इसके कारणों का चिन्तन-पक्ष भी बड़ी प्रमुखता से किताब में उभर कर आया है । तथ्यों को दर्ज़ करने की हमारी उदासीनता एक तरह से भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है । हमें अपने अतीत के गौरवगान में इतना आनंद आता है कि क्या कहें । शायद इसीलिए हम वास्तविक तथ्यों को अगली पीढ़ियों के लिए संजो कर, उनका दस्तावेजीकरण करने में कोताह हैं । सुविधानुसार अपने सुनहरे अतीत के पन्नों को जब चाहें और चमकीला बना कर नयी पीढ़ी के सामने रख देते हैं । अतीत के विवरणों को दर्ज़ न करने की भारतीयों की विशिष्ट प्रवृत्ति के बारे में ‘हिन्दी सराय’ में डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं, “...किसी घटना या अनुभव को ...लिखित दस्तावेज का रूप देने में हिन्दुओं की रुचि क्यों नहीं थी ? क्या इसलिए कि हिन्दू चित्त को, किसी सामाजिक अनुभव की स्मृति से जो सीखने योग्य है, उसे मौखिक परम्परा के जरिये अगली पीढ़ी के संस्कारों तक पहुँचा देना ज्यादा सुहाता था ...”
डॉक्टसाब की बात में काफ़ी हद तक सच्चाई है । अस्त्राख़ान के सैकड़ों गुमनाम भारतीय व्यापारियों के बारे में उनकी गहन पड़ताल के सारथी बने मास्कों में रहने वाले हिन्दी कवि अनिल जनविजय, जिन्होंने लेखक के लिए अस्त्राखान के अभिलेखागार में रूसी भाषा में दर्ज़ अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेजों का हिन्दी अनुवाद कर बेशक़ीमती मदद की । डॉक्टसाब ने किताब में अनेक स्थानों पर इस यात्रा में अनिलजी की महती भूमिका को याद किया है । अस्त्राखान के भारतीय व्यापारियों की खोज यात्रा के सम्बन्ध में मैं ज्यादा नहीं कहना चाहूँगा क्योंकि उनके बारे में जो भी जानकारियाँ हैं वे पहले ही बहुत कम हैं । डॉक्टसाब ने हर उपलब्ध जानकारी का बेहद रचनात्मक प्रयोग कर लिया है इसलिए चाहूँगा कि सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के इन व्यापारियों चाहे वो मशहूर मारवाड़ी बारायेव हो या टेकचंद लालायेव अथवा बगारी आलमचंदोफ़, इनके बारे में जानने के लिए आपको क़िताब खऱीद कर पढ़नी होगी । अगर अपने इस बयान-हाल में उनके बारे में ज़रा सा भी लिखा तो पढ़ने का मज़ा जाता रहेगा । यहाँ मैं क़िताब की दूसरी खूबियों के बारे में भी कुछ कहना चाहूँगा । भूमिका ने डॉक्टसाब ने इस किताब को ट्रैवेलॉग के साथ थॉटलॉग की संज्ञा भी दी है । व्यक्तिगत तौर पर मुझे ‘हिन्दी सराय’ के ट्रैवेलॉग वाले स्वरूप से थॉटलॉग वाले रूप ने ज्यादा मुतासिर किया । किताब के पहले सर्ग यानी बयान येरेवान में उन्होंने आर्मीनिया के लाड़ले कवि चॉरेन्त्स के बहाने आर्मीनिया के सामाजिक, सास्कृतिक और राजनीतिक इतिहास पर जो कुछ भी लिखा है वो बेहद दिलचस्प तब्सरा है । पाठक को बांध कर रखने वाला साथ ही ज्ञानवर्धक । कमाल ये कि चॉरेन्त्स के बारे में पढ़ते हुए लगता नहीं कि यह क़िस्सा रूसी क्रान्ति के महान नायकों में एक त्रात्स्की, उनके मैक्सिको निर्वासन और वहाँ उनकी हत्या तक जाएगा । रूस ही क्यों, समूचे पूर्वी यूरोप में अपने समाज नायकों से प्रेम करना एक तरह से सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है । ख़ास तौर पर कलाजीवियों के लिए उस समाज में सैकड़ों साल पहले ही कुलीन-समझ विकसित हो चुकी थी । येरेवान की माश्तोज स्ट्रीट पर वे आर्मीनियाई लेखक विलियम सारोयान की प्रतिमा देखते हुए याद करते हैं “दिल्ली में प्रेमचंद के नाम पर कोई सड़क नहीं है ।”
किताब का चिन्तन पक्ष इतना ताक़तवर है कि एक बार में इस क़िताब को सिर्फ़ फ्लैप पर दी गई तहरीर के मद्देनज़र ही पढ़ा जा सकता है, वरना इसे बार बार पढ़ना होगा । किसी ट्रैवेलॉग में सन्दर्भ ग्रन्थ की सिफ़त होनी चाहिए, मगर जैसा कि भारतीय लेखकों का स्वभाव है, उनके सफ़रनामे अक़्सर दिनांक-वृत्त या डायरी बन कर रह जाते हैं । येरेवान प्रसंग में ही डॉक्टसाब ने जरथुस्त्रवादी विचारधारा यानी शुभाशुभ संघर्ष, बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट के प्रसंग, इस्लामी कट्टरवाद, प्रसाद का आनंदवाद बनाम दुखवाद, ऋग्वैदिक सोच और एकेश्वरवाद बनाम बहुदेववाद आदि मुद्दों पर पृष्ठ 33 से 43 के बीच इतने दिलचस्प विमर्श का मुज़ाहिरा किया है कि कुछ कहा नहीं जा सकता । मेरी निग़ाह में ये सफ़हे किताब का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं । बेहद कठिन चीज़ों को उन्होंने इतनी आसानी से समझा दिया है कि मैं सिर्फ उनके प्रति आभार जता सकता हूँ । किताब में किन्हीं स्थानों और वस्तुओं की व्युत्पत्तियों की चर्चा भी डॉक्टसाब करते रहे हैं । हाँ, भारतीय व्यापारियों की जारज संतानों के अगरिजान नाम नें मुझे काफ़ी परेशान किया है । इसके पीछे पड़ा हूँ । इस बात पर दृढ़ हूँ कि इस शब्द का संदर्भ भारतीय भाषाओं से नहीं है । अस्त्राखानी तातारों के बीच या वहाँ के रूसियों के बीच अगरिजान नाम हिकारत भरा सम्बोधन था, ऐसा लगता है । अग्निपुत्र जैसी व्यंजना इसमें तलाशना उचित नहीं लगता । इस पर विस्तार से लिखने की इच्छा है । काम चल रहा है । इंडो-यूरोपीय या तुर्किक-तातारी धरातल में इस शब्द के बीज दबे हुए हैं, फ़िलहाल यही मान कर चल रहा हूँ ।
लते चलते यही कि ये सिर्फ़ पुस्तक चर्चा है । इसमें आलोचना या समीक्षा के तत्व न तलाशे जाएँ । इसके प्रारूप में कई खामियाँ होंगी । यूँ ही, जो मन में आया, ईमानदारी से लिख दिया । समाज-संस्कृति में रुचि रखने वाले हिन्दी पाठकों के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है । इसे ख़रीदने की सलाह दूँगा । प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या –131, मूल्य-395 (हार्डकवर)

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