tag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post8216302123261815184..comments2024-01-18T18:37:01.064+05:30Comments on शब्दों का सफर: हिन्दी का संस्कृतीकरण-2अजित वडनेरकरhttp://www.blogger.com/profile/11364804684091635102noreply@blogger.comBlogger15125tag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-15902656190286533962010-05-27T11:04:37.817+05:302010-05-27T11:04:37.817+05:30राम विलास शर्माजी के हिंदी भाषा के शुभ चिंतक होने...राम विलास शर्माजी के हिंदी भाषा के शुभ चिंतक होने में कोई शक नही, अन्यथा न लेकर, उनकी बातें ; जो कि आज भी संदर्भित है, पर मनन कर हम हिंदी भाषा को समृद्ध करने का 'विवेकपूर्ण' प्रयत्न जारी रखे, यहीं अभिलाषा है.<br />चर्चा की गंभीरता से भागने के लिए मन ने कुछ यूं कुलांचे भी भरी:-<br /><br /># नोट:- कठिन शब्दों का प्रयोग उपहास के लिए नही बल्कि सेंसर बोर्ड से बचने के लिए किया है, काश फिल्म वाले भी इससे सबक लेते.<br /><br />१- 'कामिनी' 'कनकैया' चढ़ावे,<br /> ' कछनी' भी उड़-उड़ जाए.<br /><br />२. 'कंचुकी' के 'पिछोहे' 'की' है?<br /> 'कुच' कैसे कहे... शर्माए!<br /><br />३. 'कटिका' 'कौतुहल' जगावे,<br /> कसरत नयनन को कराये.<br /><br />४. 'कटि' देखी 'कूट' लगावे,<br /> शून्य* तक 'वो' पहुंची जाए. [*zero figure]<br /><br />## नोट:- "व्यस्क सामग्री"<br /> अवयस्क के लिए 'नालंदा हिंदी शब्दकोष' refer करना वर्जित है [ चिन्हित शब्दों के लिए]Mansoor ali Hashmihttps://www.blogger.com/profile/09018351936262646974noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-22362912091726367982010-05-26T13:25:03.568+05:302010-05-26T13:25:03.568+05:30मनीष भाई,
आपसे भी सहमत हूं। शब्दकोश अपनी जगह हैं औ...मनीष भाई,<br />आपसे भी सहमत हूं। शब्दकोश अपनी जगह हैं और भाषा का विकास अपनी जगह। हमें तो शुद्धतावादियों से भी दिक्कत नहीं है। हम तो चाहते हैं कि राष्ट्रभाषा-अंग्रेजी-देवभाषा जैसे मुद्दों के चलते देशी बोलियों के आम फहम शब्दों से हिन्दी वंचित होती जा रही है। क्लिष्ट मगर सहज और बोधगम्य संस्कृत-तत्सम शब्दावली से भी किसी को परहेज नहीं है।अजित वडनेरकरhttps://www.blogger.com/profile/11364804684091635102noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-49683139803951556662010-05-26T11:36:21.447+05:302010-05-26T11:36:21.447+05:30अलीभाई,
इस संदर्भ में आपकी टिप्पणी काफी स्पष्ट है...अलीभाई, <br />इस संदर्भ में आपकी टिप्पणी काफी स्पष्ट है। निश्चित ही डाक्टसाब के आलेख का मूल भाव यही है। संस्कृतनिष्ठता में संस्कृत विरोध नहीं बल्कि प्रचलित शब्दों की जबर्दस्ती स्थानापन्नता संस्कृत में तलाशने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है।अजित वडनेरकरhttps://www.blogger.com/profile/11364804684091635102noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-24434389494040777682010-05-26T08:54:20.050+05:302010-05-26T08:54:20.050+05:30१९४८ मे लिखा संस्क्रत पर लिखा लेख २०१० मे हिन्दी क...१९४८ मे लिखा संस्क्रत पर लिखा लेख २०१० मे हिन्दी के लिये सम्झा जाये . हिन्दी का अंग्रेजी करणdhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह }https://www.blogger.com/profile/06395171177281547201noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-22290601807600404202010-05-26T07:05:59.339+05:302010-05-26T07:05:59.339+05:30आलेख पर कतिपय प्रतिक्रियायें पढकर ऐसा लगा ...जैसे...आलेख पर कतिपय प्रतिक्रियायें पढकर ऐसा लगा ...जैसे शर्मा जी 'देववाणी' विरोध का झंडा लिये घूम रहे हों ? क्या सच में ऐसा है भी ? सम्भव है कि विभाजन की पृष्ठभूमि ...हमें इस आलेख के मूल मंतव्य से भटकाती हो और ऐसा लगे कि लेखक संस्कृतनिष्ठ शब्दों और दुरूहता की आड मे देवभाषा से विद्रोह पर उतारू हैं ! मुझे लगता है कि लेख मे स्पष्ट रूप से उस द्वैध की ओर संकेत किये गये है जो सुनीति कुमार और उनके सहयोगियों की कथनी और करनी के हैं ! मेरे विचार से आलेख 'भाषा' मे जनप्रचलित शब्दों के अनुप्रयोग से भाषा के सुदीर्घ जीवन की कामना मात्र है और वह क्लिष्टता / दुरूहता / बलात गढे गये शब्दों से भाषा पर आसन्न खतरे की ओर संकेत करता है ! व्यक्तिगत रूप से मै इस आलेख मे जनप्रचलित शब्दो बनाम अव्यवहारिक रूप से गढे गये शब्दों की स्वीकार्यता / अस्वीकार्यता की बहस ही देख पा रहा हूँ ! सम्भव है कि 'दुरूहता' को 'संस्कृतनिष्ठता' का नाम देने से संस्कृत विरोध का भ्रम पैदा होता हो !उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-91967942823471181532010-05-26T06:56:14.353+05:302010-05-26T06:56:14.353+05:30This comment has been removed by the author.उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-42586330039044626152010-05-26T00:46:46.936+05:302010-05-26T00:46:46.936+05:30’हिन्दी का संस्कृतीकरण’ ज्यादा सही होगा या "ह...’हिन्दी का संस्कृतीकरण’ ज्यादा सही होगा या "हिन्दी का अंग्रेजीकरण" ??? या हिन्दी को आम भारतीय की भाषा बनें रहनें दिया जाय। शर्मा जी जो १९४८ में कह रहे थे वह उनके परवर्ती लेखन में नहीं दिखता।Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-61508765596392987902010-05-26T00:28:39.980+05:302010-05-26T00:28:39.980+05:30१९४८ का आलेख - उत्तम - इसे कबाड़खाने में भी चिपकाईय...१९४८ का आलेख - उत्तम - इसे कबाड़खाने में भी चिपकाईये! - इस बात पर कोई संदेह या विवाद नहीं कि भाषा वही जियेगी जो व्यवहार में रहेगी - डाक्साब सम्मानीय हैं लेकिन यहाँ उनके कुछ विचार, बाइज्ज़त, मेरे सोचने से मेल नहीं खाते . कोश और मुश्किल/ क्लिष्ठ शब्दों के होने न होने पर, शब्द कोशों पर, शब्द भांजना थोडा अजीब लगा - [शायद लिखे जाने के सन्दर्भ का ज्ञान नहीं है] - मुझे लगता है भाषा का सामृध्य भाषाई अभिव्यक्ति में विकल्प बस है - किसी भी जीवित भाषा में कई समानार्थी शब्द होते हैं - आते जाते रहते हैं, अगर भाषा को लंबा चलना है - अमर कोश / शब्द कोश इस कानून से थोड़े ही बने हैं कि क्लिष्ठ शब्द ही काम में लाने हैं - अगर आप कोशकार (?) को कारीगर की तरह देखें तो वह बस कठिन शब्दों को लिख कर यही कर रहे हैं कि भैया यह शब्द मिले किसी पुराने संस्कृतनिष्ठ दस्तावेज में तो इसका ये मतलब है - बगैर शब्द्कोशों के कुछ अनूदित पढ़ना कहाँ संभव होता? - भाषा का व्यवहार पानी की तरह बहता है - कोई एक चाह कर भी भाषा के जनतंत्र का बूथ कैप्चर करेगा अजित भाई मुमकिन नहीं लगता - और पिछले साठ सालों में सारे वादी नेता वादों को भूल जाते हैं, पूंजीवादी प्रयोग लेख की गरिमा को कुछ कम करता है [साठ साल पहले पूंजीवादी नेता थे हमारे देश में? ] बाकी तो कोस कोस पर बदले पानी .. ऊपर लिख ही रखा है.Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/08624620626295874696noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-1914728562815961022010-05-25T22:25:40.193+05:302010-05-25T22:25:40.193+05:30राम विलास जी का यह लेख मुख्य तौर पर सही चिंता प्रक...राम विलास जी का यह लेख मुख्य तौर पर सही चिंता प्रकट करता है.<br />देश की आज़ादी के बाद हमारी भाषाओं को उच्च शिक्षा का माध्यम बनना था. इस लिए तकनीकी शब्दावली की जरुरत थी. इतने बड़े पैमाने पर तकनीकी शब्दावली घड़ने का बोझ कोशकारों और लेखकों पर पढ़ गया. हमारे पंजाबी में विद्वान् दो हिस्सों में बंट गए. कुछ कहते थे उर्दू-फारसी से शब्द लिए जाएँ लेकिन ज्यादा संस्कृत से लेने के हक़ में थे. संस्कृत वालों का कहना था कि हमारी भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं, और दूसरी बात योरपी भाषाएँ भी तो कलासीकल भाषा लेटिन से तकनीकी शब्दावली घडती है, इस लिए संस्कृत हमारा कुदरती विकल्प है. दरअसल उस समय राष्ट्रया चेतनता भी शिखर पर थी इस लिए संस्कृत पक्षियों की बात चली. अब कुछ संतुलन सा आ गया है. लेकिन बड़ा मसला यह है कि तकनीकी शब्दावली इतनी अधिक होती है और होती जा रही है कि इतने बनावटी से शब्द घड़ना ना संभव था और ना ही वह चलते हैं .एक रंग की ही हजारों शेडज़ होती हैं. हमारे कोशकारों पर भी इतना दबाव था कि बहुत से हास्यप्रद शब्द/पद भी बन गए. यह हमारे लिए एक लाभप्रद तजर्बा है. <br />लेकिन अब गलोबीकरण के प्रसंग में मसले ने और ही गंभीर रुख ले लिया है. हमारी भाषायों का भविष्य ही खतरे में पढ़ गया है.पंजाबी बोलने वालों की संख्या दुनिया में बाहरवें स्थान पर है. लेकिन एक यूएनओ की रिपोर्ट के अनुसार अगले ५० वर्षों में पंजाबी के अलोप होने के असार हैं. पंजाबी चिन्तक अब इस बात पर विचार कर रहे हैं. इतने बोलने वालों की गिनती होते हुए भी यह भाषा म्रत्यु की ओर बड रही है. अब एक ओर नयी रिपोर्ट आयी है, दुनिया की 96% भाषाएँ अगले 50-100 वर्ष तक ख़त्म होने जा रही हैं.सोच रहा हूँ भारत की एक भाषा हिन्दी तो कम से कम इन 4% बचने वाली भाषायों में शामिल हो!Baljit Basihttps://www.blogger.com/profile/11378291148982269202noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-75820067781240885142010-05-25T22:12:19.948+05:302010-05-25T22:12:19.948+05:30This comment has been removed by the author.Baljit Basihttps://www.blogger.com/profile/11378291148982269202noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-66011021518722770092010-05-25T21:33:51.887+05:302010-05-25T21:33:51.887+05:30विचारोर्जक ।विचारोर्जक ।प्रवीण पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/10471375466909386690noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-56745753799659025832010-05-25T20:29:15.290+05:302010-05-25T20:29:15.290+05:30इस लेख की प्रस्तुती के लिए बहुत-बहुत आभार।इस लेख की प्रस्तुती के लिए बहुत-बहुत आभार।Rangnath Singhhttps://www.blogger.com/profile/01610478806395347189noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-40135063934377340522010-05-25T17:54:48.865+05:302010-05-25T17:54:48.865+05:30आह...क्या कहूँ,इतना आनंद आया पढ़कर...ऐसी हंसी छूटी...आह...क्या कहूँ,इतना आनंद आया पढ़कर...ऐसी हंसी छूटी कि ...बस मैं इसे संग्रहित कर रख लेने वाली हूँ कईयों के साथ बांटने के लिए भी और उदास होने पर अपने पढने के लिए भी...<br /><br />क्या बात कही है डाक्टर साहब ने..कि इनके रचित शब्दकोष को इन्हें भली प्रकार घोंटा देकर तभी व्यवहार में लाया जाना चाहिए...<br /><br />लाजवाब प्रविष्टि है...अतिरोचक भी और ज्ञानवर्धक भी...रंजनाhttps://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-76022783061198839032010-05-25T17:52:11.558+05:302010-05-25T17:52:11.558+05:30अजित भाई साहब, राम विलास शर्मा जी का आलेख पढ़कर तो ...अजित भाई साहब, राम विलास शर्मा जी का आलेख पढ़कर तो मस्तिष्क (दिमाग) के सभी स्तंभ (चूल) कंपित (हिल) हो गए।<br />-------------------<br />शर्मा जी की अधिकांश बातों सें पूरी तरह सहमत होते हुए बस इतना ही कहना है कि आज की हिंदी में संस्कृत के शब्दों का ग्रहण तो दूर की बात रह गई है, जो उसके पास अपने भी शब्द थे, उससे भी दूर होती जा रही है। हिंदी में विदेशज (विशेष रूप से अंग्रेजी के) शब्दों को ग्रहण करने की बाढ़ सी आ गई है। उदाहरणार्थ- डिलीट करो, एडिट करो, आजकल किडनैपिंग बहुत बढ़ गई है, इत्यादि-इत्यादि।दिवाकर मणिhttps://www.blogger.com/profile/03148232864896422250noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7753883218562979274.post-12188677190610093022010-05-25T17:20:51.611+05:302010-05-25T17:20:51.611+05:30अदालत की जगह धर्माधिकरण सुनकर तो, यकीन कीजिए, मेरे...अदालत की जगह धर्माधिकरण सुनकर तो, यकीन कीजिए, मेरे भी छक्के छूट गए!<br /><br />इसे टंकित कर प्रकाशित करें तो और भी मजा रहे, क्योंकि फिर इसे तमाम फ़ोरमों में आसानी से उदाहरण स्वरूप दिया जा सकेगा.रवि रतलामीhttps://www.blogger.com/profile/07878583588296216848noreply@blogger.com