राजवाड़े जी के लेख का अंश
''पा णिनी के युग में महाराज शब्द के दो अर्थ प्रचलित थे। एक , इन्द्र और दूसरा, सामान्य राजाओं से बड़ा राजा। पहले अर्थानुसार महाराजिक इन्द्र के भक्त हुए और दूसरे
अर्थानुसार महाराज कहलाने वाले अथवा महाराज उपाधि धारण करने वाले भूपति के भक्त महाराजिक हुए । उक्त दोनों अर्थों को स्वीकार करने के बाद भी प्रश्न उठता है कि महाराजिक का महाराष्ट्रिक से क्या संबंध है। इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि राजा जिस भूमि पर राज्य करता है उसे राष्ट्र कहते हैं और जो राष्ट्र के प्रति भक्ति रखते हैं वे राष्ट्रिक कहलाते है। इस आधार पर महाराजा जिस भूमि पर महाराज्य करते थे वह महाराष्ट्र और जो महाराष्ट्र के भक्त थे वे महाराष्ट्रिक कहलाए । महाराजा जिनकी भक्ति का विषय थे उन्हें महाराजिक तथा महाराजा का महाराष्ट्र जिनकी भक्ति का विषय था उन्हें महाराष्ट्रिक कहा जाता था। तात्पर्य यह कि महाराज व्यक्ति को लक्ष्य कर बना महाराजिक तथा महाराष्ट्र को लक्ष्य कर बना महाराष्ट्रिक। महाराष्ट्रिक शब्द वस्तुतः समानार्थी है।

उपनिवेशी महाराष्ट्रिक
यह
निश्चय कर चुकने के बाद महाराजिक ही महाराष्ट्रिक थे, एक अन्य प्रश्न उपस्थित होता है कि जिस समय दक्षिणारण्य में उपनिवेशन के विचार से महाराष्ट्रिक चल दिए थे उस समय उत्तरी भारत में महाराज उपाधिधारी कौन भूपति थे और महाराष्ट्र नामक देश कहां था। कहना न होगा कि वह देश मगध था। प्रद्योत , शैशुनाग , नन्द तथा मौर्य-वंशियों ने क्रमानुसार महाराज्य किया था मगध में। महाराज्य का क्या अर्थ है ? उस युग में सार्वभौम सत्ता को महाराज्य कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण के अध्याय क्रमांक 38/39 में साम्राज्य, भोज्य , स्वाराज्य , वैराज्य, पारमेष्ठ्य, राज्य महाराज्य , आधिपत्य , स्वाश्य , आतिष्ठ्य तथा एकराज्य आदि ग्यारह प्रकार के नृपति बतलाए गए हैं। मगध के नृपति एकच्छत्रीय या एकराट् थे अर्थात् राज्य, साम्राज्य,महाराज्य आदि दस प्रकार के सत्ताधिकारियों से श्रेष्ठ थे, अतः है कि वे महाराज थे। अपने को मगध देशाधिपति महाराज के भक्त कहने वाले महाराष्ट्रिकों ने जब दक्षिणारण्य में बस्ती की तो वे महाराष्ट्रिक कहलाए ।"

कहना न होगा कि उनका निवास ही महाराष्ट्र कहलाया। लेख काफी लंबा है। मगर हमारा अभिप्राय इससे भी पूरा हो रहा है। महाराष्ट्रीय होने के नाते मागधों अर्थात बिहारियों से यूं अपना रिश्ता जुड़ता देख मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है।-अजित
पुरखों का लिखा
ही पढ़ लो...
प्राचीनकाल से अब तक विभिन्न समाजों का विभिन्न स्थानों पर आप्रवासन बेहद सामान्य घटना रही है। मनुष्य ने सदैव ही रोज़गार की खातिर, आक्रमणों के कारण और अन्य सामाजिक धार्मिक कारणो से अपने सुखों का त्याग कर, नए सुखों की तलाश में आबाद स्थानों को छोड़कर नए ठिकाने तलाशे हैं। उनकी संतति बिना अतीत में गोता लगाए पुरखों की बसाई नई दुनिया को बपौती मान स्थान विशेष के प्रति मोहाविष्ट रही।
क्षेत्रवाद ऐसे ही पनपता है। आज जो राज ठाकरे और ठाकरे कुनबा बिहारियों -पुरबियों को मुंबई से धकेल देना चाहते हैं वे नहीं जानते कि किसी ज़माने में बौद्धधर्म की आंधी में चातुर्वर्ण्य संस्कृति के हामी हिन्दुओं के जत्थे मगध से दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए थे। ऐसा तब देश भर में हुआ था। मगध से जो जन सैलाब दक्षिणापथ (महाराष्ट्र जैसा तो कोई क्षेत्र था ही नहीं तब ) की ओर गए और तब महाराष्ट्र या मराठी समाज सामने आया।
इसे जानने के लिए यहां पढ़ें विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े द्वारा एक सदी पहले किए गए महत्वपूर्ण शोध का एक अंश। उन्होंने तो महाराष्ट्रीय संस्कृति पर गर्व करते हुए जो गंभीर शोध किए वे एक तरह से अपनी जड़ों की खोज जैसा ही था। उन्हें क्या पता था कि दशकों बाद उसी मगध से आनेवाले बंधुओं को शिवसेना के रणबांकुरे खदेड़ने के लिए कमर कस लेंगे।
यह पोस्ट 19 जनवरी 2008 के सफर में छप चुकी है और संशोधित पुनर्प्रस्तुति है।
अच्छा है। लेख पूरा पोस्ट करिये न!
ReplyDeleteखोज महत्वपूर्ण है। अब तो यह साबित हो चुका है कि सम्पूर्ण मानव ही दक्षिण अफ्रीका से पलायन कर दुनिया भर में पहुँचा है। और इंन्सान हरदम स्थान बदलता रहता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच जाति,क्षेत्र,रंग,नस्ल,लिंगादि भेद करने का कोई अर्थ नहीं है।
ReplyDeleteउत्तम जानकारी
ReplyDeleteदोनो को समझ में आना चाहिये! मगध को भी, महाराष्ट्र को भी।
ReplyDeleteराष्ट्र को जोड़े रखने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रयास. ईसा पूर्व दूसरी सदी से ४०० वर्षों तक "प्रतिष्ठान" आज का पैठन तेलुगु भाषी सातवाहनों की राजधानी रही है. भारत का एक बड़ा भूभाग उनके आधीन रहा है सोपारा, ठाने, कल्याण सहित. ... आभार.
ReplyDeleteबढ़िया लिखा है अपने इस पर ..दीपावली की बधाई
ReplyDeleteउसी मगध के चाणक्य ने लिखा है: मुर्ख को उपदेश देना उसके क्रोध को बढ़ाना है !
ReplyDeleteअच्छा ज्ञानवर्धक लेख....ओर डिटेल लिखनी थी
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
उत्तम लेख… पहले भी पढ़ा था और अब भी पढ़ा… लेकिन उग्र तत्वों को समझायेगा कौन?
ReplyDeleteसूचनाएं न केवल महत्वपूर्ण अपितु सामयिक भी हैं । काश, विभाजक मानसिकता वाले इसे पढ पाते ।
ReplyDeleteराजवाडेजी का लेख यदि किसी साइट पर उपलब्ध हो तो लिंक दीजिएगा ।
ऐसी पोस्टें केवल 'ब्लाग' तक सीमित नहीं रहतीं । वे पूरे देश को आवरित करती हैं । 'स्वान्त: सुखाय' किस प्रकार 'सर्व जन हिताय' में बदलता है, यह पोस्ट इसका उदाहरण है ।
@अनूप शुक्ल, दिनेशराय द्विवेदी, रंजना, ज्ञानदत्त पांडेय , अभिषेक ओझा, डॉ अनुराग, सुरेश चिपलूणकर, विष्णु बैरागी, विवेक गुप्ता , पीएन सुब्रह्मण्यम
ReplyDeleteआपको सबको पोस्ट पसंद आई, शुक्रिया...
राजवाड़े जी पर नेट कोई भी सामग्री उपलब्ध नही कराता है। ये लेख मेरे निजी पुस्तक संग्रह से बनाया है। राजवाड़े जी का शोध अत्यंत महत्वपूर्ण है। जल्दी ही इसे मैं कीइन कर के सबको उपलब्ध कराने का प्रयास करूंगा।
लेख चूंकि काफी बड़ा था और पूरा टाइप करने का वक्त नहीं था इसलिए जो अंश हमारे मंतव्य और उद्देश्य को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त लगे , उन्हें ही लिया । काश, हमारे जनप्रतिनिधियों के साथ शिक्षा की अनिवार्यता भी संविधान में होती तो आज के इस सूचना युग के इन तमाम माध्यमों तक उनकी भी पहुंच होती। हम जो पहले ही अपने संस्कारवश इन बातों को समझे बैठे हैं , इन्हें पढ़ कर सूचना संपन्न तो हो सकते हैं मगर जिन्हें करना है , वे इससे अभी और कितने अंजान रहेंगे, कहा नहीं जा सकता।
अजित भाई , आपने सही समय पर ऐसी जानकारी दी है पर इसकी चर्चा ज़्यादा हो नहीं रही है ..... ठाकरे की अकल पर भी तो कुछ प्रकाश डाला जाय ....वैसे संभवत ४नवम्बर को छठ त्यौहार है देखे क्या होता है ? वैसे अच्छे .लेख के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |
ReplyDeleteदीपावली मुबारक हो और नया साल मँगलमय हो !
ReplyDeleteआप सभी को त्योहार पर शुभकामनाएँ
ये आलेख कईयोँ की द्र्ष्टि साफ करेगा -
हमीँ देखिये ना, कित्ती दूर आये हैँ - तो क्या हुआ ?
मनुष्य सदा से घूमन्तू जीव रहा है ..
- लावण्या
Bahut achchi aur samayik jankaree.Tatha ekata ko badhane walee bhee. par poora lekh padhane kee ichcha hai.
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