Sunday, September 27, 2009

टेढ़े मेढ़े रास्तों का जायज़ा

 logo_thumb22_thumb2 पुस्तक चर्चा में इस बार प्रख्यात लेखक भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास टेढ़े मेढ़े रास्ते पर बात। एक सामंती परिवार में 1920 के भारत के बदलते राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल का क्या प्रभाव पड़ता है इसका दिलचस्प चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। पुस्तक राजकलम प्रकाशन ने निकाली है और मूल्य 395 है।

प्रख्यात साहित्यकार  140px-Bhagwati_charan_vermaभगवतीचरण वर्मा का जन्म 1903 में उन्नाव के शफीपुर गांव में हुआ था। प्रतापगढ़ के राजघराने से वे जुड़े रहे। उनके प्रसिद्ध उपन्यास चित्रलेखा पर सफल फिल्म बन चुकी है। कई वर्षों तक उन्होंने आकाशवाणी में काम किया। वे राज्यसभा के सदस्य भी रहे। भूले बिसरे चित्र पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। 1981 में निधन।
 गवती चरण वर्मा हिन्दी के बेजोड़ कथाशिल्पी थे। हिन्दी पुस्तक संसार में पाठकों का जैसा स्थाई अकाल है, ऐसे में हिन्दी में बेस्ट सेलर जैसी कोई टर्म नहीं बन पाई है। इसके बावजूद हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय दस उपन्यासकारों का नाम अगर लिया जाए तो मेरी निगाह में  शीर्ष के पांच नामों में भगवतीबाबू का नाम है। हर साल देश के नामी संस्थानों से उनकी पुस्तकों के रिप्रिंटों का प्रकाशन इसका प्रमाण हैं। उनकी रचनाओ की अद्भुत पठनीयता और ग़ज़ब का कथा-विन्यास पाठक को बांधे रखता है।
हिन्दी के वर्तमान स्वरूप के साथ संयोग रहा है कि उसका विकास आजादी के संघर्ष के साथ ही चलता रहा। एक तरफ देश में स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ी राजनीतिक उथल-पुथल मची थी, दूसरी तरफ साहित्यकार कलम के जरिये अपने आस पास के परिवेश को केंद्र बनाते हुए शब्द सृजन कर रहे थे। प्रेमचंद, भगवती चरण वर्मा, यशपाल, आचार्य चतुरसेन, अमृतलाल नागर, भीष्म साहनी जैसे लेखक इस कड़ी में शामिल हैं। टेढ़े मेढ़े रास्ते भगवती बाबू की प्रसिद्ध उपन्यास-त्रयी में दूसरी कड़ी है। बाकी दो उपन्यास हैं भूले बिसरे चित्र और सीधी सच्ची बातें। आजादी के संघर्ष के दौर में भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन हो रहा था। यह परिवर्तन वैचारिक भी था और सामाजिक भी। पश्चिमी शिक्षा प्रणाली ने जहां भारतीय युवा की सोच को उदार और आधुनिक बनाया वहीं उसके भीतर भावुक राष्ट्रवाद भी पनपा। इस पुस्तक त्रयी बार-बार पढ़ने का अलग ही मज़ा है और इसलिए भी कालखंड में दशकों का अंतराल होने के बावजूद राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों और लोगों के मूलभूत चरित्र में आज भी साफ-साफ पहचाने जाते हैं। सन 1930 की कांग्रेस में भी वैसे ही लम्पट, घाघ, अवसरवादी नेता घुसे हुए थे जैसे आज हैं। लैफ्टिस्ट सोच तब भी उतनी ही भ्रमित नजर आती थी जितनी आज है। सिर्फ विदेश जा कर एक नई विचारधारा से परिचित युवा देश की ज़मीनी सच्चाई को समझे बिना जिस तरह की हवाई बातें तब करते थे, आज का लैफ्ट उस दौर से आगे बढ़ कर खुद को किनारे पर ला चुका है।
पन्यास का कथानक ऐतिहासिक घटनाओं के आसपास घूमता है। किसानों का शोषण, अंग्रेजी राज के बने रहने की इच्छा रखनेवाले ज़मींदारों का भ्रमित चरित्र, कांग्रेस का साथ देते हुए अपना स्वार्थ देखने की तत्कालीन पूंजीपति मानसिकता, उच्च शिक्षा प्राप्त युवा पीढ़ी का परम्पराओं से जूझने का संघर्ष यह सब उपन्यास में बखूबी उभर कर आया है। भगवतीबाबू का परिस्थियों का चित्रण करने का अनूठा अंदाज है। उनके पात्र बड़ी सहजता से जीवन की सच्चाई बयान कर जाते हैं। बानगी देखिये-

“सो ई तरा दुनिया मां सफल मनई वहै आय जो वीर आय। और वीरता का एक रूप आय अपराध, अपनपनि के पीछे लोकमत की उपेक्षा। सो प्रत्येक लोकमत की उपेक्षा करै वाला मनई अपराधी आय! है न!!”

टेढ़े मेढ़ रास्ते भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के आखिरी दौर की कहानी कहती है। कथानक उत्तरप्रदेश scan0001की एक छोटी सी रियासत बानापुर के ब्राह्मण ज़मींदार के परिवार के इर्दगिर्द घूमता है जिनकी हैसियत राजा की है साथ ही वे अपने इलाके के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी हैं। उपन्यास 1928 की राजनीतिक सुगबुगाहट से शुरू होता है जब देश में गांधी का सिक्का चल रहा था। असहयोग और अहिंसा का जादू लोगों की समझ में आ चुका था।  कांग्रेस और मुस्लिम लीग की दो ध्रुवीय राजनीति में कांग्रेस का पलड़ा भारी था मगर नौजवान समाजवादी कम्युनिस्ट आंदोलन की ओर भी दिलचस्पी से देख रहे थे। राजा साहब के तीन बेटे तीन विचारधाराओं के समर्थक हैं। एक पक्का कांग्रेसी, दूसरा कम्युनिस्ट और तीसरा उग्र विचारधारा का यानी फासिस्ट। भगवती बाबू के लेखन की खासियत यह है कि वे समकालीन परिस्थितियो से पैदा द्वन्द्व को इस खूबी से उभारते हैं कि एक समूचे कालखंड की मनोदशा और इतिहास हमे पता चल जाता है। उपन्यास के पात्र समाज और राजनीति पर लम्बी लम्बी बहसें करते हैं मगर मजाल है कि पाठक के भीतर ऊब पैदा हो!!
किसी ज़माने में प्रख्यात लेखक रांगेय राघव ने अपने उपन्यास सीधा सादा रास्ता के जरिये भगवतीबाबू के टेढ़े मेढ़े रास्ते का विचारधारात्मक जवाब दिया जो इसी उपन्यास की कथावस्तु और पात्रों को सामने रख कर बुना गया था। ब्रह्मदत्त भगवती बाबू के उपन्यास का बहुत हल्का और अपनी किरकिरी करानेवाला समाजवादी मजदूर नेता है वही डॉ रांगेय राघव के उपन्यास का नायक है। मुझे इस उपन्यास के बारे में बड़े भाई दिनेशराय द्विवेदी ने बताया। मज़े की बात यह कि इस त्रयी के अन्तिम उपन्यास का नाम भगवतीबाबू ने सीधी सच्ची बातें रखा। डॉ राघव विचारधारा के स्तर पर वामपंथी थे। भगवती चरण वर्मा ने अपने उपन्यासों में कांग्रेस, लीग, वामदल, समाजवाद जैसी सभी विचार-धाराओं से जुड़े लोगों की खबर ली है। संभवतः टेढ़े मेढ़े रास्ते में उनका खिल्ली उड़ाने का यही अंदाज रांगेय राघव को खला होगा। फिलहाल मुझे यह कृति हासिल नही हुई है। इसे साहित्य जगत में पॉलेमिज्म का बेहतरीन प्रयोगधर्मी उदाहरण कहा जा सकता है। भगवती बाबू की यह उपन्यासत्रयी हिन्दी प्रेमियों को अवसर मिले तो ज़रूर पढ़नी चाहिए।

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13 comments:

  1. भगवती बाबू की इस उपन्यास-त्रयी में सीधी सच्ची बातें हमें भी प्राप्त नहीं है । इन तीनों को पुनः पढ़ने का प्रयास करूँगा ।

    इस उपन्यास की चर्चा आपने की । इच्छा है कि भगवती बाबू के ही एक और महत्वपूर्ण और सर्वोल्लेखनीय उपन्यास ’सामर्थ्य और सीमा’ का उल्लेख भी यहाँ आपके द्वारा हो । इसमें वर्मा जी ने ’प्रकृति पर विजय" के आधुनिक दृष्टिकोण के औचित्य को चुनौती दी है, और एक नया और विचारणीय प्रश्न उठाया है । वस्तुतः यह ’आधुनिक साहित्य बोध’ की पड़ताल भी है ।

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  2. प्रख्यात साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा को नमन!
    पुस्तक चर्चा सार्थक रही!

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  3. अजित जी, डा. रांगेय राघव के उपन्यास का नाम 'सीधा सादा रास्ता' है।

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  4. मौका मिला तो ज़रूर पढेंगे।

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  5. शुक्रिया अजित जी
    मैं इस किताब को ज़रूर पढूंगी
    आपके ब्लॉग से कभी खाली हाथ नहीं लौटता कोई भी
    यही खासियत है

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  6. अभी तक भगवती बाबु की दो किताबें पढें हैं . चित्रलेखा और टेढ़े -मेढ़े रास्ते . चित्रलेखा को पढना काफी सुखद रहा . ऐसा नहीं लगता कि कोई उपन्यासकार केवल कहानी सुना रहा है बल्कि एक दार्शनिक जीवन के भेद खोल रहा मालूम होता है . कहानी के पात्र अपने जीवन में इतना विस्तार रखते हैं कि हर बार पढने पर एक नई सोच उभरती है .
    मेरी समझ अधिक नहीं है क्योंकि साहित्य से जुडाव बस दो साल पहले हुआ . उदयप्रकाश , निर्मल वर्मा , राजकुमार चौधरी , धर्मवीर भारती , भगवती चरण वर्मा और अज्ञेय को थोडा बहुत पढ़ा . जिसमें तीन किताबें हमेशा ध्यान रहती है "गुनाहों के देवता , मरी हुई मछली और चित्रलेखा " .

    आपने काफी अच्छी चर्चा की है ऐसी चर्चाओं से हीं नए लोग पढने को उत्सुक होते हैं .

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  7. @हिमांशु
    भगवती बाबू का सामर्थ्य और सीमा एक अद्भुत उपन्यास है। मुझे तो उनका लेखक और चिन्तक रूप का उत्कर्ष इसी उपन्यास में नजर आता है। एक अनूठा विषय और अविस्मरणीय चरित्र। इसे भी अनेक बार पढ़ा है और अब फिर पढ़ रहा हूं, ये आपको कैसे पता चला?
    शुक्रिया...

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  8. मैं इसे अवश्य पढूंगा
    इसकी चर्चा के लिए शुक्रिया

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  9. शुक्रिया अजीत जी, भगवती चरण जी से रुबरु करवाने के लिये ..

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  10. आपने जिज्ञासा बढ़ा दी,
    हिन्दी लेखन का प्रसार ऐसे प्रयासों से ही
    संभव है...हिंदी जगत के जीवन-रस की नई-नई
    बानगी प्रस्तुत करने का अनुपम उदाहरण है
    अपना यह शब्दों का सफ़र.....आभार अजित जी.
    =======================================
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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  11. हिन्दी भाषा को अपने योगदान से समृध्ध करनेवाले रचनाकारों में
    मेरे आदरणीय चाचाजी प्रमुख स्थान रखते हैं -
    परंतु मेरे लिए
    वे सदा ही "चाचाजी" रहेंगें
    - कई वर्षों तक
    उनके पुत्र धीरेन्द्र वर्मा भी हमारे खार के घर पर
    आते रहे थे
    सुन्दर समीक्षा के लिए आभार

    - लावण्या

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  12. आज ही कोशिश करूँगा टेढ़े मेढ़े रास्ते को हासिल करने की . आप के द्वारा एक बार फिर से साहित्य के प्रति रूचि हुई जिसके लिए धन्यवाद

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  13. मुझसे वर्मा की रचनायें बहुत पसंद है। एक मीठी कसक छोड़ देती है मन में उनकी रचनाएं। जो आसानी से नही भूलती।
    नौवी या दसवी में थी जब‘ संतरे का छिलका ’पढा था। अभी तक जेहन में है। उसके बाद उनकी कहािनया तो पढी है पर उपन्यास पढने का सौभागय प्राप्त न हुआ।

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