Wednesday, September 3, 2025

दहलीज़ से देहली तक: ध्वनि, अर्थ और भ्रम की कथा

शब्दकौतुक  
व्युत्पत्ति, प्रतीक और परम्परा का संगम /देहली_3  


घर की ओर  झाँकते कुछ शब्द
"दहलीज़" यह शब्द सुनते ही मन में एक घर की छवि उभरती है: एक ऐसी सीमा-रेखा जो घर और बाहर का सन्धिबिन्दु होती है। यह केवल दरवाज़ा, राहदारी या घर के अन्दर-बाहर जाने का स्थान भर नहीं, बल्कि स्वागत, विदाई, परम्पराओं और स्मृतियों का सङ्केत-प्रतीक भी है। हिन्दी और उर्दू में समान रूप से रचा-बसा यह शब्द अपने भीतर भारत-ईरानी भाषाओं के हज़ारों साल पुराने रिश्ते की कहानी समेटे हुए है।

लेकिन इस एक शब्द की यात्रा हमें कई ऐसे मोड़ों पर ले जाती है, जहाँ इसके जैसे ही सुनाई देने वाले अन्य शब्द जैसे दिल्ली, डेहरी, डीह आदि खड़े मिलते हैं। ध्वनि की इस समानता ने कई रोचक भ्रमों को जन्म दिया है। आइए, शब्दों की इसी दहलीज़ के पार जाकर इन सभी के असली रिश्तों को जानें।

 

'दहलीज़' की वंशावली: फ़ारस से भारत तक
प्राचीन फ़ारस की बसाहटों से चल कर "दहलीज़" शब्द का सफ़र हिन्दी भवन में दाखिल हुआ। इसका सीधा सम्बन्ध मध्यकालीन फ़ारसी के शब्द 'दहलीज़से है, जिसका अर्थ 'बरामदा' या 'द्वारमण्डप' हुआ करता था। भाषाविदों ने इसकी जड़ें और भी गहरीप्रोटो-ईरानी भाषा में खोजी हैं। वहाँ इसका मूल रूप duvarθi- जैसा था, जिसका अर्थ 'द्वार से सम्बन्धित' या 'द्वारमण्डप' था। यह शब्द स्वयं प्राचीन फ़ारसी के duvar- यानी 'द्वार' या 'दरवाज़ा' से निकला है।

यहाँ एक छोटी सी भाषाई पहेली भी है, जो इसके लिखित रूप में छिपी है जिसे हम आगे विस्तार से समझेंगे। इस शब्द की अहमियत का अन्दाज़ा इसी बात से लगता है कि इसे अरबी (दिहलीज़), तुर्की (देहलीज), और कज़ाख जैसी कई भाषाओं ने अपनाया।

 

अर्थ का रूपान्तरण: बरामदे से देहरी तक
जहाँ फ़ारसी में 'दहलीज़' का आशय एक बड़े प्रवेश हॉल या बरामदे से था, वहीं भारतीय सन्दर्भ में यह दरवाज़े की चौखट के निचले उभरे हिस्से तक केन्द्रित हो गया, जिसे हम 'देहरीकहते हैं। या यूँ कहें कि प्रोटो-ईरानी की समकालीन कोई वैदिक भाषा में यही भाव प्रमुख था।

इसका प्रमाण है 'दहलीज़' का निकटतम संस्कृत सजातीय शब्द 'देहली'। संस्कृत का एक प्रसिद्ध न्याय है-'देहलीदीपन्याय', जिसका अर्थ है कि देहली पर रखा दीपक घर के अन्दर और बाहर, दोनों ओर समान रूप से प्रकाश फैलाता है। यह न्याय "दहलीज़" के प्रतीकात्मक चरित्र को बख़ूबी समझाता है- यह भीतर और बाहर के बीच एक पुल की तरह है।

 

घर और बाहर का सन्धिस्थल
यहाँ 'दहलीज़' और इसके निकटतम भारतीय प्रतिरूप 'देहली' की आन्तरिक संरचना को समझना दिलचस्प है। ये दोनों ही शब्द सीधे तौर पर 'द्वार' का अर्थ नहीं देते, बल्कि इनसे द्वार द्वारा निर्देशित स्थान का बोध होता है।

प्राचीन फ़ारसी में 'दहलीज़' का मूल रूप duvarθi- है, जो duvar- (संस्कृत 'द्वार') से बना है। इसके संरचनागत साम्य को समझने के लिए संस्कृत का शब्द 'द्वारस्थ' (द्वार + स्थ) उत्तम है, जिसका अर्थ है 'द्वार पर स्थित'। ठीक इसी तरह, duvarθi- का भी अर्थ 'द्वार' न होकर 'द्वार पर स्थित संरचना' (जैसे पोर्टिको, कोरीडोर) है। यही बात प्राकृत-संस्कृत के 'देहली' (चौखट) पर भी लागू होती है।

 

सिर्फ़ चौखट यानी दरवाज़ा नहीं
इस प्रकार, 'दहलीज़' हो या 'देहली', ये दोनों ही द्वार से जुड़े स्थानवाची सङ्केत हैं जो घर और बाहर के बीच एक सीमा-रेखा तय करते हैं। द्वार और दहलीज़ के अन्तर को यूँ भी समझ सकते हैं कि चौखट पर पल्ले लगने से बनी संरचना 'द्वारकहलाती है, जबकि 'दहलीज़स्वयं वह चौखट या स्थान है जहाँ वे पल्ले लगाए जाते हैं अथवा जहाँ से द्वार-मार्ग तक पहुँच बनती है।

हम द्वार पर ताला लगाते हैं, दहलीज़ पर नहीं। इस तरह द्वार और दहलीज़ एक-दूसरे के पर्यायी पद नहीं हैं। दहलीज़ सीमा-रेखा है, द्वार आने या जाने की व्यवस्था।

 

दहलीज़ के प्रतीकार्थ
"दहलीज़" का असली सौन्दर्य इसके भौतिक रूप में नहीं, बल्कि इसके प्रतीकात्मक और सांस्कृतिक अर्थ में छिपा है। यह आरम्भ, अनुष्ठान और जीवन के नए चरणों में प्रवेश का प्रतीक है। "दहलीज़ लाँघना" सिर्फ़ एक क्रिया नहीं, बल्कि एक नई दुनिया में क़दम रखने का एक शक्तिशाली मुहावरा है।

दुल्हन का ससुराल में पहला क़दम, नए घर में गृह प्रवेश, या किसी महत्वपूर्ण यात्रा की शुरुआत- ये सभी मंगल कार्य दहलीज़ पर ही सम्पन्न होते हैं। पुराने समय में विवाह से पहले दूल्हे द्वारा दुल्हन के घर की जाने वाली एक औपचारिक भेंट को "दहलीज़ खुंदलाना" कहा जाता था, जो अपने आप में एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान था।

 

'दहलीज़' और 'ढेलज' का भ्रम
एक आम ग़लतफ़हमी यह भी है कि उर्दू का 'दहलीज़' और मराठी का 'ढेलज' जैसे शब्द भी 'देहली' से व्युत्पन्न हैं। ध्वनि व अर्थ, दोनों ही कारक यहाँ प्रबल हैं, पर ऐसा नहीं है। ये दोनों अलग-अलग मूल के हैं, पर अर्थगत साम्य की वजह से इन्हें 'देहली-ड्योढ़ी' वाली शृङ्खला से सम्बन्धित मानना भी असहज नहीं है।

यद्यपि 'दहलीज़' और 'ढेलज' के स्रोत भिन्न हैं, पर 'देहली' के साथ इनका अर्थगत व ध्वनि-साम्य इतना गहन है कि व्यवहार में ये एक-दूसरे के पर्याय बन जाते हैं।

 

चलते-चलते
इस सफ़र से यह स्पष्ट होता है कि शब्द केवल ध्वनि नहीं होते; वे अपने भीतर इतिहास, भूगोल और मानव-सभ्यता के विकास की कहानियाँ छिपाए रहते हैं।

(A) दहलीज़/देहली/देहरी: द्वार-परिसर, द्वारमण्डप अथवा वह सीमा-रेखा, जिसका मूल प्राचीन फ़ारसी 'द्वार' है।
(B) 
दिल्ली: भारत की राजधानी, जिसका मूल 'ढिल्ली/ढिल्लिका' है, पर 'देहली' शृङ्खला से रिश्ता नहीं।
(C) 
डेहरी/डीह/ढूह: स्थानवाची शब्द, जिसका मूल 'ऊँचा टीला' या 'पुरानी बसावट' है।
(D) 
देह/देहात: गाँव, ग्राम जिसका मूल फ़ारसी 'देह' है। निश्चित ही, हम यहाँ आगे इन पर भी बात करेंगे।

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Tuesday, September 2, 2025

प्रवेश से वापसी तक / 'देहली_2 : ड्योढ़ी

जहाँ भीतर और बाहर मिलते हैं
एक पारम्परिक संरचना के भाषिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थों की पड़ताल

ड्योढ़ी का वास्तु में ढल जाना 
'ड्योढ़ी' केवल एक शब्द नहीं, अपितु एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक एवं सांस्कृतिक सूझबूझ का नमूना है। आधुनिक विचारधारा में ईंट-गारे-चूने के इस सुदृढ़़ ढाँचे को सामन्ती संकल्पना से प्रेरित निर्माण भी कहा जा सकता है। यह किसी भी नगर-बस्ती के मुख्यमार्ग और आवासीय परिसर के बीच एक निजी, सुरक्षित प्रवेश स्थान होता था। हवेलियों और महलों जैसी पारम्परिक संरचनाओं में, ड्योढ़ी एक साधारण प्रवेश द्वार से कहीं बढ़कर थी; यह एक प्रवेश-कक्ष, आगन्तुकों के लिए एक प्रतीक्षालय और 'ड्योढ़ीदार' या 'प्रतिहार' (द्वारपाल) के लिए एक चौकी के रूप में काम करती थी, जो घर की सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करता था । भाषा और वास्तुशिल्प स्पष्ट रूप से स्थापित करते हैं कि 'ड्योढ़ी' के विकास में भाषाशास्त्रीय बदलावों के साथ साथ सुरक्षा और सामाजिक स्थिति के दृष्टिकोण से वास्तु में भी परिवर्तन हुआ। 'ड्योढ़ी' प्रवेश द्वार से बढ़कर सुरक्षा और नियन्त्रण का स्थान बन गई।


'देहली' से देह तक 

हिन्दी शब्द 'ड्योढ़ी' संस्कृत के प्राचीन शब्द 'देहली' का सीधा, ध्वन्यात्मक रूप से विकसित वंशज है 'ड्योढ़ी' की भाषाई यात्रा का आरम्भ प्राचीन भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत से होता है, जहाँ 'देहली' शब्द की जड़ें गहराई से स्थापित हैं । संस्कृत कोशों के अनुसार, 'देहली' शब्द की व्युत्पत्ति मूल धातु 'दिह्' से मानी जाती है, जिसका अर्थ है 'लेपन करना', 'पोतना' या 'बढ़ाना' इसी धातु से 'देह' (अर्थात् शरीर) भी बना है, जो एक आकार या रूप की अवधारणा को दर्शाता है। इस व्युत्पत्ति से यह सङ्केत मिलता है कि 'देहली' का मूल अर्थ किसी लिपे-पुते या मिट्टी से बने ऊँचे चबूतरे से था जो किसी आवास के प्रवेश द्वार पर बनाया जाता था । शास्त्रीय संस्कृत में इसके प्रमुख अर्थ "द्वार की चौखट (विशेषकर निचली लकड़ी)", "देहरी" या "घर के सामने का उठा हुआ चबूतरा या बरामदा" हैं


जटिल बदलाव: 'देहली' , डेहरी, 'ड्योढ़ी'

'देहली' से 'डेहरी' और फिर 'ड्योढ़ी' जैसे शब्दों के विकास में '' का कठोर '' में बदलने को मूर्धन्यीकरण कहा जाता है। मूर्धन्य ध्वनियों का विकास प्राचीन मानव जत्थों के आप्रवासन से एक बहुभाषी समाज के निर्माण और सांस्कृतिक मिश्रण की एक शक्तिशाली भाषिक प्रतिध्वनि है। अक्सर '' और '' जैसी मिलती-जुलती ध्वनियाँ एक-दूसरे की जगह ले लेती हैं। इसी सहज प्रवृत्ति के कारण 'देहली' का '', '' में बदल गया और देहरी रूप सामने आया। इसके विपरीत, 'ड्योढ़ी'  अधिक परिवर्तित रूप है, जो कई ध्वन्यात्मक पड़ावों से गुज़रा। इस प्रक्रिया में पहले 'देहली' का '' एक कठोर ध्वनि '' में बदला, जिससे 'देहुड़ी' जैसा मध्यवर्ती रूप बना बाद में, शब्द के बीच की कमज़ोर '' ध्वनि लुप्त हो गई और फिर '' तथा '' स्वरों के आपस में मिलने से 'यो' की नई ध्वनि का जन्म हुआ, जिससे 'ड्योढ़ी' शब्द बना। कुल मिला कर देहली देहुडि देउड़ / देवढीड्योढ़ी यह क्रमिक विकास रहा होगा। राजस्थानी में डोडी जैसा रूपभेद भी है।


घर और बाहर का सन्धिस्थल

देह, देहली और दीवाल तीनों एक ही स्रोत से विकसित हुए हैं। या शृङ्खला दिघ्, दिह्, दिज़, देगा, दाएज़ा में परिधि, कोट, किला और सुरक्षित स्थान का भाव विकसित होता चला गया। इससे दिलचस्प रूपक भी बनता है। दिह्, देह में बाहरी संरचना का भाव है। देह बाहरी ढाँचा है जिसके अन्दर नाज़ुक अङ्ग सुरक्षित रहते हैं। इसी तरह घर के चारों ओर की दीवार और देहली के भीतर समूचा परिवार, कुटुम्बी, सम्पत्ति, गिरस्ती यहाँ तक कि रिश्ते-नाते तक सुरक्षित रहते हैं। अवेस्ता में इसी कड़ी का दिज़ शब्द है और जिसका अर्थ किला होता है। पुराने दौर में यह मिट्टी के लौंदों को एक के ऊपर एक पाथ कर, लीप पोत कर खड़ी की गई दीवार होती थी जिसका मक़सद था सुरक्षा। बाद में इसी मूल से दीवाल, दीवार जैसे शब्द भी बने। फिरदौस और पैराडाइज़ (स्वर्गोद्यान) शब्दों का दूसरा पद यही दाएज़ा है जिसमें परिधि का भाव है।


देहरी जो घर की देह है

口ईरानी में जो दिज, दाएजा मिट्टी की दीवाल या परिधि है, उसका ही संस्कृत रूप दिह् है जिसमें भी उभार का भाव आया। मूलतः यह घर में प्रवेश के स्थान वाले उभार जिस पर चौखट टिकती है, से सम्बद्ध हुआ। पुराने दौर में वहाँ पर कुछ देर रुका जाता था। मुँह हाथ धोया जाता था, चप्पल उतारी जाती थी सुस्ताया जाता था तब घर में प्रवेश किया जाता था। इस तरह देहली और देह वाले रूपक को भी समझा जा सकता है। देहरी घर के भीतर प्रवेश से पहले का ठहराव है, जहाँ बाहर का संसार पीछे छूटता है और भीतर की निजी दुनिया खुलती है। यह वही मध्यस्थ बिंदु है जो देह भी अपने स्तर पर निभाती है—बाहरी जगत और आत्मानुभूति के बीच का पहला संपर्क। इस प्रकार ‘देहरी’ घर की ‘देह’ प्रतीत होती है- दोनों ही सुरक्षा, सीमा और अस्तित्व की गारंटी


चलते चलते-  'ढेलज' की बात

एक आम ग़लतफ़हमी यह भी है कि उर्दू का दहलीज और मराठी का ढेलज जैसे शब्द भी 'देहली' से व्युत्पन्न हैं ध्वनि व अर्थ, दोनों ही कारक यहाँ प्रबल हैं, पर ऐसा नहीं है । ये दोनों अलग-अलग मूल के हैं, पर अर्थगत साम्य की वजह से इन्हें देहली-ड्योढ़ी वाली शृङ्खला से सम्बन्धित मानना भी असहज नहीं है। यद्यपि 'दहलीज' और 'ढेलज' के स्रोत भिन्न हैं, पर 'देहली' के साथ इनका अर्थगत व ध्वनिसाम्य इतना गहन है कि व्यवहार में ये एक-दूसरे के पर्याय बन जाते हैं इनके मूल और विकास की विस्तृत चर्चा हम इस शृंखला की आगामी 'देहली_3 : दहलीज' वाली कड़ी में करेंगे। पिछली कड़ी

अगली कड़ी - दहलीज़ से देहली तक: ध्वनि, अर्थ और भ्रम की कथा