
‘ जवानी की इक शरारत के सिवा कुछ न थी’। इसे अख्तर साहब ने १९३५ में युनिवर्सिटी के मॉरिस हॉल में एक मुशायरे में पढ़ा और उस पर खूब हंगामा हुआ। मूल नज्म में सत्तर अस्सी शेर हैं। प्रकाश पंडित द्वारा अख्तर साहब पर लिखी किताब में इनमें से कुछ शेर दिए गए हैं जो मैं आपके आनंद के लिए यहां छाप रहा हूं। जिस किसी साथी के पास ये नज्म पूरी उपलब्ध हो , उसे अगर पूरी की पूरी देवनागरी में ब्लागर बिरादरी को उपलब्ध कराए तो बड़ा एहसान होगा। करीब १९७२-७३ की बात होगी। मैं तब छोटा था, हमारे कस्बे के गर्ल्ज हाई स्कूल के पास एक विक्टोरियन स्टाइल की लॉरी थी। मैं उसके लिए बड़े लड़कों के मुंह से हुस्न का डिब्बा नाम सुना करता था। बात तब पल्ले नहीं पड़ती थी। कॉलेज में जाकर जब इस नज्म को पढ़ा तो समझ में आ गई।
फ़जाओं में है सुब्ह का रंग तारी
गई है अभी गर्ल्ज कालेज की लॉरी
गई है अभी गूंजती गुनगुनाती
ज़माने की रफ्तार का राग गाती
वो सड़कों पे फूलों की धारी सी बुनती
इधर से , उधर से हसीनों को चुनती
झलकते वो शीशों में शादाब चेहरे
वो कलियां सी खिलती हुई मुंह अंधेरे
वो माथे पे साडी के रंगीं किनारे
सहर से निकलती शफ़क़ के इशारे

किसी की नज़र से अयां खुशमज़ाकी
किसी कि निगाहों में कुछ नींद बाकी
ये खिड़की से रंगीन चेहरा मिलाए
वो खिड़की का रंगीन शीशा गिराए
ये खिडकी से एक हाथ बाहर निकाले
वो जानू पे गिरती किताबे संभाले
ये चलती ज़मीं पर निगाहें जमाती
वो होंठो में अपने कलम को दबाती
किसी की वो हर बार त्योरी सी चढ़ती
दुकानों के तख्ते अधूरे से पढ़ती
कोई इक तरफ़ को सिमटती हुई सी
किनारे को साड़ी के बटती हुई सी
वो लॉरी में गूंजे हुए ज़मज़मे से
दबी मुस्कराहट सुबक क़हक़हे से
वो लहजो में चांदी खनकती हुई सी
वो नज़रों में कलियां चटकती हुई सी
वो आपस की छेड़े वो झूठे फ़साने
कोई इनकी बातों को कैसे न माने
फ़साना भी उनका तराना भी उनका
जवानी भी उनकी ज़माना भी उनका
कमाल है, मज़ा आ गया.
ReplyDeleteअरे वाह क्या बात है सरकार
ReplyDeleteमज़ा आ गया
जांनिसार अख्तर के फिल्मी गीत इकट्ठा करके सुनवाते हैं किसी दिन आपको
बहुत खूब!
ReplyDelete:)और क्या कहूँ ?
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बेहतरीन प्रस्तुति।
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