Tuesday, September 4, 2007

उस आंगन का चांद

मेरे प्रिय शायर इब्ने
इंशाजी की इस रचना का आनंद लीजिए। हर इक इन्सान की एक खयाली दुनिया होती है-कल्पनालोक। इंशाजी की खासियत है उनका चांद। यही उनकी फैंटेसी है और यही ख्वाबगाह। चांदनगर की खोज में वो दुनियाभर की खाक छानते फिरे। उन्होनें क्या पाया जानने के लिए इसे पूरा पढ़ जाइए।
(१)
शाम समय इक ऊंची सीढ़ियों वाले घर के आंगन में
चांद को उतरे देखा हमने चांद भी कैसा पूरा चांद!

इंशाजी इन चाहने वाली, देखने वाली आंखों ने
मुल्कों-मुल्कों, शहरों-शहरों , कैसा-कैसा देखा चांद?

हर इक चांद की अपनी धज थी, हर इक चांद का अपना रूप
लेकिन ऐसा रोशन-रोशन, हंसता बातें करता चाद?

दर्द की टीस तो उठती थी पर इतनी भी भरपूर कभी?
आज से पहले कब उतरा था , दिल में इतना गहरा चांद!

हमने तो किस्मत के दर से जब पाए अंधियारे पाए
यह भी चांद का सपना होगा, कैसा चांद , कहां का चांद?
(२)
इंशाजी दुनिया वालों में बे-साथी ,बे-दोस्त रहे
जैसे तारों के झुरमुट में तनहा चांद, अकेला चांद

उनका दामन इस दौलत से खाली का खाली ही रहा
वर्ना थे दुनिया में कितने चांदी चांद और सोना चांद

जग के चारों कूट में घूमा, सैलानी हैरान हुआ
इस बस्ती के इस कूचे के इस आंगन मे एसा चांद?

आंखों में भी चितवन में भी चांद ही चांद चमकते हैं
चांद ही टीका, चांद ही झूमर, चेहरा चांद और माथा चांद

एक यह चांदनगर का बासी जिससे दूर रहा संजोग
वर्ना इस दुनिया में सबने चाहा चांद और पाया चांद

(३)
अम्बर ने धरती पर फेंकी नूर की छींट उदास-उदास
आज की शब तो अंधी शब थी, आज किधर से निकला चांद!

इंशाजी यह और नगर है , इस बस्ती की रीत
यही सबकी अपनी-अपनी आंखें, सबका अपना-अपना चांद!

अपने सपने के मतले पर जो चमका वो चांद हुआ
जिसने मन के अंधियारे में आन किया उजियारा चांद

चंचल मुसकाती-मुसकाती गोरी का मुखडा़ महताब
पतझड़ के पेड़ों मे अटका पीला सा इक पत्ता चांद

दुख का दरिया , सुख का सागर उसके दम से देख लिए
हमको अपने साथ ही लेकर डूबा चांद और उभरा चांद
(४)
झुकी-झुकी पलकों के नीचे नमनाकी का नाम न था
यह कांटा जो हमें चुभा है काश तुझे भी चुभता चांद

रोशनियों की पीली किरचें , पूरब-पच्छिम फैल गईं
तूने किस शै के धोखे में पत्थर पर दे पटका चांद

हमने तो दोनों को देखा दोनों ही बेदर्द कठोर
धरती वाला, अंबर वाला, पहला चांद और दूजा चांद

चांद किसी का हो नहीं सकता , चांद किसी का होता है?
चांद की खातिर जिद नहीं करते ऐ मेरे अच्छे इंशा चांद



5 comments:

  1. इब्ने इंशा की रचना पढ़ाने के लिए शुक्रिया । मुहावरे वाले स्तम्भ का इन्तेज़ार रहेगा ।

    ReplyDelete
  2. अच्छा लगा इब्ने इंशा की रचना पढ़ना।

    ReplyDelete
  3. आज आपने अन्य लेखों से हट कर कुछ लिखा है. लगा कि इसे अनदेखा कर दूं. यदि कर दिया होता तो आपकी कलम का एक मोती मुझ से छूट जाता -- शास्त्री जे सी फिलिप

    मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
    2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार !!

    ReplyDelete
  4. वाह जी वाह!!

    बड़ा अद्भुत रहा इब्ने इंशा जी को पढ़ना-

    एक यह चांदनगर का बासी जिससे दूर रहा संजोग
    वर्ना इस दुनिया में सबने चाहा चांद और पाया चांद


    --सभी के लिये सच.

    ReplyDelete
  5. बहुत खूबसूरत गज़ल से मुलाकात हुई . शुक्रिया

    ReplyDelete