
भारत में प्रदक्षिणा की परिपाटी वैदिककाल से चली आ रही है । आर्यों में यज्ञ की परम्परा थी । यज्ञोपरांत दक्षिणास्वरूप दुधारू गायों को दान करने की परम्परा थी। ऐसा माना जाता है कि ये गाएं यज्ञस्थल पर वेदी के दक्षिण से उत्तर की ओर लाई जाती थीं इस तरह करीब करीब वेदी की परिक्रमा हो जाती थी जिसके लिए प्रदक्षिणा शब्द प्रचलित हो गया। यह भी माना जाता है कि प्राचीन भारतीयों ने सूर्य के निरंतर उदित और अस्त होने के क्रम के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए अग्निवेदी की परिक्रमा शुरू की होगी । डॉ राजबली पांडेय हिन्दू धर्मकोश में शतपथ ब्राह्मण का हवाला देते हुए एक प्रदक्षिणा मंत्र का उल्लेख करते हैं जिसमें कहा गया है –
‘सूर्य के समान यह हमारा पवित्र कार्य पूर्ण हो। ’ मूलतः भाव यही था कि जिस तरह सूर्यनारायण पूर्व में उदित होकर अपने नित्यक्रम पर चल पड़ते हैं और दक्षिणमार्ग से होते हुए पश्चिम

प्रदक्षिणा बाद में हिन्दू समाज में धार्मिक क्रिया बन गई। धर्मग्रन्थों में इसे षोड्षोपचार पूजन की अनिवार्य विधि माना गया है। यज्ञ-हवन आदि के अलावा प्रतिमाओं के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए भी बाईं ओर से दाईं ओर (इसे दक्षिण से उत्तर भी कह सकते हैं) परिक्रमा शुरू हो गई। बाद में तो मंदिरों में इस क्रिया के लिए विशेष तौर पर प्रदक्षिणापथ बनने लगे।
बहुत खूब । प्रदक्षिणा में झांक रही हैं चारों दिशाएं । ये भी सच है कि आराधना की क्रिया के साथ परिक्रमा का भाव
ReplyDeleteलगभग हर धर्म में है। अच्छी पोस्ट थी।
आपकी सभी पोस्ट पढ़ती हूं । उम्दा सब्जैक्ट्स और सलीके की तफ्सील । लिखते रहे।
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