
इंकलाबी - रूमानी शाइर मजाज़ लखनवी की एक नज्म रात और रेल। ऐ ग़मे दिल क्या करूं........ लिखने वाले शाइर के ये रचना भी अद्भुत है। बल्कि यूं कहें कि 'गर्ल्ज कालेज की लारी' को तो अख़्तर साहब ने खुद खारिज करते हुए उसे 'जवानी की शरारत' बताया था, मगर मजा़ज़ की ये नज़्म न सिर्फ आला दर्जे की है बल्कि उस पंक्ति में नहीं आती जहां 'लारी'खड़ी है।
फिर चली है रेल स्टेशन से लहराती हुई
नीम शब की ख़ामुशी में ज़ेरे लब गाती हुई
डगमगाती, झूमती, सीटी बजाती, खेलती
वादी-ओ-कुहसार की ढण्डी हवा खाती हुई
नौनिहालों को सुनाती , मीठी-मीठी लोरियां
नाज़नीनों को सुनहरे ख़्वाब दिखलाती हुई

ठोकरें खाकर लचकती, गुनगुनाती झूमती
सर खुशी में घुंगरुओं की ताल पर गाती हुई
नाज़ से हर मोड़ पर खाती हुई सौ पेचो-ख़म
इक दुल्हन अपनी अदा पे आप शर्माती हुई
रात की तारीकियों में झिलमिलाती कांपती
पटरियों पर दूर तक सीमाब झलकाती हुई
जैसे आधी रात के निकली हो इक शाही बरात
शादियानों की सदा से वज्द में आती हुई
सीना ए कुहसार पर चढ़ती हुई बेइख्तियार
एक नागिन जिस तरह मस्ती में लहराती हुई
तेज़तर होती हुई मंज़िल ब मंजिल दम ब दम
रफ्ता रफ्ता अफना असली रूप दिखलाती हुई
( अयोध्याप्रसाद गोयलीय की पुस्तक ‘शायरी के नए मोड़ से )
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ReplyDeleteवाह! रेल विषयक कविता और मैं यह टिप्पणी भी चलती रेल में कर रहा हूं!
ReplyDeleteअभी रात का सफर पूरा किया है। ट्रेन चल ही रही है - आगरा छावनी स्टेशन के लिये!
वाह, रेल की स्पीड बढ़िया है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रेल कविता लाई गई है खोज कर. आनन्द आया. :)
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