Monday, March 31, 2008

ईमानदार चिरकुटई काकेश की ....[बकलमखुद- 12]

शब्दों के सफर में बकलमखुद की शुरुआत की थी कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी ने । उसके बाद ठुमरी वाले विमल वर्मा ने सुनाई अपनी दिलचस्प दास्तान और फिर तीसरे पड़ाव पर लावण्या शाह की प्रवासी डायरी आपने पढ़ी। बकलमखुद के इस चौथे पड़ाव और बारहवें सोपान में पढ़ते हैं काकेश की बतकही काकेश के बारे में हम यह बता देना चाहते हैं कि वे ब्लाग दुनिया के उन लोगों में हैं जिनसे हमारी पिछले जन्म की रिश्तेदारी है। इनके व्यंग्य के हम कायल हैं । चाहे गद्य में लिखें या पद्य में। परेशानी वाली बात मगर यह है कि ये साहब अपने लेखन की इस खूबी का अपने ब्लाग पर ज्यादा इस्तेमाल नहीं करते हैं।

इज्ज़त उतारने के लिए बख्शी है इज्ज़त

खुद के बारे में लिखना सचमुच “बहुत कठिन है डगर पनघट की” जैसा है उस पर भी तुर्रा ये कि इस चिरकुट ने अब तक विशुद्ध चिरकुटई के कुछ किया ही नहीं जिसकी चर्चा की जाय। जब इसे लिखने बैठा हूँ तो ऐसा लग रहा है जैसे सैंचुरी बना के आउट हुए सचिन तेंदुलकर के बाद खेलने आने वाले बल्लेबाज को लगता होगा । (देखने वालों में आधे लोग तो टीवी बन्द कर ही लेते हैं ) अनिता जी ने शब्दों के सफर में जो ऊंची ऊंची उड़ान भरी है वह हम जैसे हमेशा कम ऊंचाई पर उड़ने वाले के लिये अलभ्य है। फिर भी अजित जी ने इज्जत उतारने के लिये इज्जत बख्शी है, तो शुरु हो जाते हैं।

जीवन ने जब आंखे खोली

प्रतिम सुन्दरता से भरपूर अल्मोड़ा मेरा जन्म स्थल बना। बचपन से प्रकृति की गोद में पला-पढ़ा। सामने हिमालय की हिमाच्छादित चोटियां होती जिन्हे सुबह-सुबह उठ कर देखना बहुत अच्छा लगता.चीड़–देवदारु के जंगल होते जिनमें कई बार मैं गाय चराने निकल जाता। दोस्तों के साथ आड़ू,खुबानी, दाणिम के पेड़ों पर चढ़ कर उन फलों को खाता। दूसरों की ककड़ी, नीबू, संतरा या माल्टा चुराता। शाम को हम लोग तरह तरह के जंगली फलों की तलाश में दूर निकल जाते और देर रात घर लौटते.घर आके डांट खाना और अगले दिन से ना जाने का वादा करना यह हर रोज का काम होता। पिताजी सरकारी कर्मचारी थे और माँ गृहिणी। दादा जी पंडिताई करते थे। उनसे ही बचपन में संस्कृत पढ़ना सीखा। उनके द्वारा हाथ से भोजपत्र पर लिखी हुई कुछ किताबें थीय़। उनकी राइटिंग ऐसी लगती थी जैसे छपाई की गयी हो। निगल की कलम और कमेट (सफेद स्याही) से पहले तख्ती पर फिर स्याही से कागज पर मेरी राइटिंग सुधारने की बहुत कोशिश की गयी लेकिन राइटिंग को ना सुधरना था ना सुधरी। जीआईसी अल्मोड़ा से किसी तरह से 12 तक की पढ़ाई पूरी की। उन दिनों जीआईसी के पास ही एक पुस्तकालय हुआ करता था। वहाँ से किताब पढ़ने का चस्का लगा। हिन्दी की बहुत सी किताबें वहीं पढ़ी। उनसे दुनिया के बारे में एक समझ पैदा हुई। कुछ दिनों आकाशवाणी अल्मोड़ा से भी प्रसारित होता रहा। फिर शुरु हुआ हॉस्टल में रहने का किस्सा। [पिता की गोद में काकेश और मांताजी की गोद में बहन]
जीवन ने जाना जीवन को,जीना सीखा

र में बचपन से दो ही चीजें बतायी गयीं थी कि बेटा बड़े होकर या तो डॉक्टर बनना या इंजीनियर। दोनों काम अपन के लिये आसान ना थे। किसी तरह इंजीनियर की प्रवेश परीक्षा को पास किया और इंजीनियर बनने के लिये कानपुर आ गये। पहली बार घर से बाहर हॉस्टल में अकेले। शुरु शुरु में तो डर भी बहुत लगा। कई परेशानियाँ भी हुई।जमकर रैंगिंग भी हुई लेकिन ये चार साल जिन्दगी के सबसे हसीन सालों में रहे। मैं तो कहता हूँ कि हर इंसान को हॉस्टल में एक बार जरूर रहना चाहिये। वहीं इंसान जिन्दगी को करीब से पहचानता है।यहाँ खुद के व्यक्तित्व के कई अनजाने पहलुओं से भी रुबरू हुआ।कॉलेज में स्टेज पर कई कार्यक्रम किये।कंपेयरिंग भी की। लिखने की भी कुछ कोशिशें की।नाटक लिखे, नाटकों का मंचन किया,अपनी वॉल मैगजीन निकाली।कई सारे काम, जो कभी सोचे भी नहीं थे कि मैं कर सकता हूँ,किये। कॉलेज की किताबों के अलावा काफी किताबें भी पढ़ीं। उन दिनों पढ़ने के जुनुन में कई बंगला किताबों के हिन्दी अनुवाद पढ़े। जिनमें विमल मित्र, शरत चंद्र ,शंकर, टैगोर प्रमुख हैं। इन किताबों से बंगला संस्कृति और कलकत्ता के एक छवि दिमाग में बनी।

कम्प्यूटर में दिलचस्पी और पागल समझा जाना

इंजीनियरिंग में मेरी ब्रांच में कंप्यूटर का कोई काम नहीं था। लेकिन न जाने क्यों मुझे कंम्प्यूटर पर काम करना बहुत अच्छा लगता था।
तब आज की तरह के कंप्यूटर नहीं होते थे। तब या तो पंच कार्ड वाले हरी रोशनी वाले कंप्यूटर थे या फिर फ्लॉपी से चालू होने वाले बिना हार्ड-डिस्क वाले ब्लैक एंड व्हाइट कंप्यूटर। हॉस्टल में जब सब लड़के मौज-मस्ती कर रहे होते तब मैं अपने एक मित्र के साथ कंम्यूटर लैब में होता। कंम्प्यूटर की कुछ भाषाएं भी तभी सीखीं। सभी लोग हमें पागल कहते क्योंकि उनके अनुसार हमारी नौकरी में यह कंम्यूटर का यह ज्ञान किसी भी तरह काम नहीं आने वाला था। लेकिन आगे चलकर इसी ज्ञान ने इज्जत बचायी। [बाकी हाल अगली कड़ी में ]

26 comments:

  1. अल्मोडा मेरे पापा जी को सर्वाधिक प्रिय स्थल लगता था ..पन्त जी दादा जी भी वहीं के थे ना !!

    काकेश भाई साहब ,
    आपके शैशव के बारे में,
    पूज्य दादा जी के बारे में सुनना
    बहोत पसंद आया !
    ...अगली कड़ी की प्रतीक्षा में .
    .स्नेह सहित,
    -- लावण्या

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  2. काकेश जी के बारे में जानने की उत्सुकता थी सो अभी भूमिका पढ़कर ही बैठ गए..अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार है.

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  3. ओह, फोटुएं तो बड़ी दिलफ़रेब हैं.. लॉंग जम्‍प की पहली छलांग सटीक है.. आगे की कूदन कैसी?

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  4. शानदार। कानपुर में पढ़े अभी तक बताया नहीं। आगे का इंतजार है।

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  5. काकेश जी यहाँ भी अपना चित्र छिपा गए। वाह!

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  6. बस्स ! इतना कम लिखना सरासर नाइनसाफी है ।
    अल्मोड़ा के आपके संस्मरण ने हमें पहाड़ों की याद दिला दी , बिनसर और कोसानी नही भुला पाते । आप वाकई खुशकिस्मत हैं कि प्रकृति के बीचों बीच बड़े हुए ।
    वैसे पहाड़ी कौए की जैसी फटी आवाज़ होती है और कालेपन को लजाता काला रंग होता है ,वैसे आप तो कतई नही हैं :-)

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  7. बचपन में हिमालय के उत्तुंग शिखरों को
    सुबह-सुबह निहारकर प्रफुल्लित होते रहे
    काकेश जी की शिखरगामी जीवन-यात्रा की
    शुरुआती उँचाइयों को
    आज सुबह-सवेरे पढ़कर
    मन प्रसन्न हो गया.

    आपने सही कहा और मुझे भी लगता है कि
    काकेश जी में व्यंग्य के औज़ारों से
    ज़िंदगी के पुर्ज़े दुरुस्त करने का
    कौशल स्पष्ट दिखता है.

    अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी.

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  8. काकेशजी की जय हो

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  9. काकेशजी की जय हो

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  10. भाई अच्छा है,हमारी उत्सुकता बनी हुई है...अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा..

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  11. हमारा कमेंट कहां है? उसे कौन खा गया?

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  12. अजीत जी ये आप क्या कर गये,ये तो काकेश के ममेरे भाइ की जीवन गाथा है ,जो टाटा मेग्रा छाप रहे है आपने अध छपी किताब ही काकेश के नाम से छाप डाली...:)

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  13. भई, कागाधिराज के लेखन के क़ायल तो हम भी हैं!!
    ये आपने सही कही कि वह ब्लॉग लेखन में अपनी खूबी का पूरे तौर पर इस्तेमाल करते नही दिखते!!!

    उनकी चिरकुटई की पहली किश्त अच्छी लगी लेकिन हमें मालूम है कि अगली किश्ते और भी जानदार रहेंगी इसलिए प्रतीक्षा करते हैं!
    शुक्रिया!!

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  14. आपके लेख से अल्मोड़ा की बाल मिठाई याद आ गई।

    अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।

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  15. प्रमोदजी एक अप्रैल को किसी के बहकावे मे आ रहे हैं क्या ? दो दो कमेंट डाले हैं और तब भी पूछते हैं -हमर कमेंटवा कहां ?

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  16. शब्दो के सफर के नये पड़ाव - बकलमखुद आज पढ़े , सभी बहुत पसंद आये । सफर में अब और भी आनंद आ रहा है, व्यस्तता की वजह से नियमित नहीं हूँ , पिछले कई स्टेशन छोड़ कर दौड़ती भागती यहाँ पहुँची हूँ सभी का साथ पाने के लिये ... , धीरे धीरे सभी पडावों पर इत्मीनान से सैर करुंगी , क्या देर सबेर भी टिपिया सकते हैं?

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  17. लावण्या जी ,मनीषा जी आपको मेरे बारे में पढ़ना अच्छा लगा.शुक्रिया.

    प्रमोद जी : याद है ना कोई बहुरुपिया काकेश आपसे मिला था ना यह सब चिरकुटई उसी की है. हम तो हमेशा से ही दिलफरेब राजा बाबू रहे ही हैं. आपको वो कॉलेज के आगे खड़ी लाल बाइक तो याद होगी ना जिसमें कई बार आपको भी घुमाया करते थे.

    अनूप जी : आज तो आपका और अपना राज भी हमने अपने ब्लॉग पर खोल ही दिया.अब इतने भोले भी ना बनें जी. :-)

    सुजाता जी : बिनसर,कौसानी,मुक्तेश्वर बहुत सी ऐसी जगह हैं जिनके बारे में लिखने बैठूँ तो ना जाने कितनी पोस्ट बन जायें.और आपने अभी तक असली काकेश को ना तो देखा है ना उसकी आवाज ही सुनी है.वह तो वैसा ही है जैसा पहाड़ का कौवा होता है जी.

    दिनेश जी : क्या करें हमारी तसवीर साफ आती ही नहीं जी.

    डा. चन्द्र कुमार जैन जी आपका कमेंट पाना सही में अच्छा लगा. आज पहली बार आपके ब्लॉग पर पहुंचा अच्छा लगा.यह पंक्तियाँ कितनी सटीक हैं आपकी.

    जब तक रात न ढल जाए सोने की बातें मत करना
    फूल हँसी के खिलने तक रोने की बातें मत करना
    माना बात रहेगी सब कुछ खो जाने के बाद मगर
    धीरज मंजिल मिलने तक खोने की बातें मत करना

    आलोक जी इतना जय जय करेंगे तो वीरू का क्या होगा औए बसंती वो कहाँ जायेगी? कुछ तो खयाल करें.

    अरुण जी : आपको हमने अपना ऐजेट नियुक्त किया है तो अजीत जी से वसूली आप ही करें.

    संजीत जी आप भी फूल बनाने वालों में शामिल हो गये. वैसे शुक्रिया आपका.

    विमल भाई आपकी ठुमरी जैसा तो नहीं ही है. खैर शुक्रिया आपका.

    ममता जी : अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंगोड़ी कभी आपको अपने ब्लॉग पर खिलाउंगा.

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  18. कागा मीठे तेरे बोल..मगर कुछ कुंडी भी तो खोल!

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  19. परूली की तरह यहाँ भी कहूंगी-- अगली कड़ी का इन्तज़ार

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  20. बढ़िया लगी चिरकुटई की पहली कड़ी... दूसरी कड़ी का इंतजार है.

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  21. बढ़िया लगी चिरकुटई की पहली कड़ी... दूसरी कड़ी का इंतजार है.

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  22. राजस्थान में एक लोकगीत है 'उड़ उड़ रे म्हारा काला रे कागला,कद म्हारा .....' .

    पहाड़ी कॉमरेड काकेश की पुख्ता जमीन और ऊंची उड़ान कायम रहे . अच्छा लिखा है . दस्तावेजी तस्वीरें तो और भी जबर्दस्त हैं .

    अजित भाई, कमाल की साबित हो रही है आपकी यह परिचयमाला .

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  23. कुटई चिर रहे
    चिरकुटई भए.
    http://nukkadh.blogspot.com/
    http://jhhakajhhaktimes.blogspot.com/
    http://bageechee.blogspot.com/
    http://avinashvachaspati.blogspot.com/

    आपके लिए उपयोगी लिंक्‍स, महत्‍वपूर्ण सूचनाएं.

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  24. काकेश जी आप के बारे में पढ़ना बहुत ही सुखद अनुभूति है। हमें तो एक दो पोस्ट नहीं पूरा उपन्यास चाहिए जी…अगली कड़ी का इंतजार

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  25. काकेश जी आप के बारे में पढ़ कर मजा आ गया। गैया चराते थे और अब ब्लोग चरवाते हैं ॥…अभीभूत करने वाला, आगे की कड़ी का इंतजार है।

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  26. इसे आराम से पढ़ने के लिए बचा रखा था । दिलफरेब आत्‍मकथ्‍य ।
    ऐसा लग रहा है जैसे आपने नहीं हमने जिया हो ।
    दो तमन्‍नाएं हैं अपनी । एक तो पहाड़ों पर जिएं ।
    दूसरा कभी बंगाल में पैदा होएं ।

    आप भाग्‍यशाली हैं हमारी पहली तमन्‍ना को जी चुके हैं ।

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