
शादी के बाद यहाँ आते ही जो बदलाव आया वह था भाषा का ..माहोल का ....वहां मेस पार्टी और आर्मी माहोल यहाँ उस से एक दम अलग ....और वहां बोलते थे हम ज्यादातर हिन्दी या इंग्लिश यहाँ मुल्तानी | वहां जिन्हें छोड़ कर आई थी , मम्मी पापा ...दो छोटी बहने , और एक प्यारा छोटा भाई जो मेरी शादी के वक्त बहुत छोटा था .और दीदी , दीदी कहते हुए शादी होते हुए पूरे समय तक मेरा दुपट्टा पकड़े रहा था | दीदी के साथ नही रह पायेगा अब वह यह बात उसको समझ में नही आ रही थी ,उसी से दूर होने का दुःख मुझे भी सबसे अधिक था |
यहाँ ससुराल में दो ननदे और मम्मी पापा थे | पर माहौल बिल्कुल ही अलग था | मायके में जो दिल में आता था वही किया ..खाना बनाना आता था ,पर उतना ही जितना जरुरी था ..बहुत आजादी वहां भी नही थी .पर यह समझ में आ गया था कि अब यहाँ कोई शैतानी नही की जा सकती है ...क्यूंकि यहाँ का माहौल बहुत डरा हुआ सा और सहमा हुआ सा लगा ...शायद यही फर्क होता है ससुराल और मायके का :) शादी के अगले दिन सासू माँ बोली की ""जा धा घिन''....जी कह कर मैं दूसरे कमरे में ....फ़िर मुझे यूँ ही खडे देखा तो फ़िर बोली रंजना धा घिन ....क्यूँ खलोती हैं [ क्यूँ खड़ी हुई है इस तरह ][कुछ इसी तरह का वाक्य ] मुझे आज तक नही आई यह भाषा :) हैरान परेशान क्या करू ....मेरा मासूम दिल समझ रहा था कि वह कुछ घिन घिन कह रहीं शायद वह किसी तरह के डांस की कोई रस्म से तो जुडा नही है ....बाबा रे !! यह शादी की रस्मे क्या मुसीबत है यह .......ईश्वर ने साथ दिया राजीव [मेरे पति देव ] सामने दिखे ....पर नई नवेली बहू अब पति को कैसे बुलाए .....आँखों में पानी ....कि करूँ तो क्या करूँ ....तभी यह अन्दर आए तो मेरी जान में जान आई ..पूछा की क्या करना है इस धा घिन का .....पहले देखते रहे और फ़िर जोर से हंस के बोले कि इस का कुछ नही करना जा कर नहा लो ...तौबा !! तो इसका यह मतलब था ...
फ़िर रसोई में पहली बार कुछ बनाना होता नई बहू को ...हलवा अच्छे से सीख के आई थी .[.जो कि पिक्चर में देखा करते थे अक्सर ].पर यहाँ बोला गया कि कढी और खीर बनाओ .... और मेरी हालत जो उस वक्त हुई वह आज भी नही भूलती ..सासू माँ बहुत अच्छी थी ,समझ गई बच्ची बुद्धू राम है इस.. मामले में ..कहा मैं बनाती हूँ तुम सिर्फ़ चम्मच से हिला दो खीर और कढी को रस्म हो गई ...यहाँ एक बात और अलग थी अभी तक आर्य समाजी माहौल देखा था यहाँ मम्मी कृष्ण जी की पूजा बहुत जोर शोर से करती थी | मथुरा ,गोकुल .यहाँ से अकसर आना जाना होता था | ससुर आर्य समाज जाते हैं | पर दोनों पूजा और हवन घर में अक्सर होते हैं | यही से कृष्ण राधा प्रेम की लगन लग गई इतनी कि आज तक मेरी हर बात उनसे होती है चाहे वह लड़ाई हो या और कोई बात उनसे ही शिकायत होती है | गायत्री मन्त्र तो जो रात को बोलने की सीख नाना जी ने डाली थी वह भी आज तक है और बच्चो में डाल दी है | फ़िर कुछ समय बाद लगा कि कुछ आगे पढ़ना चाहिए ..लिखने पढने का शौक है यह पति देव जान चुके थे | उनसे वादा लिया यही मैंने कि मुझे पढने लिखने से कभी नही रोकेंगे ।
हाँ, पिक्चर वो नही देखते तो मैंने भी वह शौक त्याग दिया ... .वैसे भी पिक्चर देखने से अच्छा मुझे कुदरत और किताबों का साथ अच्छा लगता है|..एक शौक बहुत मिलता जुलता रहा हम दोनों में वह था घुमने का ...जब तक बच्चे छोटे रहे कई जगह घूमे ...हर छ महीने के बाद दो तीन के लिए कहीं भी निकल जाते थे ..दिल्ली के आस पास .शिमला .जयपुर बहुत बार गए |और रही बात पढने की तो आज तक न कभी किताबे लेने और न कभी पढने के लिए रोका उन्होंने ..| यह जान कर कि मैं आगे पढ़ाई पत्रकारिता की दिशा में करना चाहती हूँ तो वह फॉर्म भरवा दिया | पर इकलौती बहू होने के कारण सासू माँ नही चाहती थी कि नौकरी करू और उस वक्त कोई ख़ास जरुरत भी महसूस नही हुई सो बस पढ़ाई चालू रखी ..| इस के बाद एमए हिन्दी के फॉर्म भी भरे पर पेपर नही दे पायी ...उसी वक्त पहली बिटिया आ गई और उसके तीन साल बाद दूसरी | उसके बाद का समय बस इन्ही दो बेटियों की देख रेख में गुजरने लगा | लिखना पढ़ना भी तभी कुछ कम हुआ ..| वक्त की उंच नीच साथ साथ हर जिंदगी के चलती है .|
बीच के कुछ साल बहुत ख़राब निकले ..सबसे अधिक नुक्सान हुआ जो मेरी ससुराल में सबसे बड़ी सपोर्टर रहीं मेरी सासू माँ का अचानक से चले जाना | यह माँ के जाने के बाद मेरी ज़िन्दगी का दूसरा बड़ा नुकसान रहा | फ़िर ....राजीव जी की कुछ समय तक जॉब न रहना और घर में कई परेशानी जैसे एक दम से आ गयीं ..| तब महसूस हुआ कि अब मेरी भी नौकरी करने का वक्त आ गया है | बच्चियां अभी दोनों छोटी थी ....सो अध्यापिका की नौकरी ही बेहतर रहेगी | घर और जॉब दोनों साथ साथ चल सकेंगे | उस वक्त एक छोटे से स्कूल में तो नौकरी मिल गई पर अच्छे स्कूल में नौकरी के लिए बी .एड का होना जरुरी था | स्कूल के साथ साथ उसी वक्त रोहतक यूनिवर्सिटी से पत्राचार में बी .एड भी कर लिया | कभी अपनी माँ को इस तरह बच्चो के साथ पढ़ते देखा था ..आज मैं भी वही जिंदगी की ज़ंग लड़ रही थी :) वक्त भी कैसे रंग दिखाता है | पर यह बहुत अच्छा हुआ , और उस के बाद मैंने १२ साल एक अच्छे स्कूल में पढाया | यहाँ पढाने के साथ साथ हिन्दी सिखानी थी अफगानी बच्चो को जो उस वक्त अपने वतन से उजड़ कर यहाँ आए थे ..|
यह एक मजेदार अनुभव था .. इस में २२ साल के बच्चे भी थे और उसी क्लास में १० साल के हिन्दी सीखने वाले भी | लाल गुलाल बच्चे पर अपने देश से बेहद प्यार करने वाले | उनके पास जब उनके घर की फोटी देखती थी तो हैरानी होती थी कि कितने बड़े बड़े घर यह वहां समान समेत छोड़ कर भाग आए हैं यहाँ जान बचाने के लिए | पर क्या किया जा सकता था ..वो तो हिन्दी बोलने लायक ही सीखे पर मैं उस वक्त उनकी भाषा संस्कृति से बहुत कुछ नया जान सकी | इन्ही दिनों में साथ साथ प्रूफ़ रीडिंग का काम और घर ट्यूशन पढाने का काम भी किया | इस बीच शाम को कुछ घंटे मधुबन पब्लिशिंग के साथ पार्ट टाइम जॉब करने का मौका भी मिला | यही पर प्रेमचंद के नावल "वरदान "पर भी काम करने का मौका मिला | जिंदगी बदलते अंदाज में हर पल कुछ नया सिखाती है और आगे बढती चली जाती है | मुझे लगता है कि जिंदगी का यह मुश्किल समय ही बहुत तगडे अनुभव दे जाता है | लेखन का काम मेरे मनपसंद का था ...फ़िर यही काम अच्छा लगने लगा .... और स्कूल छोड़ दिया | जारी
एक बात कहूं रंजना जी? आप स्माईली के पीछे अपना दर्द छिपाना चाह रही हैं.. मैं भी अक्सर किया करता हूं.. मेरा ब्लौग पढने वाले भी यही समझ कर वाह-वाही कर आते हैं कि ये बच्चा बहुत खुश है.. :)
ReplyDeleteअच्छा लगा रंजना जी के बारे में जानकर !शुक्रिया अजित जी !
ReplyDeleteसुन्दर। बहादुर ब्लागर। आगे की कथा का इंतजार है।
ReplyDeleteजो जंग जीत लेता है वही सूरमा है,रंजना जी भी कम नहीं
ReplyDeleteओह तो आप मुलतानी परिवार में आ गयीं, मेरे ख्याल से आप की सासू जी ने कहा होगा ना घिन ( नहा लो)…:) आप की कहानी कुछ हद्द तक अपनी कहानी सी लग रही है। हमें भी शादी से पहले खाना बनाना बहुत कम आता था और मलयालम समझना तो आज भी टेड़ी खीर है, ऐसे में ससुराल वाले ही इंगलिश में बोल कर हमारी परेशानी दूर कर देते थे। बहुत अच्छा लग रहा है अगली कड़ी का इंतजार है।
ReplyDeleteहा हा! अजीत जी आखिर हमने आप के चिठ्ठे की नाराजगी तोड़ ही ली।
ReplyDelete@अनिता कुमार
ReplyDeleteये अच्छा हुआ कि नाराजगी दूर हो गई वर्ना हमें भी सफर में आपकी टिप्पणियों की कमी खल रही थी और बकलमखुद वाली मेहमान को भी...
बहुत अचछा लग रहा है रंजू जी । आपका ना घिन या धा घिन सुन कर मुझे कलकत्ते की याद आ गई जहाँ भीड भरी बस में से उतरते हनए लोग जोर जोर से नापते दीन बोलते थे । मतलब उतरने दीजीये ।
ReplyDeleteहनए को हुए पढें ।
ReplyDeleteयह पहलू भी जाना..बहुत डूब कर पढ़ा...जारी रखें. इन्तजार है आगे सुनने का!!
ReplyDeleteअब जिंदगी पटरी पर आती नजर आ रही है .....कौन कहता है की मनुष्य की ज़िंदगी बस थोड़ी सी होती है -इतनी उथल पुथल आपाधापी ,रंग बदरंग ,कही अनकही और बेबसी का एक अंतहीन सा सफर ! जिंदगी किस पैमाने पर छोटी सी हुई ?
ReplyDeletebahut achcha laga jaan kar
ReplyDeleteअच्छा चल रहा है यह सफ़र. वाक़ई.
ReplyDeleteआपकी यादों के कारवां का सहयात्री बनाना ,बड़ा ही सुखद लग रहा है.चलती रहें,मंत्रमुग्ध हम भी साथ चल रहे हैं.
ReplyDeleteaage jaldi likhiye..itna padha kar aage ke liye intizar krwa rahin hai..buri baat
ReplyDeletebehatarin laga aapke anubhav ka sathi bankar.
ReplyDeleteALOK SINGH "SAHIL"
अच्छा लगा आप के बारे में जानकर! अगली कड़ी का इंतजार है।
ReplyDeleteऐसा लगा मानोँ आप हमेँ सच्ची बातेँ, आमने सामने कह रही हैँ..जीवन सँघर्ष का दूसरा नाम है
ReplyDeleteआपकी इस कडी को पढ आगे की उत्सुकता हो गई..बहुत अच्छा लिखा है
स्नेह,
-लावण्या
बहुत अच्छा लग रहा है, रंजू जी आपके बारे में जानना। सचमुच मंत्रमुग्ध हो जा रहे हैं हम पढ़कर।
ReplyDeleteआपके जीवन की खट्टी-मीठी बातों से रूबरू होने का मौका मिल रहा है; जुझारू जीवन का रोचक वृतांत है, जारी रखें।
ReplyDeleteये सफर सचमुच बेहतरीन है और आप के साथ चलना भी। अगले के इंतजार में। आपने तो बहुत काम भी किया है। लाजवाब।
ReplyDeleteरंजना जी, पढ़ कर अच्छा लगा
ReplyDeleteआप कविता तो अच्छी लिख ही लेती थी, संस्मरण भी अच्छा लिख रही है. ख़ुद के बारे में इतने खुलासे से लिखने के लिए हिम्मत चाहिए... जो दिख रहा है के आप में है. कीप उप थे गुड वर्क
jivan me aye ye dhundhalke bhi shayad zaruri hi hai, yahi to vyakti ko samvwedanshil, practical aur philosopher banate hai..! man ko chhu raha hai aap ka ye atmakathan
ReplyDeleteरंजना जी की गाथा और इस ब्लॉग पर.... देर से आने के लिए क्षमा.
ReplyDeleteहाँ पढ़ जरूर पहले ही लिया था, वो भी मोबाइल पर बड़ी मुश्किल से... रंजना जी को तो पता ही है की उनका लिखा मैं नहीं छोड़ता :-)