

जब ग्यारहवी क्लास में थे तभी ' मैंने प्यार किया' फिल्म आई थी! सलमान खान को देखकर हम सभी सहेलियां एकदम फैन हो गए थे!हम १२ लड़कियों का ग्रुप था...हमने एक साथ वो फिल्म १७ बार देखी! जहां सलमान खान किसी को भी क्यूट लगता तत्काल वहीं पर पॉज़ कर दिया जाता था!बड़ी देर तक निहारते रहते सलमान की सूरत! बाज़ार से खरीद कर पोस्टकार्ड साइज़ फोटो भी इकट्ठे कर लिए थे सलमान के! दो साल बाद सलमान की जगह आमिर ने ले ली और ' दिल है कि मानता नहीं' भी हमने १० बार देखी! हर दो साल में पसंद बदल जाती और आजकल 'जब वी मेट' के बाद से शाहिद को ये सौभाग्य प्राप्त हुआ है! बस फर्क इतना है कि अब फोटो नहीं रखते हैं!वैसे बेवफाई हमने किसी के साथ नहीं की...शाहिद को पसंद करने का ये मतलब नहीं की आमिर और सलमान को छोड़ दिया! वो भी उतने ही पसंद हैं!
दीदी बनते बनते वक्त लग गया...
उन दिनों दोस्ती का जज्बा हर रिश्ते से ऊपर हुआ करता था...हम लोग घंटों बैठकर प्लान बनते की कौन बड़े होकर क्या बनेगा! मैं हमेशा से डॉक्टर बनना चाहती थी...वो भी शिशु रोग विशेषज्ञ! मेरी सहेली प्रीती कार्डियोलोजिस्ट बनना चाहती थी! हम यहाँ तक सपने देख डालते थे की क्लीनिक का नाम क्या होगा और उसका इंटीरियर कैसा होगा! डॉक्टर बनने की चाह के चलते पी.एम .टी. की तैयारी की...एक साल ड्राप भी दिया मगर सिलेक्शन नही हुआ! मुझे ये स्वीकार करने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं कि मेरी तैयारी में कमी थी! खैर...डॉक्टर नहीं बनना था सो नहीं बने! थोड़े दिन दुःख हुआ ..फ़िर वापस मस्त मौला! हम चारों बहनों में उम्र का खासा फासला था ...मेरी सबसे छोटी बहन सिन्नी मुझसे आठ साल छोटी है....लेकिन उस वक्त कोई मुझे दीदी नहीं बोलता था! सभी बहने नाम लेकर ही बुलाती थीं! इस बात पर में हमेशा झगडा करती थी...हद तो तब हो जाती जब सिन्नी कॉलोनी की मुझसे छोटी छोटी लड़कियों को दीदी बुलाती और मुझे नाम लेकर! कई सालों तक ये झगडा चलता रहा...फ़िर अपने आप ही न जाने कब हम दीदी बन गए! उसी वक्त का एक किस्सा और है जिसे मैं कभी नही भूल पाती! ! बात उन दिनों की है जब हम सेकंड इयर में पढ़ते थे!
टाकीज़ में सीट के हत्थे पर ....
एक बार मैं और गड्डू अपनी दो सहेलियों के साथ घर पर बिना बताये फिल्म देखने चले गए!पता नहीं क्या भूत सवार हुआ उस दिन की टॉकीज़ में जाते ही हम सब बदमाशी के मूड में आ गए!सीट से उठकर उसके हत्थे पर बैठ गए...जिससे पीछे वालों को न दिखे! सीटी बजानी शुरू कर दी,खूब हल्ला मचाया!लोगों ने काफी मना किया मगर हम कहाँ मानने वाले थे...इंटरवल में मैनेजर भी आ गया हमें समझाने! हम उस से हुज्जत कर ही रहे थे इतने में पीछे से एक आवाज़ आई " मैं जानता हूँ इनके पापा को, आज ही शिकायत करूंगा"! इतना सुनते ही सारी मस्ती काफूर हो गयी!हम बुरी तरह से डर गए " न जाने किसके पापा को जानता है ये"! चुपचाप उठे और सीधे आधी फिल्म देखकर ही घर चल दिए!घर में किसी को शक भी नहीं हुआ क्योकी चार बजे हम घर में थे!रात को दरवाजे पर घंटी बजी और हमें काटो तो खून नहीं ! वो आदमी हमारे पापा को जानने वाला निकला!उसने पापा को हमारी करतूतें बयान करना शुरू किया...जिसका अंत उसने इस प्रकार किया " साहब...आज तो बच्चियों ने आपकी नाक कटवा दी! इनकी पढाई लिखाई बंद करा दीजिये" इतना कहकर भाईसाब चलते बने!
पढ़ाई छोड़ो, घर बैठो...

अब हमारी बारी थी...हमने भी सच कुबूल कर लिया! खैर बहुत डांट पड़ी! पापा को उस आदमी की सलाह जम गयी...हमें कॉलेज जाने को मना कर दिया गया! बीस साल की जिंदगी में हमने पहली बार जाना की टेंशन क्या होता है! मुंह से आवाज़ न निकले हम दोनों की! मम्मी अलग रोएँ! तीन दिन हो गए..कॉलेज नहीं गए!चौथे दिन रात को हम चारों बहनें बिस्तर पर बैठकर विचार विमर्श कर रहे थे!मैंने कहा " गलती हो गयी..मान भी ली...माफ़ी भी मांग ली पर इतनी बड़ी गलती भी नहीं कर दी की पढाई छुडा दी जाए" सब बहने इस बात से सहमत हो गयीं! एक घंटे के विमर्श के बाद मैंने और गड्डू ने तय किया की हम ये घर छोड़ देंगे और कुछ भी काम करके अपनी पढाई का खर्चा निकाल लेंगे! दोनों छोटी बहनों ने पूरा साथ दिया और बोली " तुम लोग चिंता मत करना....हम चुप चाप तुम लोगों के लिए टिफिन में खाना ले आया करेंगे और ड्रेस भी बदल बदल कर दे जाया करेंगे" चिंतन काफी गंभीर था! लेकिन ये बात पूरी तरह सच है की किसी निर्णय पर पहुँचने के बाद मन शांत हो जाता है...चाहे वो निर्णय बेवकूफाना ही क्यों न हो! हम लोग अब पूरी तरह शांत और प्रसन्न थे! और घर छोड़ने की एक्साईटमेंट भी थी! चार दिन बाद हम लोग खुल के हँसे! सुबह उठकर निश्चय कर ही रहे थे की कैसे बताएं पापा को ये बात ...इतने में पापा ने बुलाया! हम लोग पक्का मन करके पापा के पास पहुंचे !पापा धीरे से बोले " आज से कॉलेज चली जाना, पढाई का नुक्सान मत करो" और इतना कहकर उन्होंने आँखें फेर लीं!उनका इतना कहना था की हम दोनों रो पड़े!पापा को हमारी पढाई का ख़याल था और हम अपनी मूर्खता में क्या सोचे जा रहे थे! हमने फिर से माफ़ी मांगी और सब कुछ ठीक हो गया!आज भी जब 'गुमराह' फिल्म टी.वी. पर आती है तो हंसी छूट जाती है! जी हाँ...वो फिल्म ' गुमराह' ही थी! जारी
वह बदमाशी नहीं बचपना था, और आप सच्चे हों तो मम्मी-पापा सब माफ कर देते हैं।
ReplyDeleteपहले तो लगा की अजितजी ने गुमराह और बदमाशी में कुछ कनेक्सन निकाला है. यहाँ आया तो... ओह ! मान गए !
ReplyDelete१७ बार ! सिनेमा हाल में दादागिरी ! और हम यहाँ फोकट के हीरो बनते फिरते हैं :-)
दीदी-भइया ना कहने कहने वाली बात तो अपनी भी है. पर बाकी... सलाम है आपको :-)
Bachpan ke din bhee kya din the ...
ReplyDeleteYe geet yaad aa gaya Pallavi ji.
Jaree rakhiye ..bahut rochak raha
ye kissa bhee .......
एक घंटे के विमर्श के बाद मैंने और गड्डू ने तय किया की हम ये घर छोड़ देंगे और कुछ भी काम करके अपनी पढाई का खर्चा निकाल लेंगे! दोनों छोटी बहनों ने पूरा साथ दिया और बोली " तुम लोग चिंता मत करना....हम चुप चाप तुम लोगों के लिए टिफिन में खाना ले आया करेंगे और ड्रेस भी बदल बदल कर दे जाया करेंगे"
ReplyDeleteदद्दा रे! ऐसी दादागिरी!
बचपन में अक्सर ऐसी नादानियां कर लेते हैं सभी :) यही शरारते तो बाद में मीठी याद का हिस्सा बनती है ...
ReplyDeleteइस प्रवाहमयी रचना को पढ़ते २ बहुत पुरानी यादो में खो गए ! पर यादे तो यादे हैं ! बचपन भले ही ना लौटे पर यादे तो लौटती ही रहेंगी ! बहुत शुभकामनाएँ !
ReplyDeletemujhey soch soch kar hansi aa rahi hai.. vo drishya jub ghar chorney ka nirnay liya jaa raha hogaa :)bachpan to bachpan...:) acchha lag raha hai..padhnaa
ReplyDeleteकित्ते शरीफ थे आपके शहर के लोग ?जो आपको हत्थे पर बैठकर पूरी पिक्चर देखने दी ? .सलमान ओर आमिर के हम भी फैन हुए थे ...पर १७ बार !नही भाई .......अब आमिर के रह गये है .....गुमराह एक सुनील दत्त वाली भी पिक्चर है ....आप कौन सी गुमराह की बात कर रही है ?
ReplyDeleteफोटो तो झकास है डी एस पी साहिबा .
प्रवाहमय ऐसा रोचक वर्णन कि पहली पंक्ति पूरी पढने से पहले ही अगली पंक्ति पढने को जी करे ।
ReplyDeletebahut rochak prasang
ReplyDeleteसबसे ज्यादा हँसी आपके गंभीर चिंतन पर आई...जय हो ऐसे मासूमियत भरे निर्णय की (टिफिन भी पहुँचा दिया करेंगे )
ReplyDeleteबहुत सरस प्रस्तुति है.
ReplyDeleteशैली भी है सहज...और
कहने का अंदाज़ भी है निराला.
कहीं-कहीं चुटकियाँ सुलझे हुए
व्यंग्य का मज़ा दे रही हैं....जैसे
शाहिद की चर्चा में सौभाग्य शब्द का प्रयोग !
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बधाई पल्लवी....आभार अजित जी.
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बदमाशी भरे बचपन की पूँजी अब पुलिसिया काम में बदमाशों को ठिकाने लगाने में कितना काम आ रही है, यह जरूर बताइएगा।
ReplyDeleteबहुत रोचक और सरल है आपकी प्रस्तुति। आभार।
चलिए आप गुमराह होने से बच ही गई...
ReplyDeleteशानदार!!
ReplyDeleteअंदाजे-बयां अच्छा है इसमें कोई शक़ नहीं।
चलो जी शाहिद की तस्वीर तो आप रखतीं नई, तब मैं सोचता हूं कि गलती से मै ही फिल्लम इंडस्ट्री ज्वाईन कर लेता हूं क्या पता तस्वीर रखना शुरु कर दो आप ;)
शब्दों के इस सफर को जारी रखें
ReplyDeleteशब्दों का सफर जारी रखें
ReplyDeletekahanii poori filmi chal rahi hai...kafi excitement hai bhai kahani me.....!
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