भा रत मे कलंदर qalandar को खानाबदोश, अर्ध घूमंतू जनजाति का दर्जा मिला हुआ है जिसमें नट , बंजारे , कंजर आदि आते हैं। कलंदर का अर्थ सूफी संत परंपरा से कैसे जुड़ा यह कहना मुश्किल है। मगर ईरान से इराक, अजरबैजान, तुर्किस्तान, अफ़गानिस्तान , पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश, चीन तक कलंदरों की एक लंबी परंपरा चली आई है जिसमें इन्हे इस्लाम धर्म को माननेवाला और सूफी परंपरा का संत माना है। इनमें और सूफियों में फर्क यही है कि सूफी जहां साफ-शफ्फाक़ श्वेत वस्त्रधारी संतों के तौर पर अलग से पहचाने जाते रहे हैं वहीं कलंदर अपनी अनोखी धज, बेपरवाह रहन-सहन और चमत्कारपूर्ण हरकतों के लिए जाने जाते हैं। कलंदर के बारे में शब्दकोश इतनी ही जानकारी देते हैं कि यह फारसी का शब्द है जो अरबी में भी प्रचलित है।
अलिफ़ लैला की कहानियों में क़िस्सा चार दरवेश के कई संस्करणों में दरवेश के स्थान पर कलंदर का प्रयोग भी किया गया है। इससे साफ है कि कलंदर सूफी दरवेशों की श्रेणी में ही आते हैं। कलंदरों के संदर्भ में उनकी निराली जीवन शैली के साथ मदिरापान की आदत का भी जिक्र होता है। कलंदरों की तुलना हिन्दू औघड़ सन्यासियों से की जा सकती है जिनकी जीवनशैली भी रहस्यमय होती है। कलंदर खुद को प्रेममार्गी मानते हैं। उनका दर्शन कहता है कि इश्क के जरिये ही खुदा मिल सकता है। सूफ़ी परम्परा के अनुसार वे भी द्वैत भाव को नकारते हैं। ईश्वर और मैं अलग नहीं हैं-इस पर उनका गहन विश्वास रहता है। कलंदर के भीतर समाए घूमंतू और बंजारापन को अगर भूला जाए तो संस्कृत में भी कलन्दर शब्द है जिसका अर्थ मिश्र जाति है। मोनियर विलियम्स ब्रह्म पुराण के हवाले से लिखते हैं- a man of a mixed caste. यह अर्थ प्रस्तुत सन्दर्भ से मेल नहीं खाता है।
अलिफ़ लैला की कहानियों में क़िस्सा चार दरवेश के कई संस्करणों में दरवेश के स्थान पर कलंदर का प्रयोग भी किया गया है। इससे साफ है कि कलंदर सूफी दरवेशों की श्रेणी में ही आते हैं। कलंदरों के संदर्भ में उनकी निराली जीवन शैली के साथ मदिरापान की आदत का भी जिक्र होता है। कलंदरों की तुलना हिन्दू औघड़ सन्यासियों से की जा सकती है जिनकी जीवनशैली भी रहस्यमय होती है। कलंदर खुद को प्रेममार्गी मानते हैं। उनका दर्शन कहता है कि इश्क के जरिये ही खुदा मिल सकता है। सूफ़ी परम्परा के अनुसार वे भी द्वैत भाव को नकारते हैं। ईश्वर और मैं अलग नहीं हैं-इस पर उनका गहन विश्वास रहता है। कलंदर के भीतर समाए घूमंतू और बंजारापन को अगर भूला जाए तो संस्कृत में भी कलन्दर शब्द है जिसका अर्थ मिश्र जाति है। मोनियर विलियम्स ब्रह्म पुराण के हवाले से लिखते हैं- a man of a mixed caste. यह अर्थ प्रस्तुत सन्दर्भ से मेल नहीं खाता है।
कलंदर शब्द की व्युत्पत्ति के संदर्भ में जितने भी संदर्भ टटोले हैं उनमें इन्हें घुमक्कड़, अलमस्त और खानाबदोश khanabadosh माना गया है जो लगातार अपने ठिकाने बदलते रहते हैं। खानाबदोश लगातार डेरों में रहते हैं। इस शब्द में ही यायावरी छिपी है। यह बना है खाना ब दोश से। खाना khana शब्द इंडो-ईरानी परिवार और इंडो-यूरोपीय परिवार का है जिसमें आवास, निवास, आश्रय का भाव है। संस्कृत की खन् धातु से इसकी रिश्तेदारी है जिसमें खनन का भाव शामिल है। खनन के जरिये ही प्राचीन काल में पहाड़ो में आश्रय के रूप में प्रकोष्ठ बनाए । हिन्दी, उर्दू, तुर्की का खाना इसी से बना है। खाना शब्द का प्रयोग अब कोना, दफ्तर, भवन, प्रकोष्ठ, खेमा आदि कई अर्थों में होता है मगर भाव आश्रय का ही है। फारसी में दोश का अर्थ हुआ कंधा। इस तरह खानाबदोश का मतलब हुआ अपना घर कंधे पर लादकर चलनेवाले। जाहिर है घूमंतू जनजातियां लगातार स्थान बदलते रहेने कि फितरत के चलते तम्बुओं में बसेरा करती हैं और मुकाम पूरा होते ही तम्बू उखड़ जाते हैं।
मेरी नज़र में यायावरी तबीयत के मद्देनज़र कलंदर की व्युत्पत्ति कलां qalan शब्द से हुई है। कलां सेमेटिक भाषा परिवार का शब्द है जिसमें वही भाव है जो खन् या खान में है । कलां से ही किला शब्द बना है जिसमें फौजी बस्ती या छावनी का भाव है जो अक्सर तम्बुओ की बस्ती होती है। कालांतर में दुर्ग के अर्थ में इससे बना किला शब्द प्रचलित हो गया मगर किले भी मूलतः फौजी छावनी ही होते हैं। फ़ारसी, तुर्की, उर्दू , हिन्दी भाषाओं में कलां शब्द बस्ती के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। कलंदर यानी कलां+दार। अर्थात तम्बुओं की बस्ती का प्रमुख। क़लां के दुर्ग वाले अर्थ में इसका मतलब क़िलेदार के तौर पर भी लगाया जा सकता है। इसमें भी मुखिया का ही भाव है। तम्बू को ढकनेवाले हल्के कपड़े को भी कलां ही कहते हैं। कालांतर में तम्बुओं में रहने वाले लोगों खानाबदोशों के एक खास समूह को ही कलंदर कहा जाने लगा। ईरान, तुर्की, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान आदि दक्षिण- मध्यएशियाई क्षेत्रों में प्राचीनकाल में दो बसाहटों के बीच फर्क करने के लिए छोटी बस्ती के साथ खुर्द और बड़ी के साथ कलां शब्द लगाया जाता था। यह फर्क आबादी के मद्देनजर था। मगर कलां शब्द में किले की मज़बूती, संगठन और सुरक्षा जैसे भाव हैं। इसीलिए क़लां से किला शब्द बना। क़लां से बने क़लांदार [ किलेदार,मुखिया ] और फिर कलंदर में ढले शब्द में निपट भिक्षुक कम और आध्यात्मिक नेता,पथप्रदर्शक, मार्गदर्शक, सन्यासीवाले भाव ही प्रमुख हैं।
धार्मिक स्तर पर कलंदर शब्द का प्रयोग होने के प्रमाण ग्यारहवीं सदी में ख्वाजा अब्दुल्ला के कलंदरनामा से मिलते हैं। बारहवींसदी में ग़ज़नी के सना गज़नवी के कलंदरियात नामक ग्रंथ से भी कलंदर शब्द को धार्मिक रूप मिलने के प्रमाण मिलते हैं। कलंदर जिप्सियों की तरह घूमंतू लोग हैं। जिप्सी या रोमा भारतीय मूल के माने जाते हैं। कलंदर शब्द निश्चित तौर पर मुस्लिम संस्कृति के साथ भारत में आया है।
हमारा मानना है कि कलंदर समुदाय के पनपने के पीछे वही कारण रहे होंगे जो जिप्सी समाज के उद्गम के पीछे देखे जाते हैं। लगता है युद्धों से बेघर हुए लोगों का समूह, हमलावर देश के अत्याचार का शिकार हुए वे लोग जो देश छोड़ने को मजबूर हुए, ऐसे फौजी जो बंदी बनाए जाने की आशंका में अपना राज्य छोड़ गए ऐसे तमाम लोग परिस्थितिवश अपने-अपने समाज से विमुक्त होकर यायावर बन गए। अलग-अलग ठिकानों पर ये तम्बुओं और डेरों में प्रभावहीन जीवन बिताने लगे। डेरेदारों, डेरों में रहनेवाले खानाबदोशों के लिए भी तब तक कलंदर शब्द प्रयोग होने लगा होगा।
मुख्यधारा से कट कर जाहिर है इनकी जीवन शैली भी बदली। अन्य विमुक्त जातियों से हेल-मेल बढ़ा। इसी क्रम में कलंदर खुद एक अलग बिरादरी बन गए। इनकी पहचान अर्धग्रामीण समाज के तौर पर बनी रही। भालू-बंदरों के तमाशों, जादूटोने, झाड़-फूंक करनेवालों के रूप में इनकी ख्याति बढ़ी। कुछ ऐसी ही पश्चिमी एशिया और दक्षिणी यूरोप के यायावर जिप्सियों की भी कहानी है। रोज़-रोज़ उज़ड़ते जाने के क्रम ने कलंदरों के स्वभाव में बेफिक्री पैदा कर दी। स्थान विशेष से इन्हें कोई लगाव नहीं इसलिए इनके जीवन का ढर्रा बेढब बना रहा। खूब शराब पीने खाना-पीना और मस्त रहने वाली जीवनशैली ने ही इन्हें मस्त कलंदर की पहचान दी। औघड़ जीवनशैली के लिए भी ये पहचाने जाते हैं। रिचर्ड्सन के फ़ारसी इंग्लिश कोश में 'कल' शब्द का अर्थ ऐसे लोगों से ताल्लुक रखता है जो खुद को ज़ख़्मी कर लेते हैं। यही नहीं, ये मुँडे सिर वाले भी होते हैं। अगली कड़ी में भी जारी
हमारा मानना है कि कलंदर समुदाय के पनपने के पीछे वही कारण रहे होंगे जो जिप्सी समाज के उद्गम के पीछे देखे जाते हैं। लगता है युद्धों से बेघर हुए लोगों का समूह, हमलावर देश के अत्याचार का शिकार हुए वे लोग जो देश छोड़ने को मजबूर हुए, ऐसे फौजी जो बंदी बनाए जाने की आशंका में अपना राज्य छोड़ गए ऐसे तमाम लोग परिस्थितिवश अपने-अपने समाज से विमुक्त होकर यायावर बन गए। अलग-अलग ठिकानों पर ये तम्बुओं और डेरों में प्रभावहीन जीवन बिताने लगे। डेरेदारों, डेरों में रहनेवाले खानाबदोशों के लिए भी तब तक कलंदर शब्द प्रयोग होने लगा होगा।
मुख्यधारा से कट कर जाहिर है इनकी जीवन शैली भी बदली। अन्य विमुक्त जातियों से हेल-मेल बढ़ा। इसी क्रम में कलंदर खुद एक अलग बिरादरी बन गए। इनकी पहचान अर्धग्रामीण समाज के तौर पर बनी रही। भालू-बंदरों के तमाशों, जादूटोने, झाड़-फूंक करनेवालों के रूप में इनकी ख्याति बढ़ी। कुछ ऐसी ही पश्चिमी एशिया और दक्षिणी यूरोप के यायावर जिप्सियों की भी कहानी है। रोज़-रोज़ उज़ड़ते जाने के क्रम ने कलंदरों के स्वभाव में बेफिक्री पैदा कर दी। स्थान विशेष से इन्हें कोई लगाव नहीं इसलिए इनके जीवन का ढर्रा बेढब बना रहा। खूब शराब पीने खाना-पीना और मस्त रहने वाली जीवनशैली ने ही इन्हें मस्त कलंदर की पहचान दी। औघड़ जीवनशैली के लिए भी ये पहचाने जाते हैं। रिचर्ड्सन के फ़ारसी इंग्लिश कोश में 'कल' शब्द का अर्थ ऐसे लोगों से ताल्लुक रखता है जो खुद को ज़ख़्मी कर लेते हैं। यही नहीं, ये मुँडे सिर वाले भी होते हैं। अगली कड़ी में भी जारी
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बहुत अनूठी और रोचक जानकारी देने का धन्यवाद!
ReplyDeleteदमादम मस्त कलंदर ,कलन्दरो को भी इतना नही मालुम होगा अपने बारे मे . इन से मिलते जुलते होते है मस्त इनके बारे मे भी कभी बताये .
ReplyDeleteबेहतरीन जानकारी..वैसे हमारे यहाँ एक फल को भी कलंदर कहते हैं शायद कहीं भी मस्ती में उग आता है, इसीलिए यह नाम पड़ा हो.
ReplyDeleteकलंदर शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में शानदार जानकारी.द्वैत भाव को नकारना तो हमारी अद्वैत परम्परा में भी है. बस एक हलकी सी कमी जो रही कि आपने सिंध के मशहूर शाहबाज़ कलंदर के बारे में अलग से जानकारी नहीं दी.
ReplyDeleteBahut badhiya rahee Kalandar ki jaankaree ...
ReplyDeleteAb peechlee kadee bhee dekhoongi.
@संजय व्यास
ReplyDeleteकलंदर की कड़ी अभी अधूरी है। यकीनन लाल शाहबाज कलंदर के बिना तो कलंदर गाथा पूरी ही नहीं हो सकती।
लाल शाहबाज कलंदर के बारे मे जानने के लिये इंतज़ार करेंगे।मस्त सफ़र्।
ReplyDeleteयायावरी में बेफिक्री निहित है - बहुत लम्बी प्लानिंग नहीं होती उसमें। जो लाइफ बहुत प्लान करेगा वो क्या खाक कलन्दर होगा!
ReplyDeleteयहाँ हमेशा कुछ ऐसा पढने को मिलता है जिसके बारे मे सोचा भी नही जा सकता ।
ReplyDeleteशुक्रिया ।
कलंदर बढ़िया लगा अपने को तो..
ReplyDeleteइस रोचक जानकारी के लिए शुक्रिया.
ReplyDeleteare waah...फ़िर से एक बिल्कुल नई और rochak jaankari. शुक्रिया.
ReplyDelete'मस्त कलंदर' ने कलंदर को फेमस कर दिया वर्ना कलंदर शब्द तो कोई जानता भी नहीं... और ये तो सच है की कलंदर भी इतना नहीं जानते होंगे. ऊपर से अगली कड़ी भी है... वाह !
ReplyDeleteआप ऐसी अनूठी जानकारी देते हैं
ReplyDeleteकि हम चकित रह जाते हैं, परन्तु
यह शब्द सम्पदा सचमुच सर्वोत्तम
निधि के रूप में हमें समृद्ध करती
जा रही है...आपका योगदान अब
शब्दों में रेखांकित करना कठिन
प्रतीत होता है...आभार !
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चन्द्रकुमार
आपकी कलम की नोक पर आने के लिए शब्द, कलंकदरों की तरह करिश्मे दिखाते होंगे और जगह पा कर निकाल हो जाते होंगे।
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर पता नहीं कैसे पहुँच गया...., आपका पेज बहुत सुंदर और ज्ञानवर्धक है...
ReplyDeleteआगे से एक सरसरी नज़र जरूर डालूँगा और कोई चीज़ मुझे बहुत अच्छी और बुरी लगी तो अपने विचार जरूर रखूँगा
भारत नौजवान सभा का दफ्तर भी दफ्तर-ब-दोश हुआ करता था।
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