Sunday, June 7, 2009

नौशाद साहब की श्वेत-श्याम छवियां

logo इस बार मशहूर संगीतकार नौशाद पर लिखी एक पुस्तक पर चर्चा।किताब की शैली रोचक है। इसे उनकी शख्सियत को नुमांया करते कई अध्यायों में बांटा गया है जैसे नौशाद बतौर शायर, बतौर लेखक, बतौर प्रेरणास्रोत आदि। इसे पेंग्विन ने खूबसूरती से छापा है। कीमत 150 रुपए है। mohd-rafi-and-naushadnaushad_565z_p25-Music1 

पि छले कुछ अर्से से नौशाद साहब पर चौधरी ज़िया इमाम की लिखी किताब- नौशादः ज़र्रा जो आफ़ताब बना- पढ़ी जा रही थी। लेखक ने नौशाद साहब की जिंदगी पर बेहतरीन तरीके से कलम चलाई है। इस बहाने  छह दशक पहले की मुंबई फिल्म इंडस्ट्री की तस्वीर भी हमारे सामने साफ होने लगती है। नौशाद साहब का बचपन और युवावस्था लखनऊ में बीती जहां की तहज़ीब उनके किरदार पर ताउम्र चस्पा रही।
स किताब की एक-एक पंक्ति से गुज़रना यूं है गोया गुज़रे  scan0001 ज़माने की किसी ब्लैक एंड व्हाईट फिल्म को देखा जा रहा है। तब दीगर रंगों का ख्याल ही नहीं आता था अलबत्ता फ़नकारी ही दिमाग पर असर करती थी चाहे एक्टिग हो या संगीत। चौधरी ज़िया इमाम ने उनके जीवन से जुड़े दिलचस्प वाक़यात जुटाए हैं जो महज़ क़िस्सों की शक्ल में सामने नहीं आते बल्कि नौशाद साहब की शख्सियत के अलग-अलग रंगों का खुलासा होता है। किस तरह लखनऊ के अमीनाबाद स्थित भोंदू एंड कम्पनी, जो साज़ों की दुकान थी, के सामने खड़े होकर साजों को टकटकी लगाए लगातार देखते रहते और हारमोनियम के सुरों को अपने दिल में उतारते। यह दुकान ही संगीत की पहली पाठशाला बनी। वे 1919 को लखनऊ में पैदा हुए और संगीत के जुनून के तहत कई तरह की करामातें दिखाते और  तास्सुरात को समेटते 1937 में बंबई जा पहुंचे जहां संगीतकार मुश्ताक हुसैन के आर्केस्ट्रा में चालीस रुपए माहवार पर पियानो बजाने की नौकरी मिल गई। यूं सफर शुरू हुआ।
जकल के मशीनी संगीत और मल्टीट्रैक डिजिटल रिकॉर्डिंग तकनीक के युग में पांच दशक पहले गानों को रिकार्ड करने में संगीतकारों को कितने पापड़ बेलने पड़ते थे, यह जानना दिलचस्प ही नहीं, हैरतअंगेज भी है। संगीतकार तब कलाबाज बन जाते थे। किताब से पता चलता है कि ज्यादातर आऊटडोर में रिकार्डिंग होती थी, क्योंकि फिल्म के नायक-नायिका खुद ही गीत गाया करते थे और तब तक पार्श्वगायन का दौर शुरु नहीं हुआ था। यह मूक फिल्मों के ठीक बाद का वक्त था। नायक या नायिका अगर किसी बगीचे में एकल या युगल गीत गाते थे तो सारे म्यूजिशियन बाराती की तरह छुपकर उनके पीछे पीछे बाजे बजाते हुए चलते थे। आज के फाइव स्टार स्टूडियो में रचे जा रहे चिल्लर संगीत की, उस ज़माने में बिना किसी सुविधा के रचे गए महान संगीत से कोई तुलना नहीं हो सकती है। यह देखकर गर्व होता है आज टीवी पर संगीत के जिन रियलिटी शोज़ का जलवा है, उसमें भाग लेने वाले ज्यादातर प्रतियोगियों के संगीतज्ञान की बारीकी और प्रतिभा का सही अनुमान निर्णायक तभी लगा पाते हैं जब तक वे चार-पांच दशक पुराने यादगार नग्मों को हूबहू गाकर नहीं सुना देते।
नौशाद साहब ने अपने दौर के न जाने कितने नवोदित  कलाकारों को मौका दिया। उनकी बनाई धुनों पर बनें गीतों को गाकर एक के बाद एक उन कलाकारों की शोहरत बुलंदी पर पहुंचने लगी। लता, रफी, मुकेश, उमादेवी टुनटुन, श्याम और महेन्द्र कपूर जैसे कितने ही नाम इस फेहरिस्त में हैं। पुस्तक में नौशाद साहब के समकालीन और वरिष्ठ संगीतकारों के किरदार भी उभारे गए हैं।

... नौशाद साहब से धुन समझने के बाद रफी साहब का रिहर्सल का अंदाज यूं रहता था...331689642_972e6a34c3

ज़िया इमाम ने नौशाद के संस्मरणों के हवाले से बहुत सारी बातें सहेजीं हैं जिसमें हुस्नलाल भगतराम, सी रामचंद्र, खेमचंद्र प्रकाश, ओपी नैयर, मदनमोहन, पं अमरनाथ, वसंत देसाई , रोशन, आरसी बोराल, खय्याम जैसे तमाम मशहूर नाम शामिल हैं जिन्होने भारतीय फिल्मी संगीत को दुनिया में उस मुकाम तक पहुंचाया जहां कोई बालीवुड फिल्म अगर ऑस्कर जीतती है तो उसके पीछे मौसिकी का भी मज़बूत हाथ होता है। समकालीनों को नौशाद साहब जितनी अक़ीदत और इज्जत से याद करते हैं वह सब पढ़ कर बहुत चैन मिलता है। नौशाद साहब बड़े अदब से भारतीय फिल्मों में पश्चिमी संगीत की लहर लाने का श्रेय सी रामचंद्र को देते हैं। हमें पता चलता है कि उनका बनाया गीत ‘गोरे गोरे, ओ बांके छोरे, कभी मेरी गली आया करो....’ हिन्दी फिल्मों का पहला पाश्चात्य शैली का गीत था।
फिल्मों  मे जिनकी दिलचस्पी है और इसे एक कला-माध्यम की तरह देखने और इसके इतिहास में दिलचस्पी रखनेवाले साथियों को यह किताब अपने संग्रह के लिए खरीदने की सलाह ज़रूर दूंगा। नौशाद साहब और उनके समकालीनों के जीवन की इतनी छवियां इस पुस्तक में शब्दों के जरिये उभारी गई हैं कि इस पुस्तक में कवर के अलावा उनके जीवन की एक भी तस्वीर का न होना  खलता नहीं है।

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18 comments:

  1. सुंदर समीक्षा! ऐसी, जिसे पढ़ कर पुस्तक को पढ़ने का मन करने लगा है।

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  2. अजित वडनेकर जी।
    नौशाद साहब पर चौधरी ज़िया इमाम की लिखी किताब-
    नौशादः ज़र्रा जो आफ़ताब बना
    की आपने सुंदर समीक्षा प्रस्तुत की है।

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  3. कठिन साधक और उसूलों से समझौता न करने वाले इंसान थे नौशाद। हिन्दुस्तानी संगीत के प्रति इतने समर्पित कि फिल्म 'उड़नखटोला' के हिट शीर्षक गीत में पश्चिमी संगीत के प्रयोग के लिए अपने को जीवन भर कोसते रहे !

    पवित्रता, संयम और उदात्तता का संयोग सराहना हो तो नौशाद-रफी का गीत 'मन तरपत हरि दरशन को आज' सुनें।

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  4. समीक्षा की शैली लुभाती है | समीक्षा वही उत्तम जो पुस्तक की बारीकियों को स्वयमेव ही ह्रदयंगम कर दे |

    शैली ही नहीं चयन भी उच्च कोटि का है | संगीत और नौशाद साहब ! वाह ! जिन चुनिन्दा संगीतकारों ने हमारे सिने संगीत को शास्त्रीय ऊँचाइयाँ दी उनमें नौशाद साहब शिरोमणि हैं |

    आपकी तो समीक्षाएं भी आनंद से भर देती है और दुर्लभ तुष्टि देती है |

    - RDS

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  5. नौशाद साहब से कई कई बार मिलने और उनके मुंह से ये सारी बातें सुनने का मौक़ा मिला है । इस पुस्‍तक के अंश पढ़कर बरबस नौशाद साहब की सूफियाना शख्सियत याद आ गयी है । अब हम बेचैन हैं और नौशाद के कुछ बेमिसाल गाने सुन रहे हैं संडे को ।

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  6. ये दुनिया तमाम विरोधाभासों के बावजूद भी रहने लायक़ बची है तो उसकी वजह ये है कि हमारे बीच नौशाद जैसा संगीतकार हुआ जो काल से परे का सिरज गया. पहला लता पुरस्कार नौशाद साहब को इन्दौर में दिया गया था. तब पहली और आख़िरी बार देखा था उन्हें . नज़दीक से गया तो यूँ लगा जैसे इस आदमी के जिस्म से दरबारी और मालकौंस के सुर झर रहे हैं.

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  7. waah waah
    anand aagaya
    ajit ji,
    badhai aapko............

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  8. बहुत सुंदर ,निश्चित देखेंगे .

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  9. नौशाद साहब पर लिखी पुस्तक की बहुत अच्छी समीक्षा की है ,मौका मिलेगा तो जरुर पढना चाहेंगे.

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  10. पुस्तक समीक्षा हर हफ्ते हम जैसे लोग जो किताबो से दूर रहते है को पुस्तक पढने को प्रेरित कर रही है

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  11. कितना कुछ जानने को मिला नौशाद़ साहब के बारे में ।

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  12. सुन्दर चर्चा पुस्तक की!

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  13. मैं जब बहुत छोटा था तब मैने एक फिल्म देखी थी शायद "तराना" नाम था उसका।
    आपने नौशाद साहब और जिस भोंदू एंड कंपनी वाले किस्से का जिक्र किया है ठीक उसी तरक का एक दृश्य तराना में भी था, जिसमें नायक तलत महमूद एक साज की दुकान के बाहर रोज खड़े रहते हैं, और उन्हें देखते रहते हैं। एक दिन बारिश में भीगते हुए नायक पर दुकान मालिक को दया आ जाती है और उसे अंदर बुला कर उसकी पसंद का वाद्य यंत्र उपहार में दे देते हैं।
    मुझे लगता है शायद यह दृश्य नौशाद साहब के किस्से से ही प्रेरित रहा होगा।
    नौशाद साहब कितने उम्दा शायर थे इसका अंदाजा उनके इस शेर से लगाया जा सकता है-
    अब भी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं
    अब भी जीने के बहाने बहुत हैं
    गैर-घर भीख ना मांगो अपने फ़न की
    जब अपने ही घर में खजाने बहुत हैं
    है दिन बदमज़ाकी के "नौशाद" लेकिन
    अब भी तेरे फ़न के दीवाने बहुत है।

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  14. आज के रियलिटी शो के कलाकार, गायक, संगीतकार जब अपने कमेंट देते है, तो नौशाद जैसे महान संगीतकार की महानता की दाद देने को जी चाहता है.

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  15. its a wonderful blog and a testimony of devotion to our matr bhasha and our hindi music...

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