Thursday, June 11, 2009

हज को चले ज़ायरीन

Mazar-e_sharif_-_Steve_Evans... अफ़गानिस्तान के बल्ख प्रांत की राजधानी मज़ारेशरीफ की विश्वप्रसिद्ध दरगाह… 

सूफी-संतों की दरगाहों के लिए मज़ार शब्द भी प्रचलित है जहां श्रद्धालुओं की जमातें इकट्ठा होती हैं। धार्मिक आस्था के चलते कई बसाहटों के नाम मशहूर हो जाते हैं। जैसे सूफी संत मुईनु्द्दीन चिश्ती की दरगाह होने से अजमेर को ख्वाजा की नगरी भी कहा जाता है। इसी तरह अफ़गानिस्तान के बल्ख प्रांत की राजधानी का नाम मज़ारेशरीफ है। माना जाता है कि यहां पैगम्बर हजरत मुहम्मद के नवासे अली इब्न अबी तालिब की मजार है। इस मजा़र की वजह से ही यह स्थान बल्ख प्रांत का सबसे बड़ा शहर है जबकि इसके नामकरण की वजह रहा प्राचीनकाल का प्रसिद्ध शहर बल्ख जिसे ग्रीक में बैक्ट्रिया और संस्कृत में वाह्लीक कहते हैं, अब एक पुराना एतिहासिक कस्ब भर रह गया है।
ज़ार शब्द का आज जो मतलब है वह सिर्फ किसी सूफी या समाज के प्रभावशाली व्यक्ति की दरगाह के तौर पर प्रचलित है। यह अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है- मिलने की जगह। यह बना है सेमेटिक धातु ज़ार (z-w-r)  या ज़ाईर (zyr) से जिसमें यात्रा करना, मिलने जाना, दर्शन करना, एकत्रित होना जैसे भाव हैं। अरबी का ज़ियारत शब्द इससे ही बना है जिसका मतलब आमतौर पर तीर्थयात्रा होता है। हिन्दी उर्दू और फारसी में ज़ियारत शब्द प्रचलित है जबकि इसका मूल रूप है ज़ियाराह। हिन्दी, उर्दू में भी यह शब्द मुस्लिमों की धर्मयात्रा के संदर्भ में जाना-पहचाना है। हिन्दी में तीर्थ या तीरथ ही इसके सही विकल्प हो सकते हैं। चूँकि तीर्थ के साथ नदी तट का आशय इसके प्राचीन संदर्भों में जुड़ता है इसलिए पुण्यदर्शन शब्द भी चल सकता है। वैसे ज़ियारत शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है। तीर्थयात्री की तरह ज़ियारत करनेवाले को ज़ायरीन (ज़ाईरीन) कहते हैं। ज़ार धातु में मिलने की जगह के अर्थ में मज़ार शब्द का दार्शनिक अर्थ है। आमतौर पर सूफ़ी संतों के डेरे जहां लगते रहे वहीं उनकी मज़ार भी बनती रही हैं। गौरतलब है कि इन संतों के डेरों पर उनसे मार्गदर्शन,आशीर्वचन लेने के लिए श्रद्धालुओं का आना ही ज़ियारत था। संत के महाप्रयाण को एक पवित्र आत्मा के परमात्मा से मिलन के तौर पर देखा जाना चाहिए। इस hajj1 रूप में मज़ार अर्थात मिलन स्थल जैसा भावार्थ एकदम सही है। मज़ार पर श्रद्धालुओं का जमावड़ा भी समाधि स्थल पर होने वाले रूहानी अनुभवो के लिए होता है इसलिए यहां भी भावार्थ सटीक है।
मुस्लिमों की तीर्थयात्रा के संदर्भ में एक अन्य शब्द से भी हिन्दी भाषी परिचित हैं वह है हज(ज्ज)। सऊदी अरब के पवित्र मक्का नगर की यात्रा को हज कहा जाता है। यूं आज हज को इस्लाम के मद्देनज़र देखा जाता है पर मक्का के काबा नामक स्थान पर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए हज यात्रा का क्रम अरब समाज में हजारों सालों से जारी है। यह बना है सेमिटिक धातु ह-ज-र से जिसमें छोड़ने, विभक्त होने, कूच करने का भाव है जो तीर्थयात्रा की खातिर, किसी पवित्र उद्धेश्य की खातिर किए जाने वाले उपवास, त्याग और प्रव्रज्या से जुड़ते हैं। इस्लाम का घोष होने के बाद इस शब्द में इस्लाम में शामिल होने का भाव भी आ गया। देशत्याग, परदेस जा बसने या उत्प्रवासन के अर्थ में हिज्रत या हिजरत शब्द उर्दू में प्रचलित है। वियोग, जुदाई या विरह के अर्थ में उर्दू शायरी में हिज्र शब्द का खूब प्रयोग हुआ है जो इसी मूल का है। मक्का में अपने विरोधियों से परेशान होकर उसूलों की खातिर जब मोहम्मद साहब ने 13 सितंबर 622 ईस्वी में मक्का छोड़ने का निश्चय किया उसे हिज्रत कहा गया। उसी तारीख से हिजरी संवत् कहा गया जहां से इस्लामी कैलेंडर शुरू होता है। मक्का से दूर रहते हुए पैगंबर ने अपने अनुयायियों की खातिर जब मातृभूमि के लिए फिर कूच किया ताकि अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा की परीक्षा हो सके, वह समय अरबों की प्राचीन तीर्थयात्रा का ही था जो अगस्त-सितंबर के महिने में पड़ती थी। उसे ही हज कहा जाता था। अरब समुदाय को इस्लाम का पाबंद बनाने के बाद हज यात्रा सभी मुसलमानों के लिए ज़रूरी हो गई। इस पवित्र मुकाम की परिक्रमा करनेवाले लोग हाजी कहलाए।
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17 comments:

  1. यहाँ इस ब्लाग पर आना भी जियारत से कम नहीं।

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  2. कुछ दिन दूर रहा चिट्ठाजगत से । अब आया तो मह्सूस किया कि इस ब्लॉग को पढ़ने की चाट ऐसी है कि मन को मनाया नहीं जा सकता । हज,हिज्रत, हिजरी और हिज्र का एक साथ उल्लेख पसंद आया ।

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  3. great !
    great !
    really great !
    aapka shabdon ka safar mubaraq ho..............
    hamaari to ghar baithe hi yaatra ho gayi.....

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  4. ज्ञानवर्धक पोस्ट्। आभार भाऊ आपका।

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  5. This comment has been removed by the author.

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  6. प्रतीत होता है कि सूफी सोच समस्त दर्शन शास्त्रों से ऊपर उठ कर है | एक अजीब सा बावलापन जो स्वयं को सत्-चित्-आनंद में विलीन कर दे | बाकी सब प्रपंच हैं | हिन्दू पंथ का भक्तिमार्ग भी कदाचित इस सूफी अहसास के करीब पहुंचा हो परन्तु निराकार में समा जाने विलीन हो जाने की चाह में कुछ अलग ही बात है | अब तो न ऐसी अलौकिक मस्ती में सने संत दीख पड़ते हैं न सही अर्थों में जियारत ही हो पाती है | कहीं तो कोई मजार मिले जहां जियारत हो |

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  7. bahut jankari wali post ke liye dhanywad.
    zyr se hi jatra ,yatra nikala hai shayad.
    Raj me tirthyatriyo ko jaatru bhi kaha jata hai .ex- Ramdevji ra jaatru,Pabu ji ra jaatru.

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  8. हज को चले
    ज़ायरीन।
    हाजी जी,
    आमीन।।

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  9. @किरण राजपुरोहित
    किरणजी,
    शुक्रिया सफर पर आने का। जात्रा, जत्रू, जतरा, जतरू जैसे शब्दों का जाईरीन से अर्थसाम्य ज़रूर है, मगर भाषाशास्त्रीय रिश्ता नहीं है। यात्रा से ही ये सब शब्द बने हैं।
    यात्रा शब्द बना है संस्कृत की -या- धातु से।
    देखे यहां http://shabdavali.blogspot.com/2007/12/blog-post_14.html यहां http://shabdavali.blogspot.com/2007/12/blog-post_18.html और यहां http://shabdavali.blogspot.com/2009/02/7.htmlऔर

    साभार

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  10. एक और उम्दा और ज्ञानवर्धक जानकारी... अच्छा लगता है आपको हर बार पढना

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  11. एक और शानदार पोस्ट .
    आभार

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  12. मीनाक्षी धन्वंतरिJune 11, 2009 at 6:14 PM

    नेट पर आने का मौका मिले तो शब्दों का सफ़र तो लाज़िमी है.. आपका ब्लॉग खुल नही रहा था...सो मेल ही कर देने की इच्छा हुई....

    हज और ज़ियारत की बहुत खूब व्याख्या.... ईरान में हज़ करके आए पुरुष को हज़ आगा और स्त्री को हज खानूम कहते हैं...

    मज़ार फारसी का प्रचलित शब्द है..शिया होने के कारण वहाँ मज़ारों पर जाया जाता है...लेकिन अरब में इसका इस्तेमाल नही सुना.... वैसे भी वहाँ मज़ार पर जाना हराम माना जाता है. जितने भी राजा दफनाए गए...सभी आम लोगो की तरह ही दफनाए गए... किंग फहद की कब्र भी ऐसे ही आम जगह पर आम सी दिखती है...

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  13. मजार सिर्फ हिन्दुस्तान में ही सबसे ज्यादा पायी जाती है अरब में तो शायद है ही नहीं . और हमारे शहर में तो कुत्ते शाह की ज्यारत ,पतंग शाह की ज्यारत आदि आदि

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  14. अजित जी,
    घर बैठे पुन्य की सारी
    कमाई बाँट देते हैं आप.
    ======================
    शुक्रिया
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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  15. मंसूर अली हाशमीJune 12, 2009 at 12:49 AM

    अजित वडनेरकरजी की आज की पोस्ट "शब्दों का सफर" पर ' हज को चले जायरीन' पढ़ कर...

    सवारी शब्दों पर
    सफ़र दर सफ़र साथ चलते रहे ,
    श-ब-द अपने मा-अ-ना बदलते रहे.

    पहाड़ो पे जाकर जामे ये कभी,
    ढलानों पे आकर पिघलते रहे.

    कभी यात्री बन के तीरथ गए,
    बने हाजी चौला बदलते रहे.

    धरम याद आया करम को चले,
    भटकते रहे और संभलते रहे.

    [निहित अर्थ में शब्द का धर्म है,
    कि सागर भी गागर में भरते रहे.
    ''अजित'' ही विजीत है समझ आ गया,
    हर-इक सुबह हम उनको पढ़ते रहे.]

    -मंसूर अली हाशमी

    नोट: आज भी आपकी पोस्ट पर कमेन्ट पब्लिश नही हो रहा है.

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  16. मीनाक्षी जी की टीप्पणी और आपकी पोस्ट से कई नई बातोँ का पता चला शुक्रिया -
    - लावण्या

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