अध्ययन, विद्वत्ता के पुश्तैनी होने की दुहाई देनेवाले अगड़ों या सवर्णों के पांडित्य प्रदर्शन से जुड़ा गवेषणा शब्द कहां से आ रहा है यह गौरतलब है। | ![]() |
ग वेषणा शब्द का पशुगणना से कोई रिश्ता हो सकता है? भारत में भी पशु गणना की परिपाटी प्राचीन काल से रही है। राज्य की सम्पत्ति वाले पशुओं की भी गणना होती थी और निजी स्वामित्व वाले पशुधन की भी। इस संदर्भ में प्राचीन भारतीय ग्रंथो में गवेषणा,व्रजघोष अथवा घोषयात्रा जैसे शब्द मिलते हैं। गवेषणा का आज जो अर्थ है वह किसी तथ्य की मीमांसा, किसी विषय में गहन शोध, खोज-बीन से है। मूलतः यह बना है संस्कृत के गव से जो गो अर्थात गाय का पर्याय है। ध्यान रहे कि पूर्ववैदिक काल में गो शब्द का अर्थ होता था चलना, जिसमें गति हो। देवनागरी के ग वर्ण में ही गतिमानता का भाव है।
गो शब्द का सामान्यतौर पर अर्थ गाय है मगर प्राचीनकाल में किसी भी पशु के लिए गो शब्द का प्रयोग होता था। ग मे निहित गति का भाव ही इसमें प्रमुख था। सभी पशु इधर उधर चलते-फिरते हैं, इसीलिए उन्हे गो कहा जाता था। पालतु पशुओं में प्रधानता चूंकि गोवंश के पशुओं की थी इसलिए धेनु के लिए गाय शब्द का प्रचलन शुरू हुआ। गवेषणा का आज चाहे जो भी अर्थ हो, प्राचीनकाल में इसका मतलब था गायों की गणना करना या गायों को खोजना। गव् धातु में खोजना, देखना का अर्थविस्तार झरोखा या रोशनदान के रूप में भी होता है। संस्कृत में इसके लिए गवाक्ष शब्द है यानी जहां से देखा जा सके। गौरतलब है कि यह देखना यूं ही निहारना नहीं है बल्कि कुछ खोजने तलाशने के लिए देखना है। गवाक्ष से राजस्थानी-मालवी में गोख या गोखा जैसे शब्द बने हैं जिसका अर्थ खिड़की या झरोखा ही होता है।
गोधूलीबेला लोक संस्कृति का महत्वपूर्ण शब्द है। जब गायें दिनभर वन में विचरण करने के बाद घर लौटती हैं उसे गोधूली बेला कहते हैं। गोधूली यानी गायों के चलने पर उड़नेवाले धूलिकणों से यह शब्द बना है। संस्कृत के वेला शब्द का हिन्दी रूप बेला होता है अर्थात वक्त। यूं गायों के चलने पर धूल हमेशा ही उड़ती है सो गायों के लौटने के वक्त को ही गोधूली वेला या गोधूली कहने के पीछे क्या तर्क है? दरअसल गायों को चरने के लिए भिनसारे छोड़ा जाता रहा है जब ज्यादातर लोग सोए रहते हैं। एक अन्य प्रमुख वजह यह भी है कि रात में नमी की वजह से धूलिकण भारी हो जाते हैं और हवा में मंडराते नहीं हैं जबकि दिनभर की गरमी के बाद ज़मीन की सतह की नमी उड़ जाती है और
धूलिकण गायों के एक साथ चलने की वजह से हवा में उड़ने लगते है। गायों का शाम को लौटना इतनी अनिवार्य क्रिया है कि गांवों में गोधूली शब्द सन्ध्याकाल का पर्याय भी बन गया। गोधूली वेला में ही गोपालक इस बात की पड़ताल करते हैं कि गायों की संख्या बराबर है या नहीं। गव के साथ जुड़े एषणा का मतलब होता है खोज करना, कामना करना, ढूंढना आदि। इस तरह गवेषणा का अर्थ हुआ गायों को ढूंढना। गोशाला में लाने से पूर्व गउओं का पूरी संख्या में लौटना ज़रूरी होता था इसलिए गोधूलीवेला से पूर्व गवेषणा एक आवश्यक अनुशासन था। गोशाला में आने के बाद गायो को गिना भी जाता था सो गवेषणा में शोध और गणना दोनों भाव समाहित हैं। बाद में गवेषणा शब्द में निहित शोध या खोज का भाव प्रमुख हो गया और उसमें से गो लुप्त होती चली गई। अब गवेषणा शब्द का ग्वालों या गोपालकों से कोई रिश्ता नहीं रहा। गवेषणा अब मनीषियों, चिंतकों और विद्वानों के क्षेत्र का शब्द हो गया है। अगड़ों-पिछड़ों की चाहे जितनी बहस चलाई जाए मगर शोध, अध्ययन, विद्वत्ता के पुश्तैनी होने की दुहाई देनेवाले अगड़ों या सवर्णों के पांडित्य प्रदर्शन से जुड़ा शब्द कहां से आ रहा है यह गौरतलब है।
आज की तरह ही प्राचीन कल में भी पशुगणना होती थी जिसे घोष-यात्रा अथवा व्रज-घोष कहा जाता था। यह शासन के अधिकारियों का एक लंबा चौड़ा दल होता था जो वन प्रांतरों में जाकर प्रतिवर्ष घोष-यात्रा के जरिये पशुओं की गणना करता था। इसके अंतर्गत गायों की गणना की जाती थी। तुरंत ब्याई हुई गायों को, बछड़ों को और गाभिन गायों की अलग अलग गणना करते हुए उनके शरीर पर ही अंक या निशान डाल दिये जाते थे। इस प्रक्रिया के तहत दस सहस्र गायों की संख्या को व्रज कहा जाता था। गौरतलब है कि संस्कृत में व्रज् भी गतिवाचक धातु है। इसका अर्थ होता है चलना, जाना, गमन करना आदि। सन्यासी लगातार गमन करते थे या अपना निवास त्याग कर अन्यत्र वास करते थे इसलिए उन्हें परिव्राजक कहते थे जो इसी मूल से जन्मा शब्द है। मवेशियों के चलने में यह निहित है। व्रज से बना है ब्रज शब्द जिसका अर्थ होता है मवेशियों का समूह, रेवड़ आदि। यदुवंशियों-गोपालकों की बहुतायत वाले एक समूचे परिक्षेत्र को क्यों ब्रज नाम मिला यह सहज ही समझा जा सकता है।
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बहुत सुंदर आलेख बन पड़ा है। बहुत सारे शब्दों के स्रोतों का पता बता रहा है।
ReplyDeleteअजितजी,
ReplyDelete^शब्दों के सफ़र* में आपके साथ चलना लाभकारी है. अच्छा शोधपूर्ण आलेख बन पड़ा है. कतिपय भ्रांत धरनाओ को ध्वस्त करता हुआ !बधाई !
कुछ व्यस्तता के चलते इधर में अनियमित रहा. बहुत धन्यवाद इस शब्द श्रोत की जानकारी हेतु.
ReplyDeleteरामराम.
भाउ, बिला वजह अगड़ों सवर्णों की टाँग क्यों खींच रहे हैं? अगड़ापन या सवर्णपन का रगड़ा अब झगड़ों के केन्द्र में है क्या? अब तो झगड़ा इसका है कि बाज़ार से कितना दोहन कर सकते हैं - क्या सवर्ण, क्या दलित और क्या पिछड़े? इसमें बाज़ार है कि नहीं ये तो नहीं मालूम लेकिन एक खबर यह है कि नरेगा में प्रधान जी ने अगड़े, पिछड़े और दलित सबको रजिस्टर में 100 की दिहाड़ी पर चढ़ा दिया है। काम तो केवल कागज पर है। दिन भर गुलछर्रे उड़ाओ और दिहाड़ी भी लूटो।
ReplyDeleteसब बराबर के हकदार।
बेहतरीन आलेख..आभार.
ReplyDelete@गिरिजेश राव
ReplyDeleteअजी महाराज, नाराज क्यों होते हैं। आपकी उलाहनापूर्ण टिप्पणी ने हमारा दिल जीत लिया है। मज़ा आ गया। अगड़ा-पिछड़ा मुहावरा भी इस्तेमाल करने देंगे या नहीं? गवेषणा के असली अर्थ की तरह ही चाहे अगड़ों-पिछड़ों का असली अर्थ गायब हो जाए, ये टर्म हो सकता है किन्हीं अन्य संदर्भों में हमारे साथ बनी रहे।
gyavardhak jankari .मालवा और निमाड़ में गोधूली बेला में पाणिग्रहण संस्कार बहुत शुभ माना जाता है |
ReplyDeleteकुछ बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द खुल गये हमारे सम्मुख । धन्यवाद ।
ReplyDeleteअच्छा, गौ की गणना सींग की तरफ से होती है या पूछ की तरफ से?! :-)
ReplyDeleteमेरा नाम भी बृजमोहन ही है |गवेषणा शब्द की व्याख्या व उदगम बतलाया अच्छी जानकारी मिली व्रज से ब्रज बनना |गायों को "भिनसारे " छोडा जाना बहुत दिन बाद यह शब्द पढ़ कर अच्छा लगा _भोर भी कहते है |गोधूली शब्द वाबत भी जानकारी मिली |हमारे यहाँ इतना ही सुना करते थे कि गोधूली के फेरा है (शादी में )|जानकारी अच्छी लगी
ReplyDeleteज्ञान जी के प्रश्न में उनकी तरह ही दम है . मेरे यहाँ तो एक ही गाय ही बची है . हमें तो गोधूलि की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती है गिनने के लिए .
ReplyDeleteआपके शब्दों के साथ-साथ सफ़र करना बहुत ही उपयोगी है बहुत सारे महत्वपूर्ण शब्दों के स्रोत यहां आसानी से मिल जाते हैं।
ReplyDeleteवात्सल्य शब्द को सार्थक करने वाली गौ माता से रु बरु करने वाले को आभार
ReplyDelete---ब्रज शब्द का मूल है विरज़ =वि+रज= विना धूलि के अर्थात जो प्रदेश सदा भरा-पूरा व हरा भरा,, रहता हो....अध्यात्म में वि+रज़=जो प्रदेश रज़ अर्थात सान्सारिकता से परे होगया हो( ग्यान ,भक्ति, वैराग्यता के उच्च सोपान के कारण) वह बिरज अर्थात ब्रज । इसीलिये अर्जुन को भी श्री क्रष्ण ने ब्रज नाम से सम्बोधित किया...
ReplyDelete---परिब्राजक===जो ब्रज-ब्रज अर्थत गांव गांव भ्रमण करता हो....
---गव, गाय, गौ का अर्थ बुद्धि भी होता है, ईक्षण=इच्छा= एषणा...गवेषणा= बुद्दिमत्तापूर्ण की गई इच्छा या घोषणा
उत्तम शोध के लिए आभार
ReplyDeleteबहुत ही मजेदार लेखक, एक सार्थक गवेषणा. कृपया जारी रखे.
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