Sunday, November 1, 2009

सरपत की धार पर अभय तिवारी

संबंधित आलेख-सरपत के बहाने शब्द-संधानFilm-logo-729747
भय तिवारी अपने दोस्त हैं। ब्लागर हैं। संवेदनशील हैं और फिल्मों के काम से जुड़े हैं। मुंबई में फिल्मों-धारावाहिकों में अपनी रचनात्मकता के दायरे में आत्मसम्मान की गुंजाईश देखते हुए व्यस्त रहते हैं। इस साल उनकी बनाई लघु फिल्म सरपत की चर्चा हो रही है। दिल्ली, मुंबई, पुणे, इलाहाबाद में मीडिया और रचनाकर्म से जुड़े लोगों के बीच अभय की इस कृति का सीमित प्रदर्शन हुआ और इस कोशिश को भरपूर प्रोत्साहन मिला। इस फिल्म के नाम से मैं खासा प्रभावित रहा और जब तक फिल्म देखने को मिलती, सरपत नाम को आधार बना कर इस पर दो किस्तों में शब्दों का सफर कर डाला।  अभय की यह फिल्म हमने भी पिछले दिनों तब देखी, जब उन्होंने इसकी डीवीडी भेजी। बिन मांगी इस सौगात के लिए उनका आभार।
फिल्म/थिएटर या कहें कि प्रदर्शनकारी कलाओं में अपनी दिलचस्पी रही है।  पहले बराबर नजर रखते थे, मगर बाद में अन्यान्य कारणों से यह सक्रियता कम होती चली गई। फिल्म विधा बहुत खास है और कैमरे की आंख कलम-कूची से रची गई कृति की बनिस्बत  उन आयामों को भी देख पाती है,

s4 sarpat 020s2  
sarpat 019 s1
s5 s3

चित्र-1-2-3 में अभय तिवारी शॉट समझाते हुए जिन्हें प्रमोद सिंह ने खींचा है। बाकी चित्रों में कुछ हमने वीडियो से उठाए और कुछ अभय ने उपलब्ध कराए। लोकेशन मुंबई के नजदीक देहात की है।

sarpat 023 

जिसकी कल्पना कर हम उस कृति के गुण-दोष पर विचार कर रहे होते हैं। हिन्दुस्तान में फिल्म विधा खालिस मनोरंजन माध्यम के रूप में से स्थापित है। रचनात्मकता या सृजन के सशक्त माध्यम के रूप में इसका मूल्यांकन मुंबइया सिनेमा के दर्शक से करना हमेशा से बेमानी समझा जाता रहा है क्योंकि उनकी पसंदगी-नापसंदगी हमेशा स्पीड, एक्शन, थ्रिल, म्यूजिक, ड्रामा जैसे पैमानों से गुज़रती है। नई धारा का फिल्मकार दरअसल अपनी फिल्म को कवि और लेखक की तरह रचता है, इसलिए इसे समझने के लिए भी कविता या कहानी को समझने वाली सेन्सिबिलिटी चाहिए। अभय का काम इस नजरिये से भी खास है। इस छोटी सी फिल्म में कई बातें एक साथ स्पष्ट होती हैं और यह हमारे समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों, अंतर्विरोधों को फ्रेम-दर-फ्रेम और संवादों के जरिये उभारती है। फिल्म की अवधि करीब अठारह मिनट है।
पूरी फिल्म में सरपत यानी तलवार से भी तेज़ घास का प्रतीक छाया हुआ है। सरपत की चुभन हर फ्रेम में महसूस हुई। संभव है ऐसा इसलिए भी हुआ हो क्योंकि मैं फिल्म को प्रतीकों के माध्यम से समझने का आदी रहा हूं। सरपत पर जब शब्दों का सफर लिख रहा था तो लगातार यह भी सोचता रहा कि अभय ने सरपत के प्रतीक का क्या और कैसा प्रयोग फिल्म में किया होगा। सो, अवचेतन में जो बात मेरे भीतर थी, उसने फिल्म में भी सरपत को तलाशा।
फिल्म में एक शहरी जोड़ा सफर पर है। कार का पहिया पंक्चर होता है। ये लोग किसी मदद की आशा में जंगल में घुसते हैं। एक खंडहर में उन्हें जिंदगी नजर आती है। देहाती औरत से साक्षात्कार होता है जिसका पति कर्ज की वजह से जान दे चुका है। गोद में नन्हे बच्चे को लिए, अपने देवर के साथ, गांव छोड़ कर इस बियाबान में आकर बस जाती है। शहरी स्त्री के पूछने पर, कि गुजारा कैसे होता है, ग्रामीण स्त्री अन्यमनस्कता से जो जवाब देती है वह उसे गहराई तक आशंकित कर जाता है। यहां है सरपत का शूल!!! तंगहाली की तकलीफ को बयां करते उस  व्यंग्य को शहरी स्त्री भांप नहीं पाती। शहरी स्त्री को गांववाली की सोहबत में  छोड़कर, उसका साथी टायर बदलने जाता है। शहरी स्त्री के भीतर आशंकाओं की खरपतवार पनपने लगती है। सरपत की चुभन यहां है। फिल्म यहां अचानक चौंकाती है। दरअसल यही नाटकीयता फिल्म माध्यम की ताकत है जो दर्शकों पर अन्य कला माध्यमों की तुलना में जादुई असर छोड़ती है।
किन्ही सहज क्षणों के साथ शुरु हुआ संवाद अचानक शहरी स्त्री को उस कल्पनालोक में पहुंचा देता है, दरअसल जो औसत शहरी मन में छाया है। यहां चाहें तो शहरी को और भी स्पेसिफिक तरीके से समझ सकते हैं। महानगरीय मानसिकता शायद वहां तक नहीं पहुंचती जहां से उस दुखी, पीड़ित स्त्री के संवाद की सचाई को महसूस कर सके। शहरी स्त्री को खंडहर में बसे उन ढाई-तीन प्राणियों से असुरक्षा का एहसास इतना गहराई तक परेशान करता है कि वह उन्हें सचमुच अपराधी के रूप में देखती है। कल्पनालोक में स्त्री का विचरण ही फिल्म की जान है। यहीं है सरपत का जंगल, यही है दो समाजों, दो परिवेशो के बीच की दूरी जिसे कभी पाटा नहीं जा सकता। यह दूरी तब भी नहीं मिटती जब इन वर्गों के किरदार एक दूसरे से रूबरू होते हैं, बल्कि तब ज़मीनी हकीक़त से दूर काल्पनिक सचाई उन्हे अनायास खींच कर फिर दूर छिटका देती है। सोच के स्तर पर जब इतनी विसंगति हो तब शहरी-ग्रामीण, अमीर-गरीब के बीच का दुराव तो बना रहेगा। अभय की फिल्म इसे बखूबी स्पष्ट करती है।
सके अतिरिक्त स्त्री विमर्श के पर्याप्त बिंदु भी फिल्म में नजर आए। ये अनायास नहीं है बल्कि समाज से गहराई से जुडे एक रचनाकार ने सायास अपने माध्यम के जरिये इन्हें देखा है। फिल्म के शुरुआती संवाद स्त्री-पुरुष रिश्तों में निहित अंतर्विरोध को उजागर करते हैं।
poster smallनिर्देशन-कथा-अभय तिवारी / कलाकार-रचना शाह. प्रशान्त नारायणनन.गरिमा श्रीवास्तव/ कैमेरा- सुधीर पलसाने/ ध्वनि मुद्रण-शेरखान.मनोज सिक्का/ विशेष सहयोग-प्रमोद सिंह यह लघु फ़िल्म मँगाने के लिए इस पते पर लिखें: मैजिक लैन्टर्न फ़ाउन्डेशन, जे १८८१, चित्तरंजन पार्क, नई दिल्ली – १९; फोन: ११ ४१६०५२३९, ईमेल: underconstruction@ magiclanternfoundation.org
पुरुषवादी मानसिकता कब, कहां, कैसा असर हमारे रिश्तों पर रोज़ छोड़ती है, फिल्म के शुरुआती फ्रेमों में यह बखूबी उजागर हुआ है। कुल मिलाकर मैं इस फिल्म से बहुत प्रभावित हुआ हूं। फिल्म के किरदारों का वर्गीकरण सामान्य नायक-नायिका वाले दायरे में नहीं किया जा सकता। दोनो स्त्री पात्र ही फिल्म के मुख्य चरित्र हैं। शहरी स्त्री और देहाती स्त्री की भूमिका निभाई है क्रमशः गरिमा श्रीवास्तव और रचना शाह ने। दोनों कलाकारों ने बेहतरीन काम किया है।  ग्रामीण स्त्री का चरित्र थोड़ा नाटकीय है इसीलिए उसमें चुनौती ज्यादा थी। शहरी स्त्री का किरदार एकदम सहज था और रचना शाह ने बेहतरीन तरीके से उसे निभाया। फिल्म की फोटोग्राफी शानदार है। ध्वन्यांकन उत्तम है।
भय तो वैसे भी जबर्दस्त प्रतिभावान हैं। हम उम्मीद रखते हैं कि आगे भी वे इस माध्यम पर भरपूर आज़माईश करेंगे। सिनेमा बहुत समय खपाऊ, महंगा माध्यम है। लघु फिल्मों की लागत भी लाखों में आती है, वह भी तब जब मित्रों और संबंधों का भरपूर सहयोग मिले। इच्छा थी कि इलाहाबाद में उनसे गले मिलकर बधाई देते, पर वह न हुआ। उन्हें जीवन भर निर्मल आनंद मिले, मंगल कामना है। हमें अच्छा लगा कि यह फिल्म इलाहाबाद के ब्लागर सेमिनार में दिखाई गई, हालांकि वहां हम इसे नहीं देख पाए। जिन साथियों ने इसे वहां देखा है उनसे अनुरोध है कि इस पर ज़रूर कुछ लिखें।  मेहनती और रचनात्मक प्रयासों का उल्लेख हमेशा होना चाहिए, देर से सही।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

13 comments:

  1. जो असर जासूसी उपन्‍यास पढ़ने पर होता है। वही प्रभाव यहां पर मौजूदगी से हुआ है। जासूसी उपन्‍यास का असर का अहसास बखूबी उकेरा गया है जो चिंतित करता है जबकि होता नहीं है।

    ReplyDelete
  2. बहुत प्रभावशाली और सधी समीक्षा -अभय एक गहरी संवेदना से युक्त सृजनकर्मी हैं -उनके लेखन की धार गहरी चोट पहुंचाती है -निर्मल आनंद का मैं ग्राहक हूँ ! मगर हाँ मुझे उनकी राजनीति के इतर पोस्टें ही ज्यादा प्रिय हैं -ऐसे संभावनाशील सृजनशिल्पी के लिए मन से सहज ही मंगल कामनाएं निःसृत होती रहती हैं -दुःख है इलाहाबाद में मुलाक़ात नहीं हो सकी !

    ReplyDelete
  3. अविनाश जी की टिप्पणी काफी कुछ कह गई

    बी एस पाबला

    ReplyDelete
  4. तगड़ी समीक्षा । यहाँ पहलेपहल वहीं से पहुँचा था ।

    ReplyDelete
  5. मिलने की इच्छा इधर भी कम नहीं थी मगर नियति को स्वीकार न था।
    इस समीक्षा के लिए बहुत आभार!

    ReplyDelete
  6. अजित भाई, बहुत सधी हुई समीक्षा है, जो फिल्म का आभास देती हुए उसे देखने को प्रेरित करती है।

    ReplyDelete
  7. समीक्षा बहुत प्रभावशाली है।
    बधाई!

    ReplyDelete
  8. is film k bare me padh kar aur garima shrivastav ji se sun kar, ise dekhne ki tamanna hai, lets c kab dekh pate hain

    ReplyDelete
  9. मैं भाग्यशाली रहा जो इलाहाबाद में इस फिल्म के प्रदर्शन पर मौजूद था। मैं समीक्षक तो नहीं लेकिन फिल्म देखकर सन्न रह गया।

    बचपन के गाँव में बिताये वो दिन याद गये जब आई-स्पाई खेलते समय ‘सरपत की टाट’ की आड़ में छिपते हुए थोड़ी असावधानी बरतने पर अंगुली चिरवा बैठते थे। सचमुच तलवार सी धार महसूस की है मैने।

    ReplyDelete
  10. हमारे अभय भाई , संवेदनशील व प्रतिभाशाली लेख़क तथा चिन्तक हैं
    उनका लिखा हमेशा मुझे बेहद अच्छा लगता है

    -- लावण्या

    ReplyDelete
  11. अब ऐसी सार्थक सिनेमा चर्चा का भी स्वागत है

    ReplyDelete
  12. सही बात है। मेहनती और रचनात्मक प्रयासों का उल्लेख होना ही चाहिए।


    इस सधी हुई समीक्षा के जरिए फिल्‍म की कथावस्‍तु से अवगत कराने के लिए आभार।

    ReplyDelete
  13. ऐसी फिल्में अधिक से अधिक लोगों तक पहुचनी चाहिए. अभयजी की प्रतिभा तो निर्मल आनंद पर दिखती ही है.

    ReplyDelete