Sunday, November 29, 2009

चक्रव्यूह, समूह और ऊहापोह

View [शब्दों का सफ़र बीते पांच वर्षों से प्रति रविवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित होता है]

10 comments:

  1. अच्छी जानकारी। धन्यवाद।

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  2. bबहुत बडिया इसे पहले पढ चुकी हूँ धन्यवाद्

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  3. शब्दों के समूह से ऊह निकला, चक्रो के व्यूह से पोह,
    असमंजस अपना ख़त्म हुआ, आरोह है न अब अवरोह.

    जनता के समूह को क्या कीजे जो खो दे समझ अपनी,
    शब्दों के शिकारी, आप तो अपनी जारी रखिये टोह.

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  4. सुंदर! पर रविवार को राजस्थान वाले संस्करणों में यह स्तंभ नहीं होता।

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  5. बेहद खूबसूरत प्रविष्टि । चित्र की स्कैनिंग और उसकी एडिटिंग इतनी बेहतर है कि मूल रूप में आसानी से पढ़ा जा सकता है इसे । आभार ।

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  6. बहुत अच्छी जानकारी दी , अजित जी.
    पढ़कर अच्छा लगा. बधाई

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  7. सुंदर आलेख। हमारा ज्ञान बढ़ा।

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  8. दिनेशरायजी सही कह रहे हैं। आपका ब्लॉग शुरू होने से काफ़ी पहले तो रविवार को आपका स्तंभ छपता था जिसे मैं फ़ौरी तौर पर पढ़ता था। आपके लेखों का महत्ता मैंने अरसे बाद समझी।

    एक वाक़या तो ये है कि मैं अपने दफ़्तर को दफ़्तर बोलता था, ऑफ़िस नहीं। मेरे साथ वाले मेरी भद्द उड़ाते थे। आपकी एक पोस्ट में मैंने दफ़्तर के मूल के बारे में पढ़ा तो मेरी झेंप जाती रही।

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