दिनेशरायजी सही कह रहे हैं। आपका ब्लॉग शुरू होने से काफ़ी पहले तो रविवार को आपका स्तंभ छपता था जिसे मैं फ़ौरी तौर पर पढ़ता था। आपके लेखों का महत्ता मैंने अरसे बाद समझी।
एक वाक़या तो ये है कि मैं अपने दफ़्तर को दफ़्तर बोलता था, ऑफ़िस नहीं। मेरे साथ वाले मेरी भद्द उड़ाते थे। आपकी एक पोस्ट में मैंने दफ़्तर के मूल के बारे में पढ़ा तो मेरी झेंप जाती रही।
अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
ReplyDeleteबधाई स्वीकार करें!
ReplyDeletebबहुत बडिया इसे पहले पढ चुकी हूँ धन्यवाद्
ReplyDeleteशब्दों के समूह से ऊह निकला, चक्रो के व्यूह से पोह,
ReplyDeleteअसमंजस अपना ख़त्म हुआ, आरोह है न अब अवरोह.
जनता के समूह को क्या कीजे जो खो दे समझ अपनी,
शब्दों के शिकारी, आप तो अपनी जारी रखिये टोह.
सुंदर! पर रविवार को राजस्थान वाले संस्करणों में यह स्तंभ नहीं होता।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत प्रविष्टि । चित्र की स्कैनिंग और उसकी एडिटिंग इतनी बेहतर है कि मूल रूप में आसानी से पढ़ा जा सकता है इसे । आभार ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी दी , अजित जी.
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा. बधाई
सुंदर आलेख। हमारा ज्ञान बढ़ा।
ReplyDeleteदिनेशरायजी सही कह रहे हैं। आपका ब्लॉग शुरू होने से काफ़ी पहले तो रविवार को आपका स्तंभ छपता था जिसे मैं फ़ौरी तौर पर पढ़ता था। आपके लेखों का महत्ता मैंने अरसे बाद समझी।
ReplyDeleteएक वाक़या तो ये है कि मैं अपने दफ़्तर को दफ़्तर बोलता था, ऑफ़िस नहीं। मेरे साथ वाले मेरी भद्द उड़ाते थे। आपकी एक पोस्ट में मैंने दफ़्तर के मूल के बारे में पढ़ा तो मेरी झेंप जाती रही।
सटीक अर्थ परिचय..
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