इस बार रविवारी पुस्तक चर्चा में हमने विलियम डब्ल्यू हंटर के प्रसिद्ध दस्तावेज को शामिल किया है। यह पुस्तक क़रीब डेढ़ साल पहले हमने पढ़ी। वरिष्ठ पत्रकार और हमारे मित्र विजय मनोहर तिवारी वृहत्तर भारत के भूगोल, समाज व संस्कृति को मिली इस्लाम की नेमतों की पड़ताल में लगे रहते हैं, सो हमने तय किया कि इसकी समीक्षा वे ही लिखेंगे। पेश है विलियम हंटर की क़लम से निकला भारतीय मुसलमान का लेखाजोखा। किताब- भारतीय मुसलमान प्रकाशक-प्रकाशन संस्थान, 4715/21, दयानंद मार्ग, दरियागंज, नईदिल्ली-110002 फोन- 01123253234/65283371 अनुवादक-नरेश नदीम...
विजय मनोहर तिवारी
प हले किताब के बारे में। ‘भारतीय मुसलमान’-विलियम डब्ल्यू. हंटर का 190 पेज का जबर्दस्त दस्तावेज है। हंटर 1871 में बंगाल में आईसीएस अफसर थे। ङ्क्षहदी में किताब की शक्ल में आई उनकी इस रिपोर्ट का शीर्षक है-भारतीय मुसलमान।
Hunter, Sir William Wilson (1840-1900) a member of the Indian Civil Service, a great statistician and compiler, an imperial historian, and a man of letters with a wide range of interests in race, religion, philology, diplomacy and journalism. तब के बंगाल-बिहार से लेकर पेशावर-काबुल तक के मुसलमानों की ब्रिटिश राजद्रोही गतिविधियों का एक लाइव दस्तावेज। इस बहाने मुस्लिम समुदाय के आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की पैनी पड़ताल। हंटर लिखता है-अंग्रेजों के राज में भारत मुसलमानों के लिए दारुल-हरब बन चुका था। हर दीनदार मुसलमान का फर्ज था कि वह इस हुकूमत को छोडक़र इस्लामी सल्तनत में चला जाए और बगावत करे। किताब का मूल विषय वहाबी आंदोलन के इर्दगिर्द है। बेशक इस किताब में पश्चिमी श्रेष्ठता का दंभ है लेकिन इस्लाम की मान्यताओं का बेबाक विश्लेषण भी। जब आप इस किताब में दर्ज राजद्रोही मुस्लिम किरदारों के क्रियाकलापों के बारे में पढ़ेंगे तो लगेगा कि बदला कुछ नहीं है।
आज के लश्करे-तोयबा, हिजबुल मुजाहिदीन और सिमी जैसे संगठन कुछ अलग अंदाज में तब भी पूरी ताकत से हुकूमत और अवाम के सिर दर्द बने हुए थे। मुहर्रिर जाफर और इमाम याहया अली ऐसे ही दो किरदार हैं, जो लगातार मुस्लिमों को भडक़ाते रहते थे। इनके बारे में हंटर लिखता है-‘ये संजीदा और जमीर वाले लोग थे, जिन्होंने खुद को जहर भरे हथियार चुभो लिए थे, जिन्हें एक झूठे धर्म ने उनके हाथों में थमा दिया था।’ बंगाल-बिहार पर केंद्रित इस किताब से उस समय के मुसलमानों की मानसिक स्थिति का भी अंदाजा होता है। एक ऐसी कौम जो सात सौ सालों से हुकूमत में थी। अब अंग्रेजों के हाथों बेदखल हो चुकी थी। अग्रेजों के आने से सदियों से गुलामों सी जिंदगी जी रहे हिंदुओं को जैसे ऑक्सीजन मिली थी। बहुसंख्यक आबादी को नई तालीम, नए तरीके और नई उम्मीद पैदा हुई थी। हिंदु कौम को जैसे लंबी नींद से जागने और मजहब के नाम पर थोपी जाती रही बंदिशों से बाहर आने का मौका मिला। मुसलमानों को लगा कि हिंदू अंग्रेजों से मिल गए हैं। दूरियां तो दोनों के बीच पहले दिन से ही थीं। हिंदुओं को अंग्रेजों का आसरा मिलते ही और बढ़ गईं। हंटर कहता है-वे काफिर हिंदुओं को एक हलाल के रूप में देखते हैं। उनके अस्तित्व का औचित्य ही काफिरों के खिलाफ जेहाद छेडऩा है। उनमें यह भाव पैदा हो हुआ है कि उनकी सारी नेमतें हिंदुओं के हाथों में चली गई हैं।
1793 में अंग्रेजों ने प्रशासनिक बदलाव तेज किए। मुसलमान मालगुजारों की जगह कलेक्टर आ गए। इससे शाही मुस्लिम घरानों की दबंग दुकानों पर ताले डलने लगे। यह उनके आर्थिक हितों पर सबसे बड़ी चोट थी। लेकिन मुस्लिम बदलते वक्त की जरूरतों को न समझ सके, न अपना सके। अवसाद ने उन्हें आक्रामक बनाया। वे अंग्रेजों के खिलाफ उबलते रहे। कर वसूली की सात सौ साल पुरानी मनमानी व्यवस्था से बेदखल होने से भूखों मरने की नौबत आ गई। रस्सी जल चुकी थी। ऐंठन बरकरार थी। पहले क्या व्यवस्था थी? राजस्व वसूलने वाले मालगुजार मुसलमान, फौज और पुलिस के सिपाही मुसलमान, जेलों के अफसर मुसलमान और इंसाफ की अदालतें भी काजियों के हाथ में। प्रशासन का हर काम
उन्हीं की भाषा में पर अब वे सब तरह के शाही हकों से महरूम हो चुके थे। इनकी जगह अंग्रेज आते जा रहे थे। इस वर्चस्ववादी व्यवस्था को हंटर कहता है-अपमानयोग्य लूटपाट के विशेषाधिकारों की सदियों से अभ्यस्त रह चुकी एक नस्ल। पहले 50 साल तक तो अंग्रेजों ने फारसी से ही अपना कामकाज चलाया। बाद में जनता की भाषा में सार्वजनिक कार्य करने का फैसला लेकर ङ्क्षहदी-अंग्रेजी को बढ़ावा दिया। दस सालों में ही नजारा बदल गया। बड़े पदों पर सदियों बाद हिंदुओं की ताजपोशी देखी गई।
1869 के आंकड़े किताब में इस दिलचस्प फर्क का खुलासा करते हैं। सरकारी विभागों में मुसलमानों की तुलना में हिंदू कई गुना बढ़ गए थे। ङ्क्षहदुओं ने अपने लिए इस अवसर को हाथोंहाथ लिया और आगे बढ़ गए। हंटर ये आंकड़े पेश करते हुए चुटकी लेता है-हिंदुओं की बुद्धि ऊंचे दरजे की है। इसके ठीक सौ साल पहले हालत उलटी थी। राज्य के सभी अहम ओहदों पर मुसलमानों का सुरक्षित एकाधिकार था। पिछले विजेता अपनी मेज से जो टुकड़ा गिरा देते थे उन्हीं को हिंदू आभार भाव से स्वीकार करते थे। हंटर इस सामाजिक बदलाव का श्रेय खुद लेते हुए लिखता है-हमारी लोकशिक्षण प्रणाली ने हिंदुओं को सदियों की नींद से जगाया है। पुरानी विजेता नस्ल खुमारी में बरबाद होती गई। ङ्क्षहदुओं को संभलने का एक मौका मिल गया। हिंदुओं ने अंग्रेजी सीखी, लेकिन मुसलमानों ने इससे परहेज किया। मुसलमानों ने बुतपरस्तों की भाषा में तालीम हासिल करने से इंकार कर दिया। यह फर्क इतना बड़ा था कि 1860-62 में सरकारी स्कूलों में सौ ङ्क्षहदू विद्यार्थियों के मुकाबले सिर्फ एक मुसलमान बच्चा देखा गया।
आपस में बटे हुए, सामने मंडराते खतरों से बेखबर और अपने ऐशो-आराम में मस्त तब के भारत के स्वदेशी राजाओं को महलों और राजसत्ताओं से बेदखल किया गया था। बंगाल-बिहार में यह सिलसिला बख्तियार खिलजी के समय शुरू होता है, जिसने 1193 में दुनिया भर में बेजोड़ नालंदा विश्वविद्यालय को आग लगाकर मिट्टी में मिला दिया था। तब बंगाल और बिहार अलग नहीं थे। बख्तियार यहां का पहला मुस्लिम सुलतान हुआ। पूरे हिंदुस्तान की तरह यहां भी बख्तियार ने सिर्फ सत्ता पर ही कब्जा नहीं किया। तलवार और आतंक के जोर पर जबरिया धर्म परिवर्तन की कहानी यहां भी उसी जोर से दोहराई जाती रही, जैसी बाकी ङ्क्षहदुस्तान ने भोगी। बख्तियार के बाद बंटवारे के साथ भारत को मिली आजादी तक आते-आते यहां 587 सालों में 110 सुलतानों और नवाबों की लंबी सूची है। इनमें 1717 से 1887 तक रहे 17 नवाब शामिल हैं। मुमकिन है बख्तियार के सौ-दो सौ साल बाद यहीं की धर्मांतरित नस्लों के लोग नए नामों और नई पहचान से हुकूमत में आते रहे और अपनी वंश बेल अरब और तुर्क से जोडक़र खुद गुमराह होते रहे। मीर कासिम और मीर जाफर जैसे नाम बहुत बाद के हैं। इनके समय अंग्रेज अपनी जड़ें जमा चुके थे।
इतने फैलारे के बाद ऐसे मुश्किल हालातों में 1786 में रायबरेली में सैयद अहमद नाम का एक शख्स पैदा होता है। लुटेरों के गिरोह में खान पिंडारी का एक सैनिक बनकर वह सामने आता है। 1816 में लूटमार का पेशा छोडक़र वह दिल्ली में शरियत की तालीम लेने जा पहुंचता है। तीन साल बाद इस्लाम का प्रचारक बनकर अपने चेलों के एक झुंड के रूप में प्रकट होता है। वह दक्षिण भारत की सैर करता है। पटना में ठौर बनाता है। अपना नेटवर्क आज के लश्कर, हिजबुल, जैश और सिमी की तरह फैलाता जाता है। 1822 में वह हज का सफर तय करता है। बंबई लौटकर अपने नए समर्थक तैयार करता है। 1824 में ब्रिटिश हुकूमत उसे पेशावर में सिखों के खिलाफ जेहाद करते देखती है। वह पठान कबीलों में जेहाद का जोश भरने में अपनी पूरी ताकत लगा देता है। उसका दावा है कि काफिरों को खत्म करने के लिए उसे अल्लाह ने नियुक्त किया है। बाकायदा 21 दिसंबर 1826 को वह जेहाद शुरू भी कर देता है।
हंटर का यह दस्तावेज पढ़ते हुए लगता नहीं कि यह 140 साल पुराने हिंदुस्तान के एक दौर की बात हो रही है। वही ताकतें कुछ दूसरे अंदाज में और ज्यादा जोर से हमारे आसपास अब भी हमारी आस्तीनों में रेंग रही हैं। खंडित होकर मिली आजादी के बाद बचे-खुचे भारत में काश्मीर को देखिए और उत्तर-पूर्व में बढ़ते घुसपैठियों की गतिविधियों पर गौर कीजिए। पांच साल तक उसके कत्लेआम के किस्से रोंगटे खड़े करते रहते हैं। आखिरकार 1831 में सिखों की एक जांबाज फौज उसे उसी अल्लाह के पास भेज देती है, जिसने उसे काफिरों के खात्मे के लिए धरती पर भेजा था।
हंटर की किताब ऐसे तमाम किरदारों से रूबरू कराती है। इनमें पटना के इनायत अली और विलायत अली भी शामिल हैं। ये पंजाब में गाजियों के नाम से मशहूर थे। बंगाल में इनकी जिहादी गतिविधियों ने 1850-51 में ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम कर रखा था। इन्हें वापस पटना भेज दिया गया। पटना मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट में इनके क्रियाकलाप दर्ज हैं। यह रिपोर्ट पटना के किन्हीं अहमदुल्ला साहब के बारे में फरमाती है कि इन हजरत ने अपने घर में करीब 17 सौ लोगों को पनाह दे रखी थी। ये सभी हथियार बंद लोग थे और अदालत के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष के लिए रखे गए थे। यह नेटवर्क मुस्लिम आबादी को फिरंगियों के खिलाफ दारुल-हरब के नाम पर लगातार भड़ाकाता रहता था और नौजवानों को सरहदों की तरफ जारी लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित करता था। गुमराह लोगों के जत्थे मजहब के नाम पर रास्तों में लगातार नजर आते थे। इनसे निपटने के लिए सरहदी सूबों पर अंग्रेजों को 1850-1863 के बीच एक लाख सैनिक जुटाने पड़े थे। इस फौज ने तब के इन इस्लामी पहरेदारों के खिलाफ 36 बड़े अभियान चलाए थे।
जुलाई 1864 में अम्बाला के जज हरबर्ट एडवर्ड्स ने 11 राजद्रोही मुसलमानों के एक लंबित प्रकरण का फैसला सुनाया था। इनमें संपन्न मुस्लिम परिवारों के ठेकेदार, फौजी, इमाम, प्रचारक और किसान सभी थे। आठ को उम्र कैद की सजा सुनाई गई थी। बंगाल, बिहार से लेकर पंजाब और पेशावर तक फैले इन असंतोषी मुस्लिम नेटवर्क ने लंबी-लंबी जोशीली कविताएं रचीं थीं। इनका हर अलफाज जिहाद के जज्बे और जोश से भरा हुआ है। ये रचनाएं मुस्लिम आबादियों में बांटी जाती थीं। इनमें ब्रिटिश सत्ता के पतन की कामनाएं और इस्लामी झंडे के फिर से फहराने की उम्मीदें भरी होती थीं। हंटर ने ऐसी कुछ रचनाओं का अनुवाद पेश किया है। थानेश्वर का मुहर्रिर जाफर एक ऐसा ही शख्स था, जो जिहादी प्रचारक बन गया था। उसने बाकायदा जिहाद के सिद्धांत दर्ज किए। यह दस्तावेज तब जाफर के मशविरे के नाम से मशहूर हुआ था। इस नेटवर्क में खुफिया कोड वर्ड भी प्रचलित थे। पटना का मौलवी याहया अली प्रचार केंद्रों को छोटा गोदाम और इस्लामी हुकूमत की सरहदों को बड़ा गोदाम कहा करता था। हंटर इन किरदारों और उनके क्रियाकलापों के जरिए इनकी जड़ों में भी जाता है। वह कहता है-इस्लामी शासन बहुतों की रक्षा करने का नहीं बल्कि कुछ को अमीर बनाने का साधन था। दौलत के तीन धारे उनके कब्जे में थे। फौजी कमान, राजस्व वसूली, अदालतें और सरकारी नौकरियां। इन पर मुस्लिमों के कब्जे थे। वित्त विभाग के ऊंचे पदों पर मुसलमान हर जगह काबिज थे। किसानों से सीधा ताल्लुक रखने का जमीनी काम जरूर हिंदू कारिंदों के हाथ में था।
हंटर का यह दस्तावेज पढ़ते हुए लगता नहीं कि यह 140 साल पुराने हिंदुस्तान के एक दौर की बात हो रही है। वही ताकतें कुछ दूसरे अंदाज में और ज्यादा जोर से हमारे आसपास अब भी हमारी आस्तीनों में रेंग रही हैं। खंडित होकर मिली आजादी के बाद बचे-खुचे भारत में काश्मीर को देखिए और उत्तर-पूर्व में बढ़ते घुसपैठियों की गतिविधियों पर गौर कीजिए। संसद, मुंबई, जयपुर, वनारस पर हुए आतंकवादी हमलों की तह में जाने की कोशिश करिए और लश्कर, जैश, हिजबुल व सिमी जैसे संगठनों के नेटवर्क पर भी नजर दौड़ाइए। यह सवाल आपके जेहन में जोर मारेगा कि या इलाही ये मचाया क्या है?
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माज़रा तो आज सही हो जाये लेकिन वोट आडे आ जाते है
ReplyDeleteबहुत ही विचारणीय परिस्थितियाँ व्यक्त की हैं, हंटर साहेब ने।
ReplyDeleteरोचक जानकारी
ReplyDeleteअच्छा लिखा है..........विचारणीय है।
ReplyDeleteभले आदमी, इस किताब के लिखे जाने से ठीक पहले रानी लक्ष्मीबाई, तात्यां टोपे, वीर कुंअर सिंह, चौधरी देवी सिंह और मंगल पांडे जैसे हजारों हिंदू योद्धा भी ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के विरोध में इतना ही दुर्धर्ष युद्ध चला रहे थे और उनके बारे में भी अंग्रेज लेखक ने इतनी ही जहर भरी टिप्पणियां की थीं। १८५७ के स्वाधीनता संग्राम के बाद ब्रिटिश शासन ने अपनी लाइन बदली और खुद को हिंदुओं का हितैषी दिखाने का प्रयास किया। क्या मुस्लिम सांप्रदायिक धारा के प्रति हमारा पैरानोइया अब हमारे इतिहास बोध पर इतना हावी हो गया है कि बर्तानवी हुकूमत के अफसरों के सरकारी चिट्ठों को हम इतिहास का प्रामाणिक दस्तावेज मानने लगे हैं। सैयद अहमद, इनायत अली और विलायत अली के मामले में अगर हो सके तो खुशवंत सिंह की लिखी पांच वॉल्यूम की सिख हिस्ट्री का समुचित अध्याय पढ़ें। यह भी देखें कि महाराजा रणजीत सिंह ने सैयद अहमद के खिलाफ मुहिम चलाने वाले अपने दोनों सेनापतियों अकाली फूला सिंह और हरि सिंह नलवा के बारे में क्या कहा है।
ReplyDeleteाच्छी जानकारी। धन्यवाद।
ReplyDeleteभाई अजित जी नमस्कार.आपके ब्लॉग का नियमित पाठक हू और प्रशंशक भी. मेरे ख्याल से इसका शीर्षक या इलाही ये मचाया क्या है के बजाय या इलाही ये माजरा क्या है, होना चाहिए था.
ReplyDeleteधन्यवाद.