Thursday, October 25, 2012

‘समय’ की पहचान

time
क्त अपने साथ ताक़त और रफ़्तार दोनो लेकर चलता है । यह साबित होता है हिन्दी के उन कई कालसूचक शब्दों से जो गतिवाची, मार्गवाची क्रियाओं से बने हैं । कहने की ज़रूरत नही कि गति का स्वाभाविक सम्बन्ध शक्ति से है । गति, प्रवाह, वेग दरअसल शक्ति को ही दर्शाते हैं । देवनागरी का ‘इ’ वर्ण संस्कृत में क्रिया भी है जिसमें मूलतः गति का भाव है, जाना, बिखरना, फैलना, समा जाना, प्रविष्ट होना आदि ‘इ’ क्रिया का का विशिष्ट रूप अय् है और इसमें भी गति है । अय् में सम् उपसर्ग लगने से बनता है समय । ‘सम’ यानी साथ-साथ ‘अय’ यानी जाना यानी साथ-साथ चलना, जाना । दरअसल हमारे आसपास का गतिमान परिवेश ही समय है अर्थात समूची सृष्टि, ब्रह्माण्ड, प्रकृति जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य हमारे इर्दगिर्द गतिमान है, वह सब काल के दायरे में है । जो कुछ घट रहा है, वह काल है । मनुष्य के लिए उससे तादात्म्य बिठाना ही समय है । बिहारी ने कहा है- समै समै सुंदर सबै, रूप कुरुप न कोय । मन की रुचि जैति जितै, तित तैति रुचि होय ।।
प्रकृति की लय में लीन हो जाना ही जीवन है । मोनियर विलियम्स के कोश में सम + इ के मेल से समय बनता है । ‘इ’ का समरूप अय् इसमें निहित है । जिसमें समागम, मिलन, एक होना, व्यवस्थित होना जैसे भाव इसमें हैं । इसके अलावा मौसम, अवधि, युग, काल, ऋतु, अवसर, सीमा, परिधि, संकेत, अवकाश, अन्तराल जैसे भाव भी इसमें हैं । समयोचित और सामयिक जैसे शब्दों में समय पहचाना जा रहा है समय में गति है इसीलिए हम कहते हैं कि वक्त बीत रहा है या बीत गया । समय का सम्बन्ध परिवेश में होने वाले बदलावों से है । “समय को पहचानों” का तात्पर्य संसार को पहचानने से है । “समय बदल रहा है” में दुनिया की रफ़्तार से रफ़्तार मिलाने की नसीहत है । स्पष्ट है कि समय में परिवेश का भाव प्रमुख है । जो घट रहा है, जो बीत रहा है के संदर्भ में ‘दुनिया मेरे आगे” ही समय है । संस्कृत के वीत में जाने का भाव है । इससे बना एक शब्द है वीतराग अर्थात सौम्य, शान्त, सादा, निरावेश । राग का अर्थ कामना, इच्छा, रंग, भावना होता है । वीतराग वह है जिसने सब कुछ त्याग दिया हो । एक पौराणिक ऋषि का नाम भी वीतराग था। वीतरागी वह है जो संसार से निर्लिप्त रहता है ।
सी कड़ी में आता है चरैवेति जो चर + वेति का मेल है । चर यानी चलना, आगे बढ़ना । वेति में ढकेलना, उकसाना, ठेलना ( सभी में शक्ति ), पास आना, ले जाना, प्रेरित करना, प्रोत्साहित करना, बढ़ाना, भड़काना, उठाना जैसे अर्थों को चरैवेति के सकारात्मक भाव से जोड़ कर देखना चाहिए ।सभी धर्मों में, संस्कृतियों में काल की गति को सर्वोपरि माना गया है मगर इसके साथ जीवन को, मनुष्यता को लगातार उच्चतम स्तर पर ले जाने की अपेक्षा भी कही गई है । चलना एक सामान्य क्रिया है । चर के साथ वेति अर्थात प्रेरणा ( ठेलना, ढकेलना ) का भाव सौद्धेश्य है । प्रेरित व्यक्ति एक दिशा में चलता है । उच्चता के स्तर पर मनुष्य लगातार अनुभवों से गुज़रते रहने पर ही पहुँचता है । “चरैवेति-चरैवेति” की सीख भी यही कह रही है कि निरंतर गतिमान रहो । ज्ञानमार्गी बनो । ज्ञान एक मार्ग है जिस पर निरंतर गतिमान रहना है । अनुभव के हर सोपान पर, हर अध्याय पर मनुष्य कुछ और शिक्षित होता है, गतिमान होता है, कुछ पाठ पढ़ता है ।
देवनागरी के ‘व’ वर्ण में ही गति का भाव है । इससे बनी ‘वा’ क्रिया में प्रवाह, गति का आशय है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली का वेग इसी कड़ी में है । मार्गवाची शब्दों के निर्माण में भी ‘व’ की भूमिका है । वर्त्मन यानी राह । बाट इसी वर्त्मन का देशज रूप है । अंग्रेजी का वे way को देखें जिसका अर्थ पथ, रास्ता, मार्ग है । यह भारोपीय मूल की ‘वे’ wegh से बना है जिसका समरूप विज् है जिससे संस्कृत का वेग बना है । राह कहीं ले जाती है । लिथुआनी के वेजू में ले जाने का आशय । रूसी में भी यह वेग और वेगात ( भागना ) है । संस्कृत वात ( फ़ारसी बाद ) यानी वायु , वह् से हवा आदि । वीत में जाना और आना दोनों हैं । वीथि यानी रास्ता इससे ही बनता है । रामविलास शर्मा संस्कृत की ‘वा’ के समानान्तर ‘या’ क्रिया का उल्लेख करते हैं । इनमें गति के साथ जलवाची अर्थवत्ता भी है । जल के साथ हमेशा ही गतिबोध जुड़ता है । मोनियर विलियम्स के कोश से इसकी पुष्टि होती है । संस्कृत का वारि जलवाची है तो रूसी के वोद ( वोदका ) का अर्थ पानी है । तमिल में नदी के लिए यारू शब्द है । ‘या’ में जाना, चलना, गति करना निहित है साथ ही इसमें खोज, अन्वेषण भी है । चलने पर ही कुछ मिलता है । चलने की क्रिया मानसिक भी हो सकती है । ‘या’ में ध्यान का भाव भी है । ‘आया’, ‘गया’ में इस गति सूचक ‘या’ को पहचानिए ।
संस्कृत में यान का एक अर्थ मार्ग तो दूसरा वाहन भी है । हीनयान, महायान, वज्रयान, सहजयान में रीति, प्रणाली की अर्थवत्ता है । किन्हीं व्याख्याओं में वाहन के प्रतीक को भी उठाया गया है । दोनों में ही ले जाने का भाव है । तमिल में इसके प्रतिरूप यानई और आनई हैं । कभी इनका अर्थ वाहन रहा होगा, अब ये हाथी के अर्थ में रूढ़ हैं । एक शब्द है याम जिसमें भी मार्ग के साथ वाहन का भाव है । याम में कालवाची भाव भी है अर्थात रात का एक पहर यानी तीन घण्टे की अवधी याम है । महादेवी वर्मा ने यामा का प्रयोग रात के अर्थ में किया है । दक्ष की एक पुत्री, और एक अप्सरा का नाम भी यामा, यामी, यामि मिलता है । इसी तरह यव का अर्थ द्रुत गति के अलावा महिने का पहला पखवाड़ा भी है । इसी कड़ी में आयाम भी है । आयाम अब  पहलू के अर्थ में रूढ़ हो गया है । इसका अर्थ है समय के अर्थ  में विस्तार । किसी चीज़ की लम्बाई या चौड़ाई । किसी  विषय के आयाम का आशय उस विषय के विस्तार से है ।
फिर समय पर लौटते हैं । समय के अय् में गमन, गति का भाव है, जिसकी व्याख्या ऊपर हो चुकी है । इस अय से अयन बनता है । अयन यानी रास्ता, मार्ग, वीथि, बाट, जाने की क्रिया आदि । इसका अर्थ आधे साल की अवधि भी है । दक्षिणायन और उत्तरायण में अवधि का संकेत है । दक्षिणायन में सूर्य के दक्षिण जाने की अवधि और गति का आशय है जिसके ज़रिये सर्दियों का आग़ाज़ होता । तब सूर्य कर्क रेखा से दक्षिण की ओर मकर रेखा की ओर बढ़ता है । सूर्य की उत्तरायण अवस्था इसके उलट होती है । इससे गर्मियों का आग़ाज़ होता है । संस्कृत का वेला, तमिल का वरई, कन्नड़ वरि, हिन्दी का बेला, मराठी का वेळ ये तमाम शब्द भी इसी कड़ी में हैं और समय सूचक हैं । संझाबेला, सांझबेला जैसे शब्द कालवाची ही हैं ।
काल यानी समय अपने आप में गति का पर्याय है। दार्शनिक अर्थों में चाहे समय को स्थिर साबित किया जा सकता है पर लौकिक अर्थो में तो समय गतिशील है। हर गुज़रता पल हमें अनुभवों से भर रहा है। हर अनुभव हमें ज्ञान प्रदान कर रहा है, हर लम्हा हमें कुछ सिखा रहा है । आज के प्रतिस्पर्धा के युग में हम अनुभवों की तेज रफ्तारी से गुज़र रहे हैं। आज से ढाई हजार साल पहले भी इसी ज्ञान की खातिर भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को यही सीख दी थी– चरत्थ भिक्खवे चारिकम । बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय । हे भिक्षुओं, सबके सुख और हित के लिए चलते रहो….।

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5 comments:

  1. समय प्रकृति का सबसे सशक्त पक्ष है...

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  2. समय के बाल आगे हैं पीछे से वह गंजा है । आपने खूब पकडा समय को ।

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