हिलते रहे हरे पत्तों से
नन्हे हाथ तुम्हारे
दफ्तर जाना ही था
पापा क्या करते बेचारे !

दफ्तर , जो अपने सपनों की
खातिर बहुत ज़रूरी
खाली जेब कहां से होगी
जिदें तुम्हारी पूरी ?
उड़ जाएंगे आसमान में
गैस भरे गुब्बारे।
तुम्हें चूमना चाहा भी तो
घड़ी सामने आई
कल की खुली अधूरी फाइल
पड़ी सामने आई
बेटे , मुझे माफ कर देना
मिलना बांह पसारे।
बजते रहे कान रस्ते भर
सुना तुम्हारा रोना
और पास ही रहा बोलता
चाबी भरा खिलौना
राह धूप में दिखी अंधेरी
ओ घर के उजियारे।
शाम पहुंचकर दफ्तर से घर
तुमको बहला लूंगा
गर्म चुम्बनों से गुलाब सा
चेहरा नहला दूंगा।
किलकारी में खो जाएंगे
सारे आंसू खारे
-यश मालवीय
अजीत भाई;
ReplyDeleteयश जी की कविता ने मेरे अपने पिता और मेरे बच्चों के साथ मेरी विवशता के सारे दृष्य मन-मानस में उकेर दिये .अभी कल ही मेरे एक मिठाई विक्रेता मित्र अपने संस्थान पर नियमित क्रम से कुछ देरी से पहुँचे,मैने कारण पूछा तो बोले पोते के साथ खेल रहा था; उनकी बात में एक मौन अभिप्राय मुझे ये सुनाई दिया कि जब बेटा छोटा था तब वक़्त ही कहाँ मिला उसके साथ खेलने का.काम-काज और अनाज की चिताएँ,कारोबारी प्रतिबध्दताएं और सामाजिक व्यस्तताएँ कितनी कुछ क़ीमत माँगती हैं जिसे बाद में क़ीमत चुका कर भी नहीं वापस लाया जा सकता जिसमें से एक बहुत प्यारी चीऴै बचपन.
यश मालवीय की कविता सुंदर है साथ ही आपकी भूमिका भी कुछ खास है.....ईमानदारी से ..बढ़िया लगी।
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