Saturday, August 25, 2007

एक हिन्दुस्तानी के नाम...हमें बख्श दें...प्लीज.


हुज़ूर हिन्दुस्तानी,आपने अपने ब्लाग में भाषा एक पहचान है और एक परदा भी जो लिखा, दुरुस्त लिखा। एतराज हमें भी उसी बात पर है जिस पर अभयभाई कह चुके हैं। आपका नज़ला शुद्धतावादियों पर गिरता तो बेहतर था पर गिरा हम पर। इसे कौन साफ करेगा? आपने लिखा -
जो लोग भाषा की शुद्धता को लेकर परेशान रहते हैं, शब्दों की व्युत्पत्ति के चक्कर में पड़े रहते हैं, पता नहीं क्यों मुझे उनकी बात जमती नहीं।

भाई, हमने कब कहा कि हम शुद्धतावादी हैं ? कहीं एक लाइन तक नहीं लिखी। बल्कि अपने ब्लाग के नाम में सफर शब्द ही बता रहा है कि हम उस हिन्दी के हामी नहीं जैसी बोलने-लिखने वालों पर आपने तंज किया है। इसके उलट अपने लेखों में अक्सर शब्द के विकल्प में हम लफ्ज़ का इस्तेमाल करते हैं।
आपने अपने मित्रों के साथ अपनी पुरानी तस्वीर ब्लाग पर लगाई हुई है। क्यों ? शायद इसीलिए कि आप याद करना चाहते हैं अतीत को...कहां कहां से गुज़र गया। शायद उन्हें भी सुख पहुंचाना चाहते हैं जो तस्वीर में आपके हमबगल नज़र आ रहे हैं। लफ्जों को अपना ही नहीं , हम सबका साझा दोस्त मानते हुए अगर अभयजी, मैं या कोई और अतीत में झांकना चाहते हैं,उन्हें पहचानकर, उनसे भी रिश्तेदारी बनाकर (जो कि सदियों पहले से ही बनी हुई है) और उससे आपको परिचित कराना चाहते हैं तो इसे शुद्धतावाद कैसे कहेंगे ? क्या आप कभी सैर-सपाटे पर नहीं जाते ? वहां अतीत की चीज़ें नहीं निहारते ? लौटकर उसकी चर्चा नहीं करते कि अरे फलां चीज़ का तो फलां से रिश्ता निकला ? वगैरह-वगैरह। हम भी तो पर्यटन ही कर रहे हैं शब्दों का । इस सैलानीपन पर तंज ?
मैं पुनर्जन्म में यकीन नहीं रखता । मगर शब्दों का तो पुनर्जन्म होता है और अलग अलग रूपों में होता है। वास,निवास, आवास,बासा, वसति या बस्ती में से जो चाहे चुन लें। जहां चाहें इस्तेमाल करें। अब पुनर्जन्म के बाद अगर पुराने कुनबे की भी थाह ले ली जाए तो फायदा ही है, जैसा अभयजी भी कह रहे हैं।
एक सदी से भी ज्यादा पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने एक निबंध में लिखा था-कौन ऐसा आदमी है जिसे स्वतंत्रता प्यारी न हो ? फिर क्यों हिन्दी से संस्कृत की पराधीनता भोग कराई जाय ? क्यों न वह स्वतंत्र कर दी जाय ? संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के जो शब्द प्रचलित हो गए है , उनका प्रयोग हिन्दी में होना ही चाहिये। वे सब अब हिन्दी के शब्द बन गए हैं। उनसे घ्रणा करना उचित नहीं। ( यह लेख शीघ्र ही मैं पूरा पढने के लिए उपलब्ध करा रहा हूं )गौर करें कि आज आम-फहम भाषा के इस्तेमाल की पैरवी करना फैशन बन गया है मगर द्विवेदीजी ने यह बात एक सदी पहले तब लिखी थी जब हिन्दी में (खासकर काव्य में) संस्कृत सप्रयास ठूंसी जा रही थी अन्यथा साहित्य में तो उस वक्त भी प्रेमचंद जैसे लोग मौजूद थे जिनकी हिन्दी के बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं।
कृपया अपने लेख से शुद्धतावादियों के साथ व्युत्पत्ति तलाश करनेवालों का घालमेल दूर कर लें । इससे लेख की मूल भावना पर कोई असर नहीं पड़ेगा , अलबत्ता हमारा जो दिल आपने दुखाया है वह कम हो जाएगा। हमें बख्श दें...प्लीज़ !
ताकि सनद रहे-मेरे बेटे का नाम अबीर है और यह बरास्ता अरबी, हिब्रू मूल का शब्द है।

7 comments:

  1. अनिल रघुराज की पोस्ट पर अनुनाद सिंह की टिप्पणी उनकी सारी बातों का जवाब है। आपको न तो सफ़ाई देने की जरूरत है न परेशान होने की। शब्दों का सफ़र में शुद्धता का कोई आग्रह-दुराग्रह नहीं
    है। आप जारी रहिये। हम लाभान्वित हो रहे हैं। :)

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  2. महावीर प्रसाद द्विवेदी का लेख पढ़ने में उत्सुकता जगा दी है आपने.. मेरे एक अन्य मित्र रघुवीर यादव के बेटे का नाम भी अबीर है..

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  3. शब्द का अतीत जानने से शब्द का भविष्य़ बनाने की सहूलियत होती है. शब्द का घड़ना सतत चलना चाहिये. अतीत का ज्ञान उसमें सहायक होता है.

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  4. अरे, महाराज, ये क्‍या ग़जब कर रहे हैं? यह कुछ ज़्यादा ही 'रीडिंग' नहीं हो गई? मुझे नहीं लगता अनिल रघुराज के अनगढ़ नोट में वे सारे इशारे शामिल थे जो आप उस पर सुघड़ तरीके से आरोपित कर रहे हैं!

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  5. शुक्रिया अनूपजी, अभयजी,ज्ञानजी और प्रमोदजी सफर पर आने का।
    प्रमोद भाई, कल अनायास अनिल भाई का उक्त लेख पढ़ा और पहले पैरे में उत्पत्ति के शौकीनों पर लिखी टिप्पणी की ....बात जमती नहीं...यही बात कुछ खटक गई। इसे ही आगे बढ़ाते हुए अपनी प्रतिक्रिया लिखी है, अलबत्ता कुछ लंबी जरूर हो गई। हां, उसमें अन्यार्थ या इशारे-विशारे तो कुछ नहीं हैं। ये अपनी पालिसी भी नहीं है। अनिलजी के ब्लाग का मैं प्रशंसक हूं। उनकी सुरुचि और सोच वहां नज़र आते है। पूरे लेख में सिवाय एक वाक्य के बाकी सबकुछ बढिया है। अब चाहे वे हमारी आपत्ति को सही मानें, या न मानें, उनकी मर्जी।

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  6. आपका इस तरह बचाव की मुद्रा में आना खटक रहा है. संस्कृत की बात करना पुनरुत्थान की बात करना है, ऐसा मानने वाले कुछ लोग हैं, लेकिन यह बहुत ही एकांगी सोच है. जड़ों की तलाश करने का मतलब जड़ हो जाना नहीं है. आप मस्त रहिए और लिखते रहिए. द्विवेदी जी वाला लेख जल्दी पढ़वाइए.

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  7. अजित जी, लिखते वक्त ही मुझे लग गया था कि मेरी उक्त लाइन आपको तंग जरूर करेगी। मुझे अचंभा हुआ जब आपकी प्रतिक्रिया इतने दिनों तक नहीं आई। चलिए, अच्छा लिखा है। असल में छेड़ाछाड़ी चलती रहनी चाहिए। इश्क और यारी के रिश्ते की शुरुआत यहीं से होती है। रही अनुनाद सिंह की टिप्पणी का जिक्र, तो मुझे आजतक उनकी इन लाइनों का अर्थ समझ में नहीं आया कि, 'शायद आप नही जानते कि ब्रिटिश काउन्सिल की स्थापना का क्या उद्देश्य था और क्या करती है।'

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