Friday, November 2, 2007

आइये गाँव की कुछ खबर ले चलें.....

हमारे प्रिय कवि-गीतकार रामकुमार कृषकजी की एक ग़ज़ल पेश कर रहे हैं। ये हमारी पसंदीदा ग़ज़ल है। हमने इसे स्वरबद्ध भी किया था और जयपुर में बिताए दस वर्षों में मित्रों के आग्रह पर सर्वाधिक सुनाई गई यही रचना होती थी। अवसर मिला और तकनीक सीख पाए तो आपको भी सुनवा देंगे अपनी आवाज़
में कृषकजी की ये बेहतरीन रचना। दिल्ली में कृषक जी से तो कभी मिलना हुआ नहीं मगर उनकी रचनाओं को पढ़कर उन्हें हमेशा याद कर लेते हैं।




आइये गांव की कुछ खबर ले चलें
इक नज़र अपना घर खंडहर ले चलें


धूल सिंदूर होगी कभी मांग में
एक विधवा सरीखी डगर ले चलें


लाज लिपटी हुई भंगिमाएं कहां
पुतलियों में बसा एक डर ले चलें


एक सुबहा सुबकती-सिमटती हुई
सांझ होती हुई दोपहर ले चलें


देह पर रोज़ आंकी गई सुर्खियां
चीथड़े खून से तर-ब-तर ले चलें

राम को तो सिया मिल ही मिल जाएगी
मिल सकें तो जटायू के पर ले चलें


खेत सीवान हों या कि हों सरहदे
चाक होते हुए सब्ज़ सिर ले चलें


राजहंसों को पाएं न पाएं तो क्या
संग उज़ड़ा हुआ मानसर ले चलें

देश दिल्ली की अंगुली पकड़ चल चुका
गांव से पूछ लें अब किधर ले चलें


-रामकुमार कृषक

5 comments:

  1. बहुत खूब. इस नेक कार्य के लिए आपको साधुवाद.

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  2. बहुत बढिया रचना प्रेषित की है।बधाई।

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  3. बेहतरीन रचना खोज कर लाये है, मजा आया पढ़ने में. और लाईये ऐसी ही.

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  4. सरकार आज तो रहस्‍योद्घाटन हो गया हमारे सामने ।
    आपने स्‍वरबद्ध भी किया और गाया भी और यहां महफिल है शब्‍दों की ।
    शब्‍दों के साथ जोड़ें सुर और हम जैसे अ-सुरों को सुरीला बना दें ।
    तकनीक हम सिखाने को राज़ी हैं ।
    आप कहेंगे तो भोपाल तक आ जायेंगे सिखाने के लिए ।
    पंद्रह बरस वहीं बिताए हैं हमने बचपन और कैशोर्य वाले ।
    अरे ये तो बताना भूल ही गये कि कृषक जी की और रचनाएं सुननी हैं हमें
    इतने से नहीं मानेंगे ।

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  5. बहुत दिनों से इंतज़ार था इस रचना का।
    वैसे तो आपसे अक्‍सर इसका सस्‍वर पाठ सुना है परन्‍तु पूरी रचना कभी नहीं सुनी थी।
    अब तो ब्‍लॉग पर सुनवा ही दीजिए।

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