
और वो सब कुछ भूल गया
केजी में ही प्रीती मेरी दोस्त बनी। और विक्की।
विक्की सबसे खास दोस्त था। मुझे पूरा यकीन था कि हम साथ रहने के लिये ही बने हैं। थोड़ा बहुत इस बात को ऐसे बढ़ावा मिला कि फर्स्ट में भी वह साथ था। कक्षा की सबसे पीछे वाली बेंच पर जब टीचर पढ़ा रही होती तब मैं और विक्की अपनी बेटी लक्ष्मी को ट्रेन में कहीं ले जा रहे होते। पुल पर वह नदी में गिर जाती। फिर विक्की उसे बचाता।
रोज़ रोज़ बचाते बचाते हमें एक दूसरे से बड़ा लगाव हो गया। फिर एक दिन विक्की रोते हुए आया और कहने लगा कि उसके पिताजी का तबादला हो गया है। पर मैं चिन्ता ना करूँ क्योंकि वह अकेला ही रह लेगा। मैने भी सोचा रोज़ बेटी बचा लेता है...कर ही लेगा। पर विक्की रुका नहीं। चला गया। कई सालों बाद स्कूल के स्पोर्ट्स मीट में दिखा पर वह सब भूल चुका था। कहाँ हो विक्रम सिंह ?!

वन...टू...थ्री...फोर
खैर!! लक्ष्मी बेटी से दोस्त बन गई। और प्रीती भी। पास में बक्षी सिंह अंकल रहते थे। पाँच बेटियों के बाद एक बेटा। हमारे और उनके परिवार में हर बात अलग थी। हम कुल चार थे और सब ज़ोर से बोलते। वे कुल सात और जब अंकल घर होते घर एकदम शांत। उन्हे बेटा बहुत प्यारा था। यहाँ भाई और मैं नाप तोल कर बँटवारा करते थे। आंटी लीपती, चूल्हे में रोटियाँ सेंकती, स्वेटर बुनती, पापड़ सुखाती, अचार बनाती, बाकी आंटियों के साथ गपशप करती....। मम्मी के पास यह सब के लिये टाइम कम था। करती वो भी सब थी। पर कब और कैसे भगवान जाने।
हाँ उनके घर में अंकल का काम काम पर जाना था। यहाँ पापा का काम के अलावा हम सब की खिदमत करना।
सामने नलवाया आंटी रहती थी। अंकल ज़ोर से आवाज़ देते ब...न्टू ...। और मैं और भाई पीछे चीखते थ्री-फोर...। घर में ही कपड़ो की दुकान। रंगबिरंगे तह किये कपड़ो से सजा उनका हॉल कुछ कम आकर्षक नहीं था। जैन धर्म का पालन करते थे। जीव हत्या से बहुत दूर। जूँ भी पकड़ पकड़ पानी में ड़ाल देते थे। कुछ भी हो उनके अचार का जवाब नहीं था। मैं लार टपकाती उनके घर पहुँचती और वो पूछती , “अचार खायेगी?! रोटी भी दे दूँ!” “ रोटी गाय को दो आँटी !!अचार मुझे।”
गाय और बछड़े भी पूरी तत्परता से हाजिरी लगा देते। जहाँ रुकते वहीं जाकर उनके गले पर लटकी हुई चमड़ी पर गुदगुदी करती जाती....वह भी धीरे धीरे गला गोदी में टिका देते। गाय की आँखों में आँसू देखकर अपने सवालों का सिलसिला शुरु करती।
“मारा क्या ?! भूख लगी है ?!”वह भी सिर हिला हिला कर हाँ करती जाती।
कभी नन्हे पिल्लों की पूरी एक पलटन आ जाती। भूरे , काले...। हम भी किसी के गले में अपना लाल रिबन बाँध तुरंत उसे गोद ले लेते। फिर उसकी सेवा करते। दूध में भिगो कर रोटी....पानी के लिये अलग बर्तन....मम्मी पूछती , “साबुन कहाँ चला गया...?!” हम कैसे बताते....।

[हैप्पी बर्थडे- 11 बरस की-लक्ष्मी मेरे दाँये दूसरे नंबर पर -प्रीती की
तस्वीर कट गई]
गलतियों की किताब, गलतियों का हिसाब
एक लाईन में घर बने हुए थे। जैसे रेल के डिब्बे। दो लाईन के बीच एक सड़क। और उस सड़क के आसपास घरों के आँगन। आँगन में बड़े बड़े पेड़। अमरूद, आम, पीपल, बरगद, जामुन, हरसिंगार। किस का घर किस का आँगन हमें कोई मतलब नहीं था। सब कुछ हमारा था।
सुबह उठ कर अपनी प्यारी सी टोकरी में हरश्रिंगार के फूल चुन लेती। फिर स्कूल। स्कूल से घर आते ही नौकर के हाथ पड़ते। मन बड़ा उदास होता। वह हमारी सेवा में कम और हुक्म बजाने में ज्यादा मानता था। मम्मी पापा को सब बता देता कि क्या किया, कितना खाया कितना फेंका, किससे लड़ाई हुई। हर शाम अदालत जमती। दोष समझा कर सजा सुनाई जाती।
मैं और भाई सच में परेशान हो गये। फिर शुरु हुई जंग....हम नहीं तो वो। बेचारा टिक नहीं सका। नौकरी से इस्तीफा। मम्मी पापा परेशान। कहाँ से लाये अब और ऐसा कोई। निर्णय लिया गया कि अब हम अपना ध्यान खुद रखेंगे। मैं आठ साल की और भाई दस का।
हम अपनी जीत पर खुश थे। पर शुरुआत बड़ी खराब हुई। जब किसी और से झगड़ना नहीं रहा तो हम एक दूसरे से भिड़ जाते। शाम को फिर अदालत। मम्मी पापा परेशान और चिंतित। दोनो को मार पड़ती। डाँट अलग।
दोनो ने बैठ कर सोचा यह सब गड़बड़ है। अराजकता फैल गई है। ऐसे तो हम हर तरह से घाटे में रहेंगे। काफी सोच समझ कर निश्चय किया कि हम एक दूसरे की गल्तियों का हिसाब खुद ही करेंगे। बस एक किताब बनाई गई। तारीख के साथ जुर्म दर्ज। एक जुर्म के सामने एक माफ। जो बाकी बचे वो अगले दिन के लिये। पाँच जुर्म इकट्ठे होने पर सजा देने का अधिकार था। सजा में कभी मारना पीटना नहीं चुना। कोई दूसरे की प्यारी सी चीज़ माँग लेते। मैं तो यूँ भी जान लुटाने के लिये तैयार खड़ी रहती। और जब उससे माँगना होता तो छोटी सी कोई चीज़ माँग लेती।
कनसेन्सस कैसे बनाये का पाठ भी इस तरह बहुत जल्दी सीख लिया।
और उस समय से ही भाई सिर्फ भाई ना होकर,दोस्त, प्रतिद्वन्दी , साथी बन गया...मेरी रूह का राज़दार।

बीजी मेरी बेटी कहती है- लड़कियाँ लड़कों से जल्दी दो तीन साल कम उम्र में मेच्योर हो जाती हैं। यहाँ उस का सबूत मिल रहा है। आप को जीवन जीना खूब आता है। जैसे किसी से कोई शिकायत नहीं।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...
ReplyDeleteबचपन बिल्कुल बचपन जैसा...
बचपन की बातें सुनकर तो मजा आ गया. प्रतीक्षा आगे की.
ReplyDeleteबीज्जू को देखा पढा बहुत अच्छा लगा ....
ReplyDeleteबढ़िया चल रहा है! बहुत जीवन्त!!
ReplyDeleteअगले पोस्ट का इंतजार है.. जल्दी लिखिये.. :)
ReplyDeletewaah jisne khud hi apni galtiyo.n ka hisaab rakhna shuru kar diya ho us ka farishte kya hisab rakhe.nge..? Heads off to you
ReplyDeleteसबने बकलम में अपने कैरियर, अपनी जवानी पर ज्यादा लिखा पर आपने बचपन पर.. और यही मुझे बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लग रहा है....बचपन की इतनी सारी यादें....गज़ब है आपकी याददाशत के हम कायल हो गये...वैसे भी आपकी शैली भी हमें अच्छी लगती है...अगली कड़ी का इंतज़ार है...
ReplyDeleteबेजी जी को हम सिर्फ़ इतना ही जानते थे कि वो दुबई में रहती हैं और मिनाक्षी जी की दोस्त हैं। आज उनसे कह सकते हैं पहली मुलाकात हो रही है और वो हमें बहुत अच्छी लगीं। बेजी जी अगर मेरी टिप्पणी पढ़ें तो पूछना चाहूंगी" हमसे दोस्ती करोगे, विक्की से ज्यादा वफ़ादार निकलेगें, हां पानी से हम बहुत डरते हैं"…:)
ReplyDeleteअजीत जी एक बार फ़िर धन्यवाद इस श्रंखला को शुरु करने के लिए
दिलकश वर्णन...बहुत खूब.
ReplyDeleteसारा श्रेय अजित जी को जो ब्लॉग भाई बहनो को इतना करीब से जानने का मौका दे रहे हैं...और जब कोई आप बीती लिखता या पढता है तो उसका बचपन भी साथ साथ री वाईन्ड होता रहता है...
नीरज
बेजी,
ReplyDeleteये भाई के साथ , बीताये हुए
बचपन के दिन भी
आँखोँ के सामने घूम गये ..
बहुत अच्छा लगा ..
आगे का इँतज़ार है,
स्नेह ,
-- लावण्या
किस का घर किस का आँगन हमें कोई मतलब नहीं था। सब कुछ हमारा था।
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कनसेन्सस कैसे बनाये का पाठ भी इस तरह बहुत जल्दी सीख लिया। और उस समय से ही भाई सिर्फ भाई ना होकर,दोस्त, प्रतिद्वन्दी , साथी बन गया...मेरी रूह का राज़दार।
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बकलम खुद के इस पड़ाव की बेहद शक्तिशाली
और स्वाभाविक साझेदारी है यह.
मैं देख रहा हूँ कि पहले वाक्य में
दुनिया में सबका होकर जीने और
दरम्यानी फ़ासलों को मिटा देने की पुकार है
तो दूसरे अंश में घर में अपने लिए
अनुराग और समझ का सुंदर संसार
रच लेने की कला बोल रही है.
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संस्मरण का यह बेजीपन सचमुच नितांत मौलिक है.
बधाई और आभार.
डा.चंद्रकुमार जैन
मंत्र मुग्ध होकर बांच रहे हैं। आगे का इंतजार है।
ReplyDeletebahut acchha lag raha hai...aur kahiye...
ReplyDeleteयह श्रृंखला काफी कुछ सिखानेवाली है। साधुवाद…।
ReplyDeleteवाह, कहते चलें-हम सुनते चल रहे हैं.
ReplyDeleteब्लैक एंड व्हाइट फोटो में पूरा रंगीन बचपन नजर आ रहा है।
ReplyDeleteजुर्म रजिस्टर कैसा लगता था ? अब भी है ?
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरती से बचपन की मज़ेदार घटनाएँ पढ़ाईं आपने। आगे की कड़ी का इंतजार है।
ReplyDeleteपढ़ रहा हूं
ReplyDeleteहम भी आपके बचपन के मधुर और नटखट यादों में खोते हुए चल रहे हैं.
ReplyDeleteलिखने की शैली कमाल है...
ReplyDeleteअपनी जादुई कलम के कौशल से बेजी अपने बचपन को पुनर्जीवित किए दे रही हैं . एक किस्म का गृहविस्मार -- एक नॉस्टैल्ज़िया-सा -- तारी होता जा रहा है . ऊपर से दस्तावेजी तस्वीरें और कमाल कर रही हैं . यह बेजी का 'ठुमक चलत रामचंद' गद्य है . हम सब इस गद्य के असर में -- उसके इन्द्रजाल में -- बंधे हैं .
ReplyDeleteअजितजी की शुक्रगुजार हूँ जो फिर से यह पल जीने का मौका दिया। आप सब का स्नेह पाकर ऐसा लग रहा है अपनों को ही अपनी कहानी सुना रही हूँ।
ReplyDeleteअनिताजी से दो बातें कहूँगी....दोस्ती के लिये बिल्कुल तैयार हूँ...पर विक्की की वफा पर ना शक कीजिये...ना जाने किस तरह और क्यों यह पल उसकी यादों से छूट गये....।
आपकी लेखनी के कायल हैं । देर से पहुंच रहे हैं । क्योंकि पढ़ने की तसल्ली दरकार थी ।
ReplyDeleteखूबसूरत आत्मकथ्य ।
बारीक याददाश्त और सूक्ष्म अनुभूतियां ।
हम आपकी शैली को सलाम करते हैं ।