
बचपन का इंद्रधनुष

बचपन जैसा कुछ नहीं। गर्मी में अमिया, सर्दी में संतरे, गन्ने, कच्चे चने पत्तों में छिपे हुए,भुनी मकई।
टनटनटन घंटी के बजते ही हम सरपट दौड़ पड़ते। थोड़ी हेर फेर के साथ करीबन पाँच अलग स्वर थे।
एक जो गुड़िया के बाल (कॉटन कैन्डी) वाले के पास थी। छोटे छोटे गुलाबी, सफेद और पीले रंग के ...ग्लास के बक्से में बंद। एक छोटा सा दरवाज़ा जिसमें वह फेरीवाला हाथ ड़ालकर हमारे मनपसंद रंग का हमें दे देता।
दूसरा पिक्चर दिखाने वाले के पास था। एक बक्सा। उसमें चार गोल खिड़कियाँ ...जिनपर काँच लगा होता था। हम दस पैसे देकर चेहरा खिड़की पर सटा कर बैठ जाते। वह कुछ घुमाता और तस्वीर बदल जाती। चार बच्चे एक साथ हाथ पकड़ अपने अपने सपनों की दुनिया में।
तीसरा बर्फ के गोले बेचने वाले के पास था। लाल , पीला, हरा.....चख कर लगता इन्द्रधनुष का स्वाद ले रहे हों।
चौथा बंदर का नाच दिखाने वाले मदारी के पास था। बोल रामप्यारी....मदारी कहता और बंदरिया बना बंदर घूँघट ले शर्माने लगता।
पाँचवा सबसे काम का था। इसकी घंटी के साथ आवाज़ भी जुड़ी होती। रद्दी पेपर,प्लास्टिक ,टीन डब्बा......। मैं और भाई अपनी हफ्ते भर की मेहनत उठा कर भाग लेते। हमारे आसपास पड़ा कोई फाल्तू प्लास्टिक, लोहा, पेपर हमारी आँखों से नहीं बच पाता था। ऊपर के चार घंटियों के लिये यह हमारी कमाई का स्रोत था।
हमारे बचपन में लँबी राशन की लाईन देखी। पूरे परिवार को एक ही डिज़ाइन के कपड़ों में देखा (राशन वाला)। हर तरफ लोगों को दाल, चावल,गेहूँ से कंकड़ बीनते देखा। पोस्टमैन को खाकी पहने मुस्कुराते हुए....चौबे जी नमस्कार कहते देखा। आसपास हर दूसरे तीसरे घर में दादा दादी,नाना,नानी को देखा। बहु को पास वाली आँटी बताती मुन्ना पूरी रात रो रहा था। पेट में दर्द था तो हल्दी लगा देती।
जहाँ पड़ोसियों का प्यार देखा। वहीं घमासान भिड़ते हुए भी देखा। “तेरी लड़की को सँभाल। तूने जो बीज रोपने के लिये दिये थे तू ही रख....हमपर उपकार मत कर!”
ज़ोर से अपने मन का कहना कोई पाप नहीं था। बुरा लगने पर किसी थैंक्यू सॉरी की सभ्यता के पीछे छिपने की जरूरत नहीं थी। दो दिन के बाद यही लोग गले मिलमिलकर रो रहे होते। बिट्टू की स्वेटर के लिये कम पड़ा ऊन राजू की मम्मी दे देती....राजू की मम्मी को बिट्टू की मम्मी नया क्रोशिये का डिज़ाइन सिखाती।
हमारे मम्मी पापा को ऐसी उलझनों के लिये बिल्कुल वक्त नहीं था। मम्मी सपनों के पीछे थी और पापा उसका भार लेकर चल रहे थे। मम्मी ने नौकरी के साथ बी ए पूरा किया। पापा फोरमैन बने। घर में कॉमिक्स, सांइस डायजेस्ट, कंप्यूटर सक्सेस रिव्यू, औरीगामी की पुस्तकें जमा होने लगी। मुझे कत्तक सिखाने भेजा गया। भाई को पढ़ाने में ज्यादा वक्त बिताया जाने लगा।

कहीं कोई भी प्रतियोगिता हो हमें जरूर भेजा जाता। पाँडे जी, सुब्रमणियम सर, शास्त्री जी, कत्तक टीचर, डि सूज़ा आँटी.....मदद के लिये किसी के भी पास जाया जा सकता था। मकसद था सीखना। विनम्रता से जाओ और अनुरोध करो कि सिखाओ।
बस वक्त बीतता गया।
लोढ़ी में गरम मूँगफलियाँ और चने, होली में अंगारों का ऊपर तक उठ कर तारा बन जाना, मंदिर में ओम जय जगदीश हरो का भजन, गुरुद्वारे से रोज़ सुबह वाहे गुरु ... दिवाली में घर लीपना, क्रिसमस में स्टार और केक और क्रिभ... पुराने कपड़ो के बदले नये बरतन, टोकरी में पाँच पैसे के लाल बेर.....लकड़ी की गठरी लेकर चलती हुई औरतें...जिनके पाँव घुटनों से मुड़े होते थे। मेले में बाजे...दूधवाले के पास पत्ते में बँधा मावा, उनके सर पर बँधी पगड़ी, लंगर में लाईन से बैठ छोले पूरी,शादी में पताशे,बूँदी का रायता....हीज़ड़ो का शादी में और गोद भराई में आना, भिखारियों से जान पहचान.....।
सुबह होती...स्कूल से लौटकर खेलना। कभी होमवर्क घर नहीं लाई। रिसेस की घंटी बजते ही होमवर्क चालू और खत्म। घर पहुँचकर लूडो, साँप सीढ़ी, व्यापार, घरघर, लँगड़ी पौआ, लँगड़ी टीम, सुरंग, बेसबॉल, कँचे, गिल्ली ड़ंडा, सोने की चिड़िया, स्टैच्यू, पोशम भा(पुश दैम बाई)....। इसके अलावा किराये पर साईकल, कॉमिक्स,किसी के टीवी पर पिक्चर। फिर पेड़ से अमरूद, शहतूत , आम , जामुन। तितलियों के पीछे, मखमल के कीड़े, बरसात में भीगना।
हमारे पास पढ़ने लिखने के लिये बिल्कुल फुरसत नहीं थी। स्कूल से घर लक्ष्मी के साथ लौटते। उसे रोज़ कहानियाँ बनाबना सुनाते। लगभग एक घंटे का पैदल सफर जिसमें मैं लगातार बोलती और वो लगातार चुप।
घर पर बख्शी आँटी की लड़की दलबीर के साथ खेलती। उसके पापा आ जाते तो प्रीती के पास चली जाती।
पढ़ाई लिखाई के उन दिनों के अंक का काफी श्रेय प्रीती को जाता है। वही सिखाती। स्कूल में हमारा बचा होमवर्क पूरा करवा देती। कॉपी नोटबुक देख लेती। सुंदर लिखने की सलाह देती। प्रीती अच्छी बच्ची थी। बेस्ट स्टूडेन्ट। उसकी मम्मी उसको मेरे साथ देखकर चिन्ता करती।
मेरी मम्मी के पास चिन्ता करने का विषय मैं नहीं भाई था। लगातार उसके साथ मेहनत करने पर भी उसके अंक सुधरते नहीं।
हम दोनो इन सब चिन्ता से दूर थे। कोई ऐसा दिन याद नहीं जब कहना पड़ा हो....आई एम बोरड। अच्छी नींद, खूबसूरत सपने और हर दिन नया और उमंगों भरा। [ जारी ]

लगता है जैसे कभी ख़त्म ही न हो, ये कहानी...
ReplyDeleteआपने सच में बचपन की याद दिला दी.. :)
ReplyDeleteबेजी की कहानी उनकी कविताओं की तरह ही रोचक है. आगे बताएं...
ReplyDeletesabkuch kitna LAYBADH ..ek sira chhu_tey hi duusra pakdaa deti hain aap..:)
ReplyDeleteबेजी के ओस में भीगे दिन गज़ब हैं...हमें भी अपना बचपन याद आ रहा है...
ReplyDelete'मम्मी सपनों के पीछे थी और पापा उसका भार लेकर चल रहे थे।'
ReplyDeleteकभी-कभी एक पंक्ति में पूरे जीवन की कहानी छिपी होती है . माता-पिता के व्यक्तित्व और उनकी जीवन-शैली का पूरा निचोड़ नुमायां होता है.
बेजी की सूत्रात्मक-संकेतात्मक शैली अनूठी है. जीवन की बहुत सी स्थितियों का सच संकेतों में ही बयान किया जाए तो अच्छा लगता है . बुनी हुई रस्सी के बट पूरी तरह खोल देने से खूबसूरती तो कम होती ही है,उसकी ताकत भी कम हो जाती है . बेजी ने अपने आत्मकथ्य को अत्यंत निश्छलता और निपुणता से रचा है . उनके आत्मकथ्य में पास-पडोस जिस जीवन्तता और आत्मीयता से आया है,वैसा समकालीन लेखन में विरल है .
बधाई! बेजी को . बधाई! भाई अजित वडनेरकर को . आगे लिखने वालों के लिए 'बेंचमार्क' स्थापित हो गया है . 'बहुत कठिन है डगर पनघट की' .
आप ने वाकई बचपन ताजा कर दिया। वैसे मैं और शोभा (पत्नी) भी करते रहते हैं। कभी गुढ़िया के बाल खा कर और कभी बर्फ के गोले। अभी बाहर बर्फ के गोले वाले की घंटी की आवाज आ रही है। जरा नजदीक आ जाए।
ReplyDeleteन्यूनतम शब्दों में अपनी बात कहना, संकेत दे कर पाठक की कल्पना पर छोड़ देना, कला का मह्त्वपूर्ण पक्ष है। इस तरह समय बचा कर अधिक लिखा जा सकता है। पाठक का भी समय बचता है, और वह पैरों पर नजर घुमा कर आगे नहीं बढ़ जाता।
रचना में एक भी शब्द व्यर्थ क्यों? फिजूल खर्ची क्यों? आखिर घंटियों के लिए बचपन की कमाई अभी तक याद है।
प्रियंकरजी से सहमत..
ReplyDeleteपहली बार बकलम पढ़ने का इतना मजा आ रहा है।
गजब है जी गजब-लगा कि चलती ही जाये यह कहानी!!
ReplyDeleteहोली में अंगारों का ऊपर तक उठ कर तारा बन जाना
-क्या बात है...अति सुन्दर.
सौभाग्य से बेजी को नजदीक से जानता हूँ....उन दिनों जब वे अपना आसमान बुन रही थी ओर मैं अपना ..बस फर्क इतना था की कुछ फासले से हम दोनों ने आसमान सजा रखे थे...वे तब भी उतनी ही अजीज ओर सम्मान्यीय थी जितनी आज है.......हम दोनों एक ही कॉलेज की पैदाइश है....ओर वे मेरी सीनियर थी.
ReplyDeleteaisa lagta hai aap likhti rahe.. aur ye lekh kabhi khatm na ho.. bahut sundar
ReplyDeleteगद्यमयी कविता है या कवितामयी गद्य. सर-सर बहती नदी जैसा प्रवाहमान. बहुत आनंद आ रहा है.
ReplyDeleteबेजी जी के साथ साथ हर भारतीय शहर, कस्बे या गाँव मेँ पला बडा ,
ReplyDeleteसामान्य किँतु भरापूरा जीवन,
साथ जी रहे हैँ हम सभी -
बहुत अच्छा लगा सँस्मरण :)
-स्नेह्,
-- लावण्या
Excellent Presentation !
ReplyDeleteबचपन की यादों का ये कारवाँ
ReplyDeleteलगता है बखुद बनता जा रहा है.
इतनी साफ-धवल तो
तस्वीरें भी नहीं हो सकती
जितनी बेजी जी की कथन शैली है.
पुख़्ता यादें,प्रामाणिक और
प्रभावी किंतु सहज प्रस्तुति.
निश्छल व नैसर्गिक वर्णन,
और सबसे बड़ी बात कि
समर्थ शब्दों में वागर्थ की पूरी
गुंज़ाइश रखते हुए संवाद के लिए
सुलझा हुआ हाशिया छोड़ देना !
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गुज़रे हुए बचपन का लौट आना
मुमकिन-सा लग रहा है !
बधाई
डा.चंद्रकुमार जैन
बहुत मज़ा आया पढ्कर, आगे जानने की प्रतीक्षा है...
ReplyDeleteचिल्ड्रेन्स फिल्म सोसाइटी द्वारा निर्मित फिल्मे जब हॉल में लगती तो उसके टिकत १० से ६० पैसे होते। बेजी का आत्मकथ्य पढ़ते हुए लग रहा है मानो वैसी किसी फिल्म की पटकथा पढ़ रहे हैं ।
ReplyDeleteरोचक और रसमय। बहुत आनंद आ रहा है पढ़ने में। अजित जी आपने यह श्रृंखला शुरू करके दिलचस्प इतने लोगों से जो परिचय करवाया है उसके लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteमेरा भाई अक्सर कहता था अगर एक खाली डिब्बे में कुछ सिक्के ड़ाल दो और उसे हिलाते जाओ तो जो एफैक्ट आता है कुछ कुछ ऐसा ही तेरे लगातार बोलने पर आता है....आप सब बहुत स्नेह से मुझ् सुन रहे हैं ...शुक्रिया।
ReplyDeleteऔर अनुराग तुम्हारे बयान की तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ...दिनेशजी बता सकते हैं..चश्मदीद गवाह का कितना महत्व है।
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ReplyDeleteगध्यमयी कविता, बेजी जी हम आप के लेखन के कायल हो गये। वादा करते है अब से आप के ब्लोग का रसावादन नियमित रूप से करेगें।
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