
किरणों का बिखरना ही उजाला होना है। किरण और बिखराव में गहरी रिश्तेदारी जो ठहरी । किरण शब्द बना है कृ धातु से जिसमें फैलाना, बिखेरना , इधर-उधर फेंकना, छितराना, तितर-बितर करना, भरना, प्रहार करना, काटना आदि भाव शामिल हैं। इसके खुदाई करना भी इसमें शामिल है। इसी कृ से बना किरण क्यों कि प्रकाश हर तरफ समाया , बिखरा है। किरण से विकिरण शब्द भी समझ में आता है। वि उपसर्ग का मतलब ही होता है पृथक्करण, अलग अलग करना आदि। किरण पुंज से प्रकाश का प्रथक्करण ही विकिरण हुआ । इसीलिए इसमें छितराना, दूर दूर तक फैलाना अथवा ज्ञान, विख्यात जैसे अर्थ शामिल हैं। विकिरः , विकिरण या विकीर्ण शब्द इससे ही बने हैं जिसमें यही सारे भावार्थ शामिल हैं। बिखराव, बिखरना, बखरना या बिखराना जैसे शब्द इसी विकिरण से बने हैं। गौर करें वनस्पतियों के प्रसरण का तरीका विकिरण ही कहलाता है। आदिम समाज में जन-समूहों का कई क्षेत्रों में विकिर्णन होता रहा। आज भी हो रहा है। ब्रह्मांड के निर्माण का बिग बैंग सिद्धांत विकिरण को ही सिद्ध कर रहा है। आकाशगंगाएं आज भी फैल रही हैं, विस्तारित हो रही हैं।
खेती किसानी के काम आने वाले उपकरणों में हल-बक्खर आम हैं । इसमें जो बक्खर है उसकी रिश्तेदारी भी विकिरः यानी बिखराने से है। बीजों को बोने से पहले भूमि को जोता जाता है । जुताई में मिट्टी को छितराने, फैलाने और बिखेरने जैसी क्रियाएं ही तो शामिल हैं।

प्रतिमाओं को तराशने , नक्काशी करने के लिए संस्कृत में उत्कीर्ण शब्द है। ध्यान दें, कृ में शामिल काटना , खुदाई करना या चोट पहुंचाने जैसे अर्थों पर । कृ में उद् उपसर्ग [ यानी ऊपर से ] लगने से बना उत्कीर्ण जिसका भाव हुआ शिला या प्रस्तर पर ऊपर से काट-छांट कर प्रतिमा की आकृति तराशना। तराशने,उत्कीर्ण करने के अर्थ में अंग्रेजी के कार्व [CARVE] में भी कृ में मौजूद खोदने का भाव झांक रहा है। आकृति शब्द भी कृ धातु की ही देन है।
वाह अजित, एक से एक नई जानकारी पेश कर रहे हो. पिछले 2 महीने के लेख पढने में एकाध हप्ता लग जायगा!!
ReplyDelete" कृ " शब्द से कृष्ण भी है ना -- जो आत्मा के भीतर पहुँच कर उसे बाँध देता है --
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई । हमेशा की तरह जानकारी से भरपूर । कृ धातु का एक अर्थ करना भी है ना? कृति, आकृति आदि उसी से निकले हैं ।
ReplyDeleteकिरण से विकिरण तक
ReplyDeleteविकीर्ण से उत्कीर्ण तक
बिखरने पर बिखेरी आपने
ज्ञान की यह रोशनी !
औरों के लिए बिखरकर
आलोक है जो बाँटता
सूरज की तरह जिएगा
सम्मान की वह रौशनी !!
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आपने शीर्षक भी व्यंजना
पूर्ण दिया है इस पोस्ट का
आभार अजित जी.
डा.चंद्रकुमार जैन
ये जो बाजू में आपका शुक्रिया है- उसमें आने के लिये क्या करना पड़ेगा. कल तो उसी हिसाब से लिखा था मगर नहीं आ पाये--ब्ब्भ्हूऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊ!!!! :(
ReplyDeleteहमेशा की तरह ज्ञानवर्धक और जानकारी से भरपूर.
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