
शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि और शिवकुमार मिश्र को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं अफ़लातून से । अफ़लातूनजी जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं, अध्येता हैं। वे महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेवभाई देसाई के पौत्र है। यह तथ्य सिर्फ उनके परिवेश और संस्कारों की जानकारी के लिए है। बनारस में रचे बसे हैं मगर विरासत में अपने पूरे कुनबे में समूचा हिन्दुस्तान समेट रखा है। ब्लाग दुनिया की वे नामचीन हस्ती हैं और एक साथ चार ब्लाग Anti MNC Forum शैशव समाजवादी जनपरिषद और यही है वो जगह भी चलाते हैं। आइये जानते हैं उनके बारे में कुछ अनकही बातें जो उन्होनें हम सबके लिए लिख भेजी हैं बकलमखुद के इस सातवें पड़ाव के लिए ।
ग़ाज़ीपुर अफ़ीम फैक्टरी
बाद के वर्षों में जो नए व्यसन आए उनके चक्कर में तो नहीं पड़ा लेकिन उसके दुष्प्रभाव देखने का मौका जरूर मिला । बनारस के एक पड़ोसी जिले गाजीपुर में सरकारी अफ़ीम फैक्टरी है । उस कारखाने से निकलने वाले नाले के पानी

में भी अफ़ीम का तत्व जरूर शेष रहता है । नाले की निकासी पर उस पानी को पीने के लिए बन्दरों का एक समूह डटा रहता है । इन बन्दरों की स्थिति ऐसी हो गयी है कि कोई बालक भी उनकी खोपड़ी पर थपड़िया दे तो वे प्रतिकार में कुछ करना पसन्द नहीं करते । एक बार इस कारखाने में हड़ताल हो गयी और अफ़ीममय पानी की निकासी रुक गयी । नाली किनारे लुंड होकर बैठे बन्दर रह न सके । उस जमात ने सीमेन्ट की नाली तोड़- ताड़ दी । काफ़ी नुकसान हुआ । फैक्टरी प्रबन्धन ने सबक लिया कि भविष्य में हड़ताल से बचने के सभी उपाय किए जाएंगे क्योंकि हड़ताली कर्मचारियों से ज्यादा नुक़सान अफ़ीमची बन्दर करते हैं । भारत में अफ़ीम से हेरोईन बनाने की सरल विधि सातवें दशक के उत्तरार्ध में प्रचलित हुई । यह व्यसन शंकरजी के पारम्परिक प्रसादों से जुदा एवं भयंकर था । यह अत्यन्त मंहगा था और इसका एक अन्तर्राष्ट्रीय बाजार था । आम आदमी के सामर्थ्य से परे होने तथा नशे के तीव्र बन्धन के कारण इसके नशेड़ी या तो इसके व्यवसाय में शामिल हो जाते ( कुछ दूर हरकारे के रूप में माल ले गए, मजदूरी के रूप में नशे-भर माल पा लिया ) अथवा चोरी पर आश्रित हो जाते ।
हेरोइन के लती की मौत
एक अविस्मरणीय घटना बताना चाहता हूँ । परिसर के तीन पुराने छात्रावासों के कोने वाले कमरे बड़े हैं । इन कमरों से एक छोटी-सी कोठरी भी जुड़ी थी । ऐसे एक कमरे, २६१ अ बिडला छात्रावास में मैं रहता था । आज कल उस कमरे को इन्टरनेट-रूम बना दिया गया है । एक रात एक परिचित लड़का मेरे कमरे पर पहुँचा । वह दो वर्ष पहले विश्वविद्यालय छोड़कर जा चुका था । मैंने सुन रखा था कि वह हेरोइन्ची बन गया है। उसने मुझसे कमरे में रात भर रहने की अनुमति माँगी , मैंने इन्कार कर दिया । बहुत अनुनय के बाद मै द्रवित हो गया । रात्रि भोजन के बाद उसने कमरे से लगी कोठरी में हेरोईन पी । उसके अलावा कमरे में हम दो लोग थे । वह लड़का नंगे बदन , अंगोछा पहन कर सो गया । इसके बाद जो कुछ हमने देखा वह अविस्मरणीय है । वह बिना हिले गहरी नींद में सो रहा था । उसके शरीर पर सैंकड़ों मच्छर बैठे थे , जैसे गन्दे नाले पर बैठते हैं । मच्छरों को गौर से देखने पर उनके निचले हिस्सों में लाल रक्त भी दीख रहा था । कुछ ही देर में मच्छर वहीं लुढ़क जा रहे थे । हमारे रोंगटे खड़े हो गए । काश उन मच्छरों द्वारा रक्त-शोषण और शीघ्र लुढ़क जाने का करीब से वीडियो खींच पाता । मेरा मानना है कि ऐसे विडियो दिखा कर हेरोइन्चियों की लत छुड़ाने में मदद होती । लड़का सुबह मेरे पाँव पकड़ ,कसम खा कर चला गया । कुछ महीनों बाद उसके मरने की खबर मिली ।
शिक्षा मंदिर में छुआछूत
जब हम पढ़ते थे थे तब हमारे छात्रावास में कमरों में हीटर पर खाना बनता था । मेस नहीं था । बरसों मेरा रूम पार्टनर रहा दूधनाथ कपड़े सिलना जानता था । अंग्रेजी और भाषा विज्ञान में एम.ए और बी.एड करने में सिर्फ़ सरकारी वजीफे से कत्तई काम नहीं चलता इसलिए सिलाई की चालीस फीसदी मजदूरी पर वह लंका स्थित जगतबन्धु टेलर में सिलाई करता । ऐसे ही राजकुमार बी.एड करने के बाद रिक्शा चला रहा था,एम.ए समाजशास्त्र करते हुए । राजकुमार का रिक्शा चलवाना रुकवा कर संघ से जुड़े शिक्षा संकाय के डॉ. श्रीवास्तव ने उसे सरस्वती शिशु मन्दिर में नौकरी दिलवा दी थी । उस शिशु मन्दिर के शिक्षक एक मन्दिर में रहते और राजकुमार भी उनके साथ रहने लगा । उन शिक्षकों द्वारा राजकुमार से छूआछूत का व्यवहार किया जाने लगा । राजकुमार ने छूआछूत वाले वाले शिक्षकों के साथ पढ़ाने से बेहतर रिक्शा चलाना माना । एम.ए. करने के बाद उसे शिक्षक की सरकारी नौकरी मिल गयी ।
आज कल परिसर के छात्रावासों में मेस में खाना अनिवार्य है इसलिए गरीब छात्र परिसर के बाहर रहने को मजबूर हैं । इलाहाबाद विश्वविद्यालय आवासीय नहीं है । हमारे जमाने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रसंघ का अध्यक्ष चुने गए प्रगतिशील छात्र संगठन के अखिलेन्द्रप्रताप सिंह ने नगर निगम से ऐसे मकानों के किराए की सीमा निर्धारित करवाई थी जिनमें कम से कम आठ छात्र रहते हों । [जारी]
पिछली कड़ी [भाग तीन]
अतीत तो बड़ा मादक लग रहा है...ऐसे में आप बचे रह गये कमाल की बात है...हम सुन रहे है आप बोलते रहे..
ReplyDeleteबहुत ही रोचक संस्मरण हैं. जारी रहे.
ReplyDeleteरात्रि भोजन के बाद उसने कमरे से लगी कोठरी में हेरोईन पी । उसके अलावा कमरे में हम दो लोग थे । वह लड़का नंगे बदन , अंगोछा पहन कर सो गया । इसके बाद जो कुछ हमने देखा वह अविस्मरणीय है । वह बिना हिले गहरी नींद में सो रहा था । उसके शरीर पर सैंकड़ों मच्छर बैठे थे , जैसे गन्दे नाले पर बैठते हैं । मच्छरों को गौर से देखने पर उनके निचले हिस्सों में लाल रक्त भी दीख रहा था । कुछ ही देर में मच्छर वहीं लुढ़क जा रहे थे । हमारे रोंगटे खड़े हो गए । काश उन मच्छरों द्वारा रक्त-शोषण और शीघ्र लुढ़क जाने का करीब से वीडियो खींच पाता । मेरा मानना है कि ऐसे विडियो दिखा कर हेरोइन्चियों की लत छुड़ाने में मदद होती । लड़का सुबह मेरे पाँव पकड़ ,कसम खा कर चला गया । कुछ महीनों बाद उसके मरने की खबर मिली ।
ReplyDelete===================================
अजित जी,
अफलातून साहब का आभार और
मैं तो यह भी कहूँगा की यह अंश
आज की उस पीढी तक पहुँचाएँ
जिसने नशे को फैशन मान लिया है !
व्यसन बहुत बड़ी चुनौती है.
आपका
डा.चंद्रकुमार जैन
हे भगवान!!
ReplyDeleteइसीलिए कहते है शायद कि ये सब नशे बहुत बुरे!!
वाकई आपको पढ़ना एक अलग अनुभव से गुजरना है अफलातून जी!
संजीत जी से सहमति
ReplyDeleteअफलातून जी से मिलना और पढ़ना एक अलग अनुभव से गुजरना है.
एक अफीमची मेरे घर के पास वाले रेलवे स्टेसन मे रहता था दिनभर भीख मांगकर.रात को सारे पैसे किसी दलाल को देकर अफीम खाता और पास वाले गंदेनाले पर पडा रहता.आपकी पोस्ट पड़कर उसकी याद आ गई.अच्छे संस्मरण जारी रखें
ReplyDeleteनशा करने वाला अगर उससे मुक्ति पा जाए टू उससे उसकी इच्छा शक्ति का पता चलता है. वो जीवन फ़िर कुछ भी काम कर सकता है. बड़ा अच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteकुछ चरसी तो हमने भी झेले है जी ,पर इस तरह की फ़िल्म कभी देखने कॊ नही मिली, बहुत दुखद है ये सब जबकी कालेज जीवन मे ये सब आम बात हो चली है
ReplyDeleteआपके नशा पुराण में बन्दर से लेकर मच्छर तक हैं.... और भी रोचक होता हो जा रहा है.
ReplyDeleteगाज़ीपुर की नशैलची वानर-मंडली के बारे में पहले भी सुना था,पर हेरोइन वाले हीरो की दशा का वर्णन सुन कर जी घबड़ा गया .
ReplyDeleteभारत में अफ़ीम की खेती और व्यापार अंग्रेज़ी शासन में बहुत फला-फूला . यहां की अफ़ीम अंग्रेज़ चीन भेजते थे और तगड़ा माल चीरते थे . जब चीन में इसका दुष्प्रभाव देखा गया और इसके आयात पर बैन लगा दिया गया तो ब्रिटेन ने चीन पर युद्ध थोप दिया .
राजकुमार जी साथ हुए बर्ताव के बारे में पढ कर दुख हुआ . आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा है .
बहुत रोचक लग रहा है पढने मे ।
ReplyDeleteबेहद रंगीन और अनमोल यादें । अदभुत है भई ।
ReplyDeleteअफलातून जी आपके अतीत को जानना किसी नशे से कम नहीं है । हम इस नशे को छोड़ना नहीं चाहेंगे ।
क्या हुआ जो देर से आए । बिजियाए हुए हैं आजकल ।
बड़ा रोचक संस्मरण चल रहा है-हेरोइन्ची शब्द बहुत सही लगा. अफिमची बंदरों हालात और नशेड़ी मच्छरों पर वाकई फिल्म बनना चाहिये. जारी रहें -आनन्द आ रहा है.
ReplyDeleteना जाने कितने इन्सानोँ की कार्य क्षमता अफीम ने छीन ली :(
ReplyDeleteयादेँ,हैँ ये सभी ..
पारिवारिक बातेँ भी लिखियेगा --
- लावण्या
सचमुच अफीमची के ऊपर भिनभिनाती मक्खियों का वीडियो मिले तो, नशा मुक्ति के सारे अभियानों के विज्ञापन फेल कर देगा। चलिए कम से कम पढ़ने वाले हो सकता है नशे को नमस्ते कर दें।
ReplyDeleteबहुत रोचक जानकारी है आपके पास। नशे की लत के बारे में जो आपने बताया वह तो सचमुच किशोरों को विडीयो या डॉक्यूमेन्ट्री के रूप में दिखाया जाना चाहिये। मैंने भी एक व्यक्ति के साथ साथ उसके मातापिता के जीवन को बर्बाद होते देखा है। वह जो १७ या १८ की उम्र में विग्यापनों में कामकर ढेरों पैसा कमा रहा था, आज तक ५७ या ५८ उम्र का हो जाने पर भी स्वावलंबी नहीं हो पाया है। नशा तो छूट गया परन्तु मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव छोड़ गया कि जीवन ही नष्ट हो गया।
ReplyDeleteघुघूती बासूती