Sunday, August 3, 2008

अभिषेक की दिलचस्प बातें [बकलमखुद-59]

एक अद्वितीय भारतीय

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर Copy of PICT4451 किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और अट्ठावनवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।
बकलमखुद पर इधर दिग्गजों को पढने और शब्दों के सफर पर कभी-कभार टिपियाते हुए अजितजी के साथ चल रहा था कि अचानक एक दिन उनका ईमेल प्राप्त हुआ ... बकलमखुद भेजो ! साथ में ये भी लिख दिया की अपने बारे में लिखना कठिन नहीं है. अब कैसे बताऊँ कितना मुश्किल है... ना तो मैं उनकी तरह शब्दों का महारथी ना ही बाकी बकलमखुद लिख चुके लोगों की तरह अनुभव और लिखने की कला. शायद अजितजी को कुछ ज्यादा ही अच्छे बकलमखुद मिल गए और उन्होंने सोचा हो... चलो इससे लिखवाकर बैलेंस किया जाय :-) मैंने भी परीक्षा और समयाभाव की दुहाई देकर लंबा समय माँगा पर वही हुआ जो हमेशा से मेरे साथ होता रहा है, परीक्षा के लिए भी आखिरी दिन पढ़ा और ये भी आखिरी दिन ही लिख रहा हूँ... बाकी बकलमखुद मुझे बहुत पसंद हैं... सबके जीवन से सीखने की भरपूर कोशिश रही. उनके आस-पास भी नहीं फटक पाऊंगा ऐसा पूर्ण विश्वास है. पर सीधे-साधे बोरिंग जीवन में रोचकता ढूंढने का प्रयास करूँगा.
बचपन
भी कुल मिला कर जीवन के २४ वसंत ही तो देखे है... कैसे भूल सकता हूँ बचपन... सबकुछ तो कल की ही बात लगती है. बलिया के एक छोटे से गाँव में ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ. छोटा गाँव... २०-२५ घरों का... ब्रह्मण और यादव बस ! तीसरा कोई नहीं... खूब सद्भाव. दूर-दूर तक खेत, खूब बगीचे, आम-जामुन के पेड़... बरसात में गाँव के सामने वाली सड़क के पार ५ किलोमीटर तक पानी ही पानी... सब सफ़ेद. ६ महीने बाद उसी सफेदी की जगह सब पीला... गेंहू और चने-मटर के खेत में दूर-दूर तक सरसों के फूल. गाँव के सामने वाली सड़क बाँध का काम करती और गाँव में कभी पानी नहीं आया. छत से पानी का नज़ारा देखता और बाद में फूलों का... पके खेत... कट रहे खेत, बोझा ढोती औरते-मर्द... खेत.. खलिहान. (मेरी बहुत इच्छा होती की बाढ़ आ जाय, मन में खूब योजनायें बनाता किसे और क्या बचाना है कैसे बचाना है... पर सारी योजनायें धरी की धरी रह जाती आज तक बाढ़ नहीं आ सकी, आज भी बारिश के दिन में घर फोन करते ही पूछता हूँ की चौरासी डूब गई क्या ! अभी भी छत के ऊपर से पानी देखने में वही मज़ा आता है).
 बगीचों में जाना खूब भाता...
सुबह-सुबह उठ के भी (अब ये काम संसार का सबसे कठिन काम लगता है), खेतों में बस घुमने... काम करने के लिए वैसे भी कोई नहीं कहता... पर कभी कोई पानी लाने को ना कह दे इसी डर से शायद कभी स्कूल नहीं छोड़ता. संयुक्त परिवार... मैं सबसे छोटा... खूब प्यार पाया... मार खाई तो सिर्फ़ खाने के लिए. मार खाने के संबंध में एक बात यहाँ बता दूँ... मैं सबको ये बात बताता हूँ और आजतक इस मामले में अद्वितीय भारतीय रहा हूँ... "मैंने अपने पापा से कभी मार नहीं खाई... एक थप्पड़ भी नहीं !" जी हाँ कभी नहीं... कभी ज्यादा खेल लेता और वो कह देते "थोड़ा और खेल लेते कौन सी ट्रेन छूट रही थी." कभी झगडा कर के लौटता तो कह देते "ऐसे भी क्या झगड़ना.. लाठी ले लिया होता या फिर बन्दूक ही ले जाओ... किसने मना किया है... कोई मना करे तो मुझसे बोलो!". ये बातें मेरे लिए मार से कहीं बढ़कर होती और पूरी कोशिश करता की ना सुनना पड़े. आज भी पापा के साथ एक दोस्त का रिश्ता है, बाप-बेटे का एक अद्वितीय रिश्ता !
बन्दूक से याद आया...
 मारा घर पुश्तैनी जमींदारों का घर है... घर में बन्दूक, दादी के नाम का कुवां, गाँव का एकलौता फोन, ट्यूबवेल जैसी प्रतिष्ठा की चीज़ें थी... मनोज भइया (मेरे बड़े पिताजी के लड़के) को बन्दूक का खूब शौक था. कभी इधर-उधर जाते समय मेरे हाथ में पकडा देते तो खूब गर्व होता... अब सोचकर ही हँसी आती है. ब्राह्मण होने का एक असर हुआ की संस्कृत के श्लोक खूब याद थे... अभी भी है कुछ. धार्मिक कहानियाँ खूब सुनी... बाद में धार्मिक पुस्तकों में रूचि जागी जो आज भी जारी है. बन्दूक के अलावा कंचा और लट्टू भी खूब खेला शारीरिक खेल बचपन से ही कम खेलता था. कंचा खेलता कम खेलवाता ज्यादा था... अपने कंचे देकर दूसरो से खेलवाता, जीत गया तो हिस्सा लगता... हार गया तो मेरा गया... ये स्ट्रेटजी खूब रंग लायी और मेरा संग्रह खूब बढ़ा जो आज भी पड़ा है. सिक्के इकट्ठे करने का शौक भी खूब चढा... थोड़े अलग तरह के सिक्के या नोट किसी के पास दिख गए तो हक़ मेरा... और फिर कोई भी नौबत आ जाय खर्च नहीं करता ! हर तरह के और हर साल के सिक्के जमा किए विक्टोरिया से लेकर किंग जॉर्ज तक के... नेहरू-गाँधी तो थे ही. चांदी, ढले हुए सिक्कों से लेकर छेद वाले सिक्के तक.                                                                                             जारी

26 comments:

  1. अभिषेक भाई के बारे मे पढ़कर बहुत अच्‍छा लगा, कभी वार्तालाप आदि तो नही हुआ जरूर सम्‍पर्क करना चाहूँगा। :)

    बकलमखुद की काफी नई कडि़यॉं आ गई है काफी दिनों से आना नही हुआ था, काफी अच्‍छे नये नाम सामने आये है उन्‍हे भी जानूँगा।

    ReplyDelete
  2. वाह अब युवा पीढी को पढवाने का आनँद भी दिलवा रहे हैँ आप अजित भाई ..
    अभिषेक भाई ने बखूबी शुरुआत की है ~~
    आगे की कडी का इँतजार है
    - स्नेह
    लावण्या

    ReplyDelete
  3. अभिषेक के बारे में पढ़ना बहुत अच्छा लगा ,संवेदन शील तो यह है ही कोई शक नही इस में ...अपने लेखो से इन्होने गणित जैसे विषय में रूचि जगा दी है ...इन्तजार रहेगा इनके बारे में और भी जानने का..

    ReplyDelete
  4. अभिषेक के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा. बहुत संवेदनशील हैं. ज्ञानी तो हैं ही. और हाँ, सारे अच्छे बकलमखुद को बैलेंस करने के लिए अजित भाई को अभी इंतजार करना पड़ेगा (और वो इंतजार करते ही रहेंगे.) बहुत बढ़िया लिखते हैं अभिषेक.

    आगे की कड़ियों का इंतजार है.

    ReplyDelete
  5. स्वागत है जी , शुरूआत ही गाव से ये हुई ना बात ,वैसे बाढ से लोगो को बचाने के लिये मुंबई धाम की यात्रा भी अच्छी रहेगी :)

    ReplyDelete
  6. पूरब के एक और बाभन को बक़लमखुद पर देखना रोचक है। प्रतिभा और संवेदना के साथ उच्चस्तरीय विनोदपूर्ण शैली का इनका लेखन एक ताजगी भरा एहसास दे जाता है।... जारी रहे। प्रतीक्षा रहेगी।

    ReplyDelete
  7. वाह जी वाह! अभिषेक भाई को तो हमेशा ही पढ़ता हू.. और बकलम खुद में उन्हे पढ़ना सुखद अनुभव देगा.. लेकिन एक गुज़ारिश भी है अभिषेक भाई से.. यहा गणित लाने की कम से कम कोशिश कीजिएगा.. वरना हम तो कट लेंगे छुट्टी की अर्ज़ी देकर :)

    ReplyDelete
  8. मेरे विचार से जिस व्यक्ति ने गांव के अनुभव अपने में संजो रखे हैं, वह भारत में जीवन के प्रति और भी संतुलित समझ रख सकता है। अभिषेक ओझा के पास यह अनुभव है - यह जान कर अच्छा लगा।

    ReplyDelete
  9. ये हुई न बात !
    अजित जी,
    युवा वर्ग की रचनात्मकता को
    ऐसे ही स्नेह सिक्त प्रोत्साहन
    और उनकी योग्यता के सही,
    समयोचित रेखांकन की ज़रूरत है.
    अभिषेक नौज़वान हैं,
    उन्हें मित्रवत पूजनीय पिता का
    स्नेह-आशीष सहज प्राप्त है, लेकिन
    बड़ी बात यह है कि अभिषेक में
    उस स्नेह का मूल्य-बोध भी है.
    लगता है कि.....
    युवा जोश का सधा हुआ यह ज़श्न
    बकलम ख़ुद झूमकर आया है
    सावन की फुहार बनकर सफ़र की डगर में !
    ================================
    आभार आपका और बधाई अभिषेक को.
    डा.चन्द्रकुमार जैन

    ReplyDelete
  10. अभिषेक की यह उम्र और यह परिपक्वता? भविष्य में गजब ढाने वाले हैं।

    ReplyDelete
  11. .

    अभिषेक जी, लगता है
    आपकी ईमानदारी बाकियों को कहीं का न रखेगी ?
    फिर भी ऎसे ही निष्कपट लिखिये ।

    ReplyDelete
  12. "अभिषेक की यह उम्र और यह परिपक्वता? भविष्य में गजब ढाने वाले हैं।"
    मैं सहमत हूँ

    ReplyDelete
  13. अच्छा लग रहा है. हालांकि ज्यादा सुखद नहीं रहा फिर भी अपना बचपना याद आ रहा है. आप निश्चित ही सौभाग्यशाली हैं. चिरंजीव भव....

    ReplyDelete
  14. अभिषेक को पढता हू... गणित वाले सारे पोस्ट अच्छे लगे उपयोगी हैं इसलिए.... भावुक हैं, संवेदनशील हैं.... यंग हैं....(जैसे मैं हू :) ).... बकलमख़ुद में पढ़ना अच्छा लगा.... इन्तेज़ार रहेगा अगली कड़ी का...

    ReplyDelete
  15. अभिषेक की बकलमखुद की शुरुआत गाँव की सुन्दर यादों के साथ हुई..टिप्पणी चाहे कम करते हैं लेकिन लेखन से हमेशा प्रभावित रहे हैं..अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार..

    ReplyDelete
  16. अभिषेक भइया के बारे में जानकर खुशी हुयी,जानने की बड़ी इच्छा थी .आपका ध्न्यवाद इच्छा पुरी करने के लिए.

    ReplyDelete
  17. बहुत बढ़िया।
    शुक्रिया अभिषेक और अजित जी दोनो का ही।

    ReplyDelete
  18. एक ब्लोगिया जिसमें मुझे दूसरा ब्लोगिया होने के कारण शुरु से रुचि है, के बारे में जानकर अच्छा लगा। अभिषेक भाई, ज़रा टिप्पणियां करना छोड़कर जल्दी-जल्दी से सारे सोपान समेट दो। हमें जानने की ज़रा जल्दी है।
    महेन

    ReplyDelete
  19. अभि‍षेक जी की टिप्‍पणियों से हमें पहले ही अहसास था कि उनके दिल में एक छोटा सा गांव हर समय मौजूद रहता है। बकलमखुद में इसका प्रमाण मिल गया। गांव के परिदृश्‍य और वहां गुजरे अपने बचपन का उन्‍होंने जीवंत चित्रण किया है। अभिषेक जी और अजित जी दोनों का आभार।

    ReplyDelete
  20. अभिषेक की बकलमखुद पढकर मजा आ गया । उनके कालेज और जवानी के किस्सों का इन्तजार रहेगा ।

    ReplyDelete
  21. ओझा जी - सिक्के बटोरने वाले का सिक्का चल गया आज - [शायद इसीलिये क्रेडिट सुईस जमा ] - और लिखिए "झल्लू" सर के चेले और.. [ :-)] - मनीष

    ReplyDelete
  22. मैं इधर ब्लॉग भ्रम कम कर पा रहा हूं। शानदार है बकलमखुद का एक और सफर।

    ReplyDelete
  23. माफ कीजिएगा। ब्लॉग भ्रमण कहना चाह रहा था।

    ReplyDelete
  24. अभिषेक भाई। मजेदार और रोचकता से परिपूर्ण। खाटी भोजपुरी में कहीं तS बहुते निम्मन। तहके बता दी की तहार टिप्पणिए देखी के हमरा अपनापन के एहसास हो जात रहल हS। हाँ अउरी एगो बाती तS क्लीयर हो गइल हम तहसे आठ बसंत अधिक बाग-बगीचा में घूमल बानी।
    अत्युत्तम। शानदार।

    ReplyDelete
  25. हम दिनेश जी से सहमत्॥इत्ती छोटी सी उम्र में ये कारनामे, भई वाह

    ReplyDelete
  26. बकलम खुद पे अभिषेक को पढ़ना शुरू किया है आज से...

    वो मुझे अपने ब्लौगिंग के शुरूआती दिनों से बड़े अच्छे लगे हैं। एकदम अपने से...

    पिता-पुत्र संवाद तो लाजवाब था... :-)

    ReplyDelete