अश्रुधारा पर नियंत्रण |

बदमाशी भी खूब करता पर बड़ी चालाकी से... पहले ही तरीके ढूंढ़ के रखता, इस तरह हमेशा अच्छा बच्चा बना रहा. कभी गुस्सा आ जाता तो घर के सारे सामानों की खैर नहीं रहती... बर्तन से लेकर कपड़े, रसोई के मसाले तक नहीं बचते. घर पर मिठाई बन जाती तो उसे ढूंढने में सारे जासूसों को पीछे छोड़ देता. रोने में माहिर और अश्रुधारा पर ऐसा नियंत्रण कि जब चाहूं शुरू और जब तक मर्जी न हो रुकने का नाम ही नहीं.
स्कूल की जिद...
साइकिल चलाने का मन हुआ तो रोज साइकिल की हवा निकाल देता और कहता की हवा भरवाने जा रहा हूँ चलाऊंगा नहीं. बाद में जब चलाने लगा तो पूछता की कुछ पिसने के लिए चक्की पर ले जाना है क्या?, सबको पता होता की साइकिल चलाने के लिए कह रहा हूँ... चक्की पे बड़ी बोरी के साथ एक ५-१० किलो की छोटी पोटली जानी भी शुरू हो गई. स्कूल जाने लायक हुआ नहीं की जाने की जिद चालू कर दी... शायद भइया को स्कूल जाते देख कर करता होऊंगा. माँ कहती हैं कि मैं बोलता की स्कूल जाने दो नहीं तो बाद में बोलोगी तब भी नहीं जाऊंगा !
क्लासरूम से फरार
स्लेट लेकर जाना शुरू किया गाँव के प्राइमरी स्कूल में... पंडीजी पढाते जमीन पर बैठाकर. पढ़ाई का मतलब आधी बेला तक भाषा और दूसरी बेला गणित. गणित में सिर्फ़ गिनती-पहाडा... दो-एकम-दो. ये सब घर में सुनते-सुनते सीख लिया था... पंडीजी ने पहले ही दिन कह दिया "ये तो तीन किलो का मनिस्टर बनने लायक है" आज तक इसका मतलब ठीक से नहीं समझ पाया पर कुछ अच्छा ही कहा होगा. स्कूल से आज तक एक ही बार भागा. तीसरी क्लास में था तो एक बार रांची गया था, माँ एक दिन के लिए मामा के यहाँ चली गई और मैं नहीं गया. पापा ने कहा की अब कहाँ रहोगे तो उन्होंने भारतीजी, जो बच्चो के एक स्कूल में शिक्षक थे, के साथ लगा दिया की इसे भी लेते जाइए. वहां गया तो मन ही नहीं लगा क्लास से उठकर भाग आया, घर आया तो ताला बंद. वहां से ६ किलोमीटर चलकर सीधे पापा के स्कूल के स्टाफ रूम पहुच गया. पापा परेशान की कैसे आ गया और भारतीजी इधर इतना परेशान हुए की पूरा इलाका छान मारा बस पुलिस स्टेशन ही नहीं गए. बाद में बहुत डांट खाई.
'अक्लूवाबो के बारी'
स्कूल में तेज ही माना जाता रहा... मेरे साथ पढने वाले मुझसे दुनी उम्र के होते... अधिकांस आजकल कहीं ना कहीं काम करते हैं कोई ट्रक चलाता है कोई दुकान, कोई सूरत में है. लगभग सबकी शादियाँ हो चुकी है कईयों के बच्चे हैं. गदहिया पार्टी से आठवी तक जितने भी लोग पढ़ते सब कहते हैं की वो मेरे साथ ही पढ़ते थे. कभी-कभी मैं भी सोच में पड़ जाता हूँ लगता है २ पीढियों के साथ पढ़ा हूँ... अनगिनत बैचमेट हैं मेरे :-) स्कूल बगल के गाँव में २-२.५ किलोमीटर दूर हुआ करता था... ३-४ गाँव के बच्चे पढ़ते. मेरे गाँव और स्कूल के बीच में घनघोर बगीचा... भूतों की कहानी... बगीचे का नाम ही था 'अक्लूवाबो के बारी' (अकलू और उसकी बीवी बगीचे के बीचों बीच स्थित कुवें में मर गए थे, और अब भूतों के अधिपति थे). मेरे गाँव के लड़के बदमाशी और चोरी के लिए ज्यादा जाने जाते... स्कूल भी कम ही जाते जिस दिन कोई नहीं मिलता २ किलोमीटर ज्यादा चलकर बगीचे के बाहर-बाहर जाना पड़ता.
भूतों के लिए प्रार्थना...
उस बगीचे का डर मन में कुछ इस कदर था की जब दसवी में पढता था और उधर गया तो मेरा एक मित्र छोड़ने मेरे गाँव तक आया... बोला की अकेले जाओगे तो पूरा घूम के जाओगे.भगवान् से प्रार्थना करता की ये बगीचा ख़त्म हो जाए सब भूत भाग जाय... कुछ वर्षों बाद भगवान् ने अब सुन लिया है... अब भूतों के लिए प्रार्थना करता हूँ. संयुक्त परिवार था और प्यार भी सबका मिलता पर माँ और 'मेरे भैया' से खूब. जितने बड़े भाई थे सबसे डर के रहता. 'मेरे भैया' बस ३ साल बड़े थे तो साथ खेलते और स्कूल भी जाते. हमेशा मेरे भैया ही बुलाता हूँ... इसके पीछे भी एक कहानी है... घर पर सब उन्हें 'नन्हें' बुलाते और में 'अन्हें'... लाख कोशिश के बावजूद कभी भैया नहीं कहा. राखी के दिन कोई राखी बाँध गया जिस पर लिखा था 'मेरे भैया'. माँ ने कहा देखो इस पर भी लिखा है 'मेरे भैया'. तब आजतक... 'मेरे भैया'. -जारी
तो गणित और भाषा की बुनियाद पंडी जी के क्लास में ही पड़ गयी थी :) और, आप अश्रुसाधक भी थे :) आपके बारे में पढ़ना अच्छा लग रहा है। जारी रखें।
ReplyDeleteआपका बचपन आँखोँके आगे सजीव हो रहा है अभिशेक भाई ..बहुत बढिया है ..अगली कडी का इँतज़ार है .स्नेह,
ReplyDelete-लावण्या
( Thank you so much Ajit bhai )
भूतो के लिए प्रार्थना :) मजेदार है यह भी ..
ReplyDeleteप्यारे बचपन की न्यारी बाते हमेशा दिल को लुभाती हैं..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया! ये आँसुओं की धारा जब चाहे बहाने का रहस्य कोई हमें भी बता दे।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
अरे वाह!! हमारे गणित के गुरुजी यहाँ..बड़ा ही दिलचस्प लग रहा है..आगे इन्तजार है.
ReplyDeleteये घर से शुरु हुई गणित की पढ़ाई बहुत काम आती है।
ReplyDeleteये कहानी अपनी लिख रहे हैं या मेरी? नामों और स्थानों का मोटा फर्क है - बस।
ReplyDeleteअब समझ आया गणित में शौक कहाँ से पैदा हो गया आपको। और आपके भैया अगर "मेरे भैया" हैं तो मेरे भैया उनकी उलटबांसी। भाई पढ़कर लगता है जैसे पचास साल पहले के भारत की कहानी सुन रहा हूँ। मुझे नहीं मालूम आज का भारतीय गांव भी वैसा ही है।
ReplyDeleteहम चटकारे लेकर पढ़ रहे है.. यूही लिखते जाओ "मेरे भैया"
ReplyDeleteरोने में माहिर और अश्रुधारा पर ऐसा नियंत्रण कि जब चाहूं शुरू और जब तक मर्जी न हो रुकने का नाम ही नहीं.
ReplyDelete==================================
आँसुओं पर ऐसा नियंत्रण हो
तो ज़िंदगी हँसी की बागडोर
ख़ुद-ब-ख़ुद सौप देती है.
======================
अभिषेक जी, आपकी अभिव्यक्ति में
सहज रूप से ईमानदारी
झलक रही है...बचपन
अपनी नैसर्गिक छवियों के साथ
बोल-बतिया रहा है...और यह भी
संकेत दे रहा है कि इस चंचलता में
उत्तरदायी भविष्य की अनंत सम्भावना है.
=================================
शुभकामनाएँ
डा.चन्द्रकुमार जैन
अभिषेक की कहानी पढ़कर लग रहा है जैसे एक बार फिर से वही बचपन जी लें. लेकिन क्या कर सकते हैं. जानते हैं नहीं होगा. अभिषेक के बारे जानना बहुत अच्छा लग रहा है.
ReplyDeleteस्कूल में हमेशा से एवरेज रहा... मैं क्लास में सबसे छोटा जरुर था... मजेदार हैं आपकी बातें अगली कड़ी का इन्तेजार
ReplyDeleteसही बंधू को चुना अजित जी आपने ..साईकिल की हवा से लेकर ओर भूत तक सब ऐसी लगे जैसे अभिषेक से यही उम्मीद थी...अजित जी एक निवेदन है शब्दों में थोड़ा अन्तर ओर पैदा करे खासतौर से लाइनों के बीच ...पढने में ओर आसानी होगी...
ReplyDeleteachcha lagaa padkar.....
ReplyDeleteअति सुंदर। रोचक।
ReplyDeleteअजित भाई, इस पोस्ट पर महामहिम ज्ञानदा (यहाँ दा का मतलब दादाजी) की टिप्पणी है--
ReplyDelete"ये कहानी अपनी लिख रहे हैं या मेरी? नामों और स्थानों का मोटा फर्क है - बस।"
दादाजी को पकड़िए। कहीं इसे के बहाने वे अपना बकलमखुद लिखने से कतरा तो नहीं रहे।
यानी भूत के भय से अगले की फ़सल बच गई आपसे :)
ReplyDeletebhaut bhaut achha lag raha hai
ReplyDeleteAbhishek ji milna
aisa lag raha hai jaise apne samne hi hoti hui har ghtna ko padh rahe ho
bachpan jina sach main achha laga
रोचक वृत्तांत। बस पढ़ते ही जा रहे हैं। रस लेकर। जारी रखें।
ReplyDeleteमजेदार आगे की कड़ी का इंतजार है
ReplyDeleteदिलचस्प....
ReplyDeleteये "अन्हें" नाम बड़ा भाया...सोचता हूं आज से इसी नाम से पुकारूं अभिषेक को!