Tuesday, August 26, 2008

आगे भगवान मालिक है....[बकलमखुद-66]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने bRhiKxnSi3fTjn गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और चौसठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।

इन्टर्नशिप और डब्बे का लकी होना:

बंगलोर से जिंदगी की पहली इन्टर्न करके लौटा था, प्रोफेसर की शाबाशी और ८,००० रुपये मिले थे २५ दिन के काम के. खुशी खूब थी प्रोफेसर साहब ने ऐसा लैटर लिख के दिया था की लोग बोलते क्या खिला के पटाया:-) कुछ और पैसे मिलकर ३५००० में हम कम्प्यूटर (डब्बा) ले आए. अपने कम्प्यूटर से ऍप्लिकेशन भेजा और ९ वें दिन स्विस से लैटर आ गया, खूब पैसे मिलेंगे ये भी लिखा हुआ था. यहाँ तक तो ठीक लेकिन इसके बाद अजीब घटना हुई, जिसकी भी इन्टर्न की काल आती सब ऍप्लिकेशन मेरे डब्बे से ही गई होती. और किसी ने ये भी हल्ला कर दिया की कवर लैटर और रिज्यूमे ओझा से ही लिखवाओ. तो डब्बे के साथ-साथ हम भी रिज्यूमे-गुरु बन निकले. यहाँ तक भी ठीक पर कुछ लोगों को तो इतना भरोसा था (खासकर एक मेरे करीबी मित्र गुप्ता को) की इस डब्बे से असाइंमेंट बना के भेजो तो कभी कम नंबर नहीं आ सकते, एक बार उनके टर्म पेपर को बेस्ट घोषित कर दिया गया तब से बेचारे कुछ भी करते मेरे डब्बे से ही, उनका डब्बा बेचारा तरसता रह जाता. कुछ इसी तरह की घटना हुई प्लेसमेंट के टाइम पर मेरा बेल्ट चल निकला, हाल ये था की मुझे नहीं मिल पाता था पहनने को :-) मेरा रूम वैसे ही अड्डा था चर्चा का, मैं सो रहा होता तो भी रूम में २-४ लोग होते ही. अब ये एक और कारण हो गया भीड़ का.

मेरी बेटी कैसी रहेगी:

म्म... इसका शीर्षक ही रोचक है. तो चलिए बता ही देता हूँ, आईआईएम बंगलोर में दोबारा काम करने गया. पहली बार जिस प्रोफेसर के साथ काम किया वो भारत के जाने माने विद्वान् हैं. ज्यादा नहीं बता सकता, बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं मेरे उनसे, और वो जानी-मानी हस्ती हैं, सब बंटाधार हो जायेगा. जब दूसरी बार गया तो उनसे फ़िर मिलना हुआ. एक दिन गया तो खूब देर तक बात हुई, मैं क्या कर रहा हूँ, भविष्य के क्या प्लान है उन्होंने भी अपने बेटे की तस्वीर दिखाई जो अभी लन्दन में पढ़ाई कर रहा था. सब कुछ ढंग से चलता रहा, फिर उन्होंने मेरी उम्र और घर वालो के बारे में बात चालु की मुझे कुछ भनक नहीं लगी. बात होते-होते अंत में उन्होंने कहा की 'Actually I have a daughter to marry and she is as old as you are.' अब चालु हुई बात... अपनी बेटी के बारे में भी बताया उन्होंने, जो उन्हें चाहिए था सब मुझमे और मेरे परिवार में था बस उम्र कच्ची थी मेरी और पढ़ाई बाकी. मेरे पसीने छूट गए. मैं क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आया, मैंने कहा की ये काम मेरे माता-पिता का है मेरा नहीं. और वैसे भी अभी मुझे बहुत दिनों पढ़ाई करनी है. अभी कैसे कुछ कह सकता हूँ. जो भी हो चर्चा होती रही और ये फैसला लिया गया की मैं अपनी पढ़ाई पूरी करुँ और बाद में कभी मिलना हुआ तो मैं अपने माता-पिता का नंबर उन्हें दूंगा. (मैं लड़कियों को पसंद क्यों नहीं आता, उनके पिताओं को आता हूँ.. बहुत समस्या है !) फिलहाल वो बात उसके बाद बस एक बार और छिडी तब से नहीं... आगे भगवान मालिक है !

अन्तिम वर्ष:

ईआईटी के यादगार दिनों में आया अन्तिम वर्ष. वो सब कर डाला जो अब तक नहीं किया था... फाइनल परीक्षा के एक दिन पहले रात के २ बजे तक सिनेमा हॉल में, रात के २ बजे गंगा किनारे हो या जीटी रोड के ढाबे. घुमने का मन किया तो उत्तर पूर्व भारत घूम आए. चार साल में जितना पैसा खर्च नहीं किया था आखिरी सेमेस्टर में उडा दिया. मेस में खाना खाए हुए १५ दिन हो जाते. एक भी फ़िल्म रिलीज़ हो और हम सिनेमा हॉल में देख के न आयें ऐसा कभी नहीं हुआ. कानपुर के मित्र और उनकी बाइक... खूब एन्जॉय किया. इस बीच क्लास बंक करने का सिलसिला भी खूब चला. आईआईटी कानपुर की एक अच्छी बात है कि अटेंडेंस जरूरी नहीं है. कुछ प्रोफेसर इसके लिए कुल अंक का प्रतिशत निर्धारित कर देते हैं तो उन क्लास्सेस में जाना पड़ जाता था... उसमें भी अगर ये पता चल जाता की ५-१०% वेटेज है तो फिर यही कोशिश होती की ये ५-१०% कहाँ से लाये जाएँ अपने को तो वैसे भी नहीं मिलने. दो कोर्स ऐसे भी किए जिनमें कुल मिला कर दो बार ही गया. एक कोर्स में तो हद हो गई जब दुसरे मिड सेमेस्टर कि परीक्षा हो रही थी और मैं इंस्ट्रक्टर को ही नहीं पहचानता था. पर दोस्तों का साथ उनके नोट्स और रात भर की पढ़ाई इन दोनों कोर्स में अच्छे ग्रेड लगे.   [जारी]

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गांव में बच्चों के बीच यूं बच्चा बन जाने में कितना आनंद है !
हां, जब मनचाहे तब बड़प्पन झाड़ने से भी कौन रोकता है !
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आईआईटी ,कानपुर
में साथियों के साथ कुछ यादगार पल...
 

 

20 comments:

  1. अभिषेक का सफर गति से दौड़ रहा है। व्यक्तित्व की जानकारी हो जाने पर उसे पढ़ने का आनंद दुगना हो जाता है।

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  2. ये कडी भी अच्छी लगी इस कडी मेँ भी रोचक बातेँ रहीँ इन्हेँ यहाँ प्रस्तुत करने का शुक्रिया - आयआयटी के होनहार स्नातकोँ पर देश को गर्व है और वे दुनियाभर मेँ "स्ट्रेटेजीक" जगहोँ से बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैँ ये बात अब सभी जान गये हैँ ~~
    " We all are very proud of the Brain Power of Our Bharat ! "
    -लावण्या

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  3. अभिषेक, बहुत आनन्द आ रहा है हर बार पर्दा उठने पर...जारी रहो..हमें अभी बहुत जानना है तुम्हे..बहुत रोचक व्यक्तित्व है तुम्हारा.

    अजीत भाई को अनेकों आभार.

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  4. चिंता नक्को करने का, किसी को तो पसंद आ रहे हो ;) पढ़कर आनंद आ रहा है।

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  5. अभिषेक तुसी ग्रेट हो जी ग्रेट....!
    ==========================
    सगर्व बधाई
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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  6. रोचक लगा लड़की के पिता का तुम्हे पसंद करना ..:)

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  7. बहूत मज़ा आ रहा है हमको! तो आपके डब्बे से कई ज़िन्दगीयाँ बनी - एक प्रोफेसर की कन्या की जिन्दगी को छोड़कर - कौन जाने उनकी जिन्दगी भी बन गयी हो आपकी न से - मज़ाक कर रहा हूँ क्योंकि जानता हूँ कि तुस्सी ग्रेट हो (आप बुरा नहीं मानेंगे) और प्रोफ़ेसर साहब तो हिंदी पढेंगे नहीं इसलिए उनके बुरा मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता!

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  8. अच्छा स्वपरिचय दिया है अभिषेक जी !

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  9. badi rochak hai aapki jeevan yaatra....aur dont worry ek din aap kisi ladki ko bhi pasand aa jaoge :)

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  10. (मैं लड़कियों को पसंद क्यों नहीं आता, उनके पिताओं को आता हूँ.. बहुत समस्या है !) फिलहाल वो बात उसके बाद बस एक बार और छिडी तब से नहीं... आगे भगवान मालिक है !
    ********
    वाह, आज किसी पिता ने ई-मेल किया?!

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  11. bahut hi achha laga abhishekji se mil kar

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  12. सही कहा पर चलो अच्छा है पिता को तो पसंद आ रहे हो, अभिषेक के बार में जानकारी पढ़कर अच्छा लगा। इंतजार में

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  13. अपने साथ तो समस्या ये है की लड़कियो को पसंद आ जाते है.. पर उनके पिताजी को नही.. उपर वाला भी ना सबको बराबर नही देता..

    ये किश्त भी बढ़िया रही,,

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  14. कच्छा सलामत रहे, सब ठीक है। ये डब्बा-शब्बा क्या चीज़ है। जहां तक बड़े लोगों का तुम्हें पसंद करने का मुद्दा है, संजीत से बात कर लो। उनका भी मामला कुछ ऐसा ही है।

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  15. अभिषेक की ओझाई अच्छी चल निकली है . सबै पाठक फ़ेवीकोल के जोड़ की माफ़िक एकदम्मै संट गए हैं उनके जीवन-वृत्त और वर्णन करने के ढंग से . लकी डब्बे के लकी मालिक का लक ऐसे ही चमकता-दमकता रहे . अभी तो उन्हें लम्बी यात्रा तय करनी है .

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  16. सोचता हूँ आज की पोस्ट के बाद लड़किया शायद पसंद करने लगे .....ये दुनिया के सारे प्रोफेसर एक से क्यों होते है ?हा हा .....ओर अब ये भी बता दो की इस हेट का राज क्या है ?

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  17. हा!हा! दिलचस्प कड़ी...

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