फरीदा काले मेडे कपड़े, काला मेड़ा वेसु।। गुनहि भरा मैं फिरा, लोकु कहै दरवेसु।।बिरहा-बिरहा आखिऐ, बिरहा तू सुलतानु।। फरीदा जितु तनि बिरहु न ऊपजै, सो तनु जाणु मसानु
हि न्दुस्तान की सरजमीं पर सूफी संतों की लंबी पंगत सजती रही है। बाबा शेख़ फरीदुद्दीन गंजशकर भी इसी पंगत में विराजे हैं जिनके प्रसिद्ध शिष्य थे शेख़ निजा़मुद्दीन औलिया। सूफी-संतों का आध्यात्मिक प्रभामंडल लोगों पर करिश्माती असर छोड़ता था। इनके प्रभाव में बीते एक हजार वर्षों में न जाने कितनी पीढ़ियों ने प्रेम और सद्बाव के संदेश ग्रहण किये। मुस्लिम शासन के दौर में जब बेलगाम जालिम शासकों के धर्म की वजह से इस्लाम को नाम धरा जाने लगा था, इन्हीं सूफियों की मधुर वाणी ने लोगों के बीच इस मज़हब की प्रतिष्ठा बढ़ाई।
पंजाबी जीवन की जीवंतता और साहित्य के विकास और उसे सबके सामने लाने के उद्धेश्य से नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ पंजाब स्टडीज़ की स्थापना करीब दो दशक पहले हुई थी। संस्था ने पंजाब हेरिटेज सीरीज़ के तहत सूफी संतों की बानी और पंजाबी साहित्य की लोक परम्परा पर आधारित कई पुस्तकें निकल चुकी हैं जिनमें बुल्लेशाह, सोहणी-महिवाल, हीर आदि हैं। पिछले दिनों हमें इसी श्रंखला की पुस्तक बाबा फरीद मिली जिसे नामवर सिंह ने संपादित किया है। अपनी भूमिका में उन्होंने लिखा भी है, “पंजाबी साहित्य की यह बहुमूल्य विरासत एक तरह से सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की भी अनमोल निधि है मगर लिपि से अपरिचय और भाषा की समस्या के कारण बृहत्तर भारतीय समाज इस धरोहर के उपयोग से वंचित रहता आया है।”
नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ पंजाब स्टडीज़ ने इस धरोहर को हिन्दी में एक जगह लाने का बड़ा काम शुरू किया है। भारत में जितना भी सूफी साहित्य है उसका बड़ा हिस्सा पंजाबी भाषा का पुट लिये हुए है क्योंकि पंजाब ही सूफियों का दरवाज़ा था। इसी देहरी पर बैठै बैठे ही कही गई कई सूफियों की बानियां पूरे हिन्दुस्तान में सुनी गई। बाबा फरीद के ही नाम पर दिल्ली के पास फरीदाबाद नाम की बस्ती बसी। उनके नाम के साथ गंजशकर या शक्करगंज जुड़ने की भी दिलचस्प मान्यताएं हैं। उनकी वालदा नमाज़ और नियम में पक्का बनाने के लिए नमाज़ की चटाई के नीचे कुछ शकर रख देती थीं, बाबा उसे चाव से खाते। एक दिन मां शकर रखना भूल गई। नमाज पूरी होने के बाद जब बाबा ने चटाई उठाई तो वहां शकर का ढेर लगा था। कुछ का कहना है कि एक बार उन्होंने नमक के बोरों को आध्यात्मिक शक्तियों से शकर के अंबार में तब्दील कर दिया था, तभी से वे गंजशकर कहलाने लगे।
बाबा ने अपनी सीखों में यही कहा है कि इस मार्ग का प्रमुख लक्ष्य हृदय को एकाग्र करना है, जो जीविकोपार्जन के साधनों और बादशाहों की सोहबत से बचने पर ही संभव है। वे संगीत के शौकीन थे। शारीरिक कष्ट साधना के लिए भी उन्हें जाना जाता है। शेख़ फरीद काबुल के शाही घराने से संबंधित थे। किसी वजह से उनका परिवार पंजाब चला आया। उनका जन्म पंजाब के मुल्तान में खोतवाला गांव में 1173 ईस्वी को हुआ। उनकी जीवन-गाथा काफी लंबी है, मगर इस पुस्तक में उसका संक्षिप्त रूप ही है। पुस्तक में एक महत्वपूर्ण बात कही गई है। आजकल के सूफी मुसलमानों के बर्ताव में जो कुछ दिखता है वह फरीदजी के वक्त में नहीं था। हर सूफी इस्लाम फैलाने का उतना ही इच्छुक था , जितना कि शरई काज़ी या तलवारज़न बादशाह होता था। फरीदजी ने भी हिन्दुओं की ज़ातों की ज़ातें मसलमान बनाई थीं, उनमें से बहुत थोड़े ही हिन्दू रह गए थे। राज मुसलमानी था, दीन कबूल करने पर बड़ी रियायतें मिलती थीं। फरीद जी का हठ, तप,त्याग, वैराग, भजन, बंदगी और मीठी बानी जो असर करती थी, सो अलग। उनकी कुछ बानियों से हिन्दीवाले परिचित हैं जैसे रूखी सूखी खाई कै ठंढा पाणी पीउ। फरीदा देखि पराई चोपड़ी ना तरसाए जीऊ।।
गौरतलब है कि बाबा फरीद का कलाम, जो आज दुनिया के सामने है, उसे समेटने और संभालने का बड़ा काम गुरू नानक साहिब ने ही किया था। बाबा फरीद ने पाक पट्टन में आठ सौ साल पहले एक जमातखाना स्थापित किया था जहां चरित्र निर्माण का काम होता था और इसे एक आवासीय विश्वविद्यालय का स्वरूप मिला हुआ था। आज भी यहां बाबा फरीदुद्दीन की दरगाह है।
बहरहाल, यह पुस्तक सूफी साहित्य के शौकीनों को बाबा फरीद की बानी हिन्दी अनुवाद और हिन्दी लिपि की वजह से पसंद आएगी। नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ पंजाब स्टडीज़ के लिए इसे प्रकाशित किया है अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दरियागंज, नई दिल्ली ने। हार्डबाऊंड में सुंदर साज-सज्जा में छपी यह पुस्तक क्राऊन(क्वार्टो) आकार में छपी है। कुल 66 पेज की पुस्तक का मूल्य 150 रु है।
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अजित जी!
ReplyDeleteपुस्तक-चर्चा अच्छी रही। सूफी साहित्य के शौकीन लोगों के लिए
"बाबा फरीद की बानी" का अनुवाद नामक पुस्तक
निश्चितरूप से उपहार साबित होगी।
इस जानकारी लिए आभार।
सूफी बानी को हिन्दी में लाना बहुत महत्वपूर्ण प्रयास है।
ReplyDeleteसूफी परम्परा हकीक़त का बखान करती है .ज्यादा तो इसके बारे मे जानता नहीं लेकिन रुखा सुखा खाय के ठंडा पानी पिय .......... कितना सही है
ReplyDeleteबहुत उपयोगी जानकारी,
ReplyDeleteबाबा फरीद की बानी के
मुरीद तो हम बचपन से हैं.
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इस पुस्तक के लिए भी लिखेंगे.
आभार अजित की....
आपकी शब्द सेवा को नमन.
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
Baba Farid ke bahut hi achchey vicharon se avagat karaya is lekh mein.dhnywaad
ReplyDeleteअच्छी जानकारी दी आपने. आज ही क्रॉसवर्ड जाकर ढूंढता हूँ ये पुस्तक.
ReplyDeleteआभार आपका.
अच्छा, सूफी, ईसाई मिशनरियों का इस्लामी संस्करण था!
ReplyDeleteअच्छा, सूफी, ईसाई मिशनरियों का इस्लामी संस्करण था!
ReplyDeleteइस पुस्तक के उल्लेख के लिये आभार ।
ReplyDelete"रूखी सूखी खाई कै ठंढा पाणी पीउ।
फरीदा देखि पराई चोपड़ी ना तरसाए जीऊ।।"
इस दोहे को तो मैं कबीर का दोहा ही जानता था । इसमें ’फरीदा’ शब्द जोड़ दिया गया लगता है ।
क्या उपरोक्त दोहा भी इस पुस्तक में संकलित है ?
ReplyDeleteअजित जी, "वो मारा पापड वाले को" और "दिल बल्लियों उछलना" के पीछे क्या किस्सा है?
ReplyDeleteउपयोगी जानकारी।
ReplyDeleteआपकी यह पुस्तक चर्चा भी बड़े काम की बनती जा रही है।
शुक्रिया
@हिमांशु-
ReplyDeleteहां, इसी पुस्तक से मैने इसे उद्धरित किया है।
भारतीय साहित्य की वाचिक परम्परा के चलते यह घालमेल हमेशा रहा है। एक ही पद के दावेदार कई नहीं होते पर उन्हें अलग अलग लोगों का साबित करने की विद्वानों में होड़ रहती है। कुल मिलाकर संतवाणी और सूफीबानियों की खास बात तो आम भाषा में नीतिवचन कहना ही है। इनमें से कई सीखें तो नीतिवचन के तौर पर तत्कालीन समाज में पहले से ही प्रचलित रही होंगी। यूं बाबा फरीद कबीरदास के पूर्ववर्ती थे।
बाबा फ़रीद की याद ताज़ा करवाने के लिये बहुत शुक्रिया. बेतरतीब होती ज़िन्दगी में इन दरवेशों की नसीहतें और बानियाँ बहुत कुछ सिखातीं हैं.
ReplyDeleteAjit sa
ReplyDeletekhamma ghani
bahut acchi jankari di.
shahar ya nagaron ke namon ka itihas janne ki utsukta hai.kab puri hogi?
kiran rajpurohit nitila
अजित जी,
ReplyDeleteबाबा फ़रीद की पुस्तक का रिविऊ पढ़ कर मैं भावक हो गया.
मुझे नहीं पता था इतने महान और पुराने भारततीय कवी के बारे में हिंदी जगत अबी तक अनजान था. मुझे फरीद की सारी बानी जबानी याद है. नामवर सिंह जी का तो पंजाबी पर बहुत अहिसान है. पंजाबी के एक नावलकार गुरदयाल सिंह को दुनिया के सह्माने लेन वाले नामवर सिंह जी ही थे. आप ने शेख फरीद की बानी वाली इस पुस्तक का आलेख लिख कर एक पुण्य का कम जी किया है.
Sir is ther any book hindi in devnagri lipi on shiv kumar batelvi
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