प्रा चीन भारतीय मनीषियों ने खगोलिकी पर बहुत चिन्तन किया था। ग्रह-नक्षत्रों, उनकी गतियों, ग्रहणों और उसके मानव जीवन पर प्रभावों के बारे में वे लगातार सोचते थे। खगोल संबंधी भारतीय ज्ञान फारस होते हुए अरब पहुंचा और फिर वहां से यूनानी, ग्रीक और रोमन समाज तक पहुंचा। हालांकि ज्ञान के आदान-प्रदान का यह सिलसिला दोनो तरफ से था।
सौरमंडल के सबसे बड़े ग्रह का नाम गुरु है। इसे बृहस्पति भी कहते हैं जिसका अंग्रेजी नाम है जुपिटर। सप्ताह के सात दिनों में एक गुरु का होता है इसीलिए उसे गुरुवार कहते हैं। गुरु शब्द में ही गुरुता का भाव है। गुरु शब्द की व्युत्पत्ति भी ग्र या गृ जैसी प्राचीन भारोपीय ध्वनियों से मानी जा सकती है जिनमें पकड़ने या लपकने का भाव रहा। गौर करें गुरु में समाहित बड़ा , प्रचंड, तीव्र जैसे भावों पर। हिन्दी में आकर्षण का अर्थ होता है खिंचाव। ग्रह् का अर्थ भी खिंचाव ही है, इससे ही ग्रहण बना है। घर के अर्थ में ग्रह या गृह भी इसी मूल के हैं। ध्यान दें कि गृहस्थी और घर में जो खिंचाव और आकर्षण है जिसकी वजह से लोग दूर जाना पसंद नहीं करते। ग्रहों – खगोलीय पिंडों की खिंचाव शक्ति के लिए भी गुरुत्वीय बल शब्द प्रचलित है जिसे अंग्रेजी में ग्रैविटी कहते हैं जो इसी मूल से उपजा है।
फारसी का एक शब्द है बिरजिस जिसका अभिप्राय तारामंडल के सर्वाधिक चमकीले तारे गुरु से ही है। यह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और बृहस्पति से बना है। संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं। आकार और फैलाव के संदर्भ में इससे ही बना है बृहत् (वृहद) शब्द जो बृह+अति के मेल से बना है। इसका मतलब होता है विस्तृत, प्रशस्त, प्रचुर, शक्तिशाली, चौड़ा, विशाल, स्थूल आदि। बृहत्तर शब्द भी इससे ही बना है। संस्कृत में इसके वृह, वृहत् और वृहस्पति, वृहत्तर जैसे रूप भी हैं जो हिन्दी में भी प्रचलित हैं। ऋषि-मुनियों ने गुरु के अत्यधिक प्रकाशमान होने से
उसके बड़े आकार की कल्पना की और उसे बृहस्पति कहा। पुराणों में बृहस्पति को देवताओं का गुरु भी कहा गया है। बृहस् ही ईरानी के प्राचीन रुपों में बिरहिस हुआ और फिर बिरजिस बना। वाजिदअली शाह के शहजादे का नाम बिरजिस कद्र था।
"..संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं.." |
बृहस्पति के बड़े आकार, उसकी द्युति अर्थात चमक ही इसके अंग्रेजी नाम जुपिटर के मूल में हैं। भाषाविज्ञानियों ने इसे प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार का शब्द माना है। यह दो धातुओ के मेल से बना है। द्युस dyeu + पेटर peter = जुपिटर Jupiter जिसका मतलब होता है देवताओं के पिता जो बृहस्पति में निहित देवताओं के गुरु वाले भाव का ही विस्तार है। ग्रीक पुराकथाओं में जिऊस का उल्लेख है जो देवताओं का पिता था। प्राचीन भारोपीय धातु dyeu की संस्कृत धातु दिव् से समानता देखें जिसमें चमक, उज्जवलता, कांति, उजाला जैसे भाव हैं। इसी तरह पेटर की पितृ से। प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने चमक, प्रकाश द्युति में ही देवताओं की कल्पना की है। सो द्युस-पेटर में जुपिटर अर्थात बृहस्पति का भाव स्पष्ट है। दिव् से ही बना है दिवस अर्थात दिन या दिवाकर यानी सूर्य। दिव् का एक अर्थ स्वर्ग भी होता है क्योंकि यह लोक हमेशा प्रकाशमान होता है। इन्द्र का एक नाम दिवस्पति भी है।
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आपके अध्यवसाय एवं श्रम का प्रशंसक हूँ। प्रतीत होता है अब ग्रहों पर ज्ञानवर्धक सूचनाएँ मिलेगी। प्रतीक्षारत रहूँगा। Jupiter के लिए द्यौपितर शब्द वैदिक है ठीक ही उल्लेख किया है। बृहस्पति को जीव भी कहा जाता है। औषधियों का भी कारक है। अब पता नहीं किन्तु २० बरस पहले तक ऎलोपैथिक ड़ाक्टर अपनें पैड पर बृहस्पति का ज्योतिषीय चिन्ह छपवाते थे। बॄहस्पति वायव्यी ग्रह है, यह ज्योतिष ग्रन्थों एवं खगोलज्ञों को तो ज्ञात ही था किन्तु ‘शूमेकर लेवी’ नामक कामेट (केतु ) के टकरानें वाली घटना से पुनः पुष्टि हुई थी। सुदूर आकाशगंगा में कर्क राशि के अन्तर्गत पुनर्वसु एवं पुष्य नक्षत्र के मध्य अपनें सूर्य से अतिदीर्घ (अपनें एक लाख सूर्य उसमें समा जाएँ) एक ‘लुब्धक बन्धु’ नाम का तारा पुंज है जिसके प्रमुख तारे को वेद में ‘ब्रह्मणस्पति’ कहा गया है। ऎसी मान्यता है कि पृथ्वी पर जीवनीय तत्व वहीं से आता है। बृहतसंहिता में लगभग १०० केतुऒं (कामेट्स ) का वर्णन है। उनमें से कोई-कोई अपनें भ्रमण पथ पर १२०० वर्षों तक में आवृत्ति करते हैं, कहते हैं कि वही जीवनीय तत्व लाते हैं। आधुनिक विज्ञान भी इस दिशा में शोध कर रहा है। अपनी पृथ्वी सूर्य का चक्कर १ वर्ष में लगाती है जो सूर्य से १४ करोड़ कि०मी० दूर है तो १२०० वर्षों मे सूर्य का फेरा लगानें वाला केतु कितनी दूर जाता होगा? आकाशगंगा की विशालता पर सोंचता ही रह जाना पड़्ता है।
ReplyDeleteआपके आलेख के साथ सुमन्त जी की टिप्पणी से भी कृतार्थ हुआ । आभार ।
ReplyDeleteगुरुत्वीय- ग्रैविटी और इन जैसे तमाम शब्द जो संस्कृत या हिंदी से और लोगो ने मय उच्चारण के उठा लिए गए लगते है . अपनी यह बौधिक संपदा के सम्मान के लिए ऐसे शब्दों की श्रंखला शुरू करे .
ReplyDeleteआभार. वृहस्पति के साथ वैदिक और यूनानी देवों के बारे में भी जाने को मिला.सुमंत जी का भी आभार.
ReplyDeleteबहुत ज्ञानवर्धक जानकारी ,धन्यवाद .
ReplyDeleteआपके अध्यवसाय एवं श्रम का प्रशंसक मैं भी हूँ...मगर उत्ता लम्बा न लिख पाऊँगा, बिना लिखे अहसास लो मेरी भावना..सेम टू सेम!!!
ReplyDeleteबृहस्पति के बारे में तो इतने दिनों से अध्ययन जारी है .. पर आज बिल्कुल नई बातें जानने को मिली .. शब्दों के सफर से रूबरू कराने वाला आपका प्रयास सराहनीय है।
ReplyDelete@सुमंत मिश्र
ReplyDeleteसही कहा कात्यायनजी, अंतरिक्ष की विशालता स्तब्ध कर देने वाली है। सौरमंडल के अपने ग्रहों के तुलनात्मक आकार के आंकड़े जानकर की चकित रह जाना पड़ता है। प्राचीन मानव निश्चित ही प्रकृति के विभिन्न रूपों को लगातार निरखता था। आज तो नज़र भर आसमान भी साल में एक बार देखने को मिल जाए तो काफी है। वातानुकूलित कक्षों से बाहर की दुनिया नकली लगती है:)
"सौरमंडल के सबसे बड़े ग्रह का नाम गुरु है। इसे बृहस्पति भी कहते हैं जिसका अंग्रेजी नाम है जुपिटर। सप्ताह के सात दिनों में एक गुरु का होता है इसीलिए उसे गुरुवार कहते हैं।"
ReplyDeleteगहनता के साथ बृहस्पति की व्याख्या प्रस्तुत की है।
बधाई।
अन्तर्राष्ट्रीय खगोल वर्ष के उपलक्ष्य में आपकी यह विवेचना शानदार है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बृहतों का भी पति, बृहस्पति। अनूठा ग्रह जो सौरमंडल का वैक्यूम क्लीनर है। सब को अपने अंदर समेट लेता है और अन्दरूनी कक्षाओं के ग्रहों की रक्षा भी करता है। वह सेनापति भी है।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट बढ़िया लगी और सुमन्त मिश्र जी की टिप्पणी भी ज्ञानवर्धक थी।
ReplyDeleteधन्यवाद।
ज्ञानसागर!!!
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट और टिपणीयां भी बडी ज्ञानवर्धक रही.
ReplyDeleteरामराम.
गुरुत्व और ग्रैविटी ! बृहस् से बिरजिस... वाह !
ReplyDeleteमेरे पापा जी
ReplyDeleteहमेँ बचपन मेँ
गुरु बृहस्पति के दर्शन करवाते थे
और "लुब्धक " के बारे मेँ भी
बतलाया था जो आज लगभग ५० बरसोँ के बाद,
सुमन्त जी की टीप्पणी मेँ वही नाम "लुब्धक "
पढकर स्तम्भित हूँ !
और खुश भी ! :)
पापा जी ये भी कहते थे कि,
" लुब्धक " के उदय के साथ
अक्सर इजिप्त मेँ बहती नाइल नदी मेँ
बाढ भी आती है -
विज्ञान और भारतीय पुरातन ज्ञान
कई खज़ाने समेटे हुए है -
आपकी शोध व लेख के लिये आभार अजित भाई
स स्नेह,
- लावण्या
bahut rochk jankari ka bhandar hai ye safar.agli post ka intjar hardum hi rahta hai.
ReplyDeletebirjia shabd se Jodhpuri shikar ki poshak yad aa rahi hai. Raje Maharaje shikar ke samay ek khas tarah ka adho vastra pahante the.
hum to hamari bat rakhte rahenge.shabdo ki uljhan puchate rahenge.
धन्यवाद गुरु-ज्ञान के लिए.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
हमें आपके शब्दों के सफर के तीसरे अंक की प्रतीक्षा है।
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