इस बार भी पुस्तक चर्चा कर रहे हैं अबीर जो भोपाल के केन्द्रीय विद्यालय में 11वीं कक्षा के छात्र हैं। इतिहास, भूगोल में बहुत दिलचस्पी रखते हैं। मानचित्र-पर्यटन के शौकीन हैं।
दो सप्ताह पहले मार्को पोलो पुस्तक की चर्चा इन्होंने की थी। इस बार बिना मांगे हमें यह चर्चा अपने मेलबॉक्स में मिली। वैसे डोमिनीक लापिएर के लेखन का मैं भी प्रशंसक हूं।
द क्षिण भारत के एक बस स्टॉप पर धुँआधार वर्षा में बस का इंतज़ार करते हुए डोमिनिक लापिएर की नज़र एक लोकोक्ति पर पड़ती है-मेघों के उस पार सदैव हज़ार सूरज विद्यमान रहते हैं। एक हज़ार सूरज डोमिनिक लापिएर की एक और शानदार किताब है जिसे फुलसर्कल प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है जिसमे उन्होंने उनकी विभिन्न पुस्तकों के लिए सामग्री एकत्र करते हुए घटे अनुभवों, अपने जीवन में हुए संस्मरणों और एक पत्रकार के रूप हुए अनुभवों को पाठकों के साथ साझा किया है।
इस किताब की शुरुआत वे पत्रकारिता के दौरान हुए एक अनुभव से करते हैं और उनके द्वारा कलकत्ता में चलाये जा रहे परमार्थ कार्यों पर ख़त्म करते हैं। वे पुर्तगाल और स्पेन में तानाशाही के विरोध में कप्तान हैनरिक गल्वाओ द्वारा अगवा किये गए सांता मारिया जहाज़ का विमान द्वारा पीछा करते हैं और बंदरगाह आने के बाद कप्तान हैनरिक का साक्षात्कार लेने के सर्वाधिकार दो हज़ार डॉलर में स्वयं कप्तान हैनरिक से खरीदते हैं और अपने पूर्वजों के स्थान सेंट ट्रोपेज़ में भूमध्य सागर के पास घर खरीदने के अपने अनुभवों को बताते हैं।
अपनी किताब इज़ पेरिस बर्निंग के बारे में वे बताते हैं की क्यों हिटलर के सेनापति जनरल चोल्टिज़ ने अपने फ़्युहरर के १४ बार आदेश के बाद भी पेरिस को ध्वस्त नहीं किया। ओ येरुसलेम पुस्तक के दौरान एहुद एव्रिअल और इस्राइल की प्रधान मंत्री गोल्डा मायर के साथ अपने साक्षात्कारों को बाँटते हैं और ये भी बताते हैं की कैसे गोल्डा मायर ने 3 दिन में 5 करोड़ डॉलर की राशि एकत्र की और कैसे एक नवजात राष्ट्र ने पांच अरब राष्ट्रों की नियमित सेनाओं का सफलतापूर्वक सामना किया।
भारत की आजादी पर अपनी किताब फ्रीडम ऐट मिडनाइट लिखते समय हुए रोचक प्रसंग बताते हैं और यह भी की आजादी के समय भारत के स्वतंत्र 565 राजा कितने विलासी थे।
हजार सूरज में उन्होंने इस्राइल के एअरपोर्ट पर जापानी कम्युनिस्टों द्वारा किये हमले का उद्देश्य और उस की योजना के बारे में विस्तारपूर्वक बताया हैं। एक अन्य संस्मरण में वे अपनी रोल्स रोयस कार से की गयी विश्व यात्रा और विभिन्न देशों का रोचक विवरण देते हैं। चार्ल्स डि गॉल ने जब अल्जीरिया को फ्रांस से स्वतंत्रता दी तो कैसे उनका विरोध हुआ और कैसे उनकी ह्त्या की असफल साजिश कई बार हुई और अल्जेरिया के दस लाख फ्रांसीसी विस्थापितों की आपबीती बयान करते हैं।
अपनी इस किताब को वो भारत लाकर ख़त्म करते हैं। कलकत्ता में अनाथ व बीमार बच्चों के लिए ''सिटी ऑफ़ जॉय'' फाउंडेशन द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न परमार्थ कार्यों पर ख़त्म करते हैं जहां वे उन बच्चों के लिए यह आशा व्यक्त करते हैं की उनके लिए भी विपत्तियों के उस पार हज़ार सूरज विद्यमान हैं। अपनी तमाम बेस्टसेलर पुस्तकों की आधारकथाओं को लिपिबद्ध करते हुए डोमिनीक ने एक नई विधा ईज़ाद की है जो डायरी, संस्मरण से हटकर कुछ और ही लगती है पर पाठक को बांधे रखती है। यूं भी उनकी शैली बहुत दिलचस्प है। विदेशी लेखक लिखने से पहले कितना शोध करते हैं यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती है।
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अबीर जी, डॅमनिक लैपियर की फ्रीड़्म एट नाइट तथा एक दो और भी किताबें पढ़ी थीं। हिन्दी अनुवाद बहुत सहज नहीं लगा था। बाद में अंग्रेजी ही में पढ़ा। काफी शोधपरक लेखन है। किन्तु उससे भी अच्छा आप का यह आलेख है। बधाई।
ReplyDeleteपढनी पडेगी ये किताब । Freedom at Mid night पढी थी । इस शीर्षक के कारण मुझे Ahmad Rashid की किताब A thousand splendid Suns की य़ाद आ गई ।
ReplyDeleteयह पुस्तक अभी नहीं पढ़ी है, अब पढ़ते हैं। इस सुंदर पुस्तक चर्चा के लिए अबीर को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteहोनहार बिरवान के होत चीकने पात।
डॅमनिक लैपियर की "एक हज़ार सूरज"
ReplyDeleteपुस्तक चर्चा के लिए अबीर को बहुत बहुत बधाई।
अबीर बेटा तुमने बहुत अच्छा परिचय दिया है. धन्यवाद और ऐसे ही पढ़ते रहो, लिखते रहो.
ReplyDeleteहमने भी नहीं पढ़ी यह किताब अभी तक ।
ReplyDeleteइस पुस्तक चर्चा के लिये अबीर को धन्यवाद ।
वाह, अबीर नहीं कबीर. इस बालक की मेधा चौंकाने वाली है. इतना प्रतिभाशाली बालक आपका पुत्र ही हो सकता है. नहीं है तो भी पुत्र के समान तो है ही. उस पर सरस्वती की कृपा बनी रहे. बधाई!
ReplyDeleteअच्छी जानकारी .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया. लगता है किताब पढ़नी पड़ेगी क्योंकि अबीर का इसके प्रति गज़ब फैसिनेशन दिख रहा है. इसमें अनुभवों के विस्तृत दायरे में काफी कुछ समेत लिया लगता है. सिटी ऑफ़ जॉय अरसा पहले पढ़ी थी.अच्छी लगी थी. इसी बहाने इस किताब की भी याद हो आई. वैसे अबीर आपने larry colins का ज़िक्र छोड़ दिया लगता है, शायद किताब में ज़िक्र ज़रूर होगा.
ReplyDeleteअगर अबीर का नाम नहीं लिखा होता तो यही लग रहा था यह समीक्षा आपने लिखी है .
ReplyDeleteअरे वाह..अबीर इतना अच्छा लिख भी लेते हैं पता ही नहीं था! बहुत अच्छी समीक्षा की है! अबीर को बधाई..
ReplyDeleteवाह! अबीर साहब तो होनहार बिरवान के होत चिकने पात कहावत को चरितार्थ करते नज़र आ रहे हैं।
ReplyDeleteइस उम्र में इतनी अच्छी किताब समीक्षा। बहुत बढ़िया।
बधाई।
लेखक का मंतव्य और
ReplyDeleteगंतव्य दोनों प्रेरणास्पद हैं,
प्रस्तुति है सराहनीय.
बधाई अबीर को...आभार आपका.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अबीर ने बहुत ही अच्छी चर्चा की है। डोमिनीक लापिएर को अभी तक पढ़ा नहीं लेकिन अब पढ़ने की इच्छा जागृत हो गई है।
ReplyDeleteभाई पूत के पांव पालने मे ही दिखने लगे है> बहुत शुभकामनाएं
ReplyDeleteरामराम.
बढिया समीक्षा,, वडनेरकर जी आपके ब्लॉग का ले आउट बढ़िया है.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबढ़िया है जी, वडनेरकर जी नियमित और बढ़िया ब्लॉगिंग के आप बादशाह हैं
ReplyDeleteअवसर मिला तो अवश्य पढ़ूँगी।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
अबीर के शुभकामनाएं और आशीर्वाद देने के लिए आप सबका बहुत बहुत आभार...अबीर कुछ आलसी है...आपके सद्वचन उसे प्रेरित कर सकें यही कामना है।
ReplyDelete@राजीव
आपका अनुमान सही है राजीव भाई। अबीर अपने नाम के साथ वडनेरकर ही लगाते हैं:)
अबीर, शुभाशीष !
ReplyDeleteयह जानना बहुत तृप्ति दायक है कि डोमिनीक लापिएर अपनी पुस्तक रायल्टी का आधा हिस्सा जन-कल्याण कार्यों में लगाते हैं। अन्यथा, यह उदारता अब कहाँ |
कात्यायन जी के कथन में बहुत सच्चाई है | अधिकांशतः अनुवादित पुस्तकें लेखक के मूल भाव से भटकी होती है | यद्यपि सच तो यह है कि सेवाभावी और हिन्दी लेखक / अनुवादक भी कम ही बचे हैं | अबीर की पीढी कुछ आशा जगाती है |
पुस्तक को पढ़े बिना विषय वस्तु पर टिप्पणी करना उचित नहीं विलासी और युद्धरत राजाओं की कथाओं से अटा पडा इतिहास कभी आकर्षक नहीं लगा | परन्तु समीक्षा से ज़ाहिर होता है कि यह पुस्तक बहुत भिन्न है जो बांच लेने को प्रेरित करती है |
समीक्षक अबीर को ज्ञानवर्धक (और प्रेरणास्पद ) आलेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद |
डोमिनीक लापिएर की शैली पाठक को बांधे रखती है.
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