शा यरी में अक्सर बालों का जिक्र होता है। जुल्फ, गेसू जैसे शब्दों से अरबी, उर्दू, फारसी की शायरी अटी पड़ी है। शायरी करनेवाले अर्थात शायर की तस्वीर भी बड़े बालों और दाढ़ी के बिना नहीं उभरती है। शख्सियत को उभारने में बालों की अहम भूमिका है। बालों का करीनेदार बनाव और रख-रखाव इन्सान को समझदार, अक्लमंद और सुलझी हुई सोच दिखाता है। बेतरतीब बालों वाला इन्सान एकबारगी परेशानहाल, उलझा हुआ ही समझा जाता है। औलिया, पीर, ऋषि-मुनियों के लंबे केश उनकी विद्वत्ता, बुद्धिमानी, अनुभव और सुलझी हुई जीवनदृष्टि का प्रमाण होते हैं। वैज्ञानिकों, प्राध्यापकों की फ्रेंचकट दाढ़ी उनके बुद्धिजीवी होने की मुनादी करती है। शायर और शायरी का संबंध केश अर्थात बालों से यूं ही नहीं है। इन शब्दों की आपस में रिश्तेदारी है।
अरबी में बाल के लिए शार sha’ar शब्द है जिसमें सिर समेत समूचे शरीर के केश शामिल हैं। बहुत सारी चीज़ों के अम्बार में चीज़ों को चीन्हने, जानने-पहचानने की क्षमता के लिए भी अरबी में शार शब्द ही है। इसमें समझदारी, अक्लमंदी जैसे भाव भी जुड़ते हैं। सूक्ष्मता के प्रतीकस्वरूप भी बाल शब्द का इस्तेमाल होता है। शार में यही अभिप्राय है। बाल बराबर बारीकी के साथ चीज़ों को समझने की क्षमता का भाव ही इसमें है। इसमें एक एक बाल के सुलझाव और करीने से संवारने की तरतीब की ओर भी इशारा है। करीना, तमीज़ के लिए शऊर भी एक लफ्ज है जो हिन्दी में इस्तेमाल होता है। मूलतः .यह अरबी शब्द है और बरास्ता उर्दू हिन्दी में आया। रहन-सहन, बोल-चाल, सज-धज में लापरवाही बरतने को ही बेकरीना, बेसलीका या बेशऊर कहा जाता है यानी दुनियादारी की बारीकियों की समझ न होना।
काव्य के लिए अरबी शब्द है शाइरी जो हिन्दी में शायरी के तौर पर प्रचलित है, इसी मूल का है। कविता में भाव ही प्रधान होते हैं। विभिन्न शब्दों के कही गई बात के संदर्भ में अलग अलग मायने तलाशना या समझना ही खास बात होती है। शायरी उसे ही कहेंगे जिसमें किसी बात के कई अर्थ निकलते हों। कविता की लाक्षणिकता को भांप कर उसका सही अभिप्राय समझने का भाव ही शायरी में निहित है। ग़ज़ल विधा में दोहानुमा द्विपद होते हैं जिन्हें शेर कहा जाता है। इसका बहुवचन अश्आर है। ये भी इसी मूल से जन्मे हैं। शायरी करनेवाले को शायर या शायरा कहते हैं। काव्य गोष्ठी के लिए अरबी में मुशायरा शब्द है जो हिन्दी में भी इस्तेमाल होता है।
गौरतलब है कि इन तमाम शब्दों की शार अर्थात बाल से रिश्तेदारी इसके अरबी परिवेश में ही समझी जा सकती है क्योंकि बाल के अर्थ में उक्त शब्द फारसी, उर्दू या हिन्दी में प्रचलित नहीं है। हिन्दी में केश या बाल ज्यादा प्रचलित है तो फारसी में बाल के लिए गेसू शब्द है। इसके बावजूद अरबी के शार से इंडो-ईरानी भाषा परिवार के केश की कुछ रिश्तेदारी तो जुड़ती है। बाल के लिए संस्कृत में केशः, केशरः ,केशरम् या केस, केसरः, केसरम् जैसे शब्द हैं। पीले रंग के
एक प्रसिद्ध पुष्पतंतु को केसर कहते हैं कश्मीर घाटी में पाया जाता है। अरबी में इसे ज़ाफरान कहते हैं। केशरः से क वर्ण का लोप करें तो शरः और अरबी शार की बाल के अर्थ में रिश्तेदारी आसान लगती है। इंडो-ईरानी भाषा परिवार में संस्कृत का क ईरानी के ग में बदलता है। संस्कृत का केशः शब्द हिन्दी में भी केश बनता है और मराठी समेत कई अन्य ज़बानों में केस बनता है। फारसी में यही सहजता से गेसू हो जाता है जिसका अभिप्राय जुल्फों से है।
एक प्रसिद्ध पुष्पतंतु को केसर कहते हैं कश्मीर घाटी में पाया जाता है। अरबी में इसे ज़ाफरान कहते हैं। केशरः से क वर्ण का लोप करें तो शरः और अरबी शार की बाल के अर्थ में रिश्तेदारी आसान लगती है। इंडो-ईरानी भाषा परिवार में संस्कृत का क ईरानी के ग में बदलता है। संस्कृत का केशः शब्द हिन्दी में भी केश बनता है और मराठी समेत कई अन्य ज़बानों में केस बनता है। फारसी में यही सहजता से गेसू हो जाता है जिसका अभिप्राय जुल्फों से है।
केशर का रिश्ता जंगल के राजा शेर से भी है। संस्कृत में केशरः का एक अर्थ शेर या घोड़े की अयाल भी होता है। गौरतलब है कि बबर शेर अपने बालों की वजह से ही बर्बर लगता है। केशरी या केसरी का अर्थ हुआ सिंह या शेर। दिलचस्प बात यह कि क्षत्रियों में केसरीसिंह,केशरसिंह या शेरसिंह नाम होते हैं। इसका मतलब हुआ शेर शेर या सिंह सिंह!! यह वीरबहादुर जैसा मामला है।केशिन का मतलब भी सिंह होता है। एक प्रसिद्ध दानव का नाम भी केशिन ही था। केशिन या केशरी में जो मूलतः रोमिल या कैशिकी भाव प्रमुख है, वह इसे रौद्र, प्रभावी और शौर्य से भर रहा है। प्राचीनकाल में भी नाम के साथ सिंह लगाने के परिपाटी थी। फर्क यही था कि वे सिंह न लगाकर केशिन लगाते थे। इतिहास में पुलकेशिन नाम के दो प्रसिद्ध राजा हुए हैं। नाम के साथ केशरी या केसरी आज भी जोड़ा जाता है जिसमें वहीं भाव है जो सिंह में है जैसे सीताराम केसरी। क्षत्रियों में जिस तरह से अपने नाम के साथ सिंह लगाने की परिपाटी है वह इसी वजह से है क्योंकि प्राचीनकाल में उन्हें लगातार युद्धकर्म में जुटे रहना पड़ता था। नाम के साथ शौर्यसूचक सिंह लगने से उनका जातीय गौरव उभरता था जो उत्साह और ऊर्जा का संचार करता था। यह बालों की महिमा है।
सिंह शब्द की व्युत्पत्ति हिंस् धातु से मानी जाती है जिससे वर्ण विपर्यय के चलते सिंह शब्द बना। हिंस् धातु में प्रहार, चोट, आघात या क्षति पहुंचाने का भाव है। इससे ही बना है हिंसा शब्द। इसका विलोम हुआ अहिंसा जो गांधीजी का हथियार था। पूर्वी भारत में कायस्थों का एक उपनाम होता है सिन्हा। यह मूलतः सिंह ही है जिसे अंग्रेजी की कृपा से सिन्हा का रूप मिल गया। शेर अपने चारों और के माहौल के बारे में बहुत संवेदनशील रहता है और बड़े धैर्य के साथ अपने आसपास की चीज़ों पर पैनी और स्थिर नज़र रखता है। समग्र अध्यययन के लिए सिंहावलोकन शब्द इसी लक्षण की वजह से बना है।
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बहुत ही सुंदर पोस्ट. जानकारी से भरपूर । इतने शब्द और उनके मूल ।
ReplyDeleteमेरी एक पाकिस्तानी दोस्त हुआ करती थी कुवैत में, उसका नाम था कैसर । मैने जब उससे पूछा कि केसर तो संस्कृत से आया हुआ शब्द है फिर उर्दू मे कैसे तो उसने कहा कि उसका नाम कैसर है जिसका मतलब है किंग या राजा, तो शेर भी तो जंगल का राजा ही है ना तो उपजा तो केशर से ही होगा । एक और सच्चा चुटकुला इस संदर्भ में याद आ रहा है । कलकत्ता में मेरी दोस्त के गाइड हुआ करते थे डॉ. सिन्हा । उनके स्टुडेन्टस् उनसे बहुत डरते थे । एक दिन डरते डरते जब मेरी दोस्त उनके पास गई तो वे बोले इतना डरने की क्या बात है क्या मै हाथी हूँ या भालू (ओतो भय केनो, आमी की हाथी ना भालू )। मेरी दोस्त सिर झुकाये झुकाये ही बोली ना सर आपनी तो शिंघ ( आप तो शेर हैं )।
बाल और शेर का भी सम्बन्ध आपस में जुड़ गया । आभार ।
ReplyDeleteयह आलेख भी सिंहावलोकन है। आज की शब्दों की रिश्तेदारियाँ बहुत भायीं।
ReplyDeleteशब्दों के सफर में सिंहावलोकन पूर्व की भाँति जानकारियों से भरा है।
ReplyDeleteकहाँ से कहाँ तक शब्दों की दौड़ लगी रहती है . और आप शब्दों का खूबसूरती से शिकार करते रहते है हमारे लिए .
ReplyDeleteरोचक,ज्ञानवर्धक शब्द यात्रा......
ReplyDeleteयूँ तो केश का महत्त्व स्त्री पुरुषों दोनों के लिए है,किन्तु स्त्री की सुन्दरता के लिए यह बड़ा ही महत्वपूर्ण है...पर आज के समय की क्या कहिये....खान पान आबो हवा ने जो हालत कर रखी है कि बड़े किस्मतवाले के पास ही सुन्दर केश भण्डार हुआ करते हैं...वो तो भला हो कि अब ओर्तों के छोटे केश रखने की मनाही नहीं,जिसके वजह से इज्जत थोडी ढँक जाती है...
......पर कवि...शायर तो अक्सर
ReplyDeleteउलझे हुए बालों में बड़ी सुलझी हुई
बातें कहते रहे है !....है न ?
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ये पोस्ट भी खूब है साहब.
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
विक्टोरीयन पुरुषोँ के काँधे तक लटकते सुकारु केश विन्यास हिन्दी के महान कवि दद्दा पँतजी की छवि मेँ भी दीखते हैँ :)
ReplyDeleteसिँह को राजा ऐसे ही नहीँ कहा गया जी -
सुँदर जानकारी भरी लगी ये पोस्ट भी अजित भाई
- लावण्या
बेहद जानकारी भरी रोचक पोस्ट.
ReplyDelete____________________________________________
एक गाँव के लोगों ने दहेज़ न लेने-देने का उठाया संकल्प....आप भी पढिये "शब्द-शिखर" पर.
परन्तु 'बाल' शब्द की जांच परख तो आप ने की ही नहीं।
ReplyDeleteअच्छी और रोचक जानकारी दी है आपने .
ReplyDeleteAjit sa
ReplyDeletenamaskar
bahut steek likha hai aapne.naam ke sath singh lagane ki parampra aaj bhi badastur jari hai.aaj bhi Rajput,Rajpurohit,Charan me singh lagana shaan samja jata hai.
singh ka laena dena loin se hai ye to pata tha par kesari se rista janna bahut acchha laga.
Kiran
रोचक, रंजना जी से सहमत
ReplyDeleteइसी तरह ज्ञान की गंगा बहाते रहें आप। यही कामना है।
ReplyDeletelagta hai aap ko koi bhash nahi aati. shyad hindi bhi nahin. aap ko blog kai dino se dekh raha tha lagta hai aap jaise waykti ko to hindi sahitye ki bhi jankari nahin. aap likhte hai ke mushaira arbi bhasha mein kavi goshthi ke artho mein paryog hota, kis ne aap ko batya/padhaya hai bhagwan jane. isi tarh aap ke aik anye lekh ko to padh kar laga ki agar aap samne dikhai de jaiye to aap se puchu ke agar english hindi ka shabkosh dekhna ho to kya use ham hindi ki warnmala ke anusar dekhenge?. chunke aap ne likha ke farshi hindi shabdkosh jis mein swargiye shri trilochan ji bhi shamil the ne aap ke 1400 rupye bekar kar diye. bhai likhne se pahle socho ke kaya shabdkosh target bhash ke warnmal se shuru hota hai. madha ke shabdkosh ka jo hwaala de rehe ho ye dimagh mein rakho ke hindi urdu ke warnmala sirf likht rup mein alg hai aur kuch dhwaniya jo hindi mein nahin hai aur farsi ya arabi se li gai hein un ka sirf farq hai aur ham hindi bhashi sewai kuch ke unme se kuch ko lekhni mein bindi laga kar darshate hai other wise uchcharn mein koi farq nahin kar pate aur jahan zara se conscious hote hai to aksar log zalil ko jalil aur jalil ko zalil bana ban kar hi uchcharit karte hain. lekin farsi lipi mein kewal 32 akshar hain aur kai sanskrit srot ki dhwaniya nahin hain to farsi hindi shabd kosh ko hindi warnmala ke line pe kasie banate. trilochan ji jo is se purv anye kai shabdkosho mein rah chuke hai shayed agar zinda hote aur aap ka blog padhte to aap ahsas kijye ke aap ki kya durgat banate apne sonnet lekhan ke madhyam se. aap ne jo udharan bhi diya sup khori ka woh bhi galat tha. aap ko agar karchi ke arth batane ho to kya kahenge? aur misal deinge sabzi. ghi aadi nikalne ke liye paryukt aik lohe, pital, ya steel aadi ka aik srot. aap ne na hi to linguistics padhi hai na hi hindi urdu, farsi, arabi, engerzi ka to sahi dhang se gyan nahin. sirf blog khol kar bakwas likh kar logon ka samye aur pais waste karte hain. afsos ke log bhi jo aap jaise hi mudh budhi ke hai aap ke bato pe instant reaction karte hain bina soche samjhe. bhiya pahle socho phir likho.
ReplyDeleteऊपर दिए गए आलेख नुमां टिप्पणी में कितने ही ऐसे शब्द हैं जो टिप्पणी कार की ऊलज़लूल बुद्धि का परिचायक हैं. यदि भाषा विद हैं ये श्रीमान तो पूरी योग्यता के साथ आगे आते .
ReplyDeleteटिप्पणीकार में आलोचक होने की योग्यता कम द्वेष भाव ज़्यादा दिखा. मैं अजित जी का मूढ़ अनुशरण कर्ता हूँ !
बेनाम जी को श्रद्घा सुमन अर्पित करते हुए उनकी भावनात्मक शान्ति हेतु ईश्वर से याचना करता हूँ कि वे यदि सही में पोस्ट से असहमत हैं तो पूरी दृड़ता से सामने आयें तत्यों के साथ अपने परिचय के साथ न कि इस तरह जैसे कोई पीछे से ...?
अजित जी इन बेनामी जी को आपने जो ज़वाब दिया उससे सहमत हूँ .
rochak gyaan mila yah aakar yun hi avgat katare rahe ....
ReplyDeleteविभिन्न भाषाओँ के प्रति मेरी रागात्मकता शुरू से रही है. शब्दों की उत्पत्ति और उनके विकास की यात्रा बेहद दिलचस्प रही है. यह बात मुझे भाषा-विज्ञानं के क्लासेज़ करते समय ही मालूम हो गयी थी, तब प्रोफ़ेसर अम्बा प्रसाद सुमन हमें भाषा विज्ञानं पढाया करते थे. मैंने ऐसे विद्वान् प्राध्यापक को पहले कभी नहीं देखा था जो नीरस विषय में ऐसी रूचि जागृत कर दे जो कभी न समाप्त हो. दुःख कि बात यह है कि आज कि नयी पीढ़ी उन शब्दों से दूर होती जा रही है जो हमारी साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को पहचान देती रही है. यह इसलिए है कि नयी पीढ़ी रफ्ता-रफ्ता पुस्तकें पढने से दूर होती जा रही है. अजित वडनेरकर ने अपने ब्लॉग के माध्यम से जो सिलसिला शुरू किया है, वह काबिले तारीफ है. मैं इसे कूजे में समंदर कह सकता हूँ. काश! नयी पीढ़ी को किताबें न सही, अजित के ब्लॉग को ही पढने का शौक पैदा हो जाये. अजीत का यह बहुत अच्छा कदम है और सार्थक प्रयास भी. काश हम तरह-तरह के पूर्वग्रहों से मुक्त होकर अपने को पहचान सकें और उस भाषा में परस्पर बात कर सकें जिनके शब्दों से हमारा गहरा सरोकार रहा है. अपने ब्लॉग पर मैंने अजीत के एक आलेख को दिया है और सन्दर्भ भी, ताकि पाठक शब्दों का सफ़र आसानी से तय कर सकें. बधाई! ---रंजन जैदी, संपादक समाज कल्याण, नयी
ReplyDeleteसहेज कर रखने लायक। बहुत पसन्द आई यह यात्रा
ReplyDeleteI'm using nearly whole part as a part of my fb page. Is it okay? I have credited you for the whole writing. We are PHD students of physics learning some urdu and history and performing plays. Cheers :)
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