Tuesday, June 2, 2009

कथा बांचता सरदार और बालपोथी![बकलमखुद-87]

logo baklamदिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, dinesh r आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही सफर के पंद्रहवें पड़ाव और छियासीवें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून,बेजी,  अरुण अरोरा,  हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय अभिषेक ओझा,  रंजना भाटिया और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

दि न मंदिर में ही गुजरता। रात को मंदिर से घर आते, नींद आने तक माँ कहानियाँ सुनातीं। माँ को परी कथाएं याद न थीं। लेकिन उस ने बचपन से रामायण, महाभारत और पुराण पढ़े सुने थे। उन की कहानियाँ सुनातीं। माँ ने राम कथा इतनी बार सुनाई थी कि सरदार को कंठस्थ हो गई और अब वह औरों को सुना सकता था।
पिताजी सरकारी स्कूल में अध्यापक थे। उन का सांगोद कस्बे में तबादला हो गया। वे अकेले ही तबादले पर चले गए। हर शनिवार रात को आते और सोमवार सुबह चल देते। दीवाली के पर आए तो माँ और सरदार को भी सांगोद ले आए। यहाँ एक दुमंजिला घर था जिस के पीछे बहुत बड़ा बाड़ा था। नीचे का दरवाजा पोल में खुलता पोल के दोनों ओर दो कमरे थे वे हमेशा बंद रहते। उन के ठीक ऊपर दो बड़े कमरे और बीच में छत थी, उन में पिता जी और उन के दो साथी अध्यापक साथ रहते। एक कमरे में रसोई बनती। उसी में सरदार, माँ और पिताजी सोते, दूसरे कमरे में पिताजी के दोनों साथी। दोनों अध्यापक नये थे और अविवाहित भी। खुश मिजाज भी।
सांगोद में खूब मजा था। पिताजी के पास लड़के रात को पढ़ने आते। दिन में सरदार को साथ ले जाते कस्बे के बाजार में घुमाते। पिताजी और उन के साथी रोज सुबह नदी स्नान करने जाते। सरदार को साथ ले जाते। सब पहले अपने-अपने कपड़े धोते और फिर तैरते हुए नदी पार जाते। वहाँ एक पेड़ पर चढ़ते और पानी में कूदते, खूब तैराकी करते। सरदार भी जिद करता तो पिता जी उसे भी कंधे पर चढ़ा कर तैरते हुए नदी पार ले जाते, पेड़ से उसे नदी में कुदा देते, पिताजी के साथी सरदार को पानी में पकड़ लेते। बाद में पिताजी भी कूदते। फिर सब तैरते हुए नदी के इस पार आ जाते। इस अभ्यास ने कम उम्र में ही सरदार को तैरना सिखा दिया। नदी से वापसी पर रोज एक घर से पपीते खरीदते और घर आ कर उस का नाश्ता करते। कस्बे में होली के बाद से न्हाण का समारोह शुरू हो जाता। संध्या को और सुबह होने के पहले चार बजे भी सवारियाँ निकलतीं। मेला लगता जो न्हाण (होली के तेरहवें दिन) तक चलता। उन्हीं दिनों स्कूलों में परीक्षाएं होतीं। पिताजी, उन के साथी व्यस्त हो जाते। परीक्षा के दो-तीन माह पहले से ही अनेक विद्यार्थी पिताजी के पास पढ़ने आते। पिताजी की ये कक्षाएँ मुफ्त होतीं। परीक्षा के बाद ड़ेढ़ माह लम्बी गर्मी की छुट्टियाँ लगती तो सब बाराँ वापस चले आ जाते। फिर तक वहीँ रहते। करीब चार बरस तक यही सिलसिला चलता रहा।
बाराँ में कच्चे हरे चने जिन्हें बूँटे (छोले) कहा जाता बहुत देखे थे और खाए भी थे। सांगोद में एक दिन पिताजी का कोई विद्यार्थी थैला भर होले रख गया। सरदार ने होले शब्द पहली बार सुना था। माँ ने उन्हें निकाल कर दिखाया। वे बूँटे ही थे जिन्हें छिलकों सहित आग में सेक दिया गया था जिस से काले पड़ गए थे। अपने खोल के अन्दर ही सिक कर कच्चे चने स्वादिष्ट हो गए थे। लेकिन उन्हें छील कर खाते समय हाथ काले हो जाते थे। शाम का समय माँ किसी काम में लगी हुई। सरदार कुछ होले लेकर बाल्टी के पानी में रगड़ रगड़ कर धोने लगा कि वे बूँटे जैसे हरे हो जाएँ। इसी बीच पिताजी और उन के दोनों साथी अध्यापक आ गए। उन में एक जो बहुत लम्बे थे, जिब्बू साहेब, पूछने लगे –सरदार जी क्या कर रहे हो? जवाब मिला–होलों को बूँटे बना रहा हूँ। दोनों ठहाका लगा कर हँस पड़े। वाह¡ क्या बात है
…बारां का प्रसिद्ध श्रीजी का मंदिर जिससे बचपन से ही ‘सरदार’ को लगाव रहा है…shreeji2
बूँटों से होले तो सब बनाते हैं। लेकिन सरदार जी, होलों से बूँटे भी बनाते हैं!!!
 तीन बरस की उम्र में दिवाली के पहले जब सरदार बाराँ में ही था एक दिन अचानक मामा जी के बीड़ी कारखाने का टोपीवाला मुनीम मामा धन्या आया। उस ने माँ से बात की, तो माँ रोने लगी। माँ ने तुरंत एक पेटी में कपड़े जमाए और उस के साथ जाने को तैयार। जाते जाते माँ ने सरदार को बुलाया और कहा कि उस की कोटा वाली मौसी बहुत बीमार है। बोला है जीवित देखना हो तो जैसे हो वैसे ही चली आना। मैं जाती हूँ, तू यहाँ चाचा के साथ रहना, किसी को तंग मत करना। माँ चली गई। बड़े चाचा मोहन जी संस्कृत विद्यालय में अध्यापक थे और बी.ए. की परीक्षा की तैयारी भी करते थे। वे मंदिर की छत पर बने एक मात्र कमरे में रहते सरदार उन्हीं के पास रहने लगा। चाचा जी सुबह चार बजे उठे तो सरदार भी उठ बैठा, बोला -मैं भी पढूंगा। चाचा जी मुसीबत में आ गए। दूसरे दिन बाजार से गीता-प्रेस की छपी श्वेत-श्याम चित्रों से सजी बालपोथी ला कर सरदार को दे दी गई।
बालपोथी के शुरू के पन्नों पर तीन खड़ी पंक्तियाँ थीं। बीच में मोटे अक्षरों में नागरी वर्णमाला के मोटे मोटे अक्षर थे। हर अक्षर के दोनों ओर दो चित्र थे जिन के नाम वर्णमाला के उसी अक्षर से आरंभ होते। जैसे पहले अक्षर ‘अ’ के एक ओर अनार और दूसरी ओर अमरूद। सारे अक्षर पहचानने बहुत आसान थे। चित्र देखो और चित्र से पहचान लो कि अक्षर का उच्चारण क्या है। तीन दिन में पचास अक्षर याद हो गए। जल्दी ही स्वर याद हो गए जिन्हें हर अक्षर के साथ लगाने से कर बारह खड़ी बन जाती। बारह खड़ी का रट्टा शुरू हो गया। फिर आए मात्रा सिखाने वाले पाठ और उन के बाद कुछ अन्य पाठ। महीने पर तीन-चार दिन ऊपर निकल जाने पर मौसी के स्वस्थ होने पर माँ वापस लौटी तो सरदार जी पोथी की पढ़ाई पूरी कर चुके थे। दाज्जी (दादाजी) दो पैसे देते, कन्दोई से सेव-जलेबी खरीदी जाती। सरदार खाते खाते उन के साथ आए अखबार के टुकड़े में छपी इबारत पढता। सेव-जलेबी खतम हो जाते पर अखबार का टुकड़ा पूरा पढ़ चुकने के बाद ही हाथ से छूटता।

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16 comments:

  1. हमारे यहाँ आग में भुने हुए कच्चे हरे चने को होरहा कहा करते है । बड़ा समर्पण चाहिये एक एक चने को छील-छीलकर खाने में, पर बड़ा आनन्द आता है ।

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  2. संस्मरण का कथानक शिक्षाप्रद और रोचक है।
    बधाई।

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  3. Hole bole to idhar ka horha -chal padee hai aatmkthaa !

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  4. होले बोले तो इधर का होरहा ! चल पडी है आत्मकथा !

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  5. रोचक संस्मरण.
    सरदार जी की सीखने -पढने की ललक गज़ब की थी.

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  6. पिछली पोस्ट पर भी अपनी प्रतिक्रिया देने का ३-4 बार प्रयास किया मगर हर बार विफल रही थी.पेज ही नहीं खुला.
    आज एक कमेन्ट पोस्ट कर पाई हूँ तो लिख रही हूँ कि आप के 'शब्दों के सफ़र 'के इतने प्रशंसक यूँ ही नहीं हैं..एक अनामी की बात को इतनी तवज्जो नहीं देनी चाहिये.हाँ ,कोई सामने से आ कर बहस करे तो ही उस का कोई जवाब देना चाहिये.
    khair,आप ने जवाब भी achcha ही दिया था.
    yah shbdon ka सफ़र जारी रखीये..
    हमारी भी जानकारी में इज़ाफा हो रहा है.
    आभार

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  7. bachpan gatha padhkar bahut romach ho aata hai.aisa lagta hai jaise ek film si dekh rahe hai.

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  8. दिलचस्प....अब आप जमे रहिये वकील साहब ....

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  9. रोचक ..भुने हरे चने हाथ काले करते हुए हमने भी खूब खाए हैं ..पुरानी बाते यूँ ही बकलमखुद में याद आ जाती है जो रोमांचित कर देती है ..

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  10. बहुत पसंद आया इस बार का संस्मरण !
    बचपन की यादों का चित्र सजीव हो गया जैसे --

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  11. वाह.... संस्मरण अच्छा लगा..

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  12. बहुत बढ़िया चल रहा है संस्मरण. ये पढने वाली बीमारी आपकी भी बचपन की लगती है :)
    होरहे तो हमने भी खूब खाए !

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  13. कितनी सुनहरी यादें हैं बचपन की...बहुत अच्‍छा लगा पढ़कर...होरे खाने के आनंद का तो बखान ही नहीं किया जा सकता.

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  14. मजेदार संस्मरण....आनंद आ गया पढ़कर...

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  15. वाह भाई साहेब मज़ा आगया .................

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  16. अब फ़िर होरहा खाने का मन हो गया। आपको खुद को सरदार कहलाने का कुछ अतिरिक्त लगाव लगता है !

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