Tuesday, June 9, 2009

सरदार ने दिखाई मेहतर की एक्टिंग [बकलमखुद-88]

logo baklamदिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, dinesh r आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही सफर के पंद्रहवें पड़ाव और सत्तासीवें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

खबार के टुकड़े कब तक पढ़े जा सकते थे। घर में किताबों की कमी नहीं थी, घर में दादी के अलावा सब पढ़ने वाले थे। दाज्जी नियमित रूप से कल्याण मंगाते। सारे पुराण घर में मौजूद थे। पिताजी के पास किताबों का ढेर था। जो भी हाथ लग जाता सरदार उसे पढ़ने लगता। दाज्जी ने देखा कि यह किताब पढ़ने लगा है, तो तय कर लिया कि बाकायदा इस की पढ़ाई आरंभ करनी पड़ेगी। एक दिन आदेश मिल गया– संझ्या आरती के बाद म्हारे पास पराच सीखबा बैठबू कर। दाज्जी हाड़ौती ही बोलते, या फिर संस्कृत। उन्हें हिन्दी बोलते कम ही देखा। कोटा रियासत की सीमाओं में ही उन का जीवन गुजरा। जब तक रियासतें खत्म नहीं हो गईं हाड़ौती रियासत की राजभाषा थी। वे उसे बोलने में गर्व अनुभव करते थे। हालांकि जन्मपत्रिकाओं का फलित वे हिन्दी में लिखते थे।
रदार की संध्या आरती के बाद की कक्षा आरंभ हुई। मंदिर के गर्भगृह के सामने के पांच दरवाजों वाले तिबारे के दूसरे दरवाजे में एक खंबे के सहारे वे बैठते और सामने के खंबे के सहारे सरदार। गिनती सिखाई जाने लगी, सौ तक, फिर पहाड़े पच्चीस तक। सब से पहले पिछले दिनों के पाठ खुद बोल कर सुनाना पड़ता। भूल होती तो डाँट पड़ती। इस के बाद नया पाठ आरंभ होता। दाज्जी के पीछे पीछे सब दोहरा कर बोलना होता। इसे ही वे पराच बोलना कहते। पच्चीस के पहाड़े के बाद देसी-अंग्रेजी दिनों और महिनों के नाम, उस के बाद बारह राशियाँ, उन के स्वामी ग्रह, सत्ताईस नक्षत्र भी याद करने पड़े। इस बीच दाज्जी ने सरदार को स्लेट और चाक-बत्ती ला कर दे दी। स्लेट बत्ती से लिखना आरंभ हुआ। उसी पर जोड़, बाकी, गुणा और भाग के सवाल भी। बच्चे सब स्कूल जाते थे। सरदार स्कूल जाने वाले बच्चों को हसरत से देखा करता। बच्चों का स्कूल जाना शायद उन की दुनिया का घर की परिसीमा से आगे तक का विस्तार था। परिजनों के संरक्षण से परे एक स्वच्छंद उड़ान जैसा।
bhishtiगले साल जब जुलाई में स्कूल खुले तो सरदार ने जिद पकड़ ली कि वह भी स्कूल जाएगा। अब चार साल की उम्र में कैसे बच्चे को संरक्षण से स्वतंत्र किया जाए? दादाजी बिलकुल तैयार नहीं थे। वे कहते –“नंदकिशोर (सरदार के पिता) सात बरस को होग्यो, जद स्कूल म्हँ मेल्यो छो।” स्कूल भी पाँच वर्ष की उम्र के पहले किसी बच्चे को भरती करने को तैयार नहीं। निजी स्कूल तब तक किसी ने कस्बे में सोचा ही नहीं था। पर बालहट तो प्रसिद्ध है। डाँट से भी काम नहीं चल रहा था। एक दिन फूफाजी आए। कहने लगे -स्कूल जाने को नाम लिखाना जरूरी थोड़े ही है। यह मेरे साथ स्कूल जाएगा। स्कूल पास ही था। गलियों में तीन चार मोड़ों के बाद ही आ जाता। फूफाजी के साथ उन की भतीजी प्रेम भी आती जो सरदार से उम्र में साल भर बड़ी रही होगी। सरदार की प्रेम से जल्दी ही दोस्ती हो गई।
रदार एक-दो सप्ताह तक ही फूफाजी के साथ स्कूल गया, फिर खुद ही जाने लगा। फूफाजी दूसरी कक्षा को पढ़ाते। वहाँ सब को जो पढ़ाया जा रहा था वह तो पहले से सरदार को आता। मुश्किल थी तो सिर्फ इतनी कि लिखने में सब बच्चे सरदार के आगे थे वह सब से पीछे। स्कूल अच्छा लगता था। जब तक फूफाजी कक्षा में होते तब तक पढ़ाई चलती, उन के कक्षा से जाते ही शोरगुल, खेल, धक्का-मुक्की सब शुरू हो जाते। सब बच्चे कहानी के शौकीन थे। कोई एक बच्चा रात को मां या दादी की सुनाई कहानी सुनाने लगता और बाकी बच्चे उसे घेर कर बैठ जाते। रोज बच्चों में कहानियों का आदान प्रदान होता। अब माँ से सुनी पौराणिक कहानियों को सुनाने का वक्त आ गया था। सरदार वही सुनाने लगा। वे उन की सुनी कहानियों से अलग थीं। बच्चों को वे अच्छी लगने लगीं। बहुत कहानियाँ बच्चों को सुनाईँ, पर रामकथा सब से हिट भी। इस हिट होने में रामचरित्र की महिमा के साथ बहुधा देखी-सुनी दादाजी की कथावाचन कला का अनायास ही अनुकरण से समावेश कारण बन रहा था।
जकल के साफ सुथरे फ्लश शौचालय उन दिनों कल्पना में भी न होते थे। मकानों में एक जाजरू होती थी। जिस का मैला बाहर निकालने की छोटी खिड़की गली में खुला करती। मेहतरानी आ कर मैले पर राख डाल उसे टोकरी में भर ले जाती। कभी पुरुष मेहतर को यह काम करते नहीं देखा। छोटे बच्चों को जाजरू में बिठाने पर उन के मैले में गिर जाने का  खतरा रहता। माएँ उन्हें निक्कर उतार कर घरों के बाहर नाली में ही बिठा देतीं। इन में पांच-सात बरस तक के बच्चे शामिल रहते। मेहतर नालियाँ साफ करने केवल सुबह-सुबह आते। बाद में दिन भर डोलती सुअरों की टोलियाँ ही नालियाँ साफ करती रहतीं। नाली में बैठने वाले बच्चों को एक डंडा हाथ में रखना पड़ता, जिस से शौच के समय कोई सुअर पास नहीं आए। डंडा पास होने पर भी सुअर का डर लगा रहता। childhood schoolपर अक्सर सुअर सभ्य होते। वे बच्चे के नाली से उठने की प्रतीक्षा करते थे। सरदार को नाली में बैठना बुरा लगने लगा, उस ने जल्दी ही जाजरू जाना शुरू कर दिया।
सुबह-सुबह मेहतरानियाँ सड़कें बुहारतीं, मेहतर और भिश्ती नालियाँ साफ करने आते। नाली को बांस की सींको के झाड़ू से बुहारा जाता। दूसरे हाथ में एक टीन का टुकड़ा होता। कुछ दूर बुहारने पर नाली का कचरा इकट्ठा हो जाता, तब झाड़ू और टीन के टुकड़े की सहायता से उसे नाली के बाहर निकाल कर ढेर कर दिया जाता। भिश्ती पीछे-पीछे चमड़े की मशक लिए चलता और बुहारी हुई नाली में पानी डाल कर नाली की दीवारों पर चिपका कचरा पानी के साथ बहाता। बाद में मेहतर एक हाथ-गाड़ी ले कर आते और कचरे की ढेरियाँ उठा ले जाते। सरदार यह सब ध्यान से देखता। गर्मी की छुट्टियों में जब घऱ पर बहुत सारे बच्चे इकट्ठे उए तो उस ने झाड़ू और टीन के टुकड़े से नाली का कचरा बाहर ढेर करने की मेहतर की नकल उतार सब को चकित कर दिया। वहाँ सब बच्चे ही थे। पर नैहर आई बुआ ने देख लिया और सब को जा बताया। फिर बड़ों को भी यह सब कर के दिखाना पड़ा। माँ ने कहा -जब दाज्जी, पिताजी, चाचाजी सब बरसों रामलीला में अभिनय कर चुके हों तो बेटा क्यों न सीखेगा? सरदार को पहली बार पता लगा कि ये सब कभी रामलीला अभिनय भी कर चुके हैं।

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22 comments:

  1. पढ़ रहा हूँ यह सफरनामा !

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  2. अच्छा लगा ये स्कूल जाने वाला प्रकरण भी :)
    बच्चे ऐसे ही होते हैं -
    अपने आसपास का सब देखती हैं उनकी आँखें
    स्नेह सहित
    - लावण्या

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  3. अत्यंत रोचक।
    कक्षा का चित्र देख कर नागार्जुन की पंक्तियाँ याद आ गईं
    "फटी भीत है छत है चूती, आले पर बिस्तुइया नाचे" .
    'दुखरन मास्टर' वहाँ थे कि नहीं, यह तो आगे पढ़ कर पता चलेगा।

    सूअरों के तो क्या कहने! आवाराग़र्दी के दिनों में कुछ दिन अल्लापुर इलाहाबाद रहा था एक खण्डहर में। उसमें ऐसा ही खुला टाइप शौचालय था जिसके दरवाजे में कुण्डी नहीं थी। कोई अन्दर होता तो चेताने के लिए दरवाजे पर लुंगी रख देता था। ...सूअर तो इतने एक्सपर्ट कि मल गिरा नहीं कि बाहर से सों सों कर खींच लेते थे .:)

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  4. अच्छा रहा सफरनामा.

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  5. बहुत ईंटरेस्टिंग. बिल्कुल सटीक बहाव है इस आलेख में. बहुत ही सुंदर.

    रामराम.

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  6. मजा आ गया सफरनामा पढ़कर.

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  7. ऐसा लग रहा है प्रोजेटर पर कोई पुरानी ब्लैक एण्ड फ़िल्म देख रहे हो।

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  8. क्या बात है सर। आपने स्कूल की ये फोटो सहेजी हुई है।

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  9. भिश्ती, नाली और सूअरों के प्रसंग से सिर्फ भिश्ती ही गायब हुआ है, बाकी तो सब यथावत है...छोटे कस्बों से लेकर शहरों के तंग मोहल्लो तक।

    दिलचस्प वृत्तांत...

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  10. शब्दों के सफर की
    यह रोचक प्रविष्टी है।

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  11. बहुत ही रूचि के साथ पाठ हो रहा है | प्रवास में नेट न मिला तो घर जा कर एक साथ पढ़ना होगा | अजित भाई का आभार |

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  12. उस समय का परिवेश समझाना अच्छा लग रहा है...! सुनाते रहे हम सुन रहे हैं ...!

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  13. bahut badhiya, majaa aaya padhne me. rochak tarike se prastutikaran hai.
    intejar agli kisht ka

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  14. यही द्रश्य हमारे गाँव में भी दीखता था .

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  15. पुराने प्रसंग यादों में बस कर हमें थंडी हवा के झोके सा आनंद दे जाते है.

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  16. बहुत ही रोचक!
    घुघूती बासूती

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  17. वो दिन भी क्या दिन थे!

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  18. बहुत दिनों बाद शब्दों के सफ़र पर आया ,आनन्द आ गया |

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  19. बहुत दिन बाद भिस्ती की फोटो देखी। जय हो।

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  20. जाजरू यह शब्द गुजराती में भी प्रयोग होता है .उस का दूसरा नाम है संडास
    आप ने विवरण इतना करीबी दिया कि पढ़ते पढ़ते ही बदबू आने लगी. क्या सचोट ऑब्जरवेशन है आप का. अंग्रेजी या बम्बइया हिंदी या उर्दू वाली हिंदी पढ़ने का बाद यह शब्दों का सफर बहुत अच्छा लगा. और भी ऐसा प्रस्तुत करेंगे ऐसी आशा रखता हूँ.

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