…शुद्ध अंतःकरण में सिर्फ मौन विराजता है। विभिन्न व्रतों में एक मौन व्रत भी है जो निर्वाण साधना का पहला पाठ है… | ![]() |
सा मान्य तौर पर निर्वाण का अर्थ मोक्ष, परम गति, परम शांति और मुक्ति से लगाया जाता है। आध्यात्मिक शब्दावली के इस शब्द के लौकिक अर्थ सीधे सीधे मृत्यु से जुड़ते हैं। महान विभूतियों के न रहने की स्थिति के उल्लेख में अवसान, महायात्रा, प्रयाण, महाप्रयाण के साथ परिनिर्वाण शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यह निर्वाण क्या है?
निर्वाण भारतीय दर्शन और अध्यात्म की महान परम्परा से उपजा शब्द है जिसका प्रयोग वेदोपनिषदों के ज़माने से ही मोक्ष, जीवन-चक्र से मुक्ति के अर्थ में हुआ है। बौद्ध मत के विस्तार के बाद इसमें नया चिंतन जुड़ा और निर्वाण का अर्थ परमपद हो गया जिसकी प्राप्ति के लिए सारे आध्यात्मिक यत्न होते हैं। तपस्या और साधनाओं का उद्धेश्य ही निर्वाण था जिसका अर्थ उस परम अवस्था से था जहां पहुंचकर व्यक्ति जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
निर्वाण शब्द बना है वाणी से। वाणी अर्थात ध्वनि, बोलने की शक्ति, साहित्यिक कृति, वाग्देवी सरस्वती आदि। वाणी शब्द बना है वण् धातु से जिसमें ध्वनि करना, बोलना आदि भाव है। संस्कृत के निर् उपसर्ग में रहित का भाव होता है। यह निर् जब वाणी के साथ लगता है तो बनता है निर्वाण। सदाचार ही ईश्वर प्राप्ति का वह सामान्य मार्ग है जिस पर हर प्राणी को चलना चाहिए। मन, कर्म और वचन अर्थात वाणी ये तीनों ही प्रमुख तत्व हैं जिनमें व्याप्त सत्य तक पहुंचने के लिए लगातार साधना करनी होती है। उसके बाद इन तीनों का समन्वय जीवन में ज़रूरी है। सत्कर्मों और सद्वचनों से अंतःकरण शुद्ध होता है। शुद्ध अंतःकरण में सिर्फ मौन विराजता है। विभिन्न व्रतों में एक मौन व्रत भी है जो निर्वाण साधना का अंग है।
निर्वाण शब्द मुख्यतः बौद्धमत की वजह से चर्चित हुआ। परवर्ती उपनिषदों में एक निर्वाण उपनिषद का भी उल्लेख है। निर्वाण का अर्थ आत्मा की ऐसी अवस्था से है जब अन्तःकरण में सिर्फ परमशांति, परम मौन व्यापता है। किसी किस्म की अनुभूति नहीं रहती। मन की चेतना तो सजग रहती है पर उसकी अनुभूतियाँ दुःख-सुख से परे हो जाती हैं। भाव यही है कि जिस वाणी के होने से मनुष्य है, वह उसमें समा जाए। जीवन की शुरुआत और जीवन के अंत में अखंड नीरवता ही है। शांति की कल्पना करें। शांति बाहर है तो भी मौन ही व्यापता है, शांति अंदर है तो भी मौन का ही साम्राज्य होता है। अभिप्राय यही है कि निर्+वाणी ही परमोपब्धि है। इसीलिए विष्णु का एक नाम भी निर्वाण है अर्थात परम लक्ष्य। अनंत। गौर करें, शब्द को ब्रह्म कहा गया है, जो वाणी ही है। शब्द के जाप से ब्रह्म की प्राप्ति होती है, जाप में उच्चार ज़रूरी नहीं है। वाणी जीवन को मुखरित करती है पर इसका प्रयोजन फिर से अनंत-अखंड मौन के साथ एकाकार होने में ही है। वाणी साधन है, मौन साध्य है। शरीर साधन है, आत्मा साध्य है। जीवित रहते हुए ही उस अनंत मौन की साधना ही निर्वाण का लक्ष्य है, क्योंकि मृत्यु के बाद तो मौन ही मुखरित होता है।
सहस्रधारा में पांडुरंग राव लिखते हैं “शरीर को साधन बनाकर आत्मा के आलोक में विलीन होना ही निर्वाण है। इसीलिए निर्वाण भगवान का दूसरा नाम है” इस तरह निर्वाण शब्द एक पारिभाषिक शब्द बन गया। तपस्वियों-सिद्धो द्वारा निर्वाण अवस्था के प्रयत्नों में समाज की श्रद्धा रही। साधक द्वारा निर्वाण अवस्था की प्राप्ति को उसके नश्वर अस्तित्व की मुक्ति के तौर पर देखा जाने लगा। निर्वाण की गति वही हुई जो समाधि की हुई।
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निर्वाण की गति वही हुई जो समाधि की हुई।
ReplyDeleteसत्य-वचन।
सफर अच्छा चल रहा है।
सुंदर जानकारी .
ReplyDeleteअज्ञेय की एक पंक्ति याद आ रही है।
ReplyDelete'मौन ही अभिव्यंजना है, जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।' एक पोस्ट 'ण' वर्ण पर लिखिए।
ग़जब की गरिमा है इस वर्ण में। निराला रचित 'सरोज स्मृति' की प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखें।
………………… क्योंकि मृत्यु के बाद तो मौन ही मुखरित होता है।सफ़र किये बिना आजकल दिन ही पूरा नही होता भाऊ।
ReplyDeleteआज का सफ़र बहुत अच्छा लगा
ReplyDeleteक्या आत्मा है? किसी नें तथागत बुद्ध से पूँछा। बुद्ध नें कहा अप्पदीपो भव! अपना प्रकाश स्वयं बनों। दुःखं-दुःखं, क्षणिकं-क्षणिकं, शून्यं-शून्यं की परंपरा में निर्वात से निर्वाण का बनना अधिक समीचीन लगता है। धातुओं से नये शब्द बनाये जासकते हैं किन्तु परंपरा भी देखनीं पड़ेगी।
ReplyDeleteगम्भीर और महत्वपूर्ण शब्दों की जानकारी दे रहे हैं आप । आभार ।
ReplyDeleteचिंता चिता और समाधी से लेकर निर्वाण तक की अनुपम शब्द यात्रा में सम्मिलित होकर अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त किया मैंने ....
ReplyDeleteयह महज शब्द विवेचन ही नहीं रहा,बल्कि इसने सत्संग का आनंद दिया....
आपका बहुत बहुत आभार इन सुन्दर आलेखों के लिए....वस्तुतः ये शब्द / विचार मेरे मन के बड़े ही निकट हैं..इसलिए इनका सानिध्य बड़ा सुखकर लगा.
निर्वाण का अर्थ तो वाणी का लोप होना है।
ReplyDelete@दिनेशराय द्विवेदी
ReplyDeleteनिर्वाण का शब्दिक अर्थ अब मृत्यु लगाया जाता है, इस रूप में शरीर का शांत होना मुहावरा भी हिन्दी में प्रचलित है। किन्तु "वाणी का लोप होना" यह कहना निर्वाण का सरलीकरण है। यूं भी निर्वाण शब्द में मौन-साधना का अर्थ या परम शांति अधिक ध्वनित होती है। मृत्यु तो इसका प्रतीकार्थ है जो अब असल अर्थ समझा जाने लगा है।
आप ने सही कहा। शब्द काल के साथ अर्थ बदलते हैं। यहाँ तक कि आने वाला कल जाने वाला कल हो जाता है। अगला पिछला और पिछला अगला हो जाता है। अब वो बात थोड़े न है।
ReplyDeleteशरीरिणः का अर्थ आत्मा लिया जाता है जब कि मूल तो वह वह पदार्थ है जिस से शरीर का निर्माण हुआ है, वह मिट्टी जिस से घड़ा, दीपक आदि सब बनते हैं।
मेरा आशय मूल अर्थ से ही था। परवर्ती या प्रचलित से नहीं।
@सुमंत मिश्र कात्यायन
ReplyDeleteयहां आपसे सहमत नहीं हूं कात्यायनजी। समाज नए शब्द गढ़ता है। भाषा विज्ञान का काम तो उनमें धातुओं की तलाश करना है। सिर्फ परम्परा नहीं, इतिहास, दर्शन, परिवेश सबकुछ देखना होता है वर्ना परम्परावादी तो ग्रीक अलेक्जेंडर की व्युत्पत्ति अलिकसुंदर से लेकर अलक्ष्येंद्र तक बताते है पर तर्क की कसौटी पर नहीं। निर्वात से निर्वाण की व्याख्या मेरी समझ से बाहर है। आध्यात्मिक और दार्शनिक और भाषा वैज्ञानिक संदर्भों में भी कहीं ऐसा उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया जिसमें निर्वात को निर्वाण का पुरखा बताया गया हो। शून्य और अनंत की अर्थवत्ता में यहां वह दार्शनिकता नहीं बनती जो निर्वाण में है। विष्णु सहस्रनाम में भगवान का एक नाम निर्वाण भी है।
अजी आपके कहने से हम चुप नहीं होने वाले ...:O
ReplyDeleteवीनस केसरी
ये तो अपने पसब्द की पोस्ट हो गयी. ऐसे और शब्दों का विवरण आना चाहिए.
ReplyDeleteनिर्वणा नामक एक म्युझिकल ग्रुप भी यहाँ पर है - अच्छा लगा ये पडाव भी
ReplyDelete- लावण्या
विष्णु के लिये निर्वाण शब्द बौद्ध धर्म के आविर्भाव से पूर्व मे दिया गया या बाद मे ? यह प्रश्न बुद्ध को विष्णु के एक अवतार के रूप मे प्रसिद्ध करने के षडयंत्र के फलस्वरूप उपजा है.
ReplyDelete@शरद कोकास
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण बात। जहां तक जानकारी मिलती है, महाभारत का रचनाकाल ईसा पूर्व नवीं से चौदहवीं सदी का बताया जाता है। यह समय निश्चित ही बौद्धकाल से तो पहले का ही है। यूं भी, इस पोस्ट में विष्णु नाम तो प्रसंगवश आया है। मूल उद्धेश्य तो निर्वाण शब्द की व्याख्या-विवेचना ही है। आर्य-अनार्य झगड़े या अगड़ों-पिछड़ों के निहायत छद्म बौद्धिक झगड़ों में उलझने की कतई कोई मंशा शब्दों के सफर की नहीं है शरद भाई।
पोर्चुगीज भाषा में आज भी x क्ष एवं श के रुप में प्रयोग किया जाता है। उसी का प्रभाव गोवा में आज भी दिखता है। मैनें वहाँ कई ड़ीड्स की थीं। एक xama क्षमा रोड्रिक्स थीं। एक xhitis क्षितीश परेरा थे। मड्गाँव से कोलवा बीच की ओर जानें पर कोलवा चर्च से पहले बाऎं हाथ पर एक रेस्ट्राँ है उसके बोर्ड़ पर लिखा है xanti शांन्ती रेस्ट्राँ। ओल्ड़ टेस्टामेन्ट के हिंदी अनुवाद में एस्तर नामक अध्याय में राजा क्षयर्ष के राज्य का उल्लेख है। यह पुस्तक बाइबिल सोसाइटी आफ इण्ड़िया नें प्रकाशित की है।
ReplyDeleteतथागत बुद्ध आत्मा और ईश्वर को नहीं मानते थे किन्तु पुनर्जन्म मानते थे। यही बौद्ध दर्शन की विशिष्टता है। समझनें वाली बात यह है कि जो आत्मा को नहीं मानता, परमात्मा को नहीं मानता उस विचारधारा में जिस निर्वाण शब्द का प्रयोग किया गया है उसका अर्थ उन्हीं की अवधारणा से निर्धारित होगा। इसीलिए निर्वाण मोक्ष का समानार्थी या पर्याय नहीं है। कृपया आलेख के पैरा दो को देखें। निर्वाण की व्युत्पत्ति ( निर्+वा गतौ+क्त) आप्टे एवं हलायुध आदि कोष में देख लें। विष्णुसहस्रनाम में मैं निर्वाण शब्द नही ढूढ़ पाया। पाण्डुराव जी की पुस्तक के पृष्ठ २३६ एवं ४१४ पर क्रमशः दो श्लोक मिलते है किन्तु वहाँ ‘अनिर्विण्णः’ शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका निर्वाण से कोई सम्बन्ध नहीं है।
तथागत बुद्ध की मृत्यु चुन्दकर्मार पुत्र के यहाँ विषाक्त मांसयुक्त भोजन करनें से हुई थी।म्रूत्यु के समय उन्हें काफी पीड़ा थी। किन्तु उन्हें यह चिन्ता थी कि कहीं लोग चुन्दकर्मार पुत्र को दोषी मान प्रताड़ित न कर॥ अतएव उन्होंने आनन्द से कहा कि समस्त भिक्षुओं से कह दो कि उनके जीवन में दो भोजन उनके (बुद्ध) के लिए वरदान सिद्ध हुए। एक वह भोजन जिससे उन्हें बोधिसत्व प्राप्त हुआ और दूसरा वह जिससे निर्वाण का दरवाजा खुल गया। इस प्रकरण से बुद्ध की करुणा का तो पता लगता ही है मृत्यु के पूर्व की स्थिति का भी अनुमान होता है।
जहाँ तक वाणी की बात है तो परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी में वैखरी ही मनुष्यों के बोलनें के काम आती है। अन्य तीनों ध्वन्यात्मक हैं। वैखरी की उत्पत्ति सूर्य बननें के बाद होती है इसीलिए उसे सौरी वाक भी कहाजाता है। कहा है अग्निः सर्वा भूत्वा मुखं प्राविशत्। पाणिनी (१९०५), काशकृत्स्न (२४११), जैनेन्द्र (१४७८),चान्द्र (१५७५), कातन्त्र (१८५८), शाक्टायन (१८५१), हेमचन्द्र (१९८०), कविकल्पद्रुम (२३५८) आदि के धातु कोशों के अतिरिक्त मेरे संज्ञान में नहीं है। सर्वाधिक धातु २४११ काशकृत्स्न एवं सबसे कम १४७८ जैनेन्द्र के कोश में हैं। कृपया कोई नया धातुकोश उपलब्ध हो तो बताऎ मैं अवशय लेना चाहूँगा।
सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ जी की विशुद्ध शोधपरक टिप्पणी ने प्रस्तुत आलेख में चार चाँद लगा दिए ! ओशो रजनीश के प्रवचनों में निर्वाण की बड़ी सरल व्याख्या मिलती है जो पांडुरंग राव के विचार से मेल खाती है कि शरीर को साधन बनाकर आत्मा के आलोक में विलीन होना ही निर्वाण है .
ReplyDeleteनिर्वात तो काल्पनिक है निर्वात का विचार विपस्सना से जन्मा होगा क्योंकि विपस्सना निर्वाण स्थिति को समझने की प्रथम सीढ़ी है जिसमें मौन की बड़ी महत्ता है .
कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर हूं। शब्दों का सफर पर जल्दी ही मुलाकात होगी।
ReplyDelete@RDS जी, साधना सूत्र पृ० २८६ के अन्तिम पैरे में ‘ऒशो’ कहते हैं :-
ReplyDelete“बुद्ध से जिन्दगी भर लोग पूछते रहे कि क्या होता है उस परम घड़ी में? तो बुद्ध कहते थे, जैसे दीया बुझ जाता है, बस ऎसा ही होता है। तुम बुझ जाओगे, जैसे दीए की ज्योति बुझ जाती है,फिर कोई पूछता नहीं कि कहाँ गई ज्योति? ऎसे ही तुम भी बुझ जाओगे। ज्योति कहाँ गई, यह पूछना व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए बुद्ध नें मोक्ष शब्द का उपयोग नहीं किया, निर्वाण शब्द का उपयोग किया। निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझ जाना। मोक्ष शब्द से ऎसा लगता है कि तुम बचोगे मुक्त हो कर, लेकिन तुम बचोगे जरूर। बुद्ध कहते हैं, तुम बचोगे ही नहीं, क्योंकि तुम द्वन्द्व का ही हिस्सा हो। इसका यह मतलब नहीं कि कुछ भी नहीं बचेगा। सब कुछ बचेगा। जो बचनें योग्य है, वह बचेगा। लेकिन उसके लिए बुद्ध कहते हैं, मैं कोई शब्द न दूँगा, क्योंकि सभी शब्द विपरीत से बनें हैं, और विपरीत संसार का हिस्सा है”।
ध्यान की विभिन्न अष्टांग योग सहित विभिन्न पद्धतियाँ है। विपश्यना भी ध्यान की पद्धति ही है न कि लक्ष्य। स्थूल रूप से विपश्यना दो प्रकार की होती है। सांवृतिक जिसमें दृष्ट स्थूल पदार्थ पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। दूसरी विधि में शून्यता पर।
इस निर्वाण चर्चा को पढ कर बस निर् वाणी ही होना है । सुंदर ।
ReplyDeleteनिर्वाण ,,,कुछ कहना भी नहीं
ReplyDeleteनिर्वाण और समाधि - जो भी है, हमींनस्तो, हमीनस्त!
ReplyDelete@katyayan
ReplyDeleteकाश, आपके पास जैसी ज्ञानसामग्री और soochna-sampannta है, उसका शतांश भी मेरे पास होता.
मेरे पास कोई भी संस्कृत धतुकोश नहीं है. इन्टरनेट पर उपलब्ध संस्कृत-सामग्री और आप्टे, मोनियर विलियम्स के विश्वप्रसिद्ध संस्कृत-इंग्लिश कोश तथा कई अन्य भाषायी कोशों की मदद से शब्दों को समझाने का प्रयास रहता है. शब्दों के samajik sanskritik और vyavhaarik aayaamon की padtaal के लिए vibhinn sandarbhon
की talash rahti है. osho adbhut vyakhyakar the. "निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझ जाना" इस बात को आप antim saty न maane. balkii एक vyakhya का aayaam matr mane. moksha, mukti, nirvana जैसे शब्द darshnik arthon में एक doosre के poorak भी हैं. tatparya यही है की nirvan से chetnaa की param avasthaa का bodh होता है. buddh जिसे "दीए का बुझ जाना" कहते हैं darasal वह sansariktaa और bhoutiktaa के nash yani lop की aur ishaaraa करते हैं.
sabhar
ajit
# 'खामोशी'पर भी कितना बयाँ कर गये है आप,
ReplyDeleteसाथी बलागरों ने भी पूरा दिया है साथ.
# दीपक बुझाके रौशनी और तेज़ कर गए,
शब्दों को वाणी दे के भी 'निर्वाण' कर गए.
म. हाश्मी
@katyayanji
ReplyDeleteनिर्वाण शब्द का उल्लेख विष्णु सहस्त्रनाम में है। पांडुरंग राव लिखित सहस्त्रधारा पुस्तक के पच्चीसवें अध्याय और पृष्ठ क्रमांक 288 पर इससे संबंधित श्लोक-62 का उल्लेख है-
त्रिसामा samagah साम निर्वाणं भेणजं भिषज।
(agala pad hindi men nahin likha jaa raha....)
पुस्तक के 290 पृष्ठ पर निर्वाण की व्याख्या -विवेचना की गई है।
filhaal main yatraa par hoon aur hindi likhne ki suvidha se door hoon.
धन्यवाद अजित जी, वह श्लोक मिला और उसे देखा। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ वहाँ आशय और प्रयोजन यह है कि जिस भांति कर्मेन्द्रियों या शरीर को विश्राम की आवश्यकता होती है, वैसे ही ज्ञानेन्द्रियों को भी। और भेषज या औषधि के रूप में मौन या निशब्द होंना ही उसका निदान है।
ReplyDeleteमूल दृष्टि भेद इतना ही था कि बौद्ध दर्शन परंपरा में चूंकि आत्मा के आवागमन का सिद्धान्त नही है अतः वहाँ जीव की यात्रा का पर्यावसान निर्वाण पर हो जाता है। निर्वाण बौद्ध दर्शन का पारिभाषिक शब्द है और उसकी निश्चित प्रक्रिया और अर्थ है। यह दर्शन यह नहीं बताता कि यदि कोई व्यक्त्ति किसी की हत्या कर दे तो इस पाप का द्ण्ड़ उसे कैसे मिलेगा? राजकीय द्ण्ड़ विधान यदि उसे मृत्यु दण्ड़ भी देता है तो यह सामाजिक व्यवस्था बनाये रखनें का काम तो करता है किन्तु इससे न तो मृतक और न ही उसके प्रियजनों को शांति मिलती है और न ही पापकर्म का प्रायश्चित।
जबकि सनातन वैदिक परंपरा में जीवात्मा-परमात्मा का अंश माने जानें के कारण मौन या चित्तवृत्तियों का निरोध एक पड़ाव है और आगे की यात्रा विभिन्न सोपानों का क्र्म तय करती है तथा परम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष या मुक्ति दो प्रकार से हो सकती है सद्योमुक्त्ति अर्थात प्रज्ञान होते ही जीव तक्षण सर्वत्र व्याप्त ब्रह्म में विलीन हो जाता है। क्रममुक्ति में कर्मानुसार जीवात्मा देवयान (मार्ग) या पितृयान (मार्ग) का अनुसरण करती है। अन्ततः समस्त कर्मों के क्षयोपरांत ही जीव ब्रह्म में विलीन हो पाता है और पुनः जन्म नहीं लेता।
मुझे लगता है कि यह चर्चा ज्यादा दार्शनिक क्षेत्र में चली गयी है, अतः इसे यहीं विराम देना, शब्दों के सफर के सुधी पाठकों के हित के लिए श्रेयस्कर होगा। यात्रा शुभ और सार्थक हो। शुभस्तु पन्थानम्।
@कात्यायन जी ,
ReplyDeleteजीवन के सफर की तरह शब्दों का सफ़र भी अनंत ही शुमार किया जाता है, इसमें विराम की स्थिति हो सकती है; लेकिन पूर्ण विराम न लगाये,कृपया! अजित जी के साथ आपकी सार्थक बहस ने बहुत उपयोगी ज्ञान दिया है. आध्यात्म,धर्म और दर्शन में गौते लगाने के लिए ही जो् पाठक शब्दों के इस सफर पर आते है उन्हें नि:शब्द होकर निराश न करे. इस विषय पर आप दोनों विद्वानों के पास और भी कोई जानकारी उपलब्ध हो तो स्वागत है.
म.हाश्मी
अब क्या कहें ?
ReplyDeleteआप ही बताएँ...बस यही कि
मौन ही भावना की भाषा है.
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आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अजितजी
ReplyDeleteधन्यवाद। आपका शब्दोंका सफर
प्रायः जानकारी पूर्ण और
मनोरंजकभी होता है।
एक बहुत आवश्यक पहलुकी
जानकारी जिसे आप प्रसृत करते
हैं, हिंदीकी गरिमाको और बढा
देता है।
गम्भीर और महत्वपूर्ण जानकारी... बहुत अच्छा लेख....बहुत बहुत बधाई....
ReplyDelete__
ReplyDeleteनिर्वाण शब्द जैन धर्म में भी प्रयुक्त हुआ है| अतः इसे मात्र बौद्ध धर्म की देन न माना जाए. यदि रुचि हो तो जैन आगमों के उदहारण मेरे पास हैं.
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