दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने
सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और चौरानवे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
ट्रे सैकण्ड क्लास से फर्स्ट क्लास में परिवर्तित होना सरदार के जीवन में अनेक खुशियाँ ले कर आया था। ग्यारहवीं विज्ञान के करीब तीन सौ विद्यार्थियों में वे केवल सात थे, जो फर्स्ट-क्लास थे। स्कूल में सारे अध्यापकों का विशेष व्यवहार मिलने लगा। वे जब चाहें पुस्तकालय में जा सकते थे। अपने कोटे की पुस्तकों के अलावा अपने अध्यापकों के नाम से पुस्तकें प्राप्त कर घर ले जा सकते थे। अध्यापक और स्कूल स्टाफ उन की हर सुविधा का ध्यान रखने लगे था। वे जब चाहें तब हेडमास्टर जी से अपनी बात कहने जा सकते थे। उन्हें ध्यान से सुना जाने लगा था। लेकिन इस के साथ ही अब सावधान रहना पड़ता था। स्कूल में जो अगले दिन पढ़ाया जाना था वह पहले से ही पढ़-समझ कर स्कूल आना पड़ता था। अध्यापक पढ़ाने के पहले ही कुछ भी प्रश्न कर सकते थे और उत्तर न आने पर फर्स्टक्लास की पॉलिश कभी भी उतर सकती थी। स्कूल का होम-वर्क समय के पहले पूरा करना पड़ता था। जिम्मेदारियों का अहसास भी होने लगा था।
सरदार को स्कूल पाठ्यक्रम से इतर पुस्तकें पढ़ने का चस्का तो लग ही चुका था। अब स्कूल का पुस्तकालय एक बपौती की तरह हाथ में आ गया। उस ने विषय से इतर पुस्तकें भी पढ़ना आरंभ कर दिया था। मन अभी भी उपन्यासों और कथा-कहानियों में बहुत रमता था। जासूसी उपन्यास कम पड़ रहे थे। स्कूल पुस्तकालय के हिन्दी साहित्य विभाग में उपन्यास और कहानियों की जितनी भी पुस्तकें थीं वे सब धीरे-धीरे पढ़ी जाने लगी थीं। लेकिन इस का प्रभाव स्कूल की पढ़ाई पर नहीं पड़ने दिया जा सकता था। यज्ञोपवीत हुए चार वर्ष हो चुके थे, दोनों चाचा नौकरियों पर जा चुके थे। दादा जी गाँव से जिस विद्यार्थी को लाए थे वह जाति से बनिया था और मंदिर के अंदर का काम नहीं कर सकता था। इस कारण से त्योहारों वाले भीड़ भरे दिनों में मंदिर में दादा जी की मदद के लिए भी जाना पड़ता था। यह अखरता था। लेकिन मजबूरी थी वह करना भी जरूरी था। अनेक बार इन सारे दायित्वों के बीच, किसी न किसी में चूक हो जाती तो डाँट भी सुननी पड़ जाती थी।
स्कूल के वार्षिकोत्सव में श्रेष्ठ हिन्दी लेखन के लिए पहला पुरस्कार सरदार को प्राप्त हुआ तो उसे अहसास हुआ कि उसे एक विशिष्टता केवल अपने पढ़ने के व्यसन से हासिल हो गई है। इस बात पर मन ही मन गर्व भी हुआ कि उस का व्यसन व्यर्थ नहीं, अपितु उसे अन्य लोगों से अलग करता है। व्यसन पर जब गर्व होने लगे तो उसे तो बढ़ना ही था। उधर स्कूल में विज्ञान की प्रायोगिक कक्षाओं में आनंद आने लगा था। मेंढक की चीरफाड़ पहली बार की। क्लोरोफार्म से बेहोश हुआ मेंढक ट्रे में टांगें खींच कर आलपिन से कस दिए जाने के बाद पूरी तरह इंसान की तरह लगता। शरीर के अंदर के अंगों का अध्ययन होने लगा। लेकिन यह काम रुचिकर नहीं लगता था। मामूली ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक विद्यार्थी द्वारा एक मेंढक की जान लेना फिजूल लगता। इम्तिहान में जब डिब्बे से अपने लिए मेंढक चुन कर लाने के लिए कहा गया तो एक छात्रा सब से बड़ा मेंढक ले चली उसे खींच कर आलपिनों से ट्रे में चिपका भी दिया। उसे सरदार ने कहा भी कि, इतना बड़ा मेंढ़क संभलेगा नहीं। पर वह अंदरूनी अंगों के बड़ा होने और उन्हें चीन्हना आसान होने की बात कह कर ले ही गई। बेहोश होने के बावजूद मेंढ़क का दिल जोरों से धड़क रहा था। छात्रा ने जैसे ही सीजर से उस की छाती चीरी, मेंढक की बेहोशी टूटी और उस ने आलपिन के बंधन छुड़ाने को जोर लगाया। आलपिनें मोम में ही तो घुसी हुई थीं, निकल गई। छाती चिरा मेंढक उछल कर सीधे उस के कुर्ते पर आ गिरा। घबराहट के मारे वह खुद इतनी जोर से गिरी कि प्रयोगशाला में सभी उसे संभालने दौड़े। बाद में वह हमेशा सब से छोटा मरियल सा मेंढक चुनने लगी तो सारे सहपाठी उसे चिढ़ाते कि इस में तो कुछ दिखेगा ही नहीं। प्रयोगशाला में काम के बीच ऐसी बहुत सी मनोरंजक बातें होती रहतीं। जैसे तैसे साल पूरा हुआ। परीक्षा में फिर से फर्स्टक्लास मिल गई। इस बार अंक पहले से अधिक मिले थे। संतोष था कि कॉलेज में भी फर्स्टक्लास की मान्यता कायम रहेगी। लेकिन वहाँ खतरा पीछा कर रहा था। जिस की आहट तक सरदार को सुनाई नहीं दे रही थी।
नगर में अपना सरकारी डिग्री कॉलेज खुले दो वर्ष हो चुके थे। जिस साल सरदार को प्रवेश लेना था उस साल पहला बैच तीसरे और अंतिम वर्ष में पहुँच चुका था। कॉलेज स्कूल की इमारत की ऊपर की मंजिल पर ही चल रहा था। कॉलेज में प्रवेश अजीब रोमांटिक सपना था। अब तक तो उन्हें स्कूल गणवेश पहन कर आना पड़ता था। कॉलेज में वे मनचाहे कपड़े पहन कर जा सकेंगे। वहाँ कोई होमवर्क नहीं केवल लेक्चर ही सुनने होंगे और अपनी तैयारी खुद करनी होगी। एक आजादी का अहसास हो रहा था। कॉलेज में प्रवेश आवेदन पत्र मिलने लगे तो सरदार अपने मित्र अशोक के साथ कॉलेज पहुँचा। पता लगा रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला में विज्ञान वालों के प्रवेश आवेदन पत्र मिलेंगे। वहाँ पहुँचे तो क्लर्क ने नाम पता लिखा, मूल्य और हस्ताक्षर ले कर एक-एक फार्म दोनों को दिया। रसायन विज्ञान के प्राध्यापक जी वहीं पास में कुर्सी पर बैठे थे। उन्हों ने अशोक को देख कर पूछा -तुम विज्ञान पढ़ोगे? दोनों बन ठन कर कॉलेज पहुँचे थे। अशोक तो अवकाश में अपनी बुआ के यहाँ मुम्बई रह कर गया था। बिलकुल लेटेस्ट फैशन की टी-शर्ट और खूबसूरत महंगी बैल-बॉटम पहने था। जैसे ही उस ने हाँ कहा, प्राध्यापक ने उसे घुड़क दिया -ये कपड़े नहीं चलेंगे केमिस्ट्री लैब में, पहले दिन ही एसिड से छेद हो लेंगे। सरदार अपने कपड़ों को जाँचने लगा। उस के लिए खूबसूरत और ताजा फैशन के कपड़े लक्जरी थे। अशोक ने प्राध्यापक की उस घुड़की को लापरवाही से लिया था। लेकिन सरदार मन ही मन संजीदा हो गया था कि अब पढ़ने आने पर कपडों को भी बचा कर चलना पड़ेगा। आजादी का अहसास कॉलेज में प्रवेश के पहले ही हवा होने लगा था, लगने लगा था कि यहाँ आजादी के साथ स्वानुशासन से भी काम लेना होगा।
सरदार को स्कूल पाठ्यक्रम से इतर पुस्तकें पढ़ने का चस्का तो लग ही चुका था। अब स्कूल का पुस्तकालय एक बपौती की तरह हाथ में आ गया। उस ने विषय से इतर पुस्तकें भी पढ़ना आरंभ कर दिया था। मन अभी भी उपन्यासों और कथा-कहानियों में बहुत रमता था। जासूसी उपन्यास कम पड़ रहे थे। स्कूल पुस्तकालय के हिन्दी साहित्य विभाग में उपन्यास और कहानियों की जितनी भी पुस्तकें थीं वे सब धीरे-धीरे पढ़ी जाने लगी थीं। लेकिन इस का प्रभाव स्कूल की पढ़ाई पर नहीं पड़ने दिया जा सकता था। यज्ञोपवीत हुए चार वर्ष हो चुके थे, दोनों चाचा नौकरियों पर जा चुके थे। दादा जी गाँव से जिस विद्यार्थी को लाए थे वह जाति से बनिया था और मंदिर के अंदर का काम नहीं कर सकता था। इस कारण से त्योहारों वाले भीड़ भरे दिनों में मंदिर में दादा जी की मदद के लिए भी जाना पड़ता था। यह अखरता था। लेकिन मजबूरी थी वह करना भी जरूरी था। अनेक बार इन सारे दायित्वों के बीच, किसी न किसी में चूक हो जाती तो डाँट भी सुननी पड़ जाती थी।
स्कूल के वार्षिकोत्सव में श्रेष्ठ हिन्दी लेखन के लिए पहला पुरस्कार सरदार को प्राप्त हुआ तो उसे अहसास हुआ कि उसे एक विशिष्टता केवल अपने पढ़ने के व्यसन से हासिल हो गई है। इस बात पर मन ही मन गर्व भी हुआ कि उस का व्यसन व्यर्थ नहीं, अपितु उसे अन्य लोगों से अलग करता है। व्यसन पर जब गर्व होने लगे तो उसे तो बढ़ना ही था। उधर स्कूल में विज्ञान की प्रायोगिक कक्षाओं में आनंद आने लगा था। मेंढक की चीरफाड़ पहली बार की। क्लोरोफार्म से बेहोश हुआ मेंढक ट्रे में टांगें खींच कर आलपिन से कस दिए जाने के बाद पूरी तरह इंसान की तरह लगता। शरीर के अंदर के अंगों का अध्ययन होने लगा। लेकिन यह काम रुचिकर नहीं लगता था। मामूली ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक विद्यार्थी द्वारा एक मेंढक की जान लेना फिजूल लगता। इम्तिहान में जब डिब्बे से अपने लिए मेंढक चुन कर लाने के लिए कहा गया तो एक छात्रा सब से बड़ा मेंढक ले चली उसे खींच कर आलपिनों से ट्रे में चिपका भी दिया। उसे सरदार ने कहा भी कि, इतना बड़ा मेंढ़क संभलेगा नहीं। पर वह अंदरूनी अंगों के बड़ा होने और उन्हें चीन्हना आसान होने की बात कह कर ले ही गई। बेहोश होने के बावजूद मेंढ़क का दिल जोरों से धड़क रहा था। छात्रा ने जैसे ही सीजर से उस की छाती चीरी, मेंढक की बेहोशी टूटी और उस ने आलपिन के बंधन छुड़ाने को जोर लगाया। आलपिनें मोम में ही तो घुसी हुई थीं, निकल गई। छाती चिरा मेंढक उछल कर सीधे उस के कुर्ते पर आ गिरा। घबराहट के मारे वह खुद इतनी जोर से गिरी कि प्रयोगशाला में सभी उसे संभालने दौड़े। बाद में वह हमेशा सब से छोटा मरियल सा मेंढक चुनने लगी तो सारे सहपाठी उसे चिढ़ाते कि इस में तो कुछ दिखेगा ही नहीं। प्रयोगशाला में काम के बीच ऐसी बहुत सी मनोरंजक बातें होती रहतीं। जैसे तैसे साल पूरा हुआ। परीक्षा में फिर से फर्स्टक्लास मिल गई। इस बार अंक पहले से अधिक मिले थे। संतोष था कि कॉलेज में भी फर्स्टक्लास की मान्यता कायम रहेगी। लेकिन वहाँ खतरा पीछा कर रहा था। जिस की आहट तक सरदार को सुनाई नहीं दे रही थी।
नगर में अपना सरकारी डिग्री कॉलेज खुले दो वर्ष हो चुके थे। जिस साल सरदार को प्रवेश लेना था उस साल पहला बैच तीसरे और अंतिम वर्ष में पहुँच चुका था। कॉलेज स्कूल की इमारत की ऊपर की मंजिल पर ही चल रहा था। कॉलेज में प्रवेश अजीब रोमांटिक सपना था। अब तक तो उन्हें स्कूल गणवेश पहन कर आना पड़ता था। कॉलेज में वे मनचाहे कपड़े पहन कर जा सकेंगे। वहाँ कोई होमवर्क नहीं केवल लेक्चर ही सुनने होंगे और अपनी तैयारी खुद करनी होगी। एक आजादी का अहसास हो रहा था। कॉलेज में प्रवेश आवेदन पत्र मिलने लगे तो सरदार अपने मित्र अशोक के साथ कॉलेज पहुँचा। पता लगा रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला में विज्ञान वालों के प्रवेश आवेदन पत्र मिलेंगे। वहाँ पहुँचे तो क्लर्क ने नाम पता लिखा, मूल्य और हस्ताक्षर ले कर एक-एक फार्म दोनों को दिया। रसायन विज्ञान के प्राध्यापक जी वहीं पास में कुर्सी पर बैठे थे। उन्हों ने अशोक को देख कर पूछा -तुम विज्ञान पढ़ोगे? दोनों बन ठन कर कॉलेज पहुँचे थे। अशोक तो अवकाश में अपनी बुआ के यहाँ मुम्बई रह कर गया था। बिलकुल लेटेस्ट फैशन की टी-शर्ट और खूबसूरत महंगी बैल-बॉटम पहने था। जैसे ही उस ने हाँ कहा, प्राध्यापक ने उसे घुड़क दिया -ये कपड़े नहीं चलेंगे केमिस्ट्री लैब में, पहले दिन ही एसिड से छेद हो लेंगे। सरदार अपने कपड़ों को जाँचने लगा। उस के लिए खूबसूरत और ताजा फैशन के कपड़े लक्जरी थे। अशोक ने प्राध्यापक की उस घुड़की को लापरवाही से लिया था। लेकिन सरदार मन ही मन संजीदा हो गया था कि अब पढ़ने आने पर कपडों को भी बचा कर चलना पड़ेगा। आजादी का अहसास कॉलेज में प्रवेश के पहले ही हवा होने लगा था, लगने लगा था कि यहाँ आजादी के साथ स्वानुशासन से भी काम लेना होगा।
लेकिन सरदार मन ही मन संजीदा हो गया था कि अब पढ़ने आने पर कपडों को भी बचा कर चलना पड़ेगा। आजादी का अहसास कॉलेज में प्रवेश के पहले ही हवा होने लगा था, लगने लगा था कि यहाँ आजादी के साथ स्वानुशासन से भी काम लेना होगा।
ReplyDeleteसंस्मरण रोचक रहा।
वाकई अपने पुराने दिन याद आ गये और हम स्कूल के दिनों में पहुंच गये।
ReplyDeleteबहुत कुछ अपना अतीत भी याद आ गया -हम एक ही काल खंड -देश काल परिस्थति के ही तो उत्पाद है ,क्यों ?
ReplyDeleteवाकई बहुत कुछ याद आगया.
ReplyDeleteरामराम.
umdaa
ReplyDeleteumdaa bunaavat yaadon ki
bilkul yadon ki baaraat jaisa..sukhad ehsaas !
badhaai !
स्वानुशासन ......... तरक्की की पहली और आखिरी सीढ़ी है क्या ?
ReplyDeleteये तो अपनी कहानी लगती है थोडी-थोडी. बहुत ज्यादा कोरिलेशन है.
ReplyDeleteआजका शीर्षक पढ़कर चौंक गया ...अजीत वडनेरकर और रूमानियत !
ReplyDeleteकालेज के दिनों की याद दिला दी !
pasand aaya.
ReplyDeletekarib karib yahi hal apna tha, kitabo k mammle me bhi aur class me hindi vachan k mamle me bhi.
collage ka ehsas vakai ek rumani ehsas hota hai us age me.
अच्छा! मेढक आप ने भी चीरे, हमने भी ये काम किया था स्कूल में , वो भी क्या दिन थे, चीरे मेढक को फ़िर से सुई धागे से सी कर और पानी में छोड़ कर अपने अपराध बोध की भावना को थोड़ा कम कर लेते थे
ReplyDeleteदिलचस्प किस्सा है......
ReplyDeleteपढ़कर बड़ा अच्छा लगा
ReplyDelete-----
1. चाँद, बादल और शाम
2. विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
कालेज कि याद आ गई..
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद पढ़ रही हूँ बहुत रोचक है आपके अतीत की बातें -- सुनाते रहीये
ReplyDelete- लावण्या