Monday, August 10, 2009

भोंपू, ढिंढोरची और ढोल

संबंधित कड़िया- ढोल की पोल, नगाड़े की क्यों नहीं 2. तूती तो बोलेगी, नक्कारखाने में नहीं 3. आखिर ये नौबत तो आनी ही थी... TashaF
ज का समाज प्रचारप्रिय है। आत्मश्लाघा और परनिंदा से जुड़ी किसी भी बात को सब तरफ फैलाने में में हमें सुख मिलता है। समाज में ऐसे लोगों को भोंपू की उपाधि दी जाती है। इसके अलावा भोंपू-चरित्र के लोगों को ढिंढोरची भी कहा जाता है। भोंपू शब्द बना है संस्कृत की वृंह या बृंह धातु से जिसका अर्थ होता है तेज आवाज करना, बढ़ना, उगना, दहाड़ना आदि। यूं भोंपू शब्द का मतलब होता है तेज आवाज़ वाला ऐसा वाद्य जिसे फूंक कर बजाया जाए। दुनियाभर में सुषिर वाद्यों की प्राचीन परम्परा रही है और अक्सर सुषिर वाद्यों से बेहद कर्णप्रिय और मधुर ध्वनि निकलती है। भोंपू से सागीतिक स्वरों का जन्म नहीं होता। यह वाद्य मूलतः सचेत करने, सूचित करने या सांकेतिक ध्वनि करने के लिए इस्तेमाल होता है। इसमें सुर पैदा करने के लिए छिद्र नहीं होते इसलिए एक समान और लगभग कर्कश ध्वनि निकलती है जो किसी को भी नहीं सुहाती। अवांछित प्रचार करनेवाले को इसीलिए भोंपू कहा जाता है क्योंकि ऐसा प्रचार भी किसी को नहीं सुहाता।
संस्कृत में डम् धातु में डम् ध्वनि का भाव है। शिव के रुद्रावतार का एक महत्वपूर्ण अवयव है डमरू जिसका जन्म इसी डम् धातु से हुआ है। डमरु एक दो मुंहा पोला वाद्य है जिसके दोनों ओर चमड़ा मढ़ा होता है। हाथ में पकड़ कर दाएं-बाएं हिलाने से उसमें लगें सूत्र जब चमड़े से टकराते है तब डम-डम की ध्वनि होती है। शिव के रौद्र रूप का प्रचार करने में यही डमरू-ध्वनि महत्वपूर्ण होती है। डिम्, डम्, ढम्, ढिम् जैसी ध्वनियां चमड़े से मढ़े वाद्यों को बजाने से उत्पन्न होती हैं जिनका प्रयोगDhol अधिकांशतः सामूहिक तौर पर लोगों को सूचित करने के लिए होता है। ढिंढोरा नाम का वाद्य जो ताशे के आकार का होता है, मुनादी के काम आता है। पूर्वी बोलियों में ढिंढोरा का रूप ढंढोरा भी है। जान प्लैट्स के कोश में इसका जन्म संस्कृत के ढुण्ढ या ढुंढ से हुआ है। मोनियर विलियम्स के संस्कृत-इंग्लिश कोश में ढुण्ढ का मतलब है खोजवना, तलाशना आदि। प्राचीनकाल से ही खोज और तलाश का काम शोर मचा कर किया जाता रहा है। राजा जब शिकार के लिए निकलता था तब जंगल में नगाड़ों के जरिये शोर ही किया जाता था। उद्धेश्य जानवरों की खोज करने का होता था मगर इससे जानवर खुद-ब-खुद बाहर चले आते थे। यानी खोज का काम पूरा। हिन्दी का ढूंढना शब्द इसी धातु से बना के बीच किसी सूचना को आम करने के लिए जब मुनादी कराई जाती थी तो यही ढिंढोर या ढंढोरा बजाया जाता था। कई गांवों में आज भी पंचायत स्तर पर ढिंढ़ोरा के जरिये ही सरकारी संदेश पहुंचाया जाता है। ढिंढोरा बजानेवाले को ढिंढोरची या ढंढोरिया कहा जाता है। दष्प्रचार करने या अनावश्यक प्रचार करने को ढिंढोरा-पीटना कहा जाता है।
पुराने ज़माने में राजदरबार के बाहर नक्कारखाना होता था जिसमें विशिष्ट अवसरों पर बजाए जाने वाले वाद्ययंत्र होते थे। पर इसका नाम पड़ा एक बड़े ढोल के नाम पर जिसे अरबी में नक्कारा कहते हैं। हिन्दी का नगाड़ा इसी का देशी रूप है। ढोल भी एक तरह का नगाड़ा ही होता है। यह बना है संस्कृत के ढौलः से। एक ही बात को बार बार दोहराने को ढोल-पीटना भी कहते हैं और इसे ढिंढोरा-पीटना पके अर्थ में भी प्रयोग किया जाता है। ढोल बजानेवाले को ढोली कहा जाता है। हिन्दू समाज में ढोली एक जाति भी होती है।  यह एक श्रमजीवी तबका है जो पुराने वक्त से ही श्रीमंतों के यहां मांगलिक अवसरों पर मंगलध्वनि का काम करता रहा है अर्थात द्वाराचार के दौरान ढोल बजाना। इसके अलावा ये लोग कृषि  कर्म व दस्तकारी की कला में भी प्रवीण होते हैं।

9 comments:

  1. बहुत बढिया जानकारी मिली. धन्यवाद,

    रामराम.

    ReplyDelete
  2. आज तो आपने पीटे जाने वाले वाद्यों को पंक्तिबद्ध कर दिया।

    ReplyDelete
  3. भोंपू की अच्छी पोल खोली है।
    बहुत बढिया जानकारी दी है।
    बधाई।

    ReplyDelete
  4. आज शब्द से ज्यादा इसकी प्रस्तावना अच्छी लगी

    ReplyDelete
  5. uttarakhan ke kuch vadya yantra bhi hain aasha hai aapki nazar unmein bhi padegi...

    all in all a good documentry.

    ReplyDelete
  6. आपके नक्कारखाने में मेरी तो तूती सी आवाज़ है .

    ReplyDelete
  7. जानकारी अच्छी रोचक है।

    ReplyDelete
  8. बेहतर जानकारी । रोचक भी ।

    ReplyDelete