बादशाहों के दौर में हर किले महल में नक्कारखाना होता था जहां महत्वपूर्ण शाही मुनादियां की जाती थीं। मुनादी से पहले जोर जोर से नक्कारा बजता था उसके बाद एक कारिंदा मुनादी पढ़ देता था। उसके बाद अगली घोषणा का नंबर आता था। अगर नक्कारखाने की कार्यप्रणाली पर गौर करें तो अपने आप नक्कारखाने में तूती जैसी कहावत का अर्थ भी समझ मे आ जाएगा। पहले देखें कि इस कहावत का क्या मतलब है। ताकतवर के आगे किसी कमजोर की न सुनी जाना ही इस कहावत का भाव है। सवाल है। नक्कारखाने के बड़े-बड़े कर्कश नगाड़े तो ताकत का प्रतीक समझे जा सकते हैं, मगर ये तूती क्या है ?
तूती ए हिन्द
तूती एक छोटी सी चिड़िया को कहते हैं जो बेहद मीठी, महीन आवाज़ में कूकती है और बहुत बुद्धिमान समझी जाती है। तूती की आवाज़ में जो मिठास और माधुर्य है इसी वजह से अमीर खुसरो को तूती-ए-हिन्द कहा जाता था। जलालुद्दीन खिलजी के दरबार में ही अमीर खुसरो को यह उपाधि मिली थी। नक्कारखाने में तूती की आवाज के मायने हुए जहां कमजोर की न सुनी जाए, या साधारण व्यक्ति की महत्वपूर्ण बात को जानकारों के द्वारा नजरअंदाज कर देना। जाहिर है तूती एक प्रतीक है । एक अन्य कहावत है तूती बोलना यानी प्रभावशाली होना। नक्कारखाने वाले मुहावरे में जहां तूती कमजोर मगर अक्लमंद की उपेक्षा के अर्थ मे नज़र आ रही है वहीं तूती बोलना वाले मुहावरे में तूती ताकत और प्रभाव का प्रतीक दिख रही है। दरअसल तूती को अक्लमंद इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसे जो भी सिखाया जाए , यह सीख जाती है। मनुश्य की आवाज़ की नकल भी यह कर सकती है। पुराने ज़माने में लोग तूती पालते थे, उन्हें बहुत सी बातें सिखाते थे। दरबारों में तूती बुलवाने के शगल होते थे। जिसकी तूती जितनी समझदार उतनी होशियारी से सिखाई बातें बोलती। अब तूती बोलेगी तो बुलवाने वाले का ही तो नाम होगा न ! बस, यही बात मुहावरे मे ढल गई।
शाहतूत की मिठास
इस समझदार चिड़िया के तूती नामकरण के पीछे एक खास वृक्ष है । फारसी में इस वृक्ष का नाम है शहतूत । हिन्दी में भी यह इसी नाम से जाना जाता है। मूलतः यह तूत होता है मगर इसकी एक किस्म को विशिष्ट मानते हुए उसे ‘शाह‘तूतनाम मिला । तूत भी अरबी से ही आया है। शाहतूत हिन्दी में भी शहतूत के नाम से जाना जाता है । शहतूत का फल बड़ा रसीला और मीठा होता है। इसी वृक्ष पर पलने वाली चिड़िया का नाम तूती हो गया। गौर करें की जो जो खासियत तूती में है वही सारी तोते में भी है । तोता भी इसी तूत की उपज है। तोता भी बुद्धिमान और चालाक समझा जाता है। इसी खूबी के चलते तोता रटंत जैसा मुहावरा प्रचलित हुआ । कभी कभी हाथों से भी तोते उड़ जाते हैं।
आपकी चिट्ठी-
सफर के पिछले तीन पड़ावों 1 ढोल की पोल, नगाड़े की क्यों नहीं, 2 काश!चलते पहाड़ 3 नागा यानी जुझारू और दिगंबर भी पर सर्वश्री दिनेशराय द्विवेदी, ज्ञानदत्त पाण्डेय, उड़नतश्तरी, लावण्यम अन्तरमन, मनीश जोशी, अनिताकुमार, ममता , संजीत त्रिपाठी,घुघुति बासूती, संजय, सुजाता, आशा जोगलेकर , आशीष , प्रमोदसिंह, राजीव जैन और अनुराधा श्रीवास्तव की टिप्पणियां मिलीं। आप सबका आभार ।
@प्रमोदजी-सुजाता ने सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी :)
@दिनेशजी-डोल नहीं ढोल ही सही है। पहाड़ तो क्या पास , क्या दूर सुहावने ही लगते हैं। मगर ढोल की आवाज़ पास से तो यकीनन कर्कश ही होती है।
@राजीव-पोल सिर्फ आर-पार के अर्थ में नहीं होती । खोखलापन ही पोल है। यूं ढोलक के दोनो छोर चमड़े से तो मढ़े ही होते हैं न ! कद्दू को क्या कहेंगे ?
@अनिताजी-मास्टरजी न बनाएं, बस सफर में हूं और इसमें आपकी उपस्थिति चाहता हूं।
@ज्ञानदा-सही कहा आपने , पर्वत भी उच्चशिखरों पर नग्न ही होते हैं , अलबत्ता गर्दन से नीचे तक हरियाली की चादर ओढ़े रहते हैं।
@मनीषभाई-जब आप नगपति सोच रहे थे , तब मैं भी नगपति सोच रहा था।
नक्कारखाने से उठकर नक्कारा बाद में संगीत की महफिलों में भी कुछ अलग अंदाज़ में शामिल हो गया। पूर्वी योरप, तुर्की , ईरान में यह बेहद लोकप्रिय है और तालवाद्य के तौर पर इसे अच्छे ऑर्केस्ट्रा में रखा जाता है।
Tuesday, February 19, 2008
तूती तो बोलेगी, नक्कारखाने में नहीं....
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 1:29 AM
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9 कमेंट्स:
अजितजी, आप सब इतनी डिटेल लाते कहाँ से हैं। शहतूत का फल तो हमने भी खूब खाया है, काफी मीठा होता है, लाल रंग का और कुछ कुछ छिलके वाली मुंगफली सा आकार लिये हुए होता है।
आप का कहना ही सही है ढोल ही सही है। चलो एक गलत समझ ठीक हुई। आप की यह तूती (चित्र) तो तोते की ही एक किस्म नजर आ रही है?
यानि कहा जा सकता है कि अच्छे ब्लॉग की तूती हर जगह बोलती है, जानकारी काम लायक है। आपसे निवदेन है कि बंदर न जाने अदरक का स्वाद, यह क्हां से बन गया है, इस कहावत के पीछे कोई खास घटना
बहुत अच्छे अजीत जी। आज जाकर तूती का मतलब पता लगा, कसम से!
आज तो विनय पत्रिका का नाश का नगाड़ा बज रहा है...
आप की आवाज तो शंख नाद है...
मैं आपके हर लेख का प्रिंट रखता हूँ....
अति मनभावन , रोचक व जानकारी से भरपूर प्रस्तुति
बहुत सटीक और उपयोगी..आभार
मैं 10 वर्षों से नझुल पट्टा विषय पर शासकिय अतिरेक के खिलाफ अदालति संघर्ष अकेले कर रहा हुँ. ईस विषय पर मेरी शोध और संघर्ष को पुस्तक रुप देने का प्रयास कर रहा हुँ जिसे नग्गारखाने में तूति यह शिर्षक देने की सोचा हैं. आपका उल्लेख अवश्य करुंगा. आभार. भरत राजगुरु. रेलटोली गोंदिया 9371643179
आज "नक्कारखाने में तूती" की पृष्ठभूमि जानने की खोज आपके blog पर जाकर पूर्ण हुई. इस तार्किक एवं सार्थक लेख हेतू धन्यवाद.
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