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Friday, May 5, 2017

'फते' और 'फलास'


क्त दोनों ही शब्द किसी ज़माने की राजभाषाओं के शब्द है पर देसी रंग कुछ इस अंदाज़ में चढ़ा कि अब चाहें तो इन्हें मालवी का कह लें या अवधी का। ये भी नोट किया जाए कि अच्छी ख़ासी राजभाषाओं की कलई ज़माने की टकसाल में फीकी पड़ जाती है। किसी भी चीज़ पर जब तक 'देसी' का रंग न चढ़े तब तक वह लोकप्रिय भी नहीं हो सकती।

किसी ज़माने में अरबी-फ़ारसी राजभाषाएँ थीं। चूँकि तुर्क-मंगोल नस्लों के लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था इसलिए उनकी अपनी भाषाओं पर अरबी-फ़ारसी रंग ज्यादा चढ़ा था। हिन्दुस्तान में जो ज़बान दाखिल हुई वह फौजी अमले द्वारा बोली जाने वाली भाषा थी। जो बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। हालाँकि शाही अमले में अरबी-फ़ारसी के आलिम भी होते थे पर उनकी तादाद बेहद कम।

तो बात थी 'फते' की जो अरबी के फ़तह का देसी रूप है। फ़तह के फते रूप पर मुस्लिम आलिमो हुक्काम सिर धुन लिया करते थे। पर ये देसी ज़बानों की फ़तह थी कि उन्होंने इसके फते, फत्ते जैसे रूप बना लिए। यही नहीं इससे संज्ञनाम भी बनाए जैसे फतेह सिंह, फतेसिंह, फतेपुर, फतेपुरा, फतेचंद आदि।
फलास का किस्सा तो और भी मज़ेदार। द्यूत क्रीड़ा यानी जुआ-सट्टा का चलन भारतीय समाज में प्राचीनकाल से रहा।

तुर्क-मंगोल लोगों के साथ गंजीफा भी आया जो ताश, पत्ती का खेल है। अंग्रेजो के पास भी ताश-पत्ते का खेल कार्ड बनकर पूरब से ही गया था। जब वे हिन्दुस्तान आए तो ताश का ज़ोर और बढ़ा। अबकि बार अंदाज़ विलायती था। सो विलायती ताश के खेल में तीन पत्ती वाला फ्लैश या फ्लश भी जुआरियों या द्यूतप्रेमियों में प्रसिद्ध हो गया।

अब कोई भी शहराती चलन जब तक देसी रंगत में न आए, आनंद नहीं आता। सो विलायती का बिलैती हुआ, जनरल का जरनैल और प्लाटून का पलटन हुआ वैसे ही फ्लैश का 'फलास' हो गया।
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Saturday, February 4, 2017

चुभने-चुभाने की बातें

क्षुब्ध, विक्षोभ जैसे शब्दों का बुनियादी अर्थ है विदीर्ण,असन्तोष आदि।pain-body-mind

भी काँटे ‘चुभ’ जाते हैं कभी बातें चुभती हैं। चुभ / चुभना / चुभाना हिन्दी में सर्वाधिक प्रयुक्त क्रिया है। हिन्दी शब्दसागर इसे अनुकरणात्मक शब्द बताता है जो अजीब लगता है। अनुकरणात्मक शब्द वह है जो ध्वनि साम्य के आधार पर बनता है जैसे रेलगाड़ी के लिए छुकछुक गाड़ी। हिनहिनाना, टनटनाना, मिनमिनाना जैसे अनेक शब्द हमारे आसपास है। अब सोचें कि चुभ, चुभना को किस तरह से अनुकरणात्मक शब्द माना जाए ! इसी कड़ी के दो और शब्द है खुभ / खुभना या खुप / खुपना जिसे समझे बिना चुभना की जन्मकुण्डली नहीं समझी जा सकती।
मेरे विचार में चुभना संस्कृत की ‘क्षुभ्’ क्रिया से आ रहा है जिससे क्षोभ, विक्षोभ बना है। क्षुब्ध, विक्षुब्ध, क्षोभ, विक्षोभ जैसे शब्दों का बुनियादी अर्थ है विदीर्ण, चीर, दबाव, धक्का, भयभीत, कम्पन, आन्दोलन, बखेड़ा, असन्तोष, गड़बड़ी, कोप आदि। मगर रूढ़ अर्थों में हिन्दी में अब क्षोभ या क्षुब्ध का प्रयोग ज्यादातर नाराज़गी, कोप, गुस्सा के अर्थ में ही होता है और उक्त सारे भाव विक्षोभ से व्यक्त होते हैं। गौर करें मौसमी सूचनाओं में अक्सर ‘पश्चिमी विक्षोभ’ टर्म का प्रयोग होता है जो दरअसल वेस्टर्न डिस्स्टर्बेंस का अनुवाद है। इसका अभिप्राय समन्दर पर या ऊपरी आसमान में हवाओं के ऐसे उपद्रव से है जिसकी वजह से कहीं बवण्डर या चक्रवात बनते हैं तो कहीं हवा अचानक शान्त हो जाती है जिसे कम दबाव क्षेत्र भी कहते हैं।
ख़ैर, बात चुभने-चुभाने की हो रही थी। गौर करें चुभना किसी तीक्ष्ण वस्तु का भीतर घुसना है। इसका भावार्थ भीतर की हलचल, मन्थन, हृदय की चोट, दिल की उमड़-घुमड़, किसी बात का घर कर जाना आदि है। क्षुभ् क्रिया में यही सारी बातें शामिल हैं। गौर करें विदीर्ण में दो हिस्से होने, चीर लगने का भाव है। दो हिस्सों में बाँटे बिना कोई चीज़ भीतर जा नहीं सकती। प्रत्येक आलोड़न, आन्दोलन, मन्थन, हलचल का कोई न कोई केन्द्र होता है जो इसे धारदार बनाता चलता है। यही धँसना, गड़ना,चुभना है। हिन्दी की प्रकृति है ‘क्ष’ का ‘छ’ और ‘ख’ में बदलना जैसे अक्षर से ‘अच्छर’ और ‘अक्खर’ (आखर, अक्खड़ जैसे भी) जैसे रूप भी बनते हैं। पूर्वी बोलियों में ‘क्षुब्ध’ को ‘छुब्ध’ भी कहा जाता है। इसी तरह ‘क्षुब्ध’ से ‘खुब्ध’ भी बनता है। गौर करें क्षुब्ध से चुभ बनने में क्ष > छ > च के क्रम में ध्वनि परिवर्तन हो रहा है जबकि क्षुब्ध से खुभ बनते हुए क्ष > ख के क्रम में परिवर्तन हो रहा है।
‘खुभना’ का अर्थ भी चुभना, गड़ना या धँसना ही है। कृ.पा. कुलकर्णी भी मराठी खुपणे जिसका अर्थ भीतर घुसकर कष्ट देना, चीरना, छेद करना आदि है, का मूल क्षुभ् से ही मानते हैं। इसका प्राकृत रूप खुप्प, खुप्पई है। सिन्धी में खुपणु, गुजराती में खुपवुँ, मराठी में खुपणे अथवा खोंपा, खोंपी जैसे शब्द इसी क्षुभ् मूल से व्युत्पन्न है। इसी कड़ी में ऊभचूभ पर भी विचार कर लें। कुछ विद्वान मानते हैं कि ऊभ के अनुकरण पर चूभ बना है, पर ऐसा नहीं है। अलबत्ता ऊभ की तर्ज़ पर चुभ का ह्रस्व ज़रूर दीर्घ होकर चूभ हो जाता है। ऊभचूभ का अर्थ होता है आस-निरास की स्थिति, डावाँडोल होना, आन्तरिक हलचल, ऊपर-नीचे होना, डूबना-उतराना आदि।
हिन्दी ‘ऊभ’ का अर्थ है ऊपर आना, उभरना। चूभ और चूभना पर तो ऊपर पर्याप्त बात हो चुकी है। मुख्य बात यह कि अनुकरण वाले शब्द की अपनी स्वतन्त्रप्रकृति नहीं होती। मुख्य पद के जोड़ का पद रच लिया जाता है। उसका कोई अर्थ नहीं होता। ऊभचूभ में जो चूभ हो वह अनुकरण नहीं बल्कि ऊभ का विलोम है। उसकी स्वतन्त्र अर्थवत्ता है। ऊभ का रिश्ता उद्भव से है जिसमें उगने, ऊपर आने का भाव है। उद् यानी ऊपर उठना भव यानी होना। प्राकृत का 'उब्भ' इसी कड़ी का है। उब्भ का ही विकास ऊभ है। उभरना, उभार भी इसी कड़ी में आते हैं।
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Friday, September 16, 2016

हनक यानी उन्माद

त्तर प्रदेश और बिहार में 'हनक' शब्द बहुत प्रचलित है। मध्यप्रदेश में इसका बर्ताव नहीं के बराबर है। बाकी बिहार के अरवल से हरियाणा के पलवल तक इसका प्रसार है। 'हनक' का प्रयोग इन इलाकों में आमतौर पर ठसक, हेकड़ी, गर्व, अकड़, अभिमान, दर्प या मद का भाव है। मूल रूप से यह अरबी ज़बान का शब्द है और फ़ारसी के रास्ते हिन्दी में आया है। यह सेमिटिक धातु हा-नून-क़ाफ़ ح نِ ق से बना है जिसमें तेज़ी, तमक, तर्रारी, तैश, रुआब के साथ-साथ रोष, दुश्मनी, उग्रता, आगबबूला या प्रतिशोध जैसे आशय भी हैं। अक्सर अख़बारों में सियासत की गर्मी का बखान करनेवाले सन्दर्भों में इसका प्रयोग देखने को मिलता है। कुर्सी की हनक, सत्ता की हनक, वर्दी की हनक, राजनीति की हनक आदि। इससे हनकी शब्द भी बनता है जिसका अर्थ है गुस्सैल, नाराज़, क्रोधी, प्रतिशोधी, उन्मादी या पागल आदि। किन्तु यह शब्द चलन में नहीं है। गौर करें हनक में मूलतः उग्रता का भाव है और उग्रता एक किस्म की ‘अति’ है जिसे समझदारों ने वर्जित माना है। सत्ता उन्मादी बनाती है। रुआब जब अपने ज़ोर पर होता है तब उन्माद की शक्ल अख़्तियार करता है।

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Friday, July 29, 2016

'कमाल' की बात



ज देखते हैं कमाल की कुण्डली। हम सब अधूरे हैं। आम आदमी इस अधूरेपन को पूरा करने के चक्कर में ईश्वर का आविष्कार कर बैठा। ज्ञानमार्गियों ने पूर्णता की व्याख्या अनेक तरीकों से करते हुए अध्यात्म और दर्शन का घनघोर संसार रच दिया। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकला कि हर कोई अगर अपना अपना काम सही ढंग से करता चला जाए तो बात पूरी हो जाती है।

पूर्णता में ही 'कमाल'
यह जो पूर्णता है बड़ी चमत्कारी है। किसी चीज़ के पूरा होने का अहसास हमें गहरी शान्ति से भर देता है। पूर्णता सुख का सर्जन करती है और आगे बढ़ने का रास्ता खोलती है। हमारे हाथों उस चमत्कारी भविष्य की नींव रखी जाती है जिसके लिए हमने ईश्वर का आविष्कार किया था। ज्ञानियों ने इस कर्मयोग को ही ईश्वरोपासना कह दिया। बहरहाल पूर्णता में ही ‘कमाल’ है।

उपज्यो पूत 'कमाल'
अरबी से फ़ारसी होते हुए हिन्दी में आए कमाल के डीएनए में इसी पूर्णता का भाव है। कबीर ताउम्र इन्सानियत की बात करते रहे। वे सन्त थे। ज्ञानमार्गी थे जिसका मक़सद सम्पूर्णता की खोज था। आख़िर क्यों न वे अपने पुत्र का नाम कमाल रखते ! कमाल अपने पूरे कुनबे के साथ उर्दू में है और कुछ संगी साथी हिन्दी में भी नज़र आते हैं। कमाल کمال बना है अरबी की मूलक्रिया कमल کمل से जो मूलतः क-म-ल है, अर्थात काफ़(ک) मीम( م ) लाम (ل) से जिसमें पूर्ण होने, पूर्ण करने का भाव है।

'कमाल' का चमत्कार
इस तरह कमाल में परम, सम्पूर्णता, सिद्धि, पराकाष्ठा, सर्वोत्कृष्टता जैसे भाव स्थापित हुए हिन्दी में कमाल का बर्ताव चमत्कारी, अद्भुत या आश्चर्यजनक के अर्थ में ज्यादा होता है। जबकि इसका मूल भाव Completion, perfection या entire है। जब कोई चीज़ अपनी सम्पूर्णता में रची जाती है या घटित होती है तब सामान्य मनुष्य के लिए वह आश्चर्य ही होता है। इसीलिए सम्पूर्ण उपलब्धि को हम अनोखापन मानते हैं।

'कमाल' के मुहावरे
हिन्दी में कमाल दिखाना, कमाल करना, कमाल है जैसे मुहावरे हमारी रोज़मर्रा की अभिव्यक्ति का हिस्सा हैं। इनके बिना काम नहीं चलता। कमाल शब्द ग्रामीण बोली से लेकर शहरी ज़बान में छाया हुआ है। “कमाल की चीज़’, ‘कमाल की बात”, “कमाल की एक्टिंग”, “कमाल की सोच”, “कमाल की तकनीक”, “कमाल का हुनर”, “कमाल का आदमी”, “कमाल की औरत” जैसे दर्जनों पद हम रोज़ इस्तेमाल करते हैं जिसमें कमाल का अर्थ या तो प्रवीणता, पराकाष्ठा है अन्यथा आश्चर्य का भाव है।

'कमाल' का कुटुम्ब
कमाल-कुटुम्ब का ही एक अन्य शब्द है जो सम्पूर्णता के अर्थ में हिन्दी में प्रतिष्ठित है वह है مکمل मुकम्मल। कुछ लोग मुकम्मिल भी लिखते हैं। अनेक लोग मुक्कमल लिख देते हैं। सही मुकम्मल है अर्थात मीम काफ मीम लाम। मुकम्मल बना है कमाल से पहले ‘मु’ उपसर्ग लगने से जो मूलतः सम्बन्धकारक है।

'कमाल' यानी सम्पूर्णता

जिसमें सम्पूर्णता का गुण है उसका अर्थ होगा सम्पूर्ण। सो मुकम्मल में सम्पूर्ण, सर्वोत्कृष्टता जैसे भाव हैं। मुकम्मल वह है जो परिपूर्ण है, निर्मित है, बना हुआ है। वह जिसमें कुछ भी करने को शेष न रह गया हो। इसी कड़ी में आता है कामिल کامل इसमें भी यही सारे भाव समाहित हैं। कामिल अरबी की प्रसिद्ध और लोकप्रिय पुरुषवाची संज्ञा भी है। अखिल,योग्य, परिपूर्ण, सम्पूर्ण, सक्षम जैसी अर्थवत्ता इसमें है।

नामों में 'कमाल'
इसी तरह ताकमाल, मुकतामिल, ताकमुल, ताकमिल, कमालान जैसे पुरुषवाची नाम हैं तो कामिलात, कामिलिया, कमिल्ला जैसे स्त्रीवाची नाम भी इसी मूल से निकले हैं जिनमें उपरोक्त भाव ही हैं। इस कड़ी के ये सभी शब्त अरबी, फ़ारसी, हिन्दी, तुर्की, अज़रबैजानी, स्वाहिली, इंडोनेशियाई आदि अनेक भाषाओं में इस्तेमाल होते हैं। हिन्दी के अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में भी इस शृंखला के शब्द हैं।

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Saturday, January 16, 2016

‘उलाहना’ तो प्रेरणा है, भर्त्सना नहीं


ळमा और ‘उरहन’ जैसे शब्दों में कुछ समानता नज़र आती है ? इन दोनों के बीच मारवाड़ और ब्रज के बीच की दूरी ज़रूर है पर दोनों का मूल एक ही है। दरअसल हिन्दी में जिसे उलाहना कहते हैं उसका राजस्थानी रूप ओळमा है और ब्रज, अवधी रूप उरहन या उराहन/ उराहना हैं। इसमें में शिकवा-शिकायत का भाव है या निन्दा का ? दरअसल हिन्दी के शब्दकोश तो ये दोनों ही भाव बताते हैं पर हमारा मानना कुछ और है। उपालम्भ में निन्दा करने, दोष गिनाने, शिकवा करने से ज्यादा उसे प्रेरित करने, प्रवृत्त करने, सचेत करने, समझाने, अनुभव कराने के आशय ज्यादा हैं।

उलाहना शब्द का रिश्ता संस्कृत के उपालम्भ से जोड़ा जाता है। इसका प्राकृत रूप उवालंभ है। इसका विकास ओलंभ होता है। राजस्थानी में यह ओळमा हो जाता है। उपालम्भ का अर्थ है धिक्कार, भर्त्सना, झिड़क, कोसना, घुड़की, आक्षेप, तिरस्कार, निन्दा, दुर्वचन, कुबोल, डाँट या वर्जना, निषेध, रोक, पाबंदी आदि। उपालम्भ बना है उप+आलम्भ से। हिन्दी में आलम्भ शब्द में छूने, स्पर्ष करने, अपनाने जैसे आशय हैं। इसमें ‘उप’ सर्ग जुड़ने से आशय एकदम स्पष्ट होता है।

किसी आश्रय के ज़रिये, किसी बहाने से छूना, स्पर्ष करना या अधिकार जताना-अपना बनाना। ध्यान रहे उपालम्भ के जितने भी अर्थ हमने ऊपर देखे वे सभी नकारात्मक हैं। हालाँकि उनका आशय यह लगाया जा सकता है कि किसी व्यक्ति को वास्तविकता का बोध कराने के लिए कहे गए कटुबोल दरअसल उसे अपना बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। किन्तु प्रश्न यही है कि उलाहना का अर्थ सीधे सीधे गाली या दुर्वचन नहीं है। उलाहना में हमेशा तिरस्कार, भर्त्सना या धिक्कार का भाव भी नहीं होता। अलबत्ता उसमें आक्षेप, व्यंग्य ज़रूर होता है।

हमारा मानना है कि हिन्दी के ‘उलाहना’ का विकास प्राकृत के उपलंभणा से हुआ है जिसका संस्कृत प्रतिरूप ‘उपलम्भन’ है। ध्यान रहे उपलम्भना में बोध, समझ, अनुभव के साथ ही देखना, बूझना जैसे भाव भी हैं। उलाहना इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि आप किसी को कोसना चाहते हैं, बल्कि उलाहना उसे दिया जाता है जिससे अपेक्षित प्रतिसाद न मिले, जो अपने कर्तव्य को भूल जाए। उलाहना चेतना जगाता है, जागरुक करता है, जिम्मेदारी की याद दिलाता है। उपलम्भना या उपालम्भ दोनों ही शब्दों के मूल में लभ् धातुक्रिया है जिसमें पाना, सोचना, समझना जैसे भाव हैं। ध्यान रहे ‘ल’ का रूपान्तर ‘र’ में होता है। ‘लभ्’ का अगला रूप ‘रभ्’ होता है। जिस तरह ‘लभ्’ से ‘लम्भ’ होता है उसी तरह ‘रभ्’ से ‘रम्भ’ होता है। ‘रम्भ’ से ही ‘आरम्भ’ भी बनता है जिसका अर्थ है शुरुआत। उलाहना इसी नई शुरुआत के लिए तो दिया जाता है।

तो उलाहना में दरअसल इसी शुरुआत का संकेत है, उत्प्रेरण है। उपलम्भना > उवलम्भना में ज्ञानप्राप्ति भी है और आक्षेपयुक्त प्रेरणा भी। रत्नावली का उलाहना ही तुलसी के लिए मानस-सृजन की प्रेरणा बना। इसलिए हमारा स्पष्ट मानना है कि उलाहना के मूल में उपालम्भ नहीं बल्कि उपलम्भणा है। इसकी पुष्टि हरगोविंददास त्रिकमचंद सेठ के प्राकृत कोश “पाइय सद्द महण्णवो” से भी होती है। हिन्दी के उलाहना का विकास उपलंभणा > उवलंभना > उलांभना > उलाहना के क्रम में हुआ है। राजस्थानी ओळमा भी उपलंभणा से ही उळांभणा >ओळमा के क्रम में सामने आया। ब्रज/ अवधी का उराहना भी इसी कड़ी में उपलंभणा > उराहना > उरहन से विकसित हुआ है।

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Tuesday, September 15, 2015

॥ भाषायी लेन-देन के एमओयू ॥

भाषा की प्रकृति को समझे बगैर शेख़चिल्ली नेताओं ने विश्व हिन्दी सम्मेलन क्या आयोजित कर लिया अब वे हिन्दी-विकास भी इन्स्टैंट चाय कॉफी बनाने जितना आसान बना देने वाले हैं। हिन्दी-तमिल, हिन्दी-कश्मीरी विद्वान आपस में बैठेंगे और तय हो जाएगा कि हिन्दी को किन-किन शब्दों की ज़रूरत है। लीजिए एमओयू पर दस्तख़त भी हो गए। सोमवार तक दो दर्जन शब्दों का पहला कनसाइनमेंट भी आ जाएगा !

मैने गौर से सुना, उन्होंने कहा- “कभी ऐसा भी हो कि हिन्दी-कश्मीरी के विद्वान आपसे में बैठें और इस पर सोचें कि कश्मीर का कोई मुहावरा हिन्दी में कैसे ‘फिट’ किया जा सकता है”। यह भी कहा कि अन्य भारतीय भाषाओं जैसे तमिल, तेलुगू के विद्वानों को आपस में बैठ कर विचार करना चाहिए कि किस तरह उनकी भाषा के अच्छे शब्द, मुहावरे हिन्दी में लाए जा सकते हैं। इससे हिन्दी समृद्ध होगी। राजनीति की बिसात पर गोटियाँ फिट करने वाले सियासतदाँ जब भाषा की ओर रुख करते हैं तब वहाँ भी फिट करने की ही शब्दावली बोलते हैं चाहे शब्दों और मुहावरों की बात करें।

क्या किसी ज़माने में अरबी, पुर्तगाली, फारसी और अंग्रेजी विद्वानों की हिन्दी विद्वानों के साथ कोई बैठक हुई थी और उसके बाद इंतज़ाम, कप, बसी, मंज़ूर, गुनाह, इस्तेमाल, मालामाल, मर्ज़ी, तबाह, ग़ुस्लख़ाना, इंतज़ार, चाकू, नश्तर, नसीब, नशा, खलास, ख़र्च, माहिर, माली, गोभी, बटन, समोसा, कारतूस, गोदाम, बंदूक, पिस्तौल, स्कूल, गिलास, लालटेन, टोपी, शो, पिक्चर, कैमरा, अस्पताल, कार, मोटर, ट्रक, टीवी, यूज़ जैसे शब्द हिन्दी ज़बान पर चढ़ाए गए ?

क्या अंग्रेजी में गुरु, कुली, सूप, योग, अमृत, बैंगन, ब्रिंजल, धोती, घी जैसे कई शब्द भी हुकुमते-बरतानिया और मुग़ल दरबार के बीच हुए समझौते के तहत  ही बरते जा रहे हैं ? अरे साहबान शेख़चिल्ली जैसी बातें न करें...भाषा में राजनीति नहीं, समाजवाद चलता है। जो बात ज़बान पर चढ़ जाए, जो अल्फ़ाज़ दिल को छू जाएँ बस, कोई भी भाषा थोड़ा थोड़ा समृद्ध हो जाती है। कुछ और आगे बढ़ जाती है।

भाषाओं का यह आपसी लेन-देन बेहद ख़ामोशी से होता है। सरकार को चाहिए कि ऐसा माहौल बनाए कि एक भाषायी क्षेत्र का आदमी दूसरे भाषायी क्षेत्र से जुड़ सके। सिलेबस में कोई एक क्षेत्रीय भाषा सीखना अनिवार्य किया जाए। हिन्दी क्षेत्रों के जो बच्चे महाराष्ट्र, तमिलनाड़ू, गुजरात, पंजाब जैसे राज्यों में पढ़ते हैं उन्हें इसका लाभ समझ में आता है। किताबें सस्ती बिकें, ऐसी व्यवस्था हो। पूर्वोत्तर के प्रति सरकार और मीडिया की उदासीनता भी भाषायी पहल से दूर हो सकती है। अगर सरकार भाषायी हेल-मेल का महत्व सचमुच समझना चाहती है तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर देशभर के लोगों से इस पर विचार आमन्त्रित किए जाएँ।

भाषाओं की सहभागिता और उनका स्वतन्त्र विकास ही इस देश में शान्ति और सद्भाव बनाए रखने का आसान और कारगर उपाय है। पर ये लोगों के मेल-जोल से संभव होगा, सुचना माध्यमों की प्रभावी भूमिका से होगा। सरकारी बैठकों, समनेलनों की थोथी बातों से नहीं।

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Monday, September 15, 2014

||‘दरी’ और ‘दारी’ की बात||

sakhi चपन से युवावस्था तक अपन मालवी-उमठवाड़ी परिवेश वाले राजगढ़-ब्यावरा में पले-बढ़े हैं। मालवी में जब हाड़ौती का तड़का लगता है तो उमठवाड़ी बनती है। हालाँकि राजगढ़-ब्यावरा मूल रूप से मध्यप्रदेश के मालवांचल में ही आता है फिर भी इस इलाके की स्थानीय पहचान उमठवाड़ के नाम से भी है। बहरहाल अक्सर महिलाओं के आपसी संवादों में ‘दारी’ और ‘दरी’ इन शब्दों का अलग अलग ढंग से इस्तेमाल सुना करते थे। ‘दरी’ में जहाँ अपनत्व और साख्य-भाव है वहीं ‘दारी’ में उपेक्षा और भर्त्सना का दंश होता है। ‘दरी’ का प्रयोग देखें- “रेबा दे दरी” अर्थात रहने दो सखि। “आओ नी दरी” यानी सखि, आओ न। “अरी दरी, असाँ कसाँ हो सके” मतलब ऐसा कैसे हो सकता है सखि! इसके ठीक विपरीत ‘दारी’ शब्द का प्रयोग बतौर उपेक्षा या गाली के तौर पर किया जाता है जैसे- “दारी, घणो मिजाज दिखावे”, भाव है- इसकी अकड़ तो देखो!
री’ और ‘दारी’ के भेद को समझने की कोशिश लम्बे वक्त से जारी थी। सिर्फ एक स्वर के अंतर से ‘दरी’ में समाया सखिभाव तिरोहित होकर दारी में उपेक्षा अथवा गाली में कैसे तब्दील हो जाता है ? ‘दरी’ का प्रयोग नन्हीं-नन्हीं बच्चियों से लेकर बड़ी-बूढ़ी औरतें तक करती हैं। हाँ, दारी का प्रयोग वयस्क महिलाओं के आपसी संवाद में ही होता है। दूर तक फैले मालवा के बारे में अपने सीमित अनुभवों के बावजूद कह सकता हूँ कि इस पर बृजभाषा का काफी प्रभाव है। दारी बृज में भी प्रचलित है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी दारी के बारे में लिखते हैं- “बृज में ‘दारी’ बहुत प्रचलित है। औरतों को गाली देने के काम आता है। परन्तु इस शब्द का तात्विक अर्थ क्या है, बृज के लोग आज भी नहीं जानते। साहित्यिक भी ‘दारी’ का अर्थ नहीं जानते। कोश-ग्रन्थों में दासी का रूपान्तर दारी बतलाया गया है! दासी से दारी कैसे बना ? कोई पद्धति भी है? कुछ नहीं! और दासी कहकर या नौकरानी कह कर कोई गाली नहीं देता। गाली में बेवकूफी, दुष्टता, दुश्चरित्रता जैसी कोई चीज़ आनी चाहिए”
निश्चित तौर पर ‘दारी’ शब्द के मूल में दुश्चरित्रता का ही भाव है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ‘दारी’ का रिश्ता ‘दारा’ से जोड़ते हैं जिसमें पत्नी, भार्या का भाव है। वे लिखते हैं, “ दारा एक की भार्या, और दारी सबकी, भाड़े की” । तो क्या 'दारा' में 'ई' प्रत्यय लगा देने से अधिष्ठात्री की अर्थवत्ता बदल कर वेश्या हो जाती है? 'पति' में पालनकर्ता, स्वामी का भाव है। इससे ही 'पतित' बना होगा, ऐसा मान लें ? मेरे विचार में मालवी, बृज के ‘दारी’ शब्द में वेश्या, व्यभिचारिणी या दुश्चरित्रा के अर्थ स्थापन की प्रक्रिया वही रही है जैसी हिन्दी के ‘छिनाल’ शब्द की रही। ‘छिनाल’ का रिश्ता संस्कृत के ‘छिन्न’ अथवा प्राकृत के ‘छिण्ण’ से है जिसका अर्थ विभक्त, टूटा हुआ, विदीर्ण, फाड़ा हुआ, खण्डित, विनष्ट आदि। ध्यान रहे छिन्न > छिण्ण से विकसित छिनाल में चरित्र-दोष इसीलिए स्थापित हुआ क्योंकि समाज ने बतौर कुलवधु उसकी निष्ठा में दरार देखी, टूटन देखी या उसे विभक्त पाया। संस्कृत की ‘दृ’ धातु में जहाँ विदीर्ण, विभक्त जैसे भाव हैं वहीं इससे मान, सम्मान, शान, अदब जैसे आशय भी निकलते हैं। आदर, आदरणीय जैसे शब्द ‘दृ’ से ही बने हैं। ‘समादृत’ जैसे साहित्यिक शब्द में ‘दृ’ की स्पष्ट रूप से पहचाना हो रही है|
त्नी के अर्थ में हिन्दी संस्कृत में जो ‘दारा’ शब्द है उसमें स्त्री के पतिगृह की अधिष्ठात्री, पत्नी, अर्धांगिनी जैसे रुतबे वाला आदरभाव है। दारा में आदर वाला ‘दृ’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में ‘दारिका’ के दो रूप दिए हैं। एक का विकास ‘दृ’ के टूटन, विभाजन वाले अर्थ से होता है तो दूसरे का विकास सम्मान, अदब आदि भावों से। ‘दारिका’ का एक अर्थ जहाँ वेश्या है वहीं दूसरी ओर इसका अर्थ कन्या, पुत्री, पुत्र आदि भी है। स्पष्ट है कि सखि के तौर पर मालवी में जो ‘दरी’ शब्द है वहाँ ‘दृ’ में निहित आदर का भाव स्नेहयुक्त लगाव में परिवर्तित होता दिखता है और इसीलिए मालवांचल के देहात में ‘दरी शब्द आज भी खूब प्रचलित है वहीं गाली-उपालम्भ के तौर पर 'दारी' की अर्थवत्ता भी कायम है। अलबत्ता सभ्य समाज में जो वेश्या है ‘दारी’ उसे न कहते हुए आपसदारी की गाली में ‘दारी’ देहाती परिवेश में आज भी चल रहा है।

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Friday, April 5, 2013

नस्ली सही, नस्लीय ग़लत

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जो शब्द ग़लत बर्ताव के शिकार हैं, उनमें ‘नस्ल’ का ‘नस्लीय’ रूप भी शामिल है। ‘नस्ल’ मूलतः अरबी शब्द है। शब्दकोशों में हिन्दी रूप ‘नसल’ होता है पर ‘अस्ल’ के ‘असल’ रूप की तरह यह आम नहीं हो पाया और इसका प्रयोग वाचिक ही बना रहा। नस्ल के मूल में अरबी क्रिया नसाला है जिसमें उपजाना, पैदा करना, जन्म देना, प्रजनन करना, बढ़ाना, दुगना करना, वंश-परम्परा जैसे भाव हैं।
साला की अरबी धातु नून-सीन-लाम (ن س ل ) बताई जाती है जिससे पुनरुत्पादन, वृद्धि जैसे आशय प्रकट होते है। शब्दकोशों के मुताबिक नस्ल का मूलार्थ सन्तान, औलाद, लड़का, लड़की, शावक, सन्तति , परिणाम आदि है किन्तु प्रचलित अर्थों में नस्ल में जाति का भाव प्रमुख तौर पर उभरता है। इसके अलावा कुल, परिवार, वंश जैसे आशय भी प्रकट होते हैं। हिन्दी में किसी शब्द के सम्बन्धवाची आशय उसके साथ ‘ईय’ प्रत्यय लगने से ज़ाहिर होते हैं जैसे मानव + ईय़ = मानवीय या जाति + ईय = जातीय आदि। नस्ल चूँकि विदेशज शब्द है और सम्बन्धवाची आशय प्रकट करने वाला रूप ‘नस्ली’ मूल अरबी के अलावा फ़ारसी, उर्दू-हिन्दुस्तानी में भी सुरक्षित है सो ऐसे में नस्ल का ‘नस्लीय’ रूप खटकता है। अगर ‘नस्ल’ से ‘नस्लीय’ ही बनाना है तो ‘जातीय’ क्या बुरा है? भाषा तो लगातार आसान होती जाती है। नस्ल का हिन्दी रूप तो नसल है। तब ‘नसलीय’ बनाइये!! अगर ‘नस्ल’ लिखना सुहाता है तो ‘नस्ली’ ही लिखिए, ‘नस्लीय’ नहीं।
क तरफ़ हम ‘चिकित्सक’ के स्थान पर ‘डॉक्टर’ की पैरवी करते हैं कि इसमें कम अक्षप हैं, आसान है। मगर दूसरी तरफ़ कम शब्द वाले ‘नस्ली’ में हिन्दी का प्रत्यय लगाकर उसे और भी लम्बा (नस्लीय) कर देते हैं। आसान से ‘सौहार्द’ को जबर्दस्ती ‘सौहार्द्र’ बनाने पर तुले हैं जबकि बोलने में यह कठिन है। आसान हिन्दी के पैरोकार इस पर चुप्पी लगा लेंगे।

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Thursday, February 14, 2013

अगर, मगर, वरना, लेकिन…

question

ल्पना करें कि किसी सुबह आपको ये फ़रमान सुनने को मिले कि दिनभर आप जो भी बोलेंगे, उसमें ‘अगर’, ‘मगर’, ‘वरना’ या ‘लेकिन’ का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो क्या इसे मंजूर कर लेंगे? व्यक्तिगत रूप से मैं इस चुनौती को स्वीकार नहीं कर पाऊंगा। यह नामुमकिन है। ये जानकर भी ताज्जुब हो सकता है कि ‘अगर’, ‘मगर’, ‘लेकिन’ या ‘वरना’ हिन्दी के अपने नहीं बल्कि फ़ारसी से आयातित अव्यय हैं। यही नहीं, ‘मगर’ तो फ़ारसी-अरबी का संकर है। इन शब्दों के आसान हिन्दी पर्याय यदि, किन्तु, परन्तु, अन्यथा हैं पर इनका प्रयोग अगर’, ‘मगर’ या ‘वरना’ की तुलना में काफ़ी कम है। आप जब ये चुनौती स्वीकार करेंगे, तब इसकी आज़माइश भी हो जाएगी।
बसे पहले बात करते हैं ‘अगर’ की। बोलचाल में अगर बेहद लोकप्रिय अव्यय है इसका पर्याय यदि है जो हिन्दी की तत्सम शब्दावली से आता है। ‘अगर’ की व्युत्पत्ति के बारे में उर्दू-फ़ारसी के शब्दकोश ज्यादा जानकारी नहीं देते हैं। अली नूराई के फ़ारसी-अंग्रेजी व भारोपीय भाषाओं के व्युत्पत्ति कोश में ईरान के भाषाविद् एम.एच. तबरिज़ी और जर्मन भाषाविद पॉल होर्न के हवाले से ‘अगर’ की व्युत्पत्ति का रिश्ता अवेस्ता के ‘हाकरत’ से जुड़ता नज़र आता है। गहराई में जाने पर पता चलता है कि ‘हाकरत’ का ‘हा’ अवेस्ता के ‘हम’ (सर्व) और ‘करत’ ‘कर्त’ [काट(ना), धार(ना)] से आ रहा है। जोसेफ़ एच पीटरसन की “डिक्शनरी ऑफ़ मोस्ट कॉमन अवेस्ता वर्ड्स” के मुताबिक इसमें एक बार या कभी-कभी का भाव है।
हरहाल, जॉन प्लैट्स के कोश के मुताबिक ‘यदि’ के अर्थ वाले अगर में अरबी का ‘मा’ उपसर्ग (मा+अगर) लगने से मगर बनता है। अरबी के ‘मा’ उपसर्ग में ‘ना’ की अर्थवत्ता है। इस मगर में लेकिन, किन्तु, परन्त की अर्थवत्ता है। फ़ारसी का मुहावरा “अगर-मगर” करना हिन्दी में भी लोकप्रिय है। इसी तरह “किन्तु-परन्तु” में भी वही भाव है। हील-हवाला, टालमटोल, आनाकानी या मामले को लटकाने का आशय यहाँ उभरता है। अगर और मगर में जड़ता, यथास्थितिवादिता उजागर होती है।नूराई के कोश की एक अन्य प्रविष्टि में ‘अगर’ का अर्थ ‘IF’ यानी ‘यदि’ या ‘अगर’ बताया गया है किन्तु उसके आगे ‘cut once’ भी लिखा है।अवेस्ता में ‘अक’ (ak) भी है जिसमें अक्ष, धुरी का भाव है। ‘कभी कभी’ के मद्देनज़र यदि पर गौर करे तो लगता है कि यदि में निश्चयात्मकता नहीं है। परिस्थिति प्रमुख है। अक्ष के एक पलड़े पर ‘अगर’ है और दूसरे पर ‘मगर’ है। ‘अक’ या ‘हकरत’ में ही ‘अगर’ के बीज छुपे हैं। ‘ह’ ध्वनि का लोप होकर सिर्फ़ ‘अ’ स्वर बच रहा है और ‘क’ रूपान्तर ‘ग’ में हो रहा है। अन्तिम ‘त’ भी लुप्त हो रहा है।
न्यथा की अर्थवत्ता वाला ‘वरना’ भी हिन्दी में खूब चलता है। ‘वरना’ में ‘नहीं तो फिर’ या ‘और नहीं तो’ की अर्थवत्ता है। उर्दू-फ़ारसी में इसका ‘वगरना’ रूप देखने को मिलता है। क़तील शिफ़ाई साहब का एक शेर है- “चलो अच्छा हुआ, काम आ गई दीवानगी अपनी / वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते”। वरना के बीच में इस ‘ग’ के वजूद के क्या मायने हैं? दरअसल ‘वरना’ के मूल में भी ‘अगर’ छिपा है। जॉन प्लैट्स के कोश के मुताबिक वरना एक वाक्याँश है “वा अगर ना”। इसका संक्षेप हुआ वगरना। उर्दू हिन्दी में यह ‘वरना’ रह गया। इसकी एक और वर्तनी है वर्ना जिसमें सिर्फ़ ढाई आखर रह जाते हैं “वा अगर ना” में जो ‘वा’ है वह अवेस्ता के अप से आ रहा है जिसमें पुनः, फिर, पार्श्व, परे, दूर जैसे भाव हैं। अगर का एक अन्य संक्षेपरूप है ‘गर’। “गर ऐसा हो जाए”, “गर वैसा हो जाए” जैसे वाक्य भी हिन्दी में चलते हैं। “वा अगर ना” का एक रूप “वा गर ना” भी हो सकता है जिससे ‘वगरना बना होगा।गर्चे या अगर्चे जैसे रूपों में ‘यद्यपि’ का भाव है।
हिन्दी में किन्तु, परन्तु के आशय वाला ‘लेकिन’ शब्द भी खूब चलता है यूँ कहें कि ‘लेकिन’ के बिना तो काम चलना ही मुश्किल है। कोशों के मुतबिक लेकिन शब्द अरबी के ‘लाकिन’ से आ रहा है जिसका अर्थ यदि, किन्तु, परन्तु जैसा ही है । सेमिटिक भाषाओं के ख्यात विशेषज्ञ मायर मोशे ब्रॉमन (1909-1977) अपनी पुस्तक स्टडीज़ इन सेमिटिक फ़िलोलॉजी में सम्भावना जताते हैं कि लाकिन के मूल में प्रोटो अरेबिक रूप ‘इल्ला-कान’ है । इल्ला दरअसल ‘ला’ का मूल रूप है जिसमें यदि, सिवाय, परन्तु जैसे भाव हैं । ‘कान’ सहायक क्रिया है । इस तरह इल्ला-कान का रूपान्तर ही लाकिन हुआ जो फ़ारसी (लाकेन) होते हुए हिन्दी का ‘लेकिन’ बना ।

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Tuesday, January 15, 2013

चर्चा कैसी कैसी !!

talk

हि न्दी से प्यार करने वालों का उसके साथ बर्ताव और व्यवहार भी अनोखा होता है । मिसाल के तौर पर चर्चा की बात करें । उर्दू-हिन्दी में बातचीत, कथन, उल्लेख, ज़िक़्र के संदर्भ में चर्चा शब्द का प्रयोग होता है । यह बहुत प्रचलित शब्द है । अक्सर यह बहस भी चलती रहती है कि चर्चा स्रीवाची है या पुरुषवाची । “चर्चा चलती है” या “चर्चा चलता है” । “चर्चा रही” या “चर्चा रहा” । कुछ लोग कह देते हैं कि कथन, ज़िक़्र या उल्लेख की तरह चर्चा के प्रयोग में पुलिंग लगना चाहिए जबकि कुछ लोग इसे स्त्रीवाची कहते हैं और इस तरह चर्चा पर चर्चा चलती ही रहती है । जो हिन्दीप्रेमी नुक़्ते से परहेज़ करते हैं उनका कहना है कि चर्चा के साथ उर्दू वाला पुल्लिंग लगाया जाए । इसके बरख़िलाफ़ जिन हिन्दीप्रेमियों को मुसलमानी बिन्दी से लगाव है वो चाहते हैं कि चर्चा को उर्दू का न माना जाए और इसके साथ स्त्रीलिंग का प्रयोग किया जाए । उर्दू में चर्चा से चर्चे बना लिया गया है जो बहुवचन है ।
बसे पहले तो एक बात साफ़ कर दें कि चर्चा हिन्दी की अपनी ज़मीन पर तैयार हुआ शब्द है और स्त्रीवाची है । यह मूलतः तत्सम शब्द है । इसमें और संस्कृत के चर्चा शब्द में अगर कोई मूलभूत फ़र्क़ है तो सिर्फ़ यही कि संस्कृत-वैदिक शब्दावली का चर्चा पुरुषवाची है और हिन्दी का चर्चा स्त्रीवाची । संस्कृत का चर्चा लोकभाषा में स्रीवाची चरचा था और हिन्दी की ज़मीन पर भी इसी रूप में सामने आया । आज से क़रीब छह सौ सात सौ साल पहले हिन्दी की विभिन्न शैलियों में चर्चा के चरचा रूप का स्त्रीवाची प्रयोग के लिखित साक्ष्य बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं । ज़ाहिर है बोलचाल में इसकी रचबस कई सदी पहले हो चुकी होगी । कबीर अपनी सधुक्कड़ी में कहते हैं - “संगत ही जरि जाव न चरचा नाम की । दुलह बिना बरात कहो किस काम की।।” वहीं विनयपत्रिका में तुलसी की अवधी में भी चरचा है- “जपहि नाम रघुनाथ को चरचा दूसरी न चालु।” तो उधर राजस्थानी में मीराँ के यहाँ भी चरचा है - “राम नाम रस पीजै मनुआँ, राम नाम रस पीजै । तज कुसंग सतसंग बैठ णित, हिर चरचा सुण लीजै ।।
र्चा शब्द में विभिन्न आशय शामिल हैं मगर आमतौर पर इसका अर्थ बहस या विचार-विमर्श ही है । चर्चा में मूलतः दोहराव का भाव है । तमाम कोश चर्चा के अनेक अर्थ बताते हैं मगर रॉल्फ़ लिली टर्नर कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ में चर्चा प्रविष्टि के आगे सिर्फ़ रिपीटीशन यानी दोहराव लिखते हैं । ज़ाहिर है, बाकी आशय बाद में विकसित हुए हैं विलियम व्हिटनी पाणिनी धातुपाठ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि चर्च् धातु दरअसल चर् धातु में निहित भाव की पुनरावृत्ति दिखाने वाला रूप है । चर् का मूल भाव गति है (करना, अनुष्ठान, व्यवहार, आचरण, अभ्यास आदि । इससे ही चलने की क्रिया वाला चर बना है) । चर्चर (चर-चर) में दोहराव है । बहरहाल, चर्चा के मूल में चर्च् धातु है जिसका मूलार्थ है दोहराव । आप्टे कोश के मुताबिक इसमें पढ़ना, अनुशीलन करना, अध्ययन करना, विचार-विमर्श करना जैसे भाव हैं । इसी के साथ इसमें गाली देना, धिक्कारना, निन्दा करना, बुरा-भला कहना जैसे आशय भी हैं । इससे बने चर्चा में आवृत्ति, तर्क-वितर्क, स्वरपाठ, अध्ययन, सम्भाषण, वाद-विवाद, अनुशीलन, परिशीलन, अनुसंधान के साथ-साथ शरीर पर उबटन लगाना, मालिश करना, लेपन करना जैसे भाव भी हैं ।
र्च् में निहित दोहराव वाले भाव पर गौर करें तो चर्चा के अन्य आशय भी स्पष्ट हो जाते हैं । बार-बार या दोहराव वाली बात विमर्श के दौरान भी उभरती है और विचार मन्थन में भी । अनुसंधान या खोज के दौरान भी बार बार उन्हीं रास्तों, विधियों, प्रविधियों से गुज़रना होता है । बहस-मुबाहसों में एक ही बिन्दू पर लौटना होता है या किसी एक मुद्दे का बार बार उल्लेख होता है । चर्चा में अफ़वाह, गपशप, चुग़लख़ोरी जैसी बातें भी शामिल हैं । अफ़वाह में आवर्तन की वृत्ति होती है । किसी भी क़िस्म की गप्प, गॉसिप या अफ़वाह जैसी बातें लौट-लौट कर आती हैं । सो बारम्बारता चर्चा का ख़ास गुणधर्म है । यही बारम्बारता मालिश, मसाज़ या लेपन में भी है । मालिश या लेपन करना यानी बार-बार किसी एक सतह पर दूसरी सतह फेरना सो चर्चित का आशय लेपित से भी है । बृहत हिन्दी शब्दकोश में इसका उदाहरण दिया है चन्दन-चर्चित काया । लेपन की क्रिया को चर्चन भी कहते हैं । चर् में निहित गति की पुनरावृत्ति ही ‘चर्चन’ है ।
र्च् से ही बना है चर्चित जिसका अर्थ है- ऐसा कुछ जिस पर लोग बातें करतें हैं । इसमें वस्तु, व्यक्ति, विचार कुछ भी हो सकता है । चर्चित यानी जिस पर चर्चाएँ चल रही हों । कोशों के मुताबिक चर्चित का अर्थ है जिस पर विचार किया गया हो, जिस पर चर्चा हुई हो, जिसे खोजा गया हो। इसके अलावा चर्चित वह भी है जिसकी मालिश हुई हो, जिस पर लेप किया हुआ हो, जो सुगंधित, सुवासित, अभ्यंजित हो । चर्चित के दोनों ही अर्थों में दोहराव की प्रक्रिया स्पष्ट है । आम अर्थों में चर्चित चेहरा वह होता है जो खबरों में हो । खबर को चर्चा का पर्याय मानें । बार बार कोई मुद्दा या व्यक्ति जब चर्चा में आता है तो वह चर्चित कहलाता है । चर्चा योग्य के लिए मुखसुख के आधार पर चर्चनीय शब्द भी बना लिया है । चर्चा करने वाले को वार्ताकार की तर्ज पर चर्चाकार कहते हैं । संस्कृत नाटकों की परम्परा में दो अंकों के बीच दृष्यविधान बदलते हुए दर्शकों के मनोरंजन के लिए गाया जानेवाला गीत चर्चरिका कहलाता था । फ़ाग, होली, बुआई, कटाई जैसे अवसरों पर भी चर्चरिका का चलन था । लोक भाषा में इसे चाँचर, चँचरी या चाँचरी कहते हैं । चाँचरी एक पहाड़ी लोकनृत्य की शैली भी है ।
र्चा प्रायः आर्यपरिवार की सभी भारतीय भाषाओं में है । लोगों की ज़बान पर जब किसी बात का उल्लेख आम हो जाए तो उसे मराठी में जनचर्चा या लोकचर्चा कहा जाता है । इसी तरह रामचर्चा पद है जिसका शाब्दिक अर्थ तो राम का नाम लेना है मगर इसमें मुहावरेदार अर्थवत्ता है । मोल्सवर्थ का इंग्लिश-मराठी कोश इसके बारे में कहता है - A phrase used emphatically or expletively in a speech expressing any positive and utter denial. 

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Friday, September 7, 2012

नाम में ही धरा है सब-कुछ !!

things

ना म में क्या रखा है ? शेक्सपीयर के प्रख्यात प्रेम-कथानक की नायिका जूलियट के मुँह से रोमियो के लिए निकला यह जुमला इस क़दर मक़बूल हुआ कि आज दुनियाभर में इसका इस्तेमाल मुहावरे की तरह किया जाता है । चूँकि ये बात इश्क के मद्देनज़र दुनिया के सामने आई और इश्क में सिवाय इश्क के कुछ भी ज़रूरी नहीं होता...तब रोमियो के इश्क में मुब्तिला जूलियट के इस जुमले को ज्यादा तूल नहीं दिया जाना चाहिए । दुनियादारी में तो नाम ही सबकुछ है । यानी “बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ” जैसा नकारात्मक आशावाद आज ज्यादा चलन में है । ये नाम की महिमा है कि हर आशिक रोमियो, फरहाद, मजनू जैसे नामों से नवाज़ा जाता है और हर माशूक को जूलियट, शीरीं, लैला का नाम मिल जाता है । नाम दरअसल क्या है ? हमारी नज़रों के सामने, समूची सृष्टि में जितने भी पदार्थ हैं उनका परिचय करानेवाला शब्द ही नाम है । इसे संज्ञा भी कहा जाता है । संज्ञा हिन्दी का जाना पहचाना शब्द है । प्राथमिक व्याकरण के ज़रिए हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति इससे परिचित है । संज्ञा के दायरे में हर चीज़ है । जड-गतिशील, स्थूल-सूक्ष्म, दृष्य-अदृष्य, वास्तविक-काल्पनिक, पार्थिव-अपार्थिव इन सभी वर्गों में जो कुछ भी हमारी जानकारी में है, उसे संज्ञा कहा जा सकता है । संज्ञा के मूल में सम + ज्ञा है । सम अर्थात बराबर, पूरी तरह, एक जैसा आदि । अर्थात जिससे किसी पदार्थ के रूप, गुण, आयाम का भलीभाँति पता चले, वही संज्ञा है । संज्ञा यानी नाम ।
संस्कृत की ज्ञा धातु में जानने, समझने,बोध होने, अनुभव करने का भाव है । बेहद लोकप्रिय और बहुप्रचलिशब्द नाम के मूल में यही ज्ञा धातु है । अंग्रेजी के नेम name का भी इससे गहरा रिश्ता है । संस्कृत में ज्ञ अपने आप में स्वतंत्र अर्थ रखता है जिसका मतलब हुआ जाननेवाला, बुद्धिमान, बुध नक्षत्र और विद्वान। ज्ञा क्रिया का मतलब होता है सीखना, परिचित होना, विज्ञ होना, अनुभव करना आदि । संज्ञा में चेतना का भाव है और होश का भी । ये दोनो ही शब्द बोध कराने से जुड़े हैं । अचेत और बेहोश जैसे शब्दों में कुछ भी जानने योग्य न रहने का भाव है । संज्ञाशून्य, संज्ञाहीन यानी जिसे कुछ भी बोध न हो । ज्ञ दरअसल संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है । इसके उच्चारण में क्षेत्रीय भिन्नता है । मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ञ्ज ध्वनि है। दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है । भाषा विज्ञानियों ने प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए जो धातु ढूंढी है वह है gno यानी ग्नो । 
ज़रा गौर करें इस ग्नों से ग्न्य् की समानता पर । ये दोनों एक ही हैं। अब बात इसके अर्थ की । ज्ञा से बने ज्ञान का भी यही मतलब होता है। ज+ञ के उच्चार के आधार पर ज्ञान शब्द से जान अर्थात जानकारी, जानना जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति हुई। अनजान शब्द उर्दू का जान पड़ता है मगर वहां भी यह हिन्दी के प्रभाव में चलने लगा है । मूलतः यह हिन्दी के जान यानी ज्ञान से ही बना है जिसमें संस्कृत का अन् उपसर्ग लगा है । ज्ञा धातु में ठानना, खोज करना, निश्चय करना, घोषणा करना, सूचना देना, सहमत होना, आज्ञा देना आदि अर्थ भी समाहित हैं । यानी आज के इन्फॉरमेशन टेकनोलॉजी से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें अकेले इस वर्ण में समाई हैं । इन तमाम अर्थों में हिन्दी में आज अनुज्ञा, विज्ञ, प्रतिज्ञा और विज्ञान जैसे शब्द प्रचलित हैं। ज्ञा से बने कुछ अन्य महत्वपूर्ण शब्द ज्ञानी, ज्ञान, ज्ञापन खूब चलते हैं। गौर करें जिस तरह संस्कृत-हिन्दी में वर्ण में बदल जाता है वैसे ही यूरोपीय भाषा परिवार में भी होता है। प्राचीन भारोपीय भाषा फरिवार की धातु gno का ग्रीक रूप भी ग्नो ही रहा मगर लैटिन में बना gnoscere और फिर अंग्रेजी में ‘ग’ की जगह ‘क’ ने ले और gno का रूप हो गया know हो गया । बाद में नालेज जैसे कई अन्य शब्द भी बने। रूसी का ज्नान ( जानना ), अंग्रेजी का नोन ( ज्ञात ) और ग्रीक भाषा के गिग्नोस्को ( जानना ), ग्नोतॉस ( ज्ञान ) और ग्नोसिस (ज्ञान) एक ही समूह के सदस्य हैं । गौर करें हिन्दी-संस्कृत के ज्ञान शब्द से इन विजातीय शब्दों के अर्थ और ध्वनि साम्य पर ।
ब आते हैं नाम पर । संस्कृत में भी नाम शब्द है । इसका आदिरूप ज्ञाम अर्थात ग्नाम ( ग्याम नहीं ) रहा होगा, ऐसा डॉ रामविलास शर्मा समेत अनेक विद्वानों का मत है । ग्नाम से आदि स्थानीय व्यंजन का लोप होकर सिर्फ नाम शेष रहा । ज्ञाम से नाम के रूपान्तर का संकेत संस्कृत रूप नामन् से भी मिलता है । अवेस्ता में भी यह नाम / नामन् है । फ़ारसी में यह नाम / नामा हो जाता है । इसका लैटिन रूप नोमॅन है जो संस्कृत के नामन के समतुल्य है । नामवाची संज्ञा के अर्थ में अंग्रेजी का नेम name का विकास पोस्ट जर्मनिक के नेमॉन namon से हुआ । वाल्टर स्कीट के मुताबिक इसका सम्बन्ध लैटिन के नोमॅन और ग्रीक ग्नोमेन से है । लैटिन नोमॅन, ग्रीक ग्नोमेन gnomen से निकला है । मोनियर विलियम्स नामन् के मूल में ज्ञा अथवा म्ना धातुओं की संभाव्यता बताते हैं । विलियम व्हिटनी जैसे भारोपीय भाषाओं के विद्वानों के मुताबिक म्ना चिन्तन, मनन, दर्शन का भाव है । गौर करें कि ज्ञा और म्ना दोनो की अनुभूति एक ही है । नाम शब्द ज्ञा और ग्ना शब्दमूल से बना है ऐसा डॉ रामविलास शर्मा का मानना है । ज्ञा अर्थात gna । इसका एक रूप jna भी बनता है और kna भी (know में ) । ख्यात प्राच्यविद थियोडोर बेन्फे संस्कृत नामन् का एक रूप ज्नामन भी बताते हैं जो पूर्व वैदिक ग्नामन की ओर संकेत करता है । नाम का पूर्व रूप ग्नाम रहा होगा, यही बात डॉ रामविलास शर्मा भी कह रहे हैं । वाल्टर स्कीट की इंग्लिश एटिमोलॉ डिक्शनरी में भी ये दोनों रूप मिलते हैं । रूसी में इसका रूप ज्नामेनिए है ।
पनाम के लिए हिन्दी में सरनेम शब्द अपना लिया गया है । इसमें नेम वही है जो नाम है और अंग्रेजी के सर उपसर्ग में ऊपर, परे, उच्च वाला आशय है । सरनेम से आशय कुलनाम या समूह की उपाधि से है जो उसके सदस्यों की पहचान होती है । नाम से बने अनेक शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं मसलन नामक  का भी खूब इस्तेमाल होता है जिसमें नामधारी का भाव है । नामधारी यानी उस नाम से पहचाना जाने वाला । नाम रखने की प्रक्रिया नामकरण कहलाती है । गौर करें, संज्ञाकरण का अर्थ भी नाम रखना होता है । किसी सूची या दस्तावेज़ में नाम लिखवाने को नामांकन कहते हैं । मनोनयन के लिए नामित शब्द भी प्रचलित है । इसका फ़ारसी रूप नामज़द है । नामराशि शब्द भी आम है यानी एक ही नाम वाला । नामवर यानी प्रसिद्ध । नाममात्र यानी थोड़ी मात्रा में । नाम शब्द की मुहावरेदार अर्थवत्ता भी बोली-भाषा में सामने आती है । नामकरण तो नवजात का नाम रखने की क्रिया है पर नाम धरना या नाम रखना में नकारात्मक अर्थवत्ता है जिसका अर्थ होता है बुराई करना, निंदा करना आदि । नाम उछालना या नाम निकालना में भी ऐसे ही भाव हैं । नाम रोशन करना यानी अच्छे काम करना । कीर्ति बढ़ाना । प्रसिद्ध होना । नाम बिकना यानी खूब प्रभावी होना । नामो-निशां मिटना यानी सब कुछ खत्म हो जाना । नाम जपना यानी किसी का नाम रटना । किसी के प्रति आस्था जताना ।

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Tuesday, June 26, 2012

गुण्डे की नेता से रिश्तेदारी

"कन्नड़ में गण्डा का अर्थ होता है मोटा आदमी । इसका एक अन्य अर्थ है शक्तिशाली पुरुष । ध्यान रहे उभार की अर्थवत्ता के चलते ही गण्ड में नायकत्व का भाव आया है अर्थात जो दूसरों से ऊपर दिखे ।"

प्रा यः सभी भाषाओं में शब्दोंकी अर्थावनति की प्रवृत्ति होती है । प्रभाव और महिमा का बोध कराने वाले शब्द काल के प्रवाह में धीरे धीरे व्यग्यसूचक हो जाते हैं बाद में उनमें विपरीत भाव तक पैदा हो जाता है । शब्दों का सफ़र में ऐसे अनेक उदारहरण मिल जाएँगे जैसे ऐहदी, नौकर, चाकर, पाखण्डी, गुरु आदि। तथाकथित नेता इस बात से नाराज़ रहते हैं कि उन्हें गुण्डा कहा जाने लगा है । अब उन्हें कौन समझाए कि नेता वह है जो किसी समूह को राह दिखाए, अगुवाई करे । नेता शब्द की अभिव्यक्ति वाले न जाने कितने शब्द हैं जैसे-नायक, प्रमुख, प्रधान, सरदार, आक़ा, साहिब, गुरु वगैरह वगैरह । अब गुण्डों का सरदार भी नायक ही होता है । अब अगर गुण्डा शब्द के मूल में ही प्रधान और नेता जैसे भाव हों तो उसमें बुरा मानने की क्या बात है ! और बुरा ही मानना है तो खुद को नेता कहलवाना भी बंद कर दें क्योंकि नेता की अर्थवत्ता ने भी नकारात्मक रूप अपना लिया है । जब कोई व्यक्ति ज्यादा दंद-फद दिखाता है उसे नेता  कहते हैं । नेतागीरी शब्द पूरी तरह से नकारात्मक है जिसका अर्थ है निजी स्वार्थ के लिए लोगों को बरगलाना ।

गुण्डा शब्द की व्याप्ति आर्यभाषा परिवार और द्रविड़ परिवार की भाषाओं में क़रीब क़रीब एक सी है । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि इसमें निहित नकारात्मक भाव भी सभी भाषाओं में है किन्तु दक्षिण की मराठी, तमिल जैसी भाषाओं से यह संकेत मिलता है कि मूलतः गुण्डा शब्द का आशय शक्तिशाली, प्रभावशाली, ताक़तवर, नायक जैसी अर्थवत्ता रखता था । तेलुगू में गुण्डुराव या गुण्डूराज आख़िर प्रभावी नाम ही हैं जिसका अर्थ नेता, प्रमुख ही है। आखिर गुण्डा शब्द में इन भावों का विकास किस तरह हुआ होगा ? सबसे पहले बात करते है इसके जन्मसूत्रों और रिश्तेदारियों की । संस्कृत के गुंड, गंड, गुड़, खण्ड, खांड, काण्ड जैसे शब्द एक ही सिलसिले की कड़ियाँ हैं । इन सबमें जो मूल भाव है वह है उभार । ध्यान रहे ये सभी शब्द एक वर्णक्रम में आते हैं अर्थात क-ख-ग आदि । एक ही वर्णक्रम के शब्द आपस में रूपान्तरित भी होते हैं । उभार के अर्थ पर ध्यान दें । समतल पर किसी उठाव का पैदा होना दरअसल उस समतल क्षेत्र को दो भागों में विभाजित करता है । कोई भी पर्वत शृंखला दरअसल पार्थिव उभार है जिसके दोनो  ओर के इलाके पृथक भूक्षेत्र होते हैं ।
गुड़ का जन्म हुआ है गड् से जिसमें पिण्ड का भाव भी है, कूबड़ अथवा गाँठ का भी और रस, राब या शीरा का भी । ये सभी लक्षण गन्ने हैं । गन्ना का मूल काण्ड और गण्ड दो शब्दों से बताया जाता है । ये दोनों एक ही कतार में खड़े हैं । गण्ड का अर्थ उभार या गाँठ होता है । ध्यान रहे, गन्ने पर एक निश्चित दूरी पर उभार होता है जिसे गाँठ कहते हैं । इसी उभार के लिए संस्कृत में काण्ड शब्द भी है । अध्याय, खण्ड, विभाग जैसे अर्थों पर जो मुख्यतः विभाजन को बताते हैं । पौराणिक ग्रन्थों के अध्यायों को काण्ड कहा जाता था पुस्तक के विभिन्न भाग काण्ड कहलाते थे । गन्ने का तना देखें तो इसमें भी यही काण्ड नज़र आता है । इस काण्ड का ही एक रूप खण्ड है । खण्ड यानी विभाग, क्षेत्र, अंश आदि । हमारे इर्दगिर्द खण्ड से जुड़ी कितनी ही संज्ञाएँ हैं जैसे झारखण्ड, उत्तराखण्ड, बघेलखण्ड, बुंदेलखण्ड आदि इसका ही रूप फ़ारसी में कन्द होता है जैसे ताशकन्द, समरकन्द आदि । आप्टे कोश के मुताबिक काण्ड के मूल में संस्कृत का कण् है ।
संस्कृत की कण् धातु में क्षीण, सूक्ष्म और छोटे होते जाने का भाव है। कण् में पीसना, चूरना जैसा भाव भी है । पीसने की क्रिया किसी वस्तु या पदार्थ को लगातार तोड़ना या विभाजित करना ही है । यही है कण् में निहित छोटा होते जाने के भाव की व्याख्या । संस्कृत की कण् धातु में निहित हिस्सा, शाखा, भाग, लघुतम अंश जैसे अर्थों से ही इसमें अध्याय या प्रसंग का भाव विकसित हुआ । घास प्रजाति के पौधे के लिए भी काण्ड शब्द प्रचलित हुआ जिसमें बाँस से लेकर गन्ना भी शामिल है । किसी वृक्ष की शाखा, डाली अथवा तने को भी काण्ड कहा जाता है। इसी कड़ी से जुड़ा है प्रकाण्ड शब्द । संस्कृत का प्र उपसर्ग जब संज्ञा या विशेषण से पहले लगता है तो उस शब्द में सम्पूर्णता का भाव भी समाहित हो जाता है । इस तरह एक नया विशेषण बनता है जिसमें अत्यधिक, आधिक्य या अत्यंत का भाव समाहित है जैसे पेड़ का तना । प्रकांड का दूसरा अर्थ है कोई भी प्रमुख पदार्थ या वस्तु। इसीलिए आमतौर पर किसी विशिष्ट क्षेत्र में प्रवीणता रखनेवाले व्यक्ति को हिन्दी में प्रकांड पंडित कहा जाता है।
संस्कृत के गण्ड में उभार का जो भाव है वह उसे विशिष्ट बनाता है । समतल सतह पर कोई भी उभार विशिष्ट है । समाज में किसी व्यक्तित्व का उभार उसे खास बनाता है । ऐसे लोग नायक कहलाते हैं । गण्ड का एक अर्थ नायक, योद्धा या शूरवीर भी है । संस्कृत के गण्ड का प्रभाव द्रविड़ भाषाओं पर भी है । तमिल में कण्डन का अर्थ भी योद्धा होता है । कन्नड़ में गुण्ड का अर्थ चाकर होता है जो किसी ज़माने में फौज की अग्रिम पंक्ति के नायक होते थे । जे पी फेब्रिसियस के तमिल लैक्सिकन के मुताबिक गण्डा का अर्थ होता है मोटा आदमी । इसका एक अन्य अर्थ है शक्तिशाली पुरुष । तेलुगु में व्यक्तिवाचक संज्ञा के तौर पर गुंडूराव नाम खूब प्रचलित है । इसमें नायक का ही भाव है । ध्यान रहे उभार की अर्थवत्ता के चलते ही गण्ड में नायकत्व का भाव आया है अर्थात जो दूसरों से ऊपर दिखे । पर्वतशृंखलाएँ पृथ्वी का उभार ही हैं और पर्वत शिखरों में नायक भाव स्थापित है । उभार से ही गण्ड के गण्डि, गुण्डी, घुण्डी, गण्डा जैसे रूप सामने आते हैं जिसका अर्थ है कोई ग्नन्थि, गूमड़, रूई या कपड़े का गोला, गेंद या मन्त्र विद्ध ताबीज आदि ।
राठी में एक शब्द है गांवगुंड जिसका अर्थ है ग्रामनायक या ग्रामयोद्धा । अथवा भांड-मीरासी जैसा कोई पात्र जो देखते ही देखते अपने करतबों से भीड़ जुटा लेता है । मराठी में गुंडा शब्द का अर्थ है एक गोल, चिकना पत्थर । यह सालिगराम भी हो सकता है । इसके अलावा एक दुष्ट या कमीन किस्म का व्यक्ति जो हर तरह की चालें चलना जानता है । कुल मिला कर “गुण्ड” जो किसी समूह का नायक था, बाद में अपनी उद्धत, अहंकारी वृत्ति के चलते खल-चरित्र बन गया । नायक शब्द की अर्थवत्ता तो कायम रही मगर नायक की अर्थवत्ता वाले गण्ड, गुण्ड जैसे शब्दों की अर्थावनति हुई । अशिष्ट, अशालीन, उदण्डतापूर्व व्यवहार करने वाले व्यक्ति को गुण्डा की संज्ञा मिली ।
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Saturday, June 23, 2012

शब्दों के सालिगराम

shaligram

लो क की भाषा हमेशा प्रवाहमयी होती है । इसका वेग शब्दों को जिस तरह माँजता, चमकाता है, जिस तरह उनका अनघड़पन तराशकर उन्हें सुघड़ बनाता है, शब्दों का मोटापा घटा कर उन्हें सुडौल बनाता है, वह सब अनुकूलन के अन्तर्गत होता है जो प्रकृति की हर चीज़, हर आयाम में नज़र आता है । अनुकूलन यानी सहज हो जाना । सहजता ही स्थायी है, सहजता में ही प्रवाह है और सहजता ही जीवन है । जीवन यानी गति, प्रवाह । प्रकृति के अर्थ से ही सब कुछ स्पष्ट है । प्रकृति यानी जो मूल है , पहले से है । अपने मूल रूप में ही कोई चीज़ सहज रहती है । इस मूल वस्तु में प्रकृति के विभिन्न रूपाकारों के साहचर्य से निरन्तर बदलाव होता है जिसका आधार ही अनुकूलन है । भाषा पर समाज और भूगोल का बड़ा प्रभाव पड़ता है । मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार भाषा की खोज है । विभिन्न मानव समुदायों में ध्वनियों के उच्चारण भी भिन्न होते हैं । मनुष्य ने ध्वनि-समूहों को पहचाना और फिर शब्दों के रूपान्तर सहज हो गए । क्ष का रूपान्तर क, ख, श हो सकता है । का रूपान्तर में हो सकता है । का रूपान्तर में हो सकता है और का रूपान्तर , में हो सकता है । के में बदलने का क्रम भारत से ब्रिटेन तक एक सा है । दिलचस्प रूपान्तरों के हजारों उदाहरण हमें बोलचाल की भाषा में मिलते हैं ।
त्सम या संस्कृत मूल के शब्द जब आमजन की अभिव्यक्ति का हिस्सा बनने लगते हैं तो लोकबोली का प्रवाह उन शब्दों के जड़ स्वरूप को गतिमान बनाता है । लोक में प्रचलित कितने ही शब्दों का मूल जानकर अचरज होता है कि काल के प्रवाह में ये कितने बदल गए । और यह बात भी ध्यान आती है कि ये न बदलते तो बोली-भाषा का अभिन्न अंग भी न बन पाते । अन्यमनस्कता के लिए उचाटपन शब्द का इस्तेमाल भी हो सकता है पर लोकमानस ने सामान्य संवाद के लिए अन्यमनस्कता को बरसों पहले एकतरफ़ रख कर अनमना शब्द बना लिया था । तब क्या हमें अन्यमनस्कता के गायब हो जाने का स्यापा करना चाहिए ? गौर करें कि यह अनमना शब्द भी अन्यमनस्कता से ही जन्मा है । हाँ, साहित्यिक लिखत-पढ़त में अथवा शिष्टसंवाद के लिए संस्कृतनिष्ठ, तत्सम प्रभाव वाला अन्यमनस्कता शब्द भी स्मृति से लुप्त नहीं हुआ है और व्यवहार में बना हुआ है ।
ध्यान रहे अन्यमनस्कता में मुख्य तत्व मन का है । जिसका जी किसी एक जगह न लगता हो । बार-बार ध्यान भंग होता है, कहीँ और भटकता हो । मन का कहीं ओर भटकना ही अनमनापन है । अन्य में इतर, कहीं ओर, भिन्न आदि भाव हैं । मन का कहीं ओर जाना ही अन्यमनस्कता है । हिन्दी में एक और ऐसा ही शब्द है वैमनस्य जिसका प्रचलित अर्थ शत्रुता, द्वेषभाव, बैरी होना है। यह बना है संस्कृत के विमन से । इसका फ़ारसी रूप बेमन है । ध्यान रहे संस्कृत के वि उपसर्ग का फ़ारसी रूप बे होता है । विमन में म्लान, कुम्हलाया हुआ, खिन्न, उदास, निष्चेष्ट, क्लांत जैसे भाव हैं । लगभग यही बात बेमन में है । हिन्दी के तत्सम शब्द बोली-भाषा में अलग रूप लेते हैं जिसकी कुछ जानी-पहचानी प्रवृत्तियाँ हैं । मिसाल के तौर पर व का ब हो जाना बेहद आम है । यह अनुकूलन के लिए ही होता है ।
सैकड़ों उदाहरण हैं- वेद > बेद । वैद्यनाथ > बैजनाथ । सामान्यतौर पर द्वि की वृत्ति दु में बदलने की है । यह नज़र आता है द्विवेदी के दुबे रूपान्तर में । इसी तरह अच्छा-भला विष्णु बन जाता है बिशन । वञ्क का टेढ़ापन बाँका बन कर नमूदार होता है । वातिंगण > बैंगन । वात > बादी । विमान > बिमान > बेवान । वन > बन । वट > बड़ । वामन > बौना । वकील > बोकील । वाराणसी > बनारस । विकार > बुखार । विष्ट > बीट । वल्लभ > बल्लभ । वाल्मीकि > बाल्मीकी > बामी । वीणा > बीन । वचन > बयन > बैन । विना > बिना > बिन । स्पष्ट है कि हिन्दी की बोलियों ने तत्सम शब्दावली के विमन की तुलना में फ़ारसी बे उपसर्ग लगने से बने बेमन को अपनाया क्योंकि यूँ भी विमन को बेमन होना ही था, जो बरास्ता फ़ारसी मिल गया । वैमनस्य के भीतर का विमन मनमुटाव और उससे भी बढ़कर द्वेष का भाव धारण कर रहा है जबकि स्वतन्त्र रूप में विमन अन्यमनस्कता, उचाटपन या खिन्नता को उजागर कर रहा है ।
संस्कृत के उच्चाटन का अर्थ है स्थायी भाव मिटाना । वर्तमान परिस्थिति को भंग कर देना । उखाड़ना, हटाना आदि । विरक्ति, उदासीनता या अनमनेपन के लिए आम तौर पर हम जिस उचाट, दिल उचटने की बात करते हैं उसके मूल में संस्कृत का उच्चट शब्द है जो उद् और चट् के मेल से बना है । उद्+चट् की संधि उच्चट होती है । उद यानी ऊपर, चट् यानी छिटकना, अलग होना, पृथक होना आदि । उच्चाटन भी इसी उच्चट से ही बना है जिसका अर्थ हुआ उखाड़ फेंकना, जड़ से मिटाना, निर्मूल करना आदि । आग में लकड़ी के जलने की चट्-चट् आवाज़ होती है जो लकड़ी की ऊपरी परत के अलग होने से पैदा होती है । गाल पर पड़े थप्पड़ को चाँटा कहते हैं जिसका मूल यही चट् है । जिस प्रहार को गाल पर जड़ने से चटाक की आवाज़ आती है उस क्रिया को चाँटा कहा गया ।
धीरता दिखाते हुए कुछ भी खाने की क्रिया को चलती बोली में भकोसना कहते हैं । भकोसना की अर्थवत्ता इतनी सशक्त है कि बिना चबाए, हप-हप कर खाते व्यक्ति का चित्र सामने आ जाता है । आहार ग्रहण करने, खाना खाने, भोजन करने की की सामान्य क्रिया को संस्कृत में भक्षण कहते हैं । हिन्दी की अल्प प्रचलित तत्सम शब्दावली में भी भक्षण शब्द इसी अर्थ में मगर कुछ नाटकीय अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है । आहार ग्रहण करने की अतिमानवीय क्रिया का आभास कराती है भक्षण का प्रयोग । यही नाटकीय अभिव्यक्ति साकार हुई लोकभाषा में और भक्षण > भकसन > भकोसन रूप में सामने आई । इसका एक अन्य रूप भकोसना हुआ । गौर करें अनगढ़ पत्थर या चट्टान पर । अगर ये किसी बहती धारा के रास्ते में हैं तो निश्चित ही समय के साथ इनका आकार चिकना, सुघड़ होता चला जाता है । पानी की धार ने निर्बाध बहने के लिए पत्थर की खुरदुरी सतह को चिकना कर दिया । इसे यूँ भी कह सकते हैं कि पत्थर ने अपनी कठोर सतह को घिस जाने दिया । शब्दों के साथ भी ऐसा ही होता है । भाषा के बहते नीर में घिस-घिस कर शब्दों के सालिगराम ( शालिग्राम) बनते हैं । यही अनुकूलन है ।

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Sunday, May 27, 2012

तकिये की ताक़त

pillowsसम्बन्धित कड़िया-1.बलाए-ताक नहीं, बालाए-ताक सही 2.ठठेरा और उड़नतश्तरी
मारे लिए भाषा संवाद का जरिया होती है, अर्थ जानने का नहीं । संवादों के जरिए समूचे मनोगत को अभिव्यक्ति मिलती है न कि शब्दार्थ को । शब्द विशिष्ट अर्थ को प्रकट करते हैं । वाक्यांश में उनके संदर्भ बहुधा भिन्न होते हैं । अक्सर ऐसा भी होता है कि अपनी मूल भाषा में व्यापक अर्थवत्ता वाले शब्द किसी दूसरी भाषा में पहुँचकर किसी एक ही अर्थ को ध्वनित करने लगते हैं अर्थात रूढ़ हो जाते हैं । इसीलिए हम किन्हीं शब्दों का सही-सही अर्थ न जानने के बावजूद उन्हें वाक्यों में प्रयोग करते हैं । ऐसा ही एक शब्द है तकिया । सिरहाने के लिए उपयोग में आने वाला छोटे गद्दी के लिए बेहद आम शब्द है तकिया । संस्कृत में इसके लिए उपधान या उच्छीर्षक शब्द हैं । उद् यानी उठान, ऊपर आदि । शीर्ष(क) यानी सिर, उच्च । मोनियर विलियम्स उच्छीर्षक प्रविष्टि में इसका अर्थ " that which raises the head " , a pillow अर्थात “वह जो सिर को ऊपर उठाए यानी तकिया” बताते हैं । गौरतलब है कि मराठी में तकिया के लिए उशी शब्द है और इसका जन्म उच्छीर्षक से हुआ है । वैसे बोलचाल में तकिया के लिए सिरहाना शब्द भी चलता है ।

किया की आमद हिन्दी में फ़ारसी से हुई है और इसका सही रूप है तक्या takya जो हिन्दी में दीर्घीकरण के चलते तकिया हो गया । तकिया शब्द हिन्दी में फ़ारसी से आया, इसके अलावा शब्दकोशों इसके बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं देते हैं । तकिया के उपयोग पर गौर करें तो पाएँगे कि यह मूलतः सिर को सहारा देता है । सोते समय या टिक कर बैठते समय सिर को पीछे जाने से रोकने का आधार बनता है तकिया । यूँ भी कह सकते हैं कि तकिया सिर को ऊपर उठाता है । इस तरह स्पष्ट है कि तकिया शब्द में मुलायमियत, गद्देदार या नरमाई का लक्षण महत्वपूर्ण नहीं है । सभ्यता के शुरुआती दौर में मानव पत्थर का तकिया इस्तेमाल करता था, ऐसे प्रमाण पुरातात्विक स्थलों पर मिले हैं । चूँकि विश्राम अवस्था में गद्देदार वस्तुएँ ही काया को सुख पहुँचाती हैं, इसलिए कालांतर में चमड़े की थैलियों में घास-फूस भर कर तकिए बनाए जाते थे । उसके बाद कपड़े की खोल में रुई रुई वाले तकिये आम हो गए । तकिया की रिश्तेदारी हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी, अरबी भाषाओं में मौजूद कई अन्य शब्दों से भी जुडती है जैसे ताक़ यानी आला, आलम्ब, म्याल अथवा मेहराब । शक्ति के अर्थ में ताक़त भी इसी कड़ी में है । मुतक्का यानी आलम्ब या सहारा भी इसी क़तार में खड़ा नज़र आता है ।

मेरे विचार में तकिया के मूल में इंडो-ईरानी भाषा परिवार की तक्ष् क्रिया है । सबसे पहले फ़ारसी तक्या या हिन्दी तकिया का अर्थ-विस्तार देखते हैं । हिन्दी शब्दसागर में पिलो, कुशन के अर्थ से इतर तकिया की कुछ अन्य अर्थछटाएँ भी दी गई हैं जैसे पत्थर की वह पटिया जो छज्जे को रोक या सहारे के लिए लगाई जाती है । इसे हम मेहराब के उदाहरण से समझ सकते हैं । तकिया यानी वह स्थान जहाँ विश्राम या आराम किया जाए । ध्यान रहे, किसी भी इमारत की छत को धनुषाकार मेहराब ही थामती है । पत्थरों में उत्कीर्ण मेहराब की रचना के लिए अरबी में ताक़ शब्द के प्रयोग से ऐसा लगता है कि ताक़ शब्द का रिश्ता वैदिक शब्दावली के तक्ष से है जिसमें उत्कीर्ण करने, काटने, तराश कर आकार देने जैसे भाव हैं । सम्भव है तक्ष से ही फ़ारसी का ताक बना हो और मेहराब के अर्थ में अरबी ने भी इसे आज़माया हो । हिन्दी में आमतौर पर ताक tak शब्द का प्रयोग होता है जो अरबी का शब्द है
ll …तकिया यानी आश्रय, आरामगाह, सुकूँ की जगह, ठहराव…तकिया वह जो सहारा दे, अवलम्ब बने…किसी भी जगह को सिर ढकने लायक बनाने वाली रचना यही मेहराब होती है जिसे ताक़ कहते हैं…. ताक़ की ताक़त पर ही छत टिकती है…ताक़ से ही तकिया यानी आश्रय बनता हैll
मगर इसका मूल फ़ारसी है । अरबी के ताक़ taq का अर्थ है मेहराब । वो घुमावदार कमानीनुमा आधार जिस पर किसी भी भवन की छत टिकी रहती है । वह अर्धचन्द्राकार रचना जो छत को ताक़त प्रदान करती है, उसे थामे रखती है । ताक़ में यही भाव है । हिन्दी में आने के बाद ताक़ शब्द में आला अर्थात दीवार में सामान रखने के लिए बनाया जाने वाला खाली स्थान, आला आदि और उसे भी कमानीदार, मेहराबदार आकार में बनाया जाता था । खास भात यही कि किसी भी जगह को सिर ढकने लायक बनाने वाली रचना यही मेहराब होती है जिसे ताक़ कहते हैं । ताक़ की ताक़त पर ही छत टिकती है । ताक़ से ही तकिया यानी आश्रय बनता है ।

ध्यान रहे, अरबी में एक शब्द है मुतक्का या मुत्तका जिसका अर्थ है सहारा, टेक लगाना, अवलम्ब, रोक, खम्भा, पिलर आदि । मुतक्का के मूल में अरबी का तक़ा शब्द है जिसमें सामर्थ्य, शक्ति, ऊर्जा, क्षमता का भाव है । अरबी का ताक़त शब्द इसी मूल का है और ताक़ से उसकी रिश्तेदारी है । ध्यान रहे, ताक़ चाहे, फ़ारसी मूल का हो, मगर शक्ति, ताक़त के अर्थ वाला तक़ा भी निश्चित तौर पर इससे ही बना है और इस तरह इस तरह अरबी का ताक़ जो फ़ारसी से ही गया है और फ़ारसी का तक्या दरअसल एक ही हैं । दोनों का अर्थ समान है और ध्वनि साम्य भी है । तक्या यानि तकिया में आश्रय का अर्थ भी है और विश्राम लेने के स्थान का बोध भी इससे होता है । आनंदकुमार के प्रसिद्ध उपन्यास “बेगम का तकिया” में यही तकिया है । कब्रिस्तान की जगह भी तकिया कहलाती है और कब्रिस्तान में किसी फ़क़ीर के आश्रयस्थल को भी तकिया कहा जाता है । स्पष्ट है कि सिर के नीचे इस्तेमाल होने वाले जिस तकिया से हम सबसे ज्यादा परिचित हैं उसमें मूल भाव सहारे का है , आराम का है । क्रब्रिस्तान अपने आप में आश्रय है जिस्म छोड़ चुकी रूहों का इसलिए उसे तकिया कहते हैं । कब्रिस्तान में जिस फ़क़ीर ने डेरा डाला वह उसकी आरामगाह है, शरणस्थली है, सहारा है इसीलिए फ़कीर, दरवेश को तकियादार या तकियानशीं भी कहते हैं । तकिया शब्द में मुहावरेदार अर्थवत्ता है- जैसे तकिया करना यानी सहारा करना । साक़िब लखनवी का मशहूर शेर देखिए- “बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मेरे । जिनपे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे ।।” भोपाल में बड़ी झील के बीच तकिया टापू बेहद खूबसूरत जगह है । यहाँ एक बाका तकियाशाह की मज़ार है । –जारी

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Monday, February 27, 2012

सफ़र के दूसरे पड़ाव का विमोचन

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फ़र के सभी साथियों को बहुत बहुत बधाइयाँ । आप सबकी सहभागिता और शुभकामनाओ से शब्दों का सफ़र के दूसरे पड़ाव यानी दूसरा खण्ड छप कर तैयार है और आज दिल्ली के इंडिया इंटरनैशनल सेंटर में हिन्दी के ख्यात साहित्यकारों और अन्य गणमान्य लोगों की मौजूदगी में इसका विमोचन होना है । शब्दों का सफर शुरू से  शब्दव्युत्पत्ति-विवेचना को अकादमिक बोझिलता से बचाते हुए आमफ़हम हिन्दी भाषी तक पहुँचाने की अपनी ईमानदार पहल और विषय आधारित प्रस्तुतियों के लिए जाना जाता रहा है ।
skswbfब्दों का सफ़र का न सिर्फ़ स्वागत हुआ बल्कि शब्द व्युत्पत्ति और विवेचना की पद्धति को लोगों ने भरपूर सराहा । खुशी की बात है कि भाषाविज्ञान पढ़ाने वाले या पढ़ा चुके वरिष्ठ हिन्दी प्राध्यापकों ने भी शब्दों का सफ़र को प्रोत्साहित किया । साथियों के आग्रह पर वर्ष 2011 में शब्दों का सफ़र का पहला पड़ाव हिन्दी के सबसे पड़े प्रकाशन समूह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ । इसी वर्ष सफ़र के दूसरे पड़ाव की पाण्डुलिपि को राजकमल प्रकाशन का प्रतिष्ठित कृति-पाण्डुलिपि सम्मान भी प्राप्त हुआ । किसी भी कृति के लिए प्रकाशन-वर्ष के भीतर पहली आवृत्ति का समाप्त हो जाना उसकी कामयाबी का पैमाना होता है । प्रकाशन के सात माह के भीतर सफ़र की सभी प्रतियों को पाठकों ने हाथों हाथ अपने संग्रह में सहेज लिया । दूसरी आवृत्ति भी अगस्त 2011 के अन्त तक बाज़ार में आ गई । ...और अब 2012 की 28 फ़रवरी को सफ़र का दूसरा पड़ाव ( पहली आवृत्ति ) बस आपके हाथों में पहुँचने ही वाला है ।
 पाण्डुलिपि में भरपूर सावधानियाँ बरतने के बावजूद इसमें कमियाँ रह गई होंगी । विता, कहानी या उपन्यास की तुलना में सन्दर्भ-रचना के हर चरण में मुश्किल आती है, इस तथ्य के मद्देनज़र आप उदारतापूर्वक इस रचना- प्रयास का हमेशा की तरह स्वागत करेंगे, यह अपेक्षा है । सुधार लगातार चलती रहने वाली प्रक्रिया है । आप सबके उत्साहवर्धन से सफ़र लगातार आगे बढ़ रहा है ।
[दाएँ-विश्व पुस्तक मेला में “शब्दों का सफर”]

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