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Friday, January 15, 2016

सुब्हान तेरी कुदरत यानी ‘सुभानअल्ला’



मो हतसिब तस्बीह के दाने पे ये गिनता रहा
किन ने पी, किन ने न पी, किन किन के आगे जाम था

मुमकिन है इस मशहूर शेर को पढ़ कर आप सुभानअल्ला कह उठें। ये है ही इस लायक। पर आप ‘सुभानअल्ला’ ये सुनकर भी कहेंगे कि ‘तस्बीह’ और ‘सुभान’ दोनो बहन-भाई हैं। ‘सुभानअल्ला’ को बतौर प्रशस्तिसूचक अव्यय हिन्दी में भी बरता जाता है। यूँ इसका प्रयोग विस्मयकारी आह्लाद प्रकट करने के लिए भी होता है। यह लगभग ‘क्याब्बात’, ‘अद्भुत’ या ‘ग़ज़ब’ जैसा मामला है। यूँ सुभानअल्ला में बहुत अच्छा, धन्य-धन्य अथवा वाह-वाह जैसी बात है। ऐसा भी कह सकते हैं कि सुभानअल्ला में vow factor भी है। जानते हैं सुभानअल्ला की जन्मकुण्डली।

सुभानअल्ला अरबी से बरास्ता फ़ारसी हिन्दी में आया है। यह एक शब्द नहीं बल्कि संयुक्त पद है। मूल रूप से अरबी का ‘सुब्हान’ ही हिन्दी में सुभान बन कर ढल गया। अरबी सुब्हान बना है त्रिवर्णी मूलक्रिया सबाहा ح ب س
यानी सीन-बा-हा से जिसमें परमेश्वर के गुणगान और प्रशस्ति का भाव है। इसका ही विकसित रूप है सुब्हान سبحان (सीन बा हा अलिफ़ नून) जिसका फ़ारसी रूप सोब्हान होता है और हिन्दी सुभान।

दरअसल सबाहा यानी सीन-बा-हा में जो मूल भाव है उसमें अनंत का भाव है मसलन विशाल जलराशि में तैरना, वह सब जो दृष्टिपटल के सामने है, जो नज़रों में है उसके वैभव को अनुभव करना। तैरते हुए देखने के इस भाव को हिन्दू संस्कृति में संसार को भवसागर मानने के रूपक से समझा जा सकता है। उस अनंत को निहारना, उसकी विशालता को अनुभव करते हुए उसमें बने रहने का भाव ही सबाहा का मूल है। और हासिल ? हासिल वह है जो बलदेवप्रसाद मिश्र की इस कविता के ज़रिये ज़ाहिर होता है-

जिस ओर निगाहें जाती हैं
उसके ही दर्शन पाती हैं
सम्पूर्ण दिशाएं सुख -सानी
उसका ही गौरव गाती हैं
तो सबाह से बने सुब्हान में सचमुच सुब्हान तेरी कुदरत का ही आशय है। प्रकृति से कोई पार नहीं पा सका है। प्रकृति ही ईश्वर है। जो कुछ हमने नहीं रचा, पर जो सब हमारे लिये है। ऐसी अनुभूति के बाद अगर सुभानअल्ला जैसी उक्ति ही निकलती है।

इसी सबाहा से विकसित हुआ एक और शब्द है तस्बीह यानी सुमिरनी जिसका जन्म सुमिरन से हुआ। विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में नाम स्मरण की परम्परा रही है। इस्लाम में भी नाम स्मरण का रिवाज़ है। परम्परा के अनुसार सुमिरनी को हाथ में पकड़ कर उस पर एक छोटी सफेद थैली डाल ली जाती है। तर्जनी उंगली और अंगूठे की मदद से नाम स्मरण करते हुए सुमिरनी के दानों को लगातार आगे बढ़ाया जाता है। सुमिरनी दरअसल एक उपकरण है जो नामस्मरण की आवृत्तियों का स्मरण भक्त को कराती है।

संस्कृत के स्मरण से विकसित है सुमिरन। स्मरण > सुमिरण > सुमिरन के क्रम में इसका विकास हुआ। पंजाबी में इसका रूप है ‘सिमरन’ जहाँ प्रॉपर नाऊन की तरह भी इसका प्रयोग होता है। व्यक्तिनाम की तरह स्त्री या पुरुष के नाम की तरह सिमरन का प्रयोग होता है। बहुतांश हिन्दीवाले पंजाबी के ‘सिमरन’ की संस्कृत के ‘स्मरण’ से रिश्तेदारी से अनजान हैं क्योंकि सुमिरन की तरह से पंजाबी के सिमरन का प्रयोग हिन्दीवाले नहीं करते हैं बल्कि उसे सिर्फ व्यक्तिनाम के तौर पर ही जानते हैं। स्मरण शब्द बना है संस्कृत की ‘स्मर्’ धातु से। मोनियर विलियम्स के संस्कृत इंग्लिश कोश के मुताबिक स्मर् में याद करना, न भूलना, कंठस्थ करना, याददाश्त जैसे भाव हैं। अंग्रेजी के मेमोरी से इसकी रिश्तेदारी है। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक लैटिन के मैमॉर् अर्थात स्मृति में ‘मर्’ के स्थान पर मॉर है। संस्कृत के स्मर, स्मरण, स्मृति में स-युक्त यही मर् है।

तो जब कभी किसी अनिवर्चनीय अनुभव से गुज़रें, किसी अनोखेपन के लिए मुँह से प्रशस्तिसूचक ‘वाह’ निकले तो सुभानअल्ला कहने में गुरेज़ न करें। और हाँ, खुदा की कुदरत को भी सुब्हान कहें और “मेरे महबूब को किसने बनाया” ये पहेली खुदा को बूझने दीजिए।
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Wednesday, January 2, 2013

क़िस्त दर क़िस्त…

Money
हि न्दी के बहुप्रयुक्त शब्दों में क़िस्त का भी शुमार है हालाँकि अक्सर ज्यादातर लोग ‘क़िस्त’ को ‘किश्त’ लिखने और बोलने के आदी हैं । ‘प्रसाद’ तथा ‘सौहार्द’ के ग़लत रूप ( प्रशाद, सौहार्द्र ) भी इसी तरह ज्यादा प्रचलित हैं । हिन्दी में क़िस्त का आशय हिस्सा, भाग, आंशिक भुगतान, होता है । इसके अलावा इसमें न्याय या इन्साफ़ की अर्थवत्ता भी है । यूँ तो क़िस्त शब्द हिन्दी में बरास्ता फ़ारसी आया है और शब्दकोशों में इसकी हाजिरी अरबी के खाते में नज़र आती है । यह बहुरूपिया भी है और यायावर भी । खोज-बीन करने पर अरबी के कोशों में इसे ग्रीक भाषा का मूलनिवासी माना गया है । देखते हैं किस्त की जनमपत्री । 

हिन्दी में किस्त का सर्वाधिक लोकप्रिय प्रयोग कई हिस्सों में भुगतान के लिए होता है । आजकल इसके लिए इन्स्टॉलमेंट या इएमआई शब्द भी प्रचलित हैं मगर किस्त कहीं ज्यादा व्यापक है । भुगतान-संदर्भ के अलावा मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश के अनुसार किस्त में सामान्य तौर पर किसी भी चीज़ का अंश, हिस्सा, टुकड़ा, portion या भाग का आशय है । अरबी कोशों में अंश, हिस्सा, पैमाना, पानी का जार या न्याय जैसे अर्थ मिलते हैं । न्याय में निहित समता और माप में निहित तौल का भाव किस्त में है और इसीलिए कहीं कहीं किस्त का अर्थ न्यायदण्ड या तुलादण्ड भी मिलता है । 

बसे पहले क़िस्त के मूल की बात । अरबी कोशों में क़िस्त को अरबी का बताया जाता है जिसकी धातु क़ाफ़-सीन-ता (ق س ط) है । हालाँकि अधिकांश भाषाविद् अरबी क़िस्त का मूल ग्रीक ज़बान के ख़ेस्तेस से मानते हैं जिसका अर्थ है माप या पैमाना । लैटिन ( प्राचीन रोम ) में यह सेक्सटैरियस (Sextarius) है । ग्रीक ज़बान का ख़ेस्तेस, लैटिन के सेक्सटैरियस का बिगड़ा रूप है । यूँ ग्रीक भाषा लैटिन से ज्यादा पुरानी मानी जाती है मगर भाषाविदों का कहना है कि सेक्सटैरियस रोमन माप प्रणाली से जुड़ा शब्द है । यह माप पदार्थ के द्रव तथा ठोस दोनों रूपों की है । सेक्सटेरियस दरअसल माप की वह ईकाई है जिसमें किसी भी वस्तु के 1/6 भाग का आशय है । समूचे मेडिटरेनियन क्षेत्र में मोरक्को से लेकर मिस्र तक और एशियाई क्षेत्र में तुर्की से लेकर पूर्व के तुर्कमेनिस्तान तक ग्रीकोरोमन सभ्यता का प्रभाव पड़ा । खुद ग्रीक और रोमन सभ्यताओं ने एक दूसरे को प्रभावित किया इसीलिए यह नाम मिला । 

सेक्सटैरियस में निहित ‘छठा भाग’ महत्वपूर्ण है जिसमें हिस्सा या अंश का भाव  तो है ही साथ ही इसका छह भी खास है । दिलचस्प है कि सेक्सटैरियस में जो छह का भाव है वह दरअसल भारोपीय धातु सेक्स (seks ) से आ रहा है । भाषाविदों का मानना है कि संस्कृत के षष् रूप से छह और षष्ट रूप से छट जैसे शब्द बने  । अवेस्ता में इसका रूप क्षवश हुआ और फिर फ़ारसी में यह शेश हो गया । ग्रीक में यह हेक्स हुआ तो लैटिन में सेक्स, स्लोवानी में सेस्टी और लिथुआनी में सेसी हुआ । आइरिश में यह छे की तरह ‘से’ है । अंग्रेजी के सिक्स का विकास जर्मनिक के सेच्स sechs से हुआ है । सेक्सटैरियस का बिगड़ा रूप ही ग्रीक में खेस्तेस हुआ । खेस्तेस की आमद सबसे पहले मिस्र मे हुई। 

मझा जा सकता है कि इसका अरब भूमि पर प्रवेश इस्लाम के जन्म से सदियों पहले हो चुका था क्योंकि अरब सभ्यता में माप की इकाई को रूप में क़िस्त का विविधआयामी प्रयोग होता है । यह किसी भी तरह की मात्रा के लिए इस्तेमाल होता है चाहे स्थान व समय की पैमाईश हो या ठोस अथवा तरल पदार्थ । हाँ, प्राचीनकाल से आज तक क़िस्त शब्द में निहित मान इतने भिन्न हैं कि सबका उल्लेख करना ग़ैरज़रूरी है । खास यही कि मूलतः इसमें भी किसी पदार्थ के 1/6 का भाव है जैसा कि पुराने संदर्भ कहते हैं । आज के अर्थ वही हैं जो हिन्दी-उर्दू में प्रचलित हैं जैसे फ्रान्सिस जोसेफ़ स्टैंगस के कोश के अनुसार इसमें न्याय, सही भार और माप, परिमाप, हिस्सा, अंश, भाग, वेतन, किराया, पेंशन, दर, अन्तर, संलन, संतुलन, समता जैसे अर्थ भी समाए हैं । क़िस्त में न्याय का आशय भी अंश या भाग का अर्थ विस्तार है । कोई भी बँटवारा समान होना चाहिए । यहाँ समान का अर्थ 50:50 नहीं है बल्कि ऐसा तौल जो दोनों पक्षों को ‘सम’ यानी उचित लगे । यह जो बँटवारा है , वही न्याय है । इसे ही संतुलन कहते हैं और इसीलिए न्याय का प्रतीक तराजू है । 

हाँ तक क़िस्त के किश्त उच्चार का सवाल है यह अशुद्ध वर्तनी और मुखसुख का मामला है । वैसे मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश में किश्त का अलग से इन्द्राज़ है । किश्त मूलतः काश्त का ही एक अन्य रूप है जिसका अर्थ है कृषि भूमि, जोती गई ज़मीन आदि । काश्तकार की तरह किश्तकार का अर्थ है किसान और किश्तकारी का अर्थ है खेती-किसानी । किश्तः या किश्ता का अर्थ होता है वे फल जिनसे बीज निकालने के बाद उन्हें सुखा लिया गया हो । सभी मेवे इसके अन्तर्गत आते हैं । किश्त और काश्त इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है । फ़ारसी के कश से इसका रिश्ता है जिसमें आकर्षण, खिंचाव जैसे भाव हैं । काश्त या किश्त में यही कश है । गौर करें ज़मीन को जोतना दरअसल हल खींचने की क्रिया है । कर्षण यानी खींचना । आकर्षण यानी खिंचाव । फ़ारसी में कश से ही कशिश बनता है जिसका अर्थ आकर्षण ही है ।
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Monday, October 29, 2012

रफूगरी, रफादफा, हाजत-रफा

पिछली कड़ियाँ- 1.‘बुनना’ है जीवन.2.उम्र की इमारत.3.‘समय’ की पहचान.darn 4. दफ़ा हो जाओ 

हि न्दी की अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ाने में विदेशज शब्दों के साथ-साथ युग्मपद और मुहावरे भी है शामिल हैं । रफ़ा-दफ़ा ऐसा ही युग्मपद है जिसका बोलचाल की भाषा में मुहावरेदार प्रयोग होता है । “रफ़ा-दफ़ा करना” यानी किसी मामले को निपटाना, किसी झगड़े को सुलझाना, विवादित स्थिति को टालना, दूर करना । रफ़ा-दफ़ा में नज़र आ रहे दोनो शब्द अरबी के हैं । यहाँ ‘दफ़ा’ का अर्थ ढकेलने, दूर करने से है । इसकी विस्तृत अर्थवत्ता के बारे में पिछली कड़ी में बात की जा चुकी है । रफा ( रफ़ा ) का मूल अरबी उच्चारण रफ़्अ है । फ़ारसी में भी इसका ‘रफ़्अ’ रूप ही इस्तेमाल होता है
फ्अ शब्द की अरबी धातु रा-फ़ा-ऐन ر-ف-ع है जिसमें मूलतः उन्नत करने, सुधारने, ठेलने का भाव है । अरबी क्रियापद है रफ़ाआ जिसमें मरम्मत करना, सुधारना, सीना, ठीक करना, उन्नत करना, तब्दील करना, हटाना जैसे भाव हैं । रफ़ा-दफ़ा में यही भाव है । आमतौर पर हाज़त-रफ़ा पद का प्रयोग भी शौच जाने के अर्थ में उत्तर भारत में इस्तेमाल होता है । जैसे “उनके लिए सुबह सुबह हाजत-रफा करना बड़ा मुश्किल काम था” । इसी कड़ी में आता है ‘रफू’ या ‘रफ़ू’ शब्द । सिलेसिलाए वस्त्र में खोंच लगने पर रफ़ू किया जाता है । इसक अन्तर्गत फटे हुए स्थान की खास तरीके से मरम्मत की जाती है । इसमें बारीक सुई से, जिस कपड़े की मरम्मत होनी है, उसी के अनावश्यक टुकड़े और धागे निकाल कर फटे हुए स्थान को इस खूबी से सिला जाता है कि सिलाई का पता नहीं चलता । यह सिलाई का हुनर है कि मरम्मतशुदा हिस्सा भी कपड़े के टैक्सचर ( बुनावट ) से मेल खाता लगता है ।
रअसल फटे कपड़ों की मरम्मत से विकसित हुई सिलाई की खास तकनीक ने धीरे धीरे कला का रूप ले लिया । फ़ारस में इसका विकास हुआ और मरम्मत के सामान्य उपाय से रफ़ू एक कलाविधा बन गई । फ़ारसी में इसे रफ़ूगरी कहते हैं । रफ़ूगरी यानी रफ़ूकारी । फ़ारसी में ‘करने’ के संदर्भ में ‘गरी’ और ‘कारी’ प्रत्यय प्रचलित हैं । भारोपीय भाषाओं में ‘क’ का रूपान्तर ‘ग’ वर्ण में होता है । वैदिक क्रिया ‘कृ’ इसके मूल में है जिसमें करने का भाव है । इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में इनका प्रयोग देखने को मिलता है जैसे - कर ( बुनकर ) , कार ( कर्मकार, कलाकार, कुम्भकार ) , कारी ( कलाकारी , गुलकारी , फूलकारी ) , गार ( गुनहगार, रोज़गार ), गर ( रफ़ूगर, कारीगर, बाजीगर ) , गरी ( कारीगरी, रफ़ूगर, बाजीगरी ) आदि उदाहरण आम हैं । सो खोंच से बने छिद्र को उसी वस्त्र के टुकड़े और उसी के धागे से पूरने, भरने, बराबर करने की हुनरकारी ही रफ़ूगरी है । इस मुक़ाम पर रफ्अ में निहित सुधारने, उन्नत करने जैसे भावों को समझना आसान होगा ।
फ़ूगरी का कला के रूप में इतना विकास हुआ कि न सिर्फ़ फटे कपड़े की मरम्मत बल्कि गोटा-किनारी कशीदाकारी, फुलकारी जैसे सजावटी हुनर के रूप में भी कपड़ों को खूबसूरत बनाने में रफ़ूगरी का उपयोग होने लगा । सामान्य समस्या से निपटने की तरकीबें कैसे मूल्यवान हो जाती हैं, यह जानना दिलचस्प है । फटे कपड़े की मरम्मत थिगला लगा कर भी होती है । यह थिगला आज पैचवर्क जैसी कलाविधा के रूप में मशहूर है जो रफ़ूगरी का ही एक रूप है । रफ़ू का महत्व इतने पर ही खत्म नहीं हुआ । रफ्अ में सुधारना, उन्नत करना जैसे भावों के चलते ही रफ़ू शब्द का प्रयोग वाग्मिता या वक्तृत्व कला में भी होने लगा है । बातों के बाजीगरों को रफ़ूगरी भी आनी चाहिए । अपने तर्कों से दो असम्बद्ध बातों को मिला देना या वाक्पटुता के चलते अलग-अलग पटरी पर चल रहे वार्तलाप को सही दिशा में ले आना या विवाद को खत्म करना इसी रफ़ूगरी में आता है । ऐसे लोगो की वजह से ही ज़बानी विवाद रफ़ा-दफ़ा हो पाते हैं । कुल मिलाकर यह भी उन्नत तकनीक का मामला है ।
शब्द का इस्तेमाल एक अन्य लोकप्रिय युग्मपद में भी बखूबी नज़र आता है । रफूचक्कर या रफ़ूचक्कर भी हिन्दी का लोकप्रिय मुहावरा है जिसका अर्थ है चम्पत हो जाना, भाग जाना अथवा गायब हो जाना । रफ़ू की अर्थवत्ता समझ लेने के बाद रफ़ूचक्कर को समझना कठिन नहीं है । खोंच लगे स्थान पर रफ़ू करने के दो तरीके होते हैं । छोटा खोंच है तो उसी वस्त्र के धागे से सिलकर छिद्र को भर दिया जाता है । खोंच बड़ा है तो फटे स्थान पर उसी कपड़े का थिगला लगा कर गोलाई में रफ़ू कर दिया जाता है । माना जा सकता है कि चकरीनुमा इस थिगले से ही रफ़ूचक्कर शब्द निकला होगा । रफ़चक्कर में खोंच के गायब हो जाने के भाव का विस्तार है । इसका प्रयोग किसी भी चीज़ के देखते देखते ग़ायब हो जाने में होने लगा । चोरों और उठाईगीरों के सन्दर्भ में आज  रफ़ूचक्कर का इस्तेमाल ज्यादा होता है ।

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Monday, August 13, 2012

षड्यन्त्र का पर्दाफ़ाश

SKULL
हि न्दी की तत्सम शब्दावली के सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले शब्दों में ‘षड्यन्त्र’ का शुमार होता है । षड्यन्त्र के साथ सबसे खास बात यह है कि अपनी मूल प्रकृति में यह शब्द तत्सम शब्दावली का होते हुए भी इसका इन्द्राज संस्कृत के किसी कोश में नहीं मिलता । षड्यन्त्र यानी साजिश, भेद, अहितकर्म, फँसाना, अनिष्ट साधन, साँठगाँठ, कपट, भीतरी चालबाजी, दुरभिसन्धि, कुचाल, जाल बिछाना, दाँवपेच या कांस्पिरेसी इत्यादि । सभ्यता के विकास के साथ-साथ समाज में पेचीदापन बढ़ता रहा है । हर चीज़ में राजनीति का दखल नज़र आता है । राजनीति के साथ ही षड्यन्त्रों का चक्र शुरू हो जाता है । जिस तरह वक्त के साथ राजनीति का अर्थ भी बदलता चला गया उसी तरह सदियों पहले षड्यन्त्र का जो अभिप्राय था, आज उससे भिन्न है । आज तो राजनीति और षड्यन्त्र एक दूसरे के पर्याय हो गए हैं । बल्कि यूँ कहें कि राजनीति शब्द धीरे-धीरे बोलचाल की हिन्दी से षड्यन्त्र को बेदखल कर देगा । “ज्यादा राजनीति मत करो”, “मेरे साथ राजनीति हो गई”, “वो बहुत पॉल्टिक्स करता है” जैसे वाक्यों का प्रयोग अक्सर षड्यन्त्र को व्यक्त करने में भी होता है ।

ड्यन्त्र हिन्दी शब्दसम्पदा की षट्वर्गीय शब्दावली का हिस्सा है जैसे षट्कर्म, षट्कार, षट्कोण आदि । षड्यन्त्र मूलतः ‘षट्’ + ‘यन्त्र’ से बना है । ‘षट्’ का अर्थ तो स्पष्ट है अर्थात छह । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक संस्कृत के ‘षट्’ से ही षट् > षष् > छ (प्राकृत) और छह (अपभ्रंश) के क्रम में हिन्दी के ‘छह’ का विकास हुआ है । संस्कृत में ‘ट’ का ‘य’ के साथ मेल होने पर अक्सर ‘ट’ ध्वनि , ‘ड’ में बदल जाती है । जैसे ‘जाट्य’ का ‘जाड्य’ ( जो जड़ है ) रूप भी प्रचलित है । संस्कृत के यन्त्र शब्द की बहुआयामी अर्थवत्ता है । ऐसा उपकरण जिससे उठाने, धकेलने, ठेलने, खोदने, काटने जैसी विविध क्रियाएँ सम्पन्न हो सकें । मूलतः यन्त्र में बल, शक्ति, साधन के भाव के साथ किन्ही वस्तुओं, क्रियाओं अथवा लोगों को काबू में करने के उपकरण, प्रणाली या विधि का आशय निहित है । काबू पाने, वश में करने जैसे भावों की अभिव्यक्ति होती है ‘नियन्त्रण’ शब्द से । इसमें छुपे यन्त्र को हम आसानी से पहचान सकते हैं । ‘यन्त्रण’ में रहित के भाव वाला ‘निः’ उपसर्ग लगाने से बनता है ‘नियन्त्रण’ जिसमें स्वयंचालित या किसी अन्य व्यवस्था के अधीन काम करने वाली वस्तु या व्यक्ति को अपने अधीन करने का आशय है ।
गौरतलब है कि प्रणाली या सिस्टम के अर्थ में मराठी का ‘यन्त्रणा’ शब्द ‘यन्त्रण’ से ही आ रहा है जबकि हिन्दी के ‘यन्त्रणा’ का प्रयोग कष्ट, संत्रास, दुख, पीड़ा, व्यथा को अभिव्यक्त करने में होता है न कि किसी व्यवस्था या प्रणाली के अर्थ में । ‘यन्त्र’ में ‘अन’ प्रत्यय लगने से बहुआयामी अर्थवत्ता वाला ‘यन्त्रण’ शब्द बना जिसमें प्रणाली, विधि या व्यवस्था के साथ-साथ पीड़ा, वेदना या व्यथा का भाव भी है । आशय ऐसी चीज़ से है जो एक खास तरीके से संचालित हो रही है । प्रश्न है यन्त्र से बने यन्त्रणा में संत्रास, पीडा या वेदना के भाव की क्या व्याख्या है । दरअसल यन्त्र में दबाव, काबू, जकड़न, कसना, बांधना जैसे भाव हैं । मशीन वाली यान्त्रिकता के तहत ये सभी भाव एक व्यवस्था से जुड़ते हैं या यूँ कहें कि यन्त्र किन्हीं कलपुर्जों, उपकरणों का समुच्चय है जो आपसे में गुँथे हैं, बन्धे हैं, कसे हैं, जकड़े हैं । किन्तु जब इन्हीं भावों के साथ यन्त्रणा शब्द बनता है तो उसका अर्थ जहाँ मराठी में जहाँ मशीनी व्यवस्था से लिया जाता है वहीं हिन्दी में यह सचमुच यातना से जुड़ता है । कोई भी बन्धन, कसाव, जकड़न या दबाव संत्रास, पीड़ा या कष्ट का कारण बनते हैं ।
न्त्र में भौतिक उपकरण के अलावा तान्त्रिक वस्तु या चिह्न का भाव भी है जैसे गंडा, ताबीज या यौगिक रेखाचित्र । कल्पित अतीन्द्रिय शक्तियों की आराधना के लिए तन्त्र-योग आदि शास्त्रों में कई तरह के प्रतीकों का प्रयोग होता है । ऐसा माना जाता है कि इनमें निहित शक्तियों के ज़रिये दूर स्थित शत्रुओं या विपरीत ताक़तों पर काबू पाया जा सकता है । बौद्धधर्म का अवसानकाल भारत में तन्त्र-मन्त्र और योगिक शक्तियों के अभूतपूर्व उभार का था । ‘षड्यन्त्र’ दरअसल मध्यकाल के इसी परिवेश से उपजा शब्द है । पूरवी बोली में षड्यन्त्र को ‘खड्यन्त्र’ भी कहते हैं । ‘ष’ का रूपान्तर ‘ख’ में होता है । ‘षड्यन्त्र’ अर्थात छह तरह की विधिया, प्रणाली या तरीके जिनके ज़रिये शत्रु को वश में किया जा सके । सीधी से बात है, यौगिक तन्त्र-मन्त्र का विस्तार ही जादू-टोना में हुआ । अलग-अलग पंथों के मान्त्रिकों के अपने अपने नुस्खे, मन्त्र और यन्त्र थे । हर कोई इनके ज़रिये बस षड्यन्त्रों में लगा रहता था । आज षड्यन्त्र को जिस अर्थ में प्रयोग किया जाता है उसमें बदले हुए परिवेश में कुचाल, दुरभिसन्धि या कांस्पिरेसी जैसे भाव हैं जबकि पुराने ज़माने में शत्रु पर विजय पाने के टोटके जैसा भाव इसमें था ।
ड्यन्त्र के तहत जिन छह विधियों का हवाला दिया जाता है वे हैं- 1.जारण 2. मारण 3. उच्चाटन 4. मोहन 5. स्तंभन और 6. विध्वंसन । ‘जारण’ का अर्थ जलाना या भस्म करना है । यह संस्कृत के ‘ज्वल्’ से निकला है । टोटका के रूप में हम झाड़-फूँक से परिचित हैं । यह जो फूँक है दरअसल इसमें अनिष्टकारी शक्तियों को भस्म करने का आशय है । ‘मारण’ यन्त्र का आशय एकदम स्पष्ट है । शत्रु का अस्तित्व समाप्त करने, उसे मार डालने के लिए जो जादू-टोना होता है वह ‘मारण’ कहलाता है । ‘उच्चाटन’ का अर्थ है स्थायी भाव मिटाना । वर्तमान परिस्थिति को भंग कर देना । उखाड़ना, हटाना आदि । विरक्ति, उदासीनता या अनमनेपन के लिए आम तौर पर हम जिस उचाट, दिल उचटने की बात करते हैं उसके मूल में संस्कृत का ‘उच्चट’ शब्द है जो ‘उद्’ और ‘चट्’ के मेल से बना है । उद्-चट् की संधि उच्चट होती है । ‘उद’ यानी ऊपर ‘चट्’ यानी छिटकना, अलग होना, पृथक होना आदि । ‘उच्चाटन’ भी इसी उच्चट से बना है जिसका अर्थ हुआ उखाड़ फेंकना, जड़ से मिटाना, निर्मूल करना आदि ।
ब ‘जारण’, ‘मारण’, ‘उच्चाटन’ जैसे यन्त्रों से काम नहीं बनता तो ‘मोहिनी विद्या’ काम आती है । ‘मोहन’ का अर्थ है मुग्ध होना । इसके मूल में ‘मुह्’ धातु है जिसका अर्थ है सुध बुध खोना, किसी के प्रभाव में खुद को भुला देना । अक्सर नादान लोग ऐसा करते हैं और इसीलिए ऐसे लोग ‘मूढ़’ कहलाते हैं । मूढ़ भी ‘मुह्’ से ही निकला है और ‘मूर्ख’ भी । ‘मोहन यन्त्र’ का मक़सद शत्रु पर ‘मोहिनी शक्ति’ का प्रयोग कर उसे मूर्छित करना है । श्रीकृष्ण की छवि में ‘मोहिनी’ थी इसलिए गोपिकाएँ अपनी सुध-बुध खो बैठती थीं इसलिए उन्हें ‘मोहन’ नाम मिला । पाँचवी विधि है ‘स्तम्भन’ जिसका अर्थ है जड़ या निश्चेष्ट करना । यह ‘स्तम्भ’ से बना है । जिस तरह से काठ का खम्भा कठोर, जड़ होता है उसी तरह किसी सक्रिय चीज़ को स्तम्भन के द्वारा निष्क्रिय बनाया जाता था । षड्यन्त्र की छठी और आखिरी प्रणाली है ‘विध्वंसन’ अर्थात पूरी तरह से नाश करना ।
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Wednesday, August 8, 2012

जासूस की जासूसी

Spy

न्सान शुरू से बेहद फ़ितनासिफ़त रहा है । उसे सब कुछ जानना है । एक ओर धरती के पेट में क्या है, यह जानने और फिर उसे निकालने में वह दिन-रात एक किए रहता है, दूसरी तरफ़ चांद-सितारों के पार क्या है इसके लिए बेचैन रहता है । जो कुछ छुपा हुआ है, जो कुछ अदृष्ट है वह सब उसे देखना है, जानना है । जानने की यह चाह ही जासूस की राह बनती है । सामान्य जिज्ञासा रखने से समझदारी के दरवाज़े खुलते हैं और किन्हीं निजी दायरों के भेद जानने कोशिश से जासूसी की कहानी बनती है । इन दायरों की सीमा किसी देश की सरकार और राजनीतिक दल से लेकर घरानों, परिवारों और एक व्यक्ति विशेष तक भी सीमित हो सकती है । दुनिया के सबसे पुराना पेशा देहव्यापार कहा जाता है । हमारा मानना है कि जासूसी को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए ।
किसी के भेद लेना, टोह लेना, गुप्तचरी कराना जैसी क्रियाओं के लिए हिन्दी में जासूसी सबसे ज्यादा लोकप्रिय शब्द है । हिन्दी में जासूस शब्द की आमद फ़ारसी के ज़रिये हुई है मगर यह सामी मूल का शब्द है । अल सईद एम बदावी, अरबी-इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ़ कुरानिक यूज़ेज के मुताबिक इसका अर्थ हाथों से परीक्षण करना, जाँच करना, झाँकना, ढूँढना, तलाशना, टोह लेना, भेद लेना, छान-बीन करना जैसी बातें हैं । यह ध्यान देने योग्य है कि ये सभी बातें किसी की निजता के दायरे में करने का आशय इस धातु में निहित है । आज आज जिस अर्थ में जासूस शब्द का प्रयोग होता है निश्चित ही उसका विकास राजनीति के इतिहास के साथ-साथ हुआ । जासूस शब्द अरबी की जीम-सीन-सीन धातु से बना है । बदावी ने इसके लिए j-s-s का प्रयोग किया है जबकि अन्द्रास रज्की इसके लिए g-s-s का प्रयोग करते हैं । हालाँकि दोनों ही स्थानों पर वर्ण का ही संकेत है ।
रबी मूल के जासूस की व्याप्ति कई सेमिटिक और भारोपीय भाषाओं में है जैसे तुर्की में जासुस, अज़रबेजानी में जासूस, स्वाहिली में जासिसी, उज़्बेकी में जोसस है । इसी कड़ी में अरबी का जस्सा शब्द भी है जिसका हिब्रू रूप गिशेश है जिसका अर्थ है परीक्षण करना । मूलतः जासूस शब्द का अर्थ भी छूना, टटोलना, महसूस करना, परीक्षण करना, जाँचना है । मराठी में जासूस को जासूद कहते हैं जिसका मूलार्थ संदेशवाहक, हरकारा या दूत है । जासूस के अर्थ में चोरजासूद शब्द है जो दरअसल गुप्तचर या भेदिया होता है । संदेशवाहकों की जोड़ी जासूदजोड़ी कहलाती है । मराठी में जासूस के लिए हेर, बातमीदार या निरोप्या शब्द भी हैं जबकि संस्कृत-हिन्दुस्तानी में एक लम्बी कतार नज़र आती है जैसे- अपसर्प, हरकारा, अवलोकक, अवसर्प, गुप्तचर, गुरगा, सूचक, गोइंदा, मुखबिर, दूत, चर, चरक, भेदिया, कासिद, जबाँगीर, चारपाल, जरीद, टोहिया, थांगी, पनिहा, प्रणिधि, वनमगुप्त, प्रवृतिज्ञ, वार्तायन, वार्ताहर, प्रतिष्क, संदेशवाहक आदि ।
जासूस के अलावा हिन्दी में भेदिया शब्द भी है जो बना है संस्कृत धातु भिद् से जिसमें दरार, बाँटना, फाड़ना, विभाजित करने जैसे भाव हैं । दीवार के लिए भित्ति शब्द इसी मूल से आ रहा है । कोई भी दीवार दरअसल किसी स्थान को दो हिस्सों में बाँटती है। एक समूचे मकान की दीवारें विभिन्न प्रकोष्ठों का निर्माण करती हैं । भेद, भेदन, भेदना जैसे शब्द भी भिद् से तैयार हुए हैं। रहस्य के अर्थ में जो भेद है उसमें दरअसल आन्तरिक हिस्से में स्थित किसी महत्वपूर्ण बात का संकते है जो उजागर नहीं है । ज़ाहिर है इस बात को रहस्य की तरह माना गया, इसलिए भेद का एक अर्थ गुप्त या रहस्य की बात भी है । भेद को उजागर करने के लिए उस स्थान पर भेदने की क्रिया ज़रूरी है, तभी वह गुप्त बात सामने आएगी । भेदिया शब्द भी इसी धातु से तैयार हुआ है जिसका अर्थ है जासूस, भेदने वाला । कई बार प्रकार, अन्तर, फर्क आदि के अर्थ में भी भेद शब्द का प्रयोग होता है । बात वही विभाजन की है । किसी चीज़ के जितने विभाजन होंगे, उसे ही भेद कहेंगे जैसे नायिका-भेद यानी नायिकाओं के प्रकार । फूट डालने के अर्थ मे भेद डालना मुहावरा भी प्रचलित है । “दीवारों के भी कान होते” हैं जैसी कहावत में दीवारों के पीछे छुपने वाले और वहाँ बसने वाले भेदों का ही तो संकेत मिलता है अर्थात दीवारे भी जासूसी करती हैं ।
संस्कृत का गुप्तचर शब्द हिन्दी की तत्सम शब्दावली में भी जासूस के अर्थ में मौजूद है । यह बना है गुप् धातु से जिसमें रक्षा करना, बचाना, आत्मरक्षा जैसे भाव तो हैं ही, साथ ही इसमें छुपना, छुपाना जैसे भाव भी हैं । गौर करें कि आत्मरक्षा की खातिर खुद को बचाना या छुपाना ही पड़ता है । मल्लयुद्ध के दाव-पेच दरअसल क्या हैं ? दरअसल अपने अंगों को आघात से बचाने की रक्षाविधि ही दाव-पेच है । रक्षा के लिए चाहे युद्ध आवश्यक हो किन्तु वहां भी शत्रु के वार से खुद को बचाते हुए ही मौका देख कर उसे परास्त करने के पैंतरे आज़माने पड़ते हैं। यूँ बोलचाल में गुप्त शब्द का अर्थ होता है छुपाया हुआ, अदृश्य । गोपन, गोपनीय, गुपुत जैसे शब्द इसी मूल से आ रहे हैं। प्राचीनकाल में गुप्ता एक नायिका होती थी जो निशा-अभिसार की बात को छुपा लेने में पटु होती थी । इसे रखैल या पति की सहेली की संज्ञा भी दी जा सकती है। गुप्ता की ही तरह गुप्त से गुप्ती भी बना है जो एक छोटा तेज धार वाला हथियार होता है। इसका यह नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि इसे वस्त्र-परिधान में आसानी से छुपाया जा सकता है ।
गुप्त और चर दोनों से मिलकर बना है गुप्तचर जिसका का शाब्दिक अर्थ हुआ छुप-छुप कर चलने वाला । गुप्तचर में जो मूल भाव है वह है खुद की पहचान को छुपाना न कि चोरी-छिपे चलना । खुद को छुपाने से बड़ी बात है खुद की पहचान को गुप्त रखते हुए लोगों के बीच रहना, उठना-बैठना । ये सब बातें “चर” में निहित हैं । राजनय और कूटनीति के क्षेत्र में गुप्तचरी का महत्व सर्वाधिक होता है जहाँ एक अध्यापक, एक चिकित्सक, एक सिपाही, एक सब्ज़ीवाला, नाई, गृहिणी गर्ज़ यह कि कोई भी जासूस हो सकता है । यही है गुप्तचर का असली अर्थ ।
इसे भी देखें- जासूस की जासूसी

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Sunday, August 5, 2012

सेवा का फल नमकीन

SEV

हि न्दी में दो तरह के सेव प्रचलित हैं । पहले क्रम पर है बेसन से बने नमकीन कुरकुरे सेव और दूसरा है मीठा-रसीला सेवफल जिसे सेव या सेब भी कहते हैं । खाने-पीने की तैयारशुदा सामग्री में सर्वाधिक लोकप्रिय अगर कोई वस्तु है तो वह है नमकीन सेव । प्रायः हर गली, हर दुकान और हर घर में यह मिल जाएगा । सुबह के नाश्ते में चाय के साथ और कुछ न हो तो सेव चलेगा । मालवी आदमी को तो सुबह शाम खाने के साथ भी सेव चाहिए । भारतीय खान-पान संस्कृति दुनिया भर में निराली है । सेव के साथ सिवँइयाँ अथवा सेवँई जैसे खाद्य पदार्थ भी रसोई की अहम् चीज़ें हैं । सेवँई या सिवँइयाँ मैदे से बनती हैं । शकर और दूध के साथ उबाल कर बनई गई सेवँई की खीर बेहद लज़ीज़ मीठा पकवान है । ध्यान रहे, सेव, सेवँई या सिवँईं जैसे नामों में मीठे या नमकीन होने की महिमा नहीं है बल्कि उनका धागे या सूत्रनुमा आकार ही ख़ास है ।
दिलचस्प बात यह भी है कि दोनो तरह के सेव का सम्बन्ध बोल-चाल की भाषा में बेहद प्रचलित सेवा, सेवक, सेविका जैसे शब्दों से भी हैं जिनमें सेवा करने का मूल भाव है और इनकी व्युत्पत्ति भी संस्कृत की सेव् धातु से हुई है । संस्कृत की सेव् धातु में मूलतः करना, रहना, बारम्बार जैसे भाव हैं । मोनियर विलियम्स, रॉल्फ़ लिली टर्नर और वाशि आप्टे के कोशों के मुताबिक सेव् में सानिध्य, टहल, बहुधा, उपस्थिति, आज्ञाकारिता, पालना, बढ़ाना, विकसित करना, उत्तरदायित्व, समर्पण, खिदमत, देखभाल अथवा सहायता जैसे भाव हैं । इससे बने सेवा का मूलार्थ है देखभाल करना, सहकारी होना, समर्पित कर्म, टहल में रहना आदि । सेवक में उक्त सभी क्रियाओं में लगे रहने वाले व्यक्ति का भाव है । यूँ सेवक का अर्थ नौकर-चाकर, परिचर, सहकर्मी, अनुगामी, भक्त, अनुचर, आज्ञाकारी, भ्रत्य, वेतनभोगी आदि होता है । सेवक का स्त्रीवाची सेविका होता है । सेवा सम्बन्धी शब्दावली में अनेक शब्द हैं जैसे सेवा-पंजिका, सेवा-पुस्तिका, सेवाकर्मी, सेवानिवृत्त, सेवावधि, सेवामुक्त, समाजसेवा, समाजसेवी आदि । इसी कड़ी में सेवाशुल्क जैसा शब्द भी खड़ा है जिसका मूलार्थ है किसी काम के बदले किया जाने वाला भुगतान मगर अब सेवाशुल्क का अर्थ रिश्वत के अर्थ में ज्यादा होने लगा है ।
प्रश्न उठता है इस सेवाभावी सेव् से आहार शृंखला के सेव से सम्बन्ध की व्याख्या क्या हो सकती है ? सेव के आकार और उसे बनाने की प्राचीन विधि पर गौर करें । पुराने ज़माने में बेसन के आटे को गूँथ कर उसकी छोटी लोई को चकले पर रख कर हथेलियों से बारीक-बारीक बेला जाता था । बेलना शब्द का रिश्ता संस्कृत की बल् या वल् धातु से है जिसमें घुमाना, फेरना, चक्कर देना जैसे भाव हैं । लोई को घुमाने वाले उपकरण को भी बेलन इसीलिए कहते हैं क्योंकि इससे बेलने की क्रिया सम्पन्न होती है । जिससे बेला जाए, वह बेलन । गौर करें कि पत्थर या लकड़ी के जिस गोल आसन पर रख कर रोटी बेलते हैं उसे चकला कहते हैं । यह चकला शब्द चक्र से आ रहा है जिसमें गोल, घुमाव, राऊंड या सर्कल का भाव है । बेलने के आसन को चकला नाम इसलिए नहीं मिला क्योंकि वह गोल होता है बल्कि इसलिए मिला क्योंकि उस पर रख कर रोटी को चक्राकार बनाया जाता है । बेलने की क्रिया से कोई वस्तु चक्राकार, तश्तरीनुमा बनती है । तश्तरीनुमा आकार में बेलने के लिए आधार का समतल, ठोस होना ज़रूरी है न कि उसका गोल होना । अक्सर सभी चकले गोल नहीं होते । रोटी बनाने के लिए चकला और बेलन की ज़रूरत होती है, सेव या सेवँईं बनाने के लिए बेलन के स्थान पर चपटी सतह जैसे हथेली, होनी ज़रूरी है ।
राठी में सेवँई के लिए शिवई शब्द है जिसका मूल वही है जो हिन्दी सेवँई का है । मेरा मानना है कि नरम पिण्ड को चपटी सतह पर गोल गोल फिरा कर उसके सूत्र बनाने की तरकीब बाद में ईज़ाद हुई होगी, पहले ऐसा अंगूठे और उंगलियों की मदद से किया जाता रहा होगा । हाथ या उंगलियों लगे किसी चिपचिपे पदार्थ से छुटकारा पाने के लिए हाथों को आपस में मसलने या अंगूठे को उंगलियों पर रगड़ने की तरकीब की जानकारी मनुष्य को आदिमकाल में ही हो गई थी । इस तरह चिपचिपे पदार्थ पर दबाव पड़ने से उसके वलयाकार सूत्र बन कर हाथ से अलग हो जाते हैं । सेवँई के जन्मसूत्र का कुछ पता इसके मराठी पर्यायों से चलता है । मराठी में सेवँई को शेवई कहते हैं इसकी व्युत्पत्ति भी वही है जो हिन्दी में है । मराठी में शेवई के दो प्रकार हैं- हातशेवई और पाटशेवई । जैसा की नाम से ही स्पष्ट है, हातशेवई लोई को हथेली से रगड़ कर बनाए गए सूत्र को कहते हैं । इसका एक नाम बोटी भी है । मराठी में उंगली को बोट कहते हैं । उंगलियों से रगड़ कर बनाए गए महीन सूत्र के लिए बोटी नाम सार्थक है । प्रसंगवश, सेवँई को अंग्रेजी में वर्मीसेली कहते हैं जो मूलतः इतालवी भाषा से आयातित शब्द है और लैटिन के वर्मिस vermis से बना है जिसका मतलब होता है कृमी या रेंगनेवाला नन्हा कीड़ा । एटिमऑनलाइन के मुताबिक वर्म के मूल में भारोपीय भाषा परिवार की धातु wer है जिसमें घूमने, मुड़ने का भाव है । वृ बने वर्त या वर्तते में वही भाव हैं जो प्राचीन भारोपीय धातु वर् wer में हैं । गोल, चक्राकार के लिए हिन्दी संस्कृत का वृत्त शब्द भी इसी मूल से बना है । इतालवी वर्मीसेली  और हिन्दी के सेवँई का शब्द-निर्माण ध्यान देने योग्य है ।
रोटी के लिए मराठी में पोळी शब्द है । पूरणपोळी शब्द में यही पोळी है । पोळी बना है पल् धातु से जिसमें विस्तार, फैलाव, संरक्षण का भाव निहित है इस तरह पोळी का अर्थ हुआ जिसे फैलाया गया हो। बेलने के प्रक्रिया से रोटी विस्तार ही पाती है । पत्ते को संस्कृत में पल्लव कहा जाता है जो इसी धातु से बना है । पत्ते के आकार में पल् धातु का अर्थ स्पष्ट हो रहा है । पेड़ का वह अंग जो चपटा और विस्तारित होता है । हिन्दी का पेलना, पलाना, पलेवा जैसे शब्द जिनमें विस्तार और फैलाव का भाव निहित है इसी शृंखला में आते हैं । पालना शब्द पर गौर करें इसमें बारम्बारता, विस्तार, संरक्षण जैसे सभी भाव स्पष्ट हैं । कहने का तात्पर्य यह कि पल् धातु में जो भाव आटे की लोई को पोळी (रोटी) के रूप में विस्तारित करने में उभर रहा है वैसा ही कुछ सेव् धातु से बने सेव या सेवँई में भी हो रहा है । स्पष्ट है कि सेव् धातु से बने सेव में निहित बारम्बारता, बढ़ाना, विकसित करना और पालना जैसे अर्थ भी पल् की तरह हैं । बेसन या मैदे की लोई को चकले पर गोल-गोल घुमाने से  पतले, लम्बे,  धागेनुमा सूत्र के रूप में उसका आकार बढ़ता जाता है । यही सेव या सेवँई है । बेलने या घुमाने की क्रिया में बारम्बारता पर गौर करें तो भी सेव् क्रिया का अर्थ स्पष्ट होता है ।
सेवफल की बात । जिस तरह सेव या सेवँई में विस्तार, वृद्धि का भाव है, और सेव और सेवँई के आकार से यह अर्थ साफ़ नज़र भी आता है वहीं सेवफल को देखने से यह स्पष्ट नहीं होता । मोनियर विलियम्स के संस्कृत-इंग्लिश कोश में सेवि या सेव शब्द है जिसका अर्थ है सेवफल । मोनियर विलियम्स के कोश में सेवि शब्दान्तर्गत सेव का अर्थ बदरी यानी बेर भी बताया गया है । apple के अर्थ में हिन्दी सेव की व्युत्पत्ति संस्कृत की सिव् धातु से है जिसमें जिसमें नोक, काँटा जैसे भाव हैं । टर्नर कोश के मुताबिक फ़ारसी में सेव का सेब रूप है । इसी तरह उड़िया और गुजराती में भी सेब ही है इसलिए यह निश्चयूर्वक नहीं कहा जा सकता की भारतीय भाषाओं में सेव के सेब रूप के पीछे फ़ारसी का सेब है ।

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Wednesday, April 25, 2012

मुलम्मे की चमक

mulamma

कि सी हलकी धातु पर कीमती धातु की परत चढ़ाने की परम्परा दुनियाभर में प्राचीनकाल से प्रचलित है जिसे मुलम्मा कहा जाता है । मुलम्मा शब्द भारत की क़रीब क़रीब सभी प्रमुख भाषाओं में प्रचलित है । हिन्दी की तो ख़ैर सभी बोलियों में इसे खूब लिखा-पढ़ा-समझा जाता है । मूलतः यह सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द है और बरास्ता फ़ारसी, अरबी भाषा का यह शब्द भारतीय भाषाओं में दाखिल हुआ । यह दिलचस्प है कि अपने ख़ास ठिकाने पर कोई शब्द किसी अन्य रूप में होता है और फिर बदली हुई अर्थवत्ता के साथ उसका कुछ और रूपान्तर किसी अन्य भाषा में होता है । वर्तमान में मुलम्मा का जो अर्थ प्रचलित है उसमें कलई करने या पॉलिश करने का आशय है । गिलट की हुई धातु यानी सोने-चांदी का पानी चढ़ी धातु को भी मुलम्मा कहते हैं । मुलम्मा में नकली पॉलिश का भाव अब प्रमुख हो गया है । तात्पर्य यह है कि ऐसा पदार्थ जो कभी जगमग था पर अब उसकी चमक फीकी पड़ गई है । अगर उसे घिस-माँज दिया जाए तो भी वह चमक उठता है । यानी किसी पदार्थ की चमक ही उसका मुलम्मा है । मगर अब मुलम्मा के साथ चमकीली परत, सतह, पॉलिश या आवरण का आशय जुड़ गया है ।
मूल अरबी में मुलम्मा से अभिप्राय चमक से है । आवरण, लेपन, कलई जैसे आशय इसमें बाद में जुड़े । मुलम्मा mukkama के मूल में है अरबी का लम्अ lam‘ जिसमें द्युति, दीप्ति, कांति, झलक, चमक जैसे भाव हैं । बनावटी, दिखावटी और आडम्बरपूर्ण व्यवहार के सम्बन्ध में भी मुलम्मा शब्द का मुहावरेदार प्रयोग होता है जैसे – “कई बार लगता है मानो धर्मनिरपेक्षता हमारी सांविधानिक पहचान न होकर मुलम्मा है ।” सस्ती धातु से बने बरतनों और गहनों पर सोने चांदी का पानी चढ़ाने वाले कारीगर को मुलम्मासाज कहते हैं । यह प्रक्रिया मुलम्मासाज़ी या मुलम्माकारी कही जाती है । मुलम्मा के तद्भव रूप मुलमा में तुर्की का ची प्रत्यय लगाकर मुलमची जैसा शब्द भी बनाया गया जिसका अर्थ भी मुलम्मासाज़ ही होता है । मराठी में मुलम्मा को मुलामा कहते हैं । हैंस व्हेर और मिल्टन कोवेन के अरबी-इंग्लिश कोश के मुताबिक लम्अ का अर्थ ज्योति, झिलमिल, जगमग, दिपदिप, द्युति, चमक आदि का भाव है । यह चमक प्रतिभा की भी हो सकती है, किसी वस्तु की भी । इसमें परिमार्जन से पैदा कांति का भाव भी है और शुद्धिकरण से पैदा दीप्ति भी ।
फ्रांसिस जोसेफ़ स्टेंगास के फ़ारसी अंग्रेजी कोश के में मुलम्मा के जो अर्थ प्राथमिक क्रम में दिए हैं उनके अनुसार अलग अलग रंगों के घोड़ों को भी मुलम्मा कहते हैं । एक विशिष्ट काव्य विधा जिसमें किसी छंद का आधा हिस्सा एक भाषा में और आधा किसी दूसरी भाषा में होता है । ऐसा प्रयोग दोहा या शेर जैसे छंद में किया जाता है जिसमें दो पंक्तियाँ होती हैं । आमतौर पर मुलम्मा विधा का ज़िक्र तुर्की फ़ारसी के संदर्भ में हुआ है जिसमे अरबी का मिश्रण होता है । गौरतलब है कि इस्लामी प्रभाव बढ़ने के बाद राजनीतिक संदर्भों में फ़ारसी और तुर्की पर अरबी प्रभाव बढ़ने लगा था । अरबी प्रभाव वाली फ़ारसी और अरबी प्रभाव वाली तुर्की का वहाँ के विद्वानों ने समय समय पर विरोध किया मगर फिर भी अरबी का असर बना रहा । अरबी की यही चमक या झलक जिस विधा में सर्वाधिक रही उसे ही मुलम्मा कहा गया । तीसरे क्रम पर स्टेंगास मुलम्मा का अर्थ किसी धातु पर दूसरी धातु के विद्युत-लेपन, आवरण अथवा परत चढ़ाना बताते हैं । स्पष्ट है कि मुलम्मा का मुख्य अर्थ चमक या झलक ही है ।
जो भी हो, यह चमक ही उस वस्तु की नई पहचान है । इसीलिए समझा जा सकता है कि एक काव्यविधा के तौर पर मुलम्मा से आशय उस विशिष्ट छंद से है जिसमें एक भाषा पर दूसरी भाषा की छाप नज़र आती है । इसे हिन्दी और हिन्दुस्तानी से समझ सकते हैं । आज़ादी से पहले की हमारी ज़बान हिन्दुस्तानी थी जिसमें अरबी, फ़ारसी शब्दों का सुविधानुसार प्रयोग होता था । आज़ादी के बाद परिनिष्ठित हिन्दी ने ज़ोर पकड़ा और फ़ारसी-अरबी शब्दों का प्रयोग काफ़ी कम हुआ । तो पहले की जो हिन्दुस्तानी थी वो मुलम्मा थी, क्योंकि उस में अरबी-फ़ारसी की झलक थी । ध्यान रहे मुलम्मा यानी झलक । चाँदी पर सोने का मुलम्मा यानी सोने की झलक । पीतल पर चांदी का पॉलिश यानी सोने की झलक ।

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Wednesday, April 11, 2012

बलाए-ताक नहीं, बालाए-ताक सही

Vue générale des grottes de Taq-e Bostanसम्बंन्धित आलेख-1.आखिरी मक़ाम की तलाश... पिया मिलन को जाना.…2. प्यारा कौन ? बैल , बालम या मलाई ?.3.लीला, लयकारी और प्रलय….
बो लचाल की भाषा को लय और अर्थवत्ता देने में मुहावरों का अहम क़िरदार होता है । एक मुहावरा पाँच वाक्यों के बराबर बात कह जाता है । इसीलिए मुहावरेदारा भाषा सहज और प्रवाही होती है । हिन्दी को समृद्ध बनाने में फ़ारसी के मुहावरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । आज़ादी के बाद जब हिन्दी के राजभाषा वाले स्वरूप के प्रति लोग कुछ सजग हुए तो उर्दू-फ़ारसी की ठसक वाली हिन्दुस्तानी ज़बान का रुतबा धीरे धीरे कम होने लगा । हालाँकि अरबी-फ़ारसी शब्दों का इस्तेमाल कम नहीं हुआ, मगर उनका बर्ताव हिन्दी शब्दों जैसी ही गै़रज़िम्मेदारी से होने लगा । कई शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल में असावधानी नज़र आने लगी क्योंकि इस ओर  हिन्दी वालों का ध्यान नहीं था । राजभाषा अब फ़ारसी, अंग्रेजी नहीं, हिन्दी थी । मिसाल के तौर पर एक मुहावरा है बलाए-ताक रखना । आमतौर पर किसी विषय को दूर रखने, उसकी उपेक्षा करने, मुख्यधारा से अलग रखने की कोशिश को अभिव्यक्त करने के लिए बलाए-ताक़ मुहावरे का प्रयोग किया जाता है जैसे- “इमर्जेंसी में सत्ताधारी पार्टी ने कानून को बलाए-ताक रख दिया था ।“ ख़ास बात यह कि दशकों से इस मुहावरे का प्रयोग हो रहा है जबकि सही रूप है बालाए-ताक रखना । लोग समझते हैं कि किसी चीज़ को बला यानी दिक्क़ततलब समझ कर ताक पर रखा जा रहा है जबकि इसमें बला यानी मुश्किल, कठिनाई का भाव न होकर बाला यानी ऊँचाई का भाव है ।

बला’ और ‘बाला’ की रिश्तेदारी

ला शब्द का हिन्दी में खूब इस्तेमाल किया जाता है । अरबी में विपत्ति, मुश्किल, कठिनाई, आपदा, दिक़्क़त, मुसीबत, कष्ट, संकट या परेशानी जैसी स्थितियों के संदर्भ में बला शब्द का प्रयोग किया जाता है । फ़ारसी कहावत सबने सुनी है- “ज़ल तू, ज़लाल तू, आई बला को टाल तू ।” इस कहावत में बला को उपरोक्त तमाम अर्थों में समझा जा सकता है । सौन्दर्य की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति के लिए फ़ारसी में नकारात्मक विशेषणों का प्रयोग भी होता है । क़यामत की ही तरह बला भी इस कड़ी में है । बला की खूबसूरती अथवा खूबसूरती या बला जैसे मुहावरों में बला विशेषण के तौर पर आया है । भाव है ऐसा सौन्दर्य जिसे देख कर आदमी सुध-बुध खो बैठे । जाहिर है ऐसा होना परेशानी वाली बात ही है, मगर इससे सौन्दर्य को भी सराहना मिल रही है । मगर बलाए-ताक़ में यह बला नहीं है क्योंकि बलाए-ताक का शाब्दिक अर्थ होगा ताक की बला यानी आले की परेशानी । इससे कुछ भी स्पष्ट नहीं होता । हालाँकि बला और बाला दोनों ही शब्द सेमिटिक मूल के हैं और इनमें आपसी रिश्तेदारी है । मगर प्रस्तुत मुहावरे में ये बला और बाला दोनो अलग अलग छोर पर नज़र आते हैं । इसके लिए जानते हैं बालाए-ताक को ।

बाल का बोलबाला

सेमिटिक भाषा परिवार का एक ख़ास शब्द है बाल, जिसकी इस समूह की कई भाषाओँ में व्यापक अर्थवत्ता है । दिक्कत, परेशानी, अनिष्ट, कष्ट आदि अर्थों में ही यह अज़रबेजानी में बेला है, फुलानी में यह आलबला है तो ग्रीक में यह पेलास है । अफ्रीका की हौसा भाषा में यह बालाई है, हिन्दी और इंडोनेसियाई में इसे बला कहते हैं तो किरगिज़ी में यह बलाआ है । रोमानी में इसका रूप बेलिया है और उज्बेकी में यह बलो है । सुमेरी संस्कृति में इसका मतलब होता है -सर्वोच्च, शीर्षस्थ या सबसे ऊपरवाला । हिब्रू में इसका मतलब होता है परम शक्तिमान, देवता अथवा स्वामी । गौरतलब है कि लेबनान की बेक्का घाटी में बाल देवता का मंदिर है । हिब्रू के बाल (baal) में निहित सर्वोच्च या सर्वशक्तिमान जैसे भावों का अर्थविस्तार ग़ज़ब का रहा। संस्कृत में इसी बाल या बेल का रूप बलम् देखा जा सकता है जिसका अभिप्राय शक्ति , सामर्थ्य , ताकत, सेना, फौज आदि है । एक सुमेरी देवता का नाम बेलुलू है। गौर करें कि संस्कृत में भी इन्द्र का एक विशेषण बललः है । अनिष्टकारी शक्ति के , आसमानी मुसीबत, विपत्ति आदि के लिए हिन्दी में बला शब्द खूब प्रचलित है । यह अरबी फारसी के जरिये हिन्दी में आया । अरबी में इसका प्रवेश हिब्रू के बाल की ही देन है अर्थात बला में बाल की शक्तिरूपी महिमा तो नज़र आ रही है। इससे कुछ हटकर संस्कृत में बला शब्द मंत्रशक्ति के रूप में विद्यमान है । गौर करें की दूध के ऊपर जो क्रीम जमती है उसे हिन्दी में मलाई कहते हैं। मलाई को उर्दू, फारसी और अरबी में बालाई कहते हैं क्योंकि इसमें भी ऊपरवाला भाव ही प्रमुख है । जो दूध के ऊपर हो वही बालाई । पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाख़ाना कहते थे । बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान।
क्या है ताक़
बालाए-ताक़ में यह ऊपर का भाव महत्वपूर्ण है । हिन्दी में आमतौर पर  ताक tak/tāḳ शब्द का प्रयोग होता है जो अरबी का शब्द है मगर इसका मूल फ़ारसी है। अरबी केطاق  ताक़ taq ( tāḳ/ṭāq ) का अर्थ है बल, क्षमता, शक्ति है जिससे ताक़त, ताक़तवर जैसे शब्द बनते हैं। साथ ही इसका अर्थ मेहराब भी है और वो घुमावदार कमानीनुमा आधार भी जिस पर किसी भी भवन की छत टिकी रहती है। वह अर्धचन्द्राकार रचना जो छत को ताक़त प्रदान करती है, उसे थामे रखती है अर्थात उसके बूते छत टिकी रहती है। भाव है ताक़त देना। उसे क्षमता प्रदान करना। अरबी का طاقت ताक़त शब्द इसी मूल का है और ताक़ से उसकी रिश्तेदारी है। हिन्दी में आने के बाद ताक़ शब्द में आला अर्थात दीवार में सामान रखने के लिए बनाया जाने वाला खाली स्थान। यह भी कमानीदार, मेहराबदार आकार में बनाया जाता था। पुराने ज़माने में ऐसे ताक़ आमतौर पर छत से कुछ नीचे, दीवार के ऊपरी हिस्से में रोशनदान के लिए बनाए जाते थे। ताक़चा tāḳchá यानी वह छोटा आला जो कुछ ऊँचाई पर दीवार में बना हो। लोगों की पहुँच से दूर, सुरक्षित रखने के लिए भी ऐसे मेहराबदार खाँचे बनाए जाते थे। इसे ही ताक़ कहते थे । बालाए-ताक़ का अर्थ हुआ ताक़ यानी मेहराबदार दीवार का सबसे बाला हिस्सा यानी सबसे ऊँचा हिस्सा । किसी मुद्दे, विषय या चर्चा सूत्र को दरकिनार करने के संदर्भ में बालाए-ताक़ का प्रयोग होता है। जैसे- इसी सत्र में महिला विधेयक पर बात होनी थी, मगर सत्ता पक्ष ने उसे बालाए-ताक़ रखा । स्पष्ट है कि सत्ता पक्ष नहीं चाहता कि इस विषय पर चर्चा हो इसलिए इसे अलग – थलग करने, इसे पहुँच से दूर रखने के लिए उसने कई हथकण्डे अपनाए । यही है बालाए-ताक़ रखना मुहावरे का सही अर्थ।
ताक़ में नक़्क़ाशी
ताक़ शब्द अरबी में फ़ारसी मूल से गया है । जॉन प्लैट्स के कोश में ताक़ का अर्थ मेहराब, खिड़की, आला, कॉर्निस, खाँचा, कोना, छज्जा और बालकनी आदि है । ताक़ अगर अरबी में फ़ारसी से गया है तो ज़ाहिर है कि यह इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है और इसका रिश्ता किन्हीं अर्थों में संस्कृत, अवेस्ता आदि भाषाओं से भी होगा । इसका स्पष्ट संकेत कहीं नहीं मिलता । फ़ारसी संदर्भों में पश्चिमी ईरान के पहाड़ी प्रान्त करमानशाह में दूसरी से छठी सदी के बीच निर्मित महान स्थापत्य ताक़ ए बोस्ताँ से मिलता है । ये स्थापत्य दरअसल सासानी काल में ईरानी शिल्पकारों द्वारा पहाड़ी चट्टानों पर उत्कीर्ण कला के महानतम नमूने हैं । चट्टानों पर नक्काशी के जरिये मेहराबदार खुले कक्ष बनाए गए हैं जिनकी दीवारों पर ईरान के इतिहास और जरथ्रुस्तकालीन प्रसंग उत्कीर्ण हैं । ईरान में इसे प्राचीनकाल से ही ताक़ ए बोस्ताँ कहा जाता है । पत्थरों में उत्कीर्ण मेहराब की रचना के लिए ताक़ शब्द के प्रयोग से ऐसा लगता है कि ताक़ शब्द का रिश्ता संस्कृत के तक्ष से है जिसमें उत्कीर्ण करने, काटने, तराश कर आकार देने जैसे भाव हैं । तक्षन या तक्षक का अर्थ शिल्पकार, दस्तकार होता है । सम्भव है तक्ष से ही फ़ारसी का ताक बना हो और मेहराब के अर्थ में अरबी ने भी इसे आज़माया हो।
इन्हें भी देखें- 1.ठठेरा और उड़नतश्तरी
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Sunday, April 8, 2012

ट्रंक का खानदान

trपिछली कड़ियाँ-1.बक्सा, बकसिया और बॉक्सिंग.2कनस्तर और पीपे में समाती थी गृहस्थी.3

क्से की तरह ही ट्रंक trunk भी कई दशकों से भारतीय गृहस्थी की एक ज़रूरी व्यवस्था बना हुआ है । चीज़ों को उनके लक्षणों के आधार पर ही नाम मिलता है । शरीर को तन इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें लगातार वृद्धि होती है । संस्कृत की तन् धातु में विस्तार, वृद्धि का भाव है । तानना यानी विस्तार करना क्रिया के मूल में तन् धातु ही है । जो लगातार विस्तारित हो, वही तन है । पेड़ के मुख्य हिस्से को भी तना कहते हैं जो सम्भवतः इसी कड़ी का शब्द है । पेड़ के तने का भी लगातार विस्तार होता है । तने में ही काष्ठ का भण्डार होता है । तने की लकड़ी से ही विभिन्न वस्तुएँ बनती हैं । बॉक्स के मूल पाइक्सोन में मुख्य भाव ठोस, सघन और भरपूर मात्रा का संकेत है । लकड़ी के संदर्भ में ये सारी बातें पेड़ के तने की और इशारा करती हैं जिसे ट्रंक कहते हैं । भारत में आमतौर पर धातु की पेटी को ट्रंक कहा जाता है । किसी ज़माने में ट्रंक भी लकड़ी के ही बनते थे । भारत में भी रईसों के यहाँ पहले लोहे के कब्ज़े वाले लकड़ी के ट्रंक इस्तेमाल होते थे मगर जब आम आदमी के पास ट्रंक पहुँचा, तब तक इसकी काया लौहावरण में ढल चुकी थी । आज भी कई घरों में खानदानी चीज़ों की तरह ट्रंक सहेज कर रखे जाते हैं । ज़ाहिर है ट्रंक यानी तने की लकड़ी से निर्मित बक्से को भी ट्रंक नाम ही मिला । जानते हैं, कैसे ।
ट्रंक मूलतः भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और वाल्टर स्कीट की कन्साइज़ एटिमोलॉजिकल डिक्शनरी के मुताबिक अंग्रेजी में इसकी आमद पुरानी फ्रैंच के ट्रांक tronc से हुई है जिसका मूल लैटिन ज़बान का त्रुंकस / ट्रंकस truncus शब्द है जिसका अर्थ है वह मुख्य हिस्सा, जिससे उसके सहायक हिस्से अलग किए जा चुके हैं । ज्यादातर संदर्भों में लैटिन के त्रुंकस का आशय पेड़ के ऐसे भारी तने से लगाया गया है जिससे उसके उसके उपांग अलग किए जा चुके हों अर्थात ऐसा तना जिससे जड़ और शाखाएँ का अलग की जा चुकी हों । त्रुंकसमें धड़ का भाव है । धड़ शरीर के उस मुख्य हिस्से को कहते हैं जिससे हाथ, पैर और सिर जुड़े रहते हैं । 1724 में प्रकाशित नैथन बैली की यूनिवर्सल एटिमोलॉजिकल डिक्शनरी में ट्रंकस का आशय हृदय की ओर रक्त ले जाने वाली महाधमनी और महाशिरा से भी है और किसी जगह का मुख्य आधार स्तम्भ से भी है । ध्यान रहे शरीर यानी तन का मुख्य आधार भी धड़ ही होता है । ट्रंक में धड़ का आशय भी है । हिन्दी का धड़ शब्द भी संस्कृत के धर् से बना है जिसका अर्थ है जो धारण करे । धड़ सभी अंगों को धारण करता है ।
ट्रंकस में मूलतः वृक्ष का अर्थ निहित है, न कि उपांगों से काट कर अलग किया जा चुका मुख्य आधार । विलियम फ्रॉली के इंटरनैशनल एन्साइक्लोपीडिया ऑफ लिंग्विस्टिक्स के मुताबिक त्रुंकसका मूल है dru-n [वृक्ष, काष्ठ] + -iko-s[ उपांग, हिस्से ] स्पष्ट है कि ट्रंकस से आशय उस मुख्यआधार से है जिसके साथ उसके दूसरे हिस्से भी जुड़े हों । बाद के दौर में त्रुंकस से बने ट्रंक में सिर्फ़ धड़ की अर्थवत्ता जुड़ गई । संस्कृत-हिन्दी में वृक्ष के लिए तरुवर, तरु, दारुकः, द्रु, द्रुम जैसे शब्द हैं जो इनके एक ही मूल की ओर इशारा करते हैं । संस्कृत में एक धातु है द्रु जिसमें वृक्ष का भाव है। मूलतः यह गतिवाचक धातु है । इससे बने द्रुत का मतलब है तीव्रगामी, फुर्तीला, आशु गामी आदि होता है । वृक्ष के अर्थ में द्रु धातु का अभिप्राय भी गति से वृद्धि से ही है । इससे ही बना है द्रुमः शब्द जिसका अर्थ भी पेड़ ही होता है और द्रुम के रूप में यह परिनिष्ठित हिन्दी में भी प्रचलित है । कल्पद्रुम शब्द साहित्यिक भाषा में कल्पवृक्ष के लिए प्रचिलत है । द्रु से ही बना है दारुकः शब्द जो एक प्रसिद्ध पहाड़ी वृक्ष

जेब शृंखला की ये कड़ियाँ ज़रूर देखें... peti1. पाकेटमारी नहीं जेब गरम करवाना [जेब-1]
2 टेंट भी ढीली, खीसा भी खाली
3 बटुए में हुआ बंटवारा
4 अंटी में छुपाओ तो भी अंटी खाली
5 आलमारी में खजाने की तलाश
6 कैसी कैसी गांठें
7 थैली न सही , थाली तो दे[जेब-7]

है जिसका प्रचलित नाम देवदारु है । द्रु से ही बना है द्रव जिसका मतलब हुआ घोड़े की भांति भागना, पिघलना, तरल, चाल, वेग आदि । द्रु के तरल धारा वाले रूप में जब शत् शब्द जुड़ता है तो बनता है शतद्रु अर्थात् सौ धाराएँ । पंजाब की प्रमुख नदी का सतलुज नाम इसी शतद्रु का अपभ्रंश है । अंग्रेजी का ट्री और फारसी का दरख्त इसी मूल से जन्में हैं ।
ध्यान रहे भारत-ईरानी परिवार में द्रु में बहाव, गति, ले जाने के साथ साथ स्थिरता का भाव भी है । द्रु काएक अर्थ अगर वृक्ष है तो इसमें वृद्थि के साथ साथ स्थिरता भी है । वृक्ष अपने स्थान पर दृढ़ होते हैं, अडिग होते हैं । जूलियस पकोर्नी  भारोपीय धातु deru में वृक्ष का भाव देखते हैं और कुछ अन्य भाषाशास्त्रियों नें tru धातु की कल्पना करते हुए इसमें दृढ़ता, पक्कापन, ठोस और मज़बूत जैसे भावों को देखा है । पुरानी आइरिश के derb में पक्का, भरोसा का भाव है तो अल्बानी के dru का अर्थ लकड़ी या छाल है । हित्ती भाषा के ता-रू , अवेस्था के द्रवेना, दारु, संस्कृत के द्रु, वेल्श के दरवेन, गोथिक के त्र्यु , ओल्ड इंग्लिश के ट्रेवो समेत कई यूरोपीय भाषाओं के इन शब्दों का अर्थ लकड़ी या पेड़ है । हाथी की सूंड को भी ट्रंक कहते हैं ।
डॉ रामविलास शर्मा एक और दिशा में संकेत करते हैं । वे स्थिरता के अर्थ में स्थर् की कल्पना करते हैं और उसके एक पूर्व रूप धर् के होने की बात कहते हैं जिससे धारिणी के रूप में धरती शब्द बना । संस्कृत दारु, द्रुम, तरु, ग्रीक द्रुस, अंग्रेजी के ट्री में दरअसल धर् के रूपान्तर दर् और तर् हैं । प्राकृत धड, हिन्दी धड़, पेड़ के तने की तरह, मानव शरीर के शीशविहीन भाग का अर्थ देते हैं । संस्कृत तण्डक ( तना ), तन् ( शरीर ), हिन्दी तना, अंग्रेजी स्टौक, ( तना ), आदि स्थिरताबोधक हैं । यह भी दिलचस्प है की धर में निहित स्थिरतामूलक धारण करने के भाव से ही गतिवाचक धारा शब्द भी बनता है । धारा वह जो धारण करे, अपने साथ ले जाए । धर, धरा के मूल में धृ धातु है । धरा यानी धरती को देखें तो यह स्थिर जान पड़ती है मगर यह न सिर्फ़ अक्ष पर घूमती है बल्कि सूर्य की परिक्रमा भी करती है । स्थिरता का परम प्रतीक ध्रुव का जन्म भी इसी धृ धातु से हुआ है । धृ की ही समानधर्मा धातु दृ बाद में विकसित हुई होगी ।
स तरह स्पष्ट है कि अंग्रेजी के ट्रंक में मुख्य आधार का भाव है । यह आधार कहीं मार्ग है, कहीं स्तम्भ है और कहीं तना है तो कहीं धड़ है । ट्रंक शब्द का प्रयोग महामार्ग के रूप में भी होता है जैसे ग्रांड ट्रंक रोड । देश के सुदूर पश्चिमोत्तर को धुर पूर्वी छोर से जोड़नेवाला जो महामार्ग सदियों तक हिन्दुकुश के पार से आने वाले कारवाओं से गुलजार रहा, उसे शेरशाह सूरी ने व्यवस्थित राजमार्ग का रूप दिया था । अंग्रेजों ने उसका नाम ग्रांड ट्रंक रोड रखा जो पेशावर से कलकत्ता तक जाता था । इसे अब जीटी रोड कहा जाता है । रेलवे में भी ट्रंक लाईन होती है । जीटी एक्सप्रेस एक प्रसिद्ध ट्रेन का नाम है । ट्रंक का प्रयोग दूरसंचार प्रणाली में भी होता है । संचार नेटवर्क का खास रूट ट्रंक कहलाता है । पुराने ज़माने में दूरदराज स्थानों पर टेलीफ़ोन क़ॉल के लिए ट्रंक लाईन का इस्तेमाल होता था जिसे ट्रंककॉल कहा जाता था । ट्रंक में निहित बक्से का भाव वृक्ष के मोटे पुष्ट तने से स्पष्ट हो रहा है । ज़ाहिर है ट्रंक यानी तने की लकड़ी से निर्मित बक्से को भी ट्रंक नाम ही मिला ।

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Saturday, April 7, 2012

बक्सा, बकसिया और बॉक्सिंग

box

सामान रखने की व्यवस्थाओं, उपकरणों के लिए हिन्दी में कई शब्द प्रचलित हैं जिनमें बक्सा, डिब्बा, संदूक, ट्रंक, पेटी, कनस्तर ऐसे नाम हैं जो हिन्दी में सदियों से प्रचलित हैं । ध्यान रहे कि इन सभी में किसी भी तरह का सामान भरा जा सकता है । अटैची, ब्रीफ़केस, सूटकेस जैसी चीज़ें भी बक्से की श्रेणी में ही आती हैं मगर इनमें सिर्फ़ कपड़े या दस्तावेज़ रखे जा सकते हैं । इनका आकार छोटा होता है जबकि ट्रंक बड़े बक्से को कहते हैं । बड़े संदूक को संदूकचा और छोटे को संदूकची कहा जाता है । इसी तरह बॉक्स box बड़ा और छोटा भी हो सकता है । बक्से में बेशकीमती सामान से लेकर कपड़े, बर्तन और किराना जैसी गृहस्थी की हर तरह की सामग्री रखी जा सकती है ।
हिन्दी में बॉक्स का चलन कम से कम दो सदी पुराना है और अन्य कई आप्रवासी शब्दों की तरह यह भी यूरोपीय कारोबारियों के जरिये भारतीय बोलियों में प्रचलित हुआ । जहाजों से लद कर जो माल भारतीय तटों पर उतारा जाता था वह लकड़ी के बड़े बड़े संदूकों में भर कर लाया जाता था जिन्हें बॉक्स कहते थे । हिन्दी में यह शब्द बहुत लोकप्रिय हुआ और इसके कई रूपान्तर सामने आए जैसे- बॉक्स, बाक्स, बकसा, बक्स, बकस, बकसी, बक्सा, बकसिया आदि । बॉक्स में जहाँ बड़ा आकार है वहीं संदूकची के अर्थ में देशी भाषा में बकसिया शब्द भी बना लिया गया । बॉक्स मूलतः लकड़ी से बना एक पात्र है जिसमें बहुत सारा सामान रखा जाता है । पुराने ज़माने से ही हल्की लकड़ी से डब्बे बनाए जाते थे क्योंकि उनमें माल ढोने में सुविधा होती थी ।
बॉक्स बना है लैटिन के बक्सिस buxis या बक्सस buxus से जिनमें लकड़ी के संदूक या एक किस्म की झाड़ी का भाव है । विभिन्न संदर्भों के मुताबिक यह ग्रीक भाषा के पाइक्सोस pyxos से बना है । एटिमऑनलाइन के मुताबिक ग्रीक पाइक्सोस का मूल अज्ञात है मगर इसका अर्थ अंग्रेजी में बॉक्स ट्री बताया गया है अर्थात बॉक्स प्रजाति का पेड़ । कुछ सन्दर्भों में बॉक्स-ट्री का आशय ऐसी वनस्पति से है जिसकी लकड़ी से संदूक बनता है मगर ऐसा नहीं है । बक्सस से बने बॉक्स में सघनता का भाव है । पाइक्सोस का एक और ग्रीक रूप पाइक्नोस है । चैम्बर्स डिक्शनरी में पाइक्नोस का अर्थ भीड़, समूह, भरा हुआ, संकुल आदि बताया गया है वहीं जॉन ओगिल्वी की स्टूडेन्ट इंग्लिश डिक्शनरी के मुताबिक इसमें सघनता का भाव है ।
ध्यान रहे कि शुरुआती दौर में संदूक हल्की लकड़ी वाली बुश झाडियों के तने से भी बनाए गए और भारी तनों वाले वृक्षों की लकड़ी से भी । मूलतः पाइक्नोस में सघनता का भाव है जिसका रिश्ता मोटे तने वाले वृक्ष से है । प्रायः सभी सभ्यताओं में मानव विकास क्रम में समानता रही है । उपकरणों और वस्तुओं के विकास के पीछे की अवधारणा एक जैसी रही है और उनके निर्माण की प्रक्रिया भी । प्राचीन सभ्यताओं पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि कोई भी खोखला स्थान वस्तुओं को रखने, रहने के रूप में इस्तेमाल होता रहा है । चट्टानों को खोखला कर मनुष्य ने कंदरा बनाई-खुद के रहने के लिए और लकड़ी को खोखला कर उसने पात्र बनाए । पुराने दौर में समूचे वृक्ष को खोखला कर, कुरेद कर डोंगियाँ बनाई जाती थीं । इसके लिए वृक्ष का सघन तना होना ज़रूरी था । वृक्ष के आधार वाले सबसे चौड़े हिस्से को खोखला करने ही आदिम बॉक्स बने । पानी भरने की नांद भी इसी तकनीक से बनाई जाती थीं । बक्से का शुरुआती रूप यही था । बाद में लकड़ी के फट्टों को जोड़ कर सुंदर नक्काशीदार बक्से बनने लगे । एलिजाबेथ ब्रैमब्रिज और बॉबी मेयर द्वारा बॉक्स ट्री पर लिखी किताब से पता चलता है कि लैटिन का बक्सस ग्रीक भाषा के पाइक्नोस या पाइक्सोस का रूपान्तर है जिसका अर्थ है सुंदर नक्काशी के साथ बना हुआ लकड़ी का डिब्बा ।
पाइक्नोस शब्द में मूलतः सघनता पिण्ड का भाव था इसका पुख़्ता संकेत वाल्टर पी राइट के इन्साक्लोपीडिया ऑफ़ गार्डनिंग से मिलता है । वाल्टर के मुताबिक पाइक्नोस का अर्थ है गहन, घनीभूत, भरपूर जिसे आमतौर पर लकड़ी के तने की चौड़ाई और उसकी मोटाई के संदर्भ में लिया जाता है । किन्हीं संदर्भों में पाइक्नोस को सुगठित, ठोस, मोटा भी बताया गया है । कुल मिलाकर संदूक निर्माण के लिए वृक्ष को मुख्य स्रोत मानते हुए उसकी गुणवत्ता के ये आधार महत्वपूर्ण हैं और किसी बॉक्स ट्री में लकड़ी का भरपूर उपलब्धता सिद्ध होती है । यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रीक के पाइक्नोस से पाइक्सोस बना । इससे ही लैटिन का बक्सस बना जिससे अंग्रेजी का बॉक्स शब्द बना ।
मुक्केबाजी बेहद मशहूर खेल है जिसे बॉक्सिंग boxing कहा जाता है । बॉक्सिंग बना है बॉक्स से जिसका एक अर्थ घूँसा भी होता है । अंग्रेजी में बॉक्स का अर्थ है प्रचंड वेग, प्रचंड प्रहार । एटिमऑनलाइन के मुताबिक इसकी व्युत्पत्ति निश्चित नहीं है । सम्भवतः यह मध्यकालीन ड्यूश के बोक, मध्यकालीन जर्मन के बक या डेनिश बास्क से बना है । इन सभी का अर्थ प्रहार होता है । अंग्रेजी का बैश इसी कड़ी में आता है जिसका अर्थ है घूँसा, मुक्का । जॉन ओगिल्वी के मुताबिक घूँसे के अर्थ वाले बॉक्स का जन्म भी पाइक्नोस से हुआ है जिसमें ठोस, पुख्ता और भरपूर जैसा भाव है । ओगिल्वी बॉक्स चेहरे पर खुला छोड़ा गया ऐसा आघात बताते हैं जो कान तक जाता हो । हिन्दी में इसे ही कनचप्पा कहते हैं । बाद में यह आघात मुक्के या घूँसे के अर्थ में रूढ़ हो गया ।

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Friday, April 6, 2012

टिकट की रिश्तेदारियाँ

ticket

गर पूछा जाए कि फ़िरंगी ज़बान के वे कौन से शब्द हैं जिनका इस्तेमाल भारतीय भाषाओं के लोक साहित्य में खूब हुआ है । फिरंगी शब्द का मतलब यूँ तो विदेशी होता है मगर हिन्दी में फ़िरंगी से अभिप्राय अंग्रेजों से है इसलिए फ़िरंगी भाषा यानी अंग्रेजी भाषा से ही आशय है । हिन्दी और उसकी आंचलिक बोलियों में जैसे राजस्थानी, मालवी, ब्रज, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी आदि भाषाओं के लोकगीतों के संदर्भ में ऐसे शब्द गिने-चुने ही हैं मगर इनमें भी फ़िरंगी के साथ रेल और टिकट ऐसे हैं जिनका उल्लेख कई लोकगीतों में हुआ है । गौरतलब है कि भारत में रेल और टिकट शब्द का इस्तेमाल एक साथ ही शुरू हुआ । 1853 में भारत में रेल चलने के बाद ही लोग टिकट से परिचित हुए । ज़ाहिर है कि रेल से ज्यादा तेज यातायात सेवा इससे पहले तक नहीं थी । यह भी दिलचस्प है कि हिन्दी के तेज और अंग्रेजी के टिकट में रिश्तेदारी है क्योंकि टिकट शब्द भी भारोपीय मूल का ही है । टिकट शब्द अंग्रेजी के सबसे ज्यादा बोले जान वाले शब्दों में एक है । टिकस, टिकिट, टिकट, टिकटवा, टिकस बाबू जैसे अनेक शब्द हैं जो इससे बने हैं और लोकांचल में खूब बोले जाते हैं । टिकट जैसी व्यवस्था विभिन्न सेवाओं के लिए प्रचलित हुई और बाद में देशसेवा के लिए भी राजनीतिक पार्टियों में टिकट खरीदे बेचे जाने लगे ।
चिपकाना, सटाना, छेदना
टिकट शब्द का रिश्ता कि फ्रैंकिश भाषा में एस्टिकर से है जिसका अर्थ होता है चिपकाना, नत्थी करना आदि होता है । एटिमआनलाइन के मुताबिक इस एस्टिकर का रिश्ता पुरानी अंग्रेजी के stician से जुड़ता है जिसमें भेदना, चस्पा करना जैसे भाव हैं । एस्टिकर से पुरानी फ्रैंच का एस्टिकट शब्द बना जिसमें चिप्पी, रुक्का या पर्चा है । मध्यकालीन फ्रैंच में इससे एटिकट शब्द बना जिससे अंग्रेजी का टिकट शब्द सामने आया । एटिमआनलाइन के मुताबिक 1520 के दौर में यह शब्द मौजूदा रूप में प्रकट हुआ जिसमें शार्ट नोट, रुक्का या किसी दस्तावेज का भाव था । 1670 तक इसमें टिकट, लाइसेंस या परमिट जैसे भाव जुड़ गए । इनके मूल में भारोपीय धातु *steig- है जिसमें खोसना, खुबना, चुभोना जैसे भाव हैं । प्रकारान्तर से इसमें तीक्ष्णता का आशय उभरता है । याद रहे महत्वपूर्ण दस्तावेज के साथ टिकट या रसीद नत्थी करने के लिए पिन का उपयोग किया जाता है । नत्थी करने या सटाने के आशय का अर्थ विस्तार चिपकाना हुआ । अंग्रेजी का स्टिकर भी इसी मूल का है जिसमें चिपचिपी सतह वाले लेबल का आशय है । कुल मिला कर टिकट एक ऐसी रसीद है जिसे किसी सेवा के उपयोग हेतु अधिकार पत्र, लाइसेंस या परमिट का दर्जा प्राप्त है । निर्धारित प्रारूप में आवेदन करने या सेवा का मूल्य चुकाने के बाद आधिकारिक सील ठप्पे वाला यह रुक्का टिकट कहलाया । रसीदी टिकट भी प्रचलित है । 
तीक्ष्ण, तीखा और मार्गदर्शक
भारोपीय धातु *steig- से रिश्तेदारी वाली संस्कृत धातु तिज् है जिसमें तीक्ष्णता का भाव है । मोनियर विलियम्स के कोश में तिज्, तिक् और तिग् समानधर्मी धातुओं का उल्लेख है जिनकी अर्थवत्ता में यही सब बातें हैं । तिज् का अवेस्ता में तिघ्री, तिग्रा जैसे रूपान्तर सामने आए । सिविलाइजेशन ऑफ़ द ईस्टर्न ईरानियंस इन एन्शिएंट टाइम्स पुस्तक में विल्हेम जैगर तिघ्री और तिग्मा की तुलना करते हुए प्राचीन ईरानी के स्तिज का उल्लेख करते हुए उसमें निहित तीखी नोक वाले हथियार का आशय बताते हैं । अंग्रेजी के स्टिक stick शब्द से छड़ी का अर्थ सबसे पहले उभरता है । नोकदार छड़ी आदिमानव का पसंदीदा हथियार था । मोनियर विलियम्स और आप्टे कोश में तिग्म का अर्थ तीखा, नोकदार, ज्वलनशील, प्रखर आदि बताते हैं । निश्चित ही भाला, तीर जैसे हथियारों का आशय निकलता है । इन तमाम शब्दों का रिश्ता स्टिक से है जिसके क्रिया रूप में सटाना, जोड़ना, चस्पा करना, चिपकाना जैसे भाव हैं और संज्ञा रूप में इसमें छड़ी, सलाख, दण्ड, डण्डी, संटी जैसे आशय हैं । मूल रूप से छड़ी या दण्ड भी प्राचीन काल में धकेलने, चुभोने, हाँकने, निर्देशित करने के काम आते थे । अंकुश की तीक्षणता और उसका शलाका-रूप याद करें । 
तेग़ यानी तलवार, कृपाण
त्तरी ईरान की जज़ाकी भाषा में चुभन और दंश के अर्थ में तिग शब्द है जिसे तलवार के अर्थ वाले तेग शब्द से जोड़ कर देखें । पहलवी में तिग्रा शब्द है जिसका अर्थ तलवार होता है । इसी तरह जॉन प्लैट्स के कोश में तेग़, तेग़ा जैसे फ़ारसी शब्दों का उल्लेख है जिनका अर्थ तलवार या कृपाण होता है । इन शब्दों का विकास ज़ेंद के तिघा से हुआ जिनका सम्बन्ध संस्कृत के तिज्, तिग्, तिग्म से ही है । तिग्म में प्रखरता, चमक , किरण का भाव है । तिग्मांशु का अर्थ सूर्य है । तलवार या कृपाण को हिन्दी में भी तेग ही कहते हैं । सिखों के दशम गुरू का नाम तेग बहादुर है । भारोपीय स्तिग, ईरानी स्तिज, संस्कृत की तिज, तिग और जेंदावेस्ता की तिघ् धातुओं में धार, तीक्ष्णता वाले अर्थों का विकास तिग्म, तेग, स्टिक जैसे शब्दों मे हथियार के रूप में हुआ । तीर का निशान राह बताता है । दिशासूचक के रूप में भी तीर लगाया जाता रहा है । पहलवी में तिग्रा तीक्ष्ण, धारदार है तो अवेस्ता का तिघ्री तीर का पर्याय है । स्टिक पहले हथियार थी, बाद में सहारा बनी । अशक्त, दृष्टिहीन व्यक्ति छड़ी से टटोलकर राह तलाशता है ।
तेज, तेजस, तेजोमय
तिज् से ही बना है हिन्दी का तेज शब्द । उर्दू-फारसी में एक मुहावरा है तेज़ी दिखाना। इसका मतलब है होशियारी और शीघ्रता से काम निपटाना। तेज शब्द हिन्दी में भी चलता है और फारसी में भी । फर्क ये है कि जहां हिन्दी के तेज में नुक़ता नहीं लगता वहीं फारसी के तेज़ में लगता है । फारसी-हिन्दी में समान रूप से लोकप्रिय यह शब्द मूलतः इंडो़-इरानी भाषा परिवार का शब्द है। संस्कृत और अवेस्ता में यह समान रूप से तेजस् के रूप में मौजूद है । दरअसल हिन्दी , उर्दू और फारसी में जो तेज, तेज़ है उसके मूल में है तिज् धातु जिसका मतलब है पैना करना, बनाना । उत्तेजित करना वगैरह। तिज् से बने तेजस का अर्थ विस्तार ग़ज़ब का रहा। इसमें चमक, प्रखरता, तीव्रता, शीघ्रता जैसे भाव तो हैं ही साथ ही होशियारी, दिव्यता, बल, पराक्रम, चतुराई जैसे अर्थ भी इसमें निहित है । इसके अलावा चंचल, चपल, शरारती, दुष्ट, चालाक शख्सियत के लिए भी तेज़ विशेषण का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी में तेजवंत, तेजवान , तेजस्वी, तेजोमय, तेजी जैसे शब्द इससे ही बने हैं । इसी तरह उर्दू – फारसी में इससे तेज़ निग़ाह, तेज़ तर्रार, तेज़ दिमाग़, तेज़तर, जैसे शब्द बने हैं जो व्यक्ति की कुशलता, होशियारी, दूरदर्शिता आदि ज़ाहिर करते हैं । दिलचस्प बात ये कि तीव्रगामी, शीघ्रगामी की तर्ज पर हिन्दी में तेजगामी शब्द भी है। सिर्फ नुक़ते के फर्क़ के साथ यह लफ्ज़ फारसी में भी तेज़गामी है ।
तीता और तीखा स्वाद
स्वाद के सन्दर्भ में जो तिक्त, तीखा जैसे शब्द भी इसी तिज् में निहित तीक्ष्णता से जुड़ते हैं । तेजी़ में तीखेपन का भाव भी है। तेज धार या तेज़ नोक से यह साफ है । दरअसल संस्कृत शब्द तीक्ष्ण के मूल में भी तिज् धातु है । तिज् से बना तीक्ष्ण जिसका मतलब होता है नुकीला, पैना, कठोर, कटु, कड़ा वगैरह। उग्रता , उष्णता, गर्मी आदि अर्थों में भी यह इस्तेमाल होता है । तीक्ष्ण का ही देसी रूप है तीखा जो हिन्दी के साथ साथ उर्दू में भी चलता है । इस तीखेपन में मसालों की तेजी भी है । तेज़ मिर्च-मसाले वाले भोजन को तीखा कहा जाता है । तिक्त भी इसी मूल का है जिससे मालवी, राजस्थानी में तीखे के अर्थ वाला तीता शब्द बना । भारतीय मसालों की एक अहम कड़ी के रूप में तेजपान, तेजपात, तेजपत्ता या तेजपत्री के रूप में समझा जा सकता है । अपनी तेज गंध और स्वाद के चलते तेजपत्र को भारतीय मसालों में खास शोहरत मिली हुई ।

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Tuesday, April 3, 2012

तजुर्बाकारी की बातें

Scratchसम्बन्धित आलेख-1.मोची, मोजा, विमोचन और जुराब.2.लिफाफेबाजी और उधार की रिकवरी 3.चांदी का जूता, चंदन की चप्पल 4.जैकब, जैकेट और याकूब.5.जल्लाद, जल्दबाजी और जिल्दसाजी.6.सिर्फ मोटी खाल नहीं काफी…7.कृषक की कशमकश और फ़ाक़ाकशी

फ़ा रसी ज़बान से हिन्दी में आए अनेक शब्दों में तजुर्बा का भी शुमार है जिनका बोलचाल में रोज़ाना खूब इस्तेमाल होता है । तजुर्बा यानी अनुभव । अनुभव को भोगा हुआ यथार्थ भी कहा जाता है । आसान भाषा में समझना चाहें तो हमारे आसपास की वह सचाई जिसे इन्द्रियों के ज़रिए हमने जाना, परखा और फिर उसके बारे में अपनी राय कायम की, तजुर्बा बनती है । तजुर्बा मूलतः अरबी भाषा का शब्द है और हिन्दी में इसे अलग अलग ढंग से लिखा जाता है । हिन्दी के नामीगिरामी लेखकों के यहाँ इस शब्द की वर्तनी का बर्ताव अलग अलग मिलता है मसलन प्रेमचंद ने तजुर्बा भी लिखा है, तजरबा भी लिखा है और तजुरबा भी । इससे ज्यादा और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है । हिन्दी शब्दसागर तजरबा शब्द को तरजीह देता है जबकि ज्यादातर हिन्दी वाले तजुर्बा लिखना पसंद करते हैं । इसका शुद्ध अरबी रूप है तज्रिबह् या तज्रिबा । तजुर्बा में मूलतः अनुभव, प्रमाण, परीक्षण, सबूत, परीवीक्षण, जाँचना, कसौटी जैसे निहितार्थ है ।
रबी का तज्रिबा सेमिटिक धातु ज-र-ब ( j-r-b ) से बना है । हेन्स व्हेर, जे मिल्टन कोवेन, एन्थनी सेल्मॉन के अरबी कोश और बेवर्ली ई क्लैरिटी के इराकी अरेबिक कोशों को देखने के बाद यह स्पष्ट होता है कि इसमें मूलतः खुजली, खँरोंच और सूखी, पपड़ाई त्वचा जैसे मूल भाव हैं । विकास के दौर में मनुष्य ने काफ़ी वक्त उघाड़े बदन प्रकृति के सामीप्य में गुज़ारा है । खरोंच, ज़ख़्म, फोड़ा, फुंसी आदि को उसने सबसे पहले महसूस किया । ज-र-ब में इसी अर्थ में परीक्षण का भाव समाहित हुआ । किसी सतह को छू कर, स्पर्ष कर, कुरेद कर उसके बारे में जानना ही शुरुआती परीक्षण के दायरे में था । मद्दाह के कोश के मुताबिक ज-र-ब से जरब बनता है जिसका अर्थ है खुजली, ख़ारिश आदि । इससे ही जराब या जर्राब आते हैं जिसमें परीक्षण, आज़माईश, प्रयोग जैसे भाव हैं । इसी कड़ी में तज्रिबा बना जिसमें अनुभव वाली बात आती है । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक वह ज्ञान जो परीक्षण द्वारा पाया जाए, तजुर्बा कहलता है । वह परीक्षा जो ज्ञान प्राप्त करने के लिए दी जाए, यह भी तजुर्बा कहलाती है । अनुभवी के लिए तजुर्बेकार शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है । अनाड़ी को नातजुर्बाकार और अनाड़ीपन, अनुभवहीनता को नातजुर्बाकारी ( नातज्रुबाकारी ) कहते हैं ।
-र-ब का उल्लेख जुराब की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में हो चुका है । जुराब के सन्दर्भ में इसमें निकटता, सामिप्य जैसे भाव इसे खाल या त्वचा से जोड़ते हैं । जुराब मूलतः चमड़े से बना एक आवरण होता है । तजुर्बा के सन्दर्भ में भी ज-र-ब धातु सामने आती है । अनुभूति दो तरह की होती है । भौतिक और मानसिक । अनुभव का दायरा व्यापक है और हमारे अनुभव में वही यथार्थ सामने आते हैं जो मानसिक प्रक्रिया से गुज़रने के बाद सच के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं । मगर आदिकाल में मनुष्य अपने अनुभवों के दायरे में भौतिक अनुभूतियाँ ज्यादा थीं । ज-र-ब का एक अर्थ होता है सूखी, मोटी, खुरदुरी, रूखी त्वचा या पपड़ाई हुई सतह । ध्यान रहे शरीर से अलग की गई खाल का यही रूप होता है । शरीर की त्वचा इसलिए होती है क्योंकि उसकी ऊपरी कोशिकाएँ मरने लगती हैं । यह परत अपने आप अलग हो जाती है । रूखी त्वचा का आभास हमें खुजली के रूप में होता है । ज-र-ब धातु में खुजली का भाव भी है । ध्यान रहे त्वचा, हमारा रक्षा कवच है और इसका दूसरा महत्वपूर्ण गुण है अनुभूति होना । त्वचा बना है त्वच् धातु से जिसका मूलार्थ है स्पर्श । स्पष्ट है कि ज-र-ब का मूलार्थ भी स्पर्श के ज़रिये अनुभूति तक सीमित था किसी ज़माने में ।
सेमिटिक भाषा परिवार में और वर्ण आपस में बदलते हैं । ज-र-ब की समानधर्मा धातु है ज-र-र ( j-r-r )  जिसमें खींचने, कुरेदने का भाव है । शल्य चिकित्सक या सर्जन के लिए अरबी में जर्राह शब्द है जो चीरफ़ाड़ करके ज़ख्मों का इलाज करता है । यह शब्द पहले हिन्दुस्तानी में भी प्रचलित था, अब इसका प्रयोग कम हुआ है । जर्राह वाली चीरफ़ाड़ को खंरोंचना, कुरेदना वाले अर्थों में परखा जाए तो यह भी उसी मूल का शब्द निकलता है । इसी कड़ी में जरीब का परीक्षण भी कर लिया जाए । पुराने ज़माने में ज़मीन की नाप-जोख करने वाले व्यक्ति को जरीबकश कहते थे । मूलतः जरीब वह साँकलनुमा औज़ार होता था जिससे ज़मीन की पैमाईश होती थी । एक तरह से वह इंचटेप था । इसके दोनों छोरों पर लकड़ी या धातु का कीला होता था । एक सिरे पर इस कीले को गाड़ कर बाकी जंजीर को खींच कर दूसरे छोर तक ले जाया जाता था । ज़मीन पर लगातार रगड़ने की वजह से उसे धातु का बनाया जाता था । जरीब में उपजाऊ ज़मीन का आशय भी है और भूमि का नापने की एक इकाई भी जरीब कहलाती थी ।
गौर करें कि उपजाऊ ज़मीन ही जोती जाती है । जोतने की क्रिया को ही कृषि कहते हैं । संस्कृत में कृष् का अर्थ खींचना, खरोचना ही होता है । जोतने की क्रिया में हल का खींचना, उसके फाल से भूमि को कुरेदने, खरोचने की क्रिया स्पष्ट है । जरीब के जर्र में खींचने का निहितार्थ पैमाने के अर्थ में भी है और जोतने योग्य भूमि के अर्थ में भी । हिन्दी शब्दसागर में जरीब की माप 55 गज की और अग्रेजी जरीब 60 गज की होती है । एक जरीब में 20 कट्ठे होते हैं । जॉन प्लैट्स के मुताबिक एक जरीब भूमि का वर्गाकार टुकड़ा एक बीघा ज़मीन होती थी । इसी तरह पाँच जरीब का टुकड़ा एक हेक्टेयर के बराबर होता है ।

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