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Monday, January 18, 2016

‘फ़ैशनपरस्त’ से ‘वामपरस्त’ तक


हिन्दी में सरपरस्त, खुदपरस्त, बुतपरस्त जैसे शब्द खुब बोले-सुने जाते हैं। दरअसल फ़ारसी में ‘परस्त’ जैसा एक कारसाज़ औज़ार (प्रत्यय) है जिसे किसी भी शब्द के पीछे जोड़ कर एक नया शब्द बनाया जा सकता है। यहाँ तक कि विदेशी शब्दों के साथ भी उसे जोड़ा जा सकता है मसलन खुद फ़ारसी वालों ने अरबी के हुस्न से जोड़ कर ‘हुस्नपरस्त’ बना डाला। अंग्रेजी के फ़ैशन से इसे मिला दिया और ‘फ़ैशनपरस्त’ बन गया जो हिन्दी में भी बड़ा मशहूर है। तो चलिए इस ‘परस्त’ का आगा-पीछा तलाशा जाए।

भारोपीय भाषाओं में आधार, स्थित अथवा स्थान के लिए ‘स्थ’ स्थि, स्था (sta, stha) जैसे मूलक्रिया रूप हैं जिनसे ऐसे सैकड़ों शब्द बने हैं जिनका रिश्ता खड़े रहने (स्टैंड), ठहरने, रुकने, थमने (स्टे), स्थान (आस्तान, स्तान) या गमन करने, जाने (प्रस्थान) जैसे अंग्रेजी, उर्दू व हिन्दी शब्दों से है। इनके ज़रिये स्थिति का बोध होता है, किसी से जुड़ने की जानकारी मिलती है। हिन्दी के स्तम्भ, स्तब्ध, स्थल हों या अंग्रेजी के स्टूल, स्टॉल, स्टेशन से लेकर अरेस्ट, असिस्ट जैसे शब्द हों, गौर करें तो इन सबमें ‘स्थ्’, ‘स्था’ (sth, stha) की छाया दिखाई देगी। तो संस्कृत में भी ‘स्थ’ से बने अनेक शब्द है जिनमें ‘प्रस्थ’ का भी शुमार है और जिसका आशय है स्थिर, अटल, अचल, दृढ़, टिकाऊ, मज़बूत, पुख़्ता, अविचल, समतल, बराबर, चौरस, समस्तरीय, मैदान, आधार, सपाट, बंधाव, जुड़ाव, साथ जाना, साथ चलना जैसे लगभग मिलते-जुलते आशय हैं।

‘स्थ’ से बने कुछ शब्दों में इसका आशय एकदम स्पष्ट होता नज़र आता है मसलन ध्यानस्थ, सिंहस्थ, योगस्थ, गृहस्थ या प्रस्थ से बने इन्द्रप्रस्थ, खाण्डवप्रस्थ जैसे शब्दों से स्पष्ट होता है। यही ‘प्रस्थ’ जब ‘वन’ से जुड़ता है तो वानप्रस्थ बनता है जिसका मूल आशय तो गृहस्थाश्रम के अगले पड़ाव से है। प्राचीनकाल में सभी जिम्मेदारियाँ निभाने के बाद लोग वनवास करने चले जाते थे ताकि शान्ति से जी सकें। यूँ वानप्रस्थ में वनगमन का भाव भी है और वनवास करने का भी। प्रस्थ में साथ चलने, साथ जाने का आशय भी है।

इसी ‘प्रस्थ’ का फ़ारसी रूप होता है ‘परस्त’। गौरतलब है वैदिक संस्कृत और अवेस्ता में बहनापा रहा है अर्थात काफी समानता रही है। संस्कृत का ‘प्र’ उपसर्ग अवेस्ता में ‘फ्र’ या ‘फ्रा’ में बदल जाता है। प्रस्थ का अवेस्ता में समरूप ‘फ्रस्त’ है और फ़ारसी में इससे ‘पर’ बन जाता है। डीएन मैकेंजी के पहलवी कोश में परस्ताक, परस्तिह, पिरिस्त, परिस्तदन, परिस्तिश्न जैसे रूप मिलते हैं। फ़ारसी में इसका परस्त रूप सामने आया जिसमें तत्पर, निष्ठावान, अनुरागी, भक्त, आराधक जैसे अर्थ निहित थे। आशय समर्पणयुक्त साहचर्य या सहगमन का ही था। ध्यान रहे ‘प्रस्थ’ में निहित साथ चलने (प्रस्थान) का भी आशय है। शृद्धालु पन्थ के साथ चलता है। समर्पित व्यक्ति भी साथ-साथ चलता है। सो ‘परस्त’ से ही ‘परस्तिश’ भी बन गया जिसका अर्थ है पूजा, अर्चना, आराधना हो गया। ‘परस्त’ से ही बन गया ‘परस्तार’ यानी सेवक या सहचर। यह पहलवी में भी है।

अब देखें कि बुत से परस्त जुड़कर बुतपरस्त में मूर्तिपूजक नज़र आता है और हुस्न से वाबस्ता होकर परस्त सौन्दर्योपासक बन जाता है। इसी तरह खुद से चस्पा होकर खुदपरस्त बन जाता है स्वार्थी, अहंकारी। पूजास्थल के अर्थ में इसी कड़ी में परस्तिशक़दा या परस्तिशखाना भी जुड़ जाते हैं। अब हिन्दीवालों को सोचना है कि इस प्रस्थ या परस्त से वो और कौन कौन से नए शब्द बना सकते हैं। दो शब्द तो हम अभी दे रहे हैं। प्रस्थ से वामप्रस्थी और परस्त से वामपरस्त।
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Friday, January 1, 2016

शिलाओं में बसी आबादियाँ

श्चिमी एशिया का एक विश्वख्यात पर्यटन स्थल है पेट्रा। जॉर्डन की इस शिला-नगरी का प्राचीन सामी ज़बान में नाम है 'सेला' जिसका अर्थ चट्टान या शिला होता है। खासतौर पर आशय चट्टानी दरार से है। इस शहर के सभी आवास चट्टानों को तराशकर बनाए गए थे। सामान्य घर से लेकर भव्य प्रासाद तक। दरअसल यह प्राचीन सेमिटिक सभ्यता का बड़ा केन्द्र था। इसका शुमार दुनिया के सात अजूबों में भी होता है। ग्रीक में पेट्रा का अर्थ पत्थर, चट्टान, पाषाण होता है। इसी तरह भारत में पश्चिम से पूर्व तक तक्षशिला, कुरुशिला, प्रेतशिला, विक्रमशिला और धर्मशिला जैसे प्राचीन विद्याकेन्द्र मूलतः मानव बसाहटें थीं। किसी न किसी तौर पर इनका नाता पर्वतीय उपत्यका से रहा इसलिए इनके नाम के साथ शिला शब्द चस्पा हुआ।

प्राचीन मानव का पहला आश्रय चट्टानी दरारें ही बनी, बाद में इन्हें तराश कर आश्रय बनाने का हुनर भी इनसान ने सीख लिया। हिब्रू ने भी प्राचीन सेमिटिक के 'सेला' शब्द को जस का तस अपनाया जो शिला का पर्याय या प्रतिरूप था। भाषाविज्ञानियों का मानना है कि ग्रीक लोगों ने इस महान चट्टानी शहर का ‘पेट्रा’ नाम ‘सेला’ के ग्रीक प्रतिरूप ‘पेट्रा’ के बतौर चलाया। बाइबल में सेला का उल्लेख है, पेट्रा का नहीं। अरबी में सेला के कई प्रतिरूप हैं जैसे सुल्ल, सुल्ला यानी चट्टान। सेल्ले, सेल्ला या सिलात यानी पत्थर के पाट, पटिये, फलक या खण्ड। इन सब शब्दों की संस्कृत के शिला से समानता ध्यान देने योग्य है। संस्कृत में सिल, शिल जैसे शब्द भी हैं और सिला या शिला भी।

हम यही कहना चाहते हैं कि प्राचीन काल में चट्टानी आश्रयों के सहारे ही मानव बसाहटें हुईं। सेला या पेट्रा ऐसी ही प्राचीन बसाहट थी। यह पुख़्ता प्रमाण हैं कि अत्यन्त प्राचीन काल से आप्रवासन के ज़रिये भाषायी लेन-देन भी चल रहा था। वैदिक शिला के जितने सामी प्रतिरूप ऊपर देखे उतने संस्कृत या अन्य सजातीय भाषाओं में नहीं है, बस शिला, शैल या सिला ही हैं। फ्रांस का एक छोटा सा शहर है 'ला रोश्शेल' इसमें भी शेल, सेल, शिला को तलाशना आसान है। ला रोश्शेल का अर्थ है छोटी चट्टान। अंग्रेजी का Shells भी इसी कड़ी में आता है जिसका अर्थ काट-छाँट, तराशना, गोला, आवरण या पिण्ड होता है।

शिला-नगरों की परम्परा पुरानी रही है यह समरकन्द से भी साबित होता है। उज़्बेकिस्तान के इस प्राचीन शहर के नाम का रिश्ता संस्कृत के ‘अश्म’ से है। अश्म यानी पत्थर। अश्म का ईरानी रूप हुआ अस्मर। खण्ड का अर्थ होता है टुकड़ा, बस्ती, पिण्ड, समूह आदि। इसका ईरानी रूप कंद हुआ। ज़ाहिर है अस्मरकंद से ही समरकंद रूप सामने आया जिसमें पाषाण-नगर का भाव है।

पेट्रोलियम शब्द भी पेट्रा (पत्थर) के साथ ग्रीक ओलियम (तेल) जुड़ने से बना है। इसी तरह मिट्टी का तेल पेट्रोलियम का बहुत सरलीकृत रूप है, जबकि जीवाश्म ईंधन इसका सही अनुवाद है जो मूलतः पेट्रोलियम से न होकर फॉसिल ऑइल का सही अनुवाद है। फॉसिल का अर्थ होता है जीवाश्म जो जीव+अश्म से मिलकर बना है। अश्म शब्द का मतलब संस्कृत मे होता है चट्टान या पत्थर। इसका मतलब जीवधारियों के उन अवशेषों से है जो लाखों-करोड़ों वर्षों की भूगर्भीय प्रक्रिया के तहत प्रस्तरीभूत हो गए।

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Friday, March 15, 2013

ऐश-ओ-आराम से ऐषाराम से

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भी ‘ऐषाराम’ सुना है ? संस्कृत शब्दावली का शब्द लगता है। बौद्ध विहारों के संदर्भ में सुने हुए ‘संघाराम’ जैसा । यह हिन्दी का नहीं बल्कि मराठी का शब्द है और इसका आशय हिन्दी के ऐशो-आराम से है । यूँ हिन्दी का ऐशो-आराम मूलतः फ़ारसी के ‘ऐश-ओ-आराम’ से आ रहा है जिसमें आनंद, विलास या सुखोपभोग का आशय है। मराठी के ऐषाराम में ऐश और आराम है। हिन्दी वाले इसी तर्ज़ पर ऐशाराम सपने में भी नहीं लिखेंगे। ‘ऐश’ अरब का शब्द है और आराम फ़ारसी का। यूँ भारत ईरानी परिवार का होने के नाते आराम संस्कृत, हिन्दी में भी मौजूद है। मज़े की बात देखिए कि अरबी के ‘ऐश’ में शकर वाला ‘श’ है और षट्कोण वाला ‘ष्’ संस्कृत की अपनी खूबी है। इसके बावजूद मराठी ने ऐश औ आराम से ‘ऐषाराम’ यूँ बना लिया कि किसी को इसके विदेशी होने का शक भी न होगा। यूँ माधव ज्यूलियन के मराठी-फ़ारसी कोश में ‘ऐषाराम’ का ‘ऐशाराम’ रूप ही दिया गया है मगर यू.एम.पठाण के मराठी-फ़ारसी कोश में इसका रूप “ऐषाराम’ है।
ज हर कोई ऐश करने की जुगत में लगा हुआ है। बिना काम किए अच्छी गुज़र बसर, यानी ऐश। फ़ारसी ने हमें ‘ऐश’ सिखाया अलबत्ता शब्द फ़ारसी में भी अरबी से दाखिल हुआ। अरबी में इसकी धातु ऐन-या-शीन (ع-ى-ش) है जिसमें सुख के साथ जीना, चैन की गुज़र-बसर या विलासयुक्त जीवन का आशय है और इससे बनी आश क्रिया में रोज़, रोटी, जीवनचर्या जैसे भाव हैं। दिलचस्प बात यह कि किसी ज़माने में ऐश का वह मतलब नहीं था जो आज प्रचलित हो चुका है। अरबी में ऐश का मूल अर्थ था रोटी, रोज़ी, आजीविका, जीवन, किसी के साथ रहना आदि। ऐश के दार्शनिक अर्थ पर विचार करें तो यह सच भी है। इन्सान को हवा-पानी तो ईश्वर ने मुफ्त में दिया। मगर इसके बूते उसकी जिंदगी चलनी मुश्किल थी। उसने तरकीब लगाई। मेहनत की और रोटी बना ली। बस, उसकी ऐश हो गई। हर तरह से वंचित व्यक्ति के लिए सिर्फ रोटी ही जीवन है। रोटी जो अन्न का पर्याय है, अन्न से बनती है। लेकिन बदलते वक्त में ऐश में वे तमाम वस्तुएँ भी शामिल हो गईं जिनमें से सिर्फ रोटी को गायब कर दिया जाए तो उस तथाकथित ऐश से हर कोई तौबा करने लग जाए।
श के मूल आश के साथ अरबी उपसर्ग ‘म’ लगने से बनता है मआश जो इसी कड़ी से जुड़ता है। मद्दाह के कोश में मआश का अर्थ है जीविका, रोज़ी, जागीर जो किसी काम के इनामस्वरूप मिले। मआशदार यानी जागीरवाला। मआशी यानी जीविका सम्बन्धी और मआशियात यानी अर्थशास्त्र। मआश की मौजूदगी वाला फ़ारसी का हिन्दी का एक मज़ेदार शब्द हिन्दी में आकर रच-बस गया है- बदमाश। इसमें फारसी के बद उपसर्ग की भी मौजूदगी देखी जा सकती है। इस बद् यानी bad शब्द का अंग्रेजी के bad बैड से अर्थसाम्य का रिश्ता तो है मगर दोनों का जन्म से रिश्ता नहीं है। बद् यानी बुरा, निकृष्ट, अशुभ, खराब, अपवित्र, अमंगल, गिरा हुआ, बिगड़ा हुआ आदि। भाषा विज्ञानियों के मुताबिक बद् शब्द पुरानी फारसी के ‘वत’ से बना है । यह भी सम्भव है कि इसकी व्यत्पत्ति का आधार संस्कृत की ‘पत्’ धातु हो जिसमें नैतिक रूप से गिरना, अधःपतन, नरक में जाना जैसे भाव शामिल हैं। पतित, पातकी, पतन जैसे शब्द भी इससे ही बने हैं। बहुत सम्भव है कि फारसी के बद् की रिश्तेदारी पत् से हो। अरबी के ‘मआश’ का मतलब होता है आजीविका, जीवन, रोज़ी। इस तरह बदमाश का शुद्ध रूप हुआ बदमआश जिसका मतलब है गलत रास्ते पर चलनेवाला, बुरे काम करनेवाला, ग़लत तरीक़ों से रोज़ी कमाने वाला, जिसके जीने का ढंग ग़लत हो। मआशदार का अर्थ अय्याश है।
श से ही बनता है अय्याश (ऐयाश) जिसका अर्थ है विलासिता से रहने वाला, कामुक, लम्पट, ऐश करने वाला। अय्याश के लिए एक और प्रचलित शब्द ऐशबाज भी है। ऐशबाजी, अय्याशी जैसे शब्द आरामतलबी और आडम्बरपूर्ण जीवन शैली के संदर्भ में इस्तेमाल होते हैं। अय्याश का जिक्र होते ही एक नकारात्मक भाव उभरता है। सुखविलास के सभी साधनों का अनैतिक प्रयोग करनेवाले के को आमतौर पर अय्य़ाश कहा जाता है। मद्दाह साहब के शब्दकोश में तो लोभी, भोगी के साथ व्यभिचारी को भी अय्याश की श्रेणी में रखा गया है। यह अय्याश शब्द भी ऐश की ही कतार में खड़ा है और उसी धातु से निकला है जिसका मूलार्थ जीवन का आधार रोटी थी मगर जिसका अर्थ समृद्धिशाली जीवन हो गया। उर्दू-फारसी-अरबी में लड़कियों का एक नाम होता है आएशा / आयशा ayesha जो इसी कड़ी का शब्द है मगर इसमें सकारात्मक भावों का समावेश है। आयशा का मतलब होता है समृद्धिशाली, सुखी, जीवन से भरपूर। पैगम्बर साहब की छोटी पत्नी का नाम भी हजरत आय़शा था और उन्हें इस्लाम के अनुयायियों की माँ का दर्जा मिला हुआ है।
शो-आराम का दूसरा पद यूँ तो फ़ारसी शब्द है मगर यह इसी अर्थवत्ता अर्थात खुशी, प्रसन्नता या इन्द्रिय आनंद के साथ संस्कृत और हिन्दी में भी है। आराम: मूलत: रम् धातु से बना है जिसमें आराम, अन्त, उपसंहार, बंद करना, स्थिर होना, रुकना, ठहरना जैसे भाव शामिल हैं। इन्द्रियों को शिथिल करने अथवा उनकी क्रियाशीलता को रोकने से शांति उपजती है। यह शांति ही आनंद, उल्लास, प्रसन्नता और तृप्ति का सृजन करती है। आराम शब्द के मूल में यही सब बाते हैं। इसमें ‘वि’ उपसर्ग लगाने से बने विराम शब्द में भी थमना, रुकना, बंद करना, उपसंहार जैसे भाव हैं मगर इसका अर्थ आराम नहीं होता है बल्कि किन्हीं क्रियाओं या स्थितियों के अंत का इसमें संकेत है। आराम को भी विराम दिया जाता है अर्थात विराम दरअसल सक्रियता की भूमिका भी हो सकती है। भगवान राम के नाम का मूल भी यह रम् धातु ही है। राम का अर्थ भी आनंद देने वाला ही होता है। इसके अलावा रमण, रमणीय, रमणी, रमा, राम, संघाराम, रम्य, सुरम्य, मनोरम, रमाकान्त, रमानाथ, रमापति जैसे शब्द भी इसी कड़ी में हैं। अवेस्ता यानी ईरान की प्राचीन भाषा ने आरामः को ज्यों का त्यों अपना लिया। फिर ये आधुनिक फारसी में भी जस का तस रहा। फारसी से ही उर्दू में भी आराम आया। यहां इस शब्द का अर्थ बाग-बगीचा न होकर शुद्ध रूप से विश्राम के अर्थ में है।

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Sunday, January 13, 2013

कोहरा और कुहासा

fog

र्दियों में शाम से ही धुंध छाने लगती है जिसे कोहरा या कुहासा कहते हैं । ठंड के मौसम में आमतौर पर हवा भारी होती है जिसकी वजह वातावरण में नमी का होना है । धरती की ऊपरी परत जब बेहद ठण्डी हो जाती है तो हवा की नमी सघन होकर नन्हें-नन्हें हिमकणों में बदल जाती है इसे ही कोहरा जमना कहते हैं । कोहरा बनने की प्रक़्रिया लगभग बादल बनने जैसी ही होती है । कभी-कभी बादलों की निचली परत भी पृथ्वी की सतह के क़रीब आकर कोहरा बन जाती है । कुल मिलाकर कोहरे में कुछ नज़र नहीं आता । धुँए में जिस तरह से दृश्यता कम हो जाती है उसी तरह हवा की नमी हिमकणों में बदल कर माहौल की दृश्यता को आश्चर्यजनक रूप से कम कर देती है । कोहरे के आवरण में समूचा दृश्यजगत ढक जाता है । देखी जा सकने वाली हर शै गुप्त हो जाती है, लुप्त हो जाती है, छुप जाती है, छलावे की तरह ग़ायब हो जाती है । कोहरा की अर्थवत्ता के पीछे भी गुप्तता या लुप्तता का भाव ही प्रमुख है ।
किसी भी किस्म का आवरण मूल रूप से सुरक्षा कवच होता है । कोहरा भी एक तरह से किन्हीं फ़सलों के लिए लाभदायक ही होता है । शत्रु से खुद को बचाने के लिए युद्ध के प्राचीनतम तरीक़ों में कैमोफ्लैज या छद्मावरण शैली भी है । कोहरा भी एक तरह से प्रकृति का कैमोफ्लैज है । संस्कृत में एक धातु है गुह् जिसमें ढकने, छिपाने, परदा डालने, गुप्त रखने का भाव है । गुहा और गुफा जैसे शब्दों के मूल में यही गुह् धातु है । आदिकाल से प्राणियों को आश्रय की खोज रही है । आदिम युग में आश्रय का अर्थ सुरक्षित स्थान से था सो आश्रय का अर्थ था गुप्त जगह, जहाँ खुद को छुपाकर बचाव किया जा सके । गुहा में गुप्तता का भाव प्रमुख है जो बाद में संरक्षित-सुरक्षित स्थान हुआ आप्टेकोश के मुताबिक बंद या सुरक्षित स्थान के अर्थ में गुहा का एक अर्थ हृदय भी होता है क्योंकि यह छाती के भीतर है ।
गुह् का पूर्ववैदिक रूप कुह् रहा होगा । याद रहे ‘क’ वर्णक्रम में ही ‘ग’ भी आता है। निश्चित ही ‘कुह्’ में वही भाव थे जो ‘गुह्’ में हैं । मोनियर विलियम्स के मुताबिक कुह् से कुहयते क्रिया बनती है जिसका अर्थ है to surprise or astonish or cheat by trickery or jugglery अर्थात छलावरण या मायाजाल फैलाना जिसका उद्धेश्य वास्तविकता छुपाना हो । इसीलिए कुह से कोहरा के अर्थ में ही संस्कृत में कोहरा के अर्थ में ही संस्कृत में कुहेलिका शब्द भी है जिसका अर्थ भी अंधकार, धुंधलापन, कोहरा आदि है । कुहेलिका में मुहारवरेदार आशय भी हैं जिसमें मिथ्यावरण या छलावरण की अभिव्यक्ति होती है । हिन्दी के कोहरा के जन्मसूत्र संस्कृत के कुहेड़िका या कुहेड़ से जुड़ते हैं जिसका अर्थ कोहरा, धुंध, तुषार, fog, mist, कुहासा आदि है । कुह का मतलब छली या फ़रेबी भी होता है । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक कुबेर का अन्य नाम भी कुह है । कुहक यानी मायाजाल, इन्द्रजाल । कुहककार याना माया अथवा प्रपंच रचने वाला । कुहासा भी इसी मूल से निकला है
छिपने-छिपाने, गुप्त-लुप्त जैसी अभिव्यक्ति की वजह से ही गुह् या कुह से पहाड़ की अर्थवत्ता वाले शब्द बने । संस्कृत में कुहरम् शब्द है जिसका मतलब है गुफा, गढ़ा आदि । आप्टेकोश में इसका एक अर्थ गला या कान भी बताया गया है । जाहिर है, इन दोनों ही शरीरांगों की आकृति गुफा जैसी है । नाभि के साथ नाभिकुहर जैसी उपमा भी मिलती है । संस्कृत के पूर्वरूप यानी वैदिकी या छांदस की ही शाखा के रूप में अवेस्ता का भी विकास हुआ जिससे फ़ारसी का जन्म माना जाता है । फ़ारसी में पहाड़ के लिए कोह शब्द है जो इसी मूल से आ रहा है । बरास्ता अवेस्ता कुह् में निहित गुप्त स्थान या गुफा का अर्थ विस्तार फ़ारसी में कोह के रूप में सामने आया अर्थात वह स्थान जहाँ बहुत सी गुफाएँ हों । स्पष्ट है कि गुफाएँ पहाड़ों में ही होती हैं, सो कुह् से बने कोह का अर्थ हुआ पहाड़ ।
गुफा के लिए हिन्दी में खोह शब्द भी खूब प्रचलित है । गौर करें कुह्-गुह् के अगले क्रम खुह् पर । इस खोह शब्द की फ़ारसी के कोह से समानता भी देखें । वैसे कोह से गोह भी बनता है जिसका अर्थ भी गुफा है । मोनियर विलियम्स इसका अर्थ गुप्तस्थान बताते हैं । हिन्दी शब्दसागर खोह की व्युत्पत्ति के लिए गोह का संकेत भर देते हैं । मेरे विचार में खोह का निर्माण कुह्, कोह की कड़ी में ही हुआ होगा । फ़ारसी में कोहसार का अर्थ पहाड़ ही होता है । पर्वतीय भूमि के लिए कोहिस्तान एक प्रचलित नाम है । ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में इस नाम के कई स्थान हैं । पाकिस्तान में कोहमरी नाम का एक पर्यटन स्थल भी है जिसका लोकप्रिय नाम अब सिर्फ़ मरी रह गया है ।
कोहिनूर जैसे मशहूर हीरे के नामकरण के पीछे भी यही कुह् धातु है । कोहिनूर बना है कोह-ए-नूर से अर्थात रोशनी का पहाड़ । याद रहे, कोहिनूर ( अन्य लोकप्रिय उच्चारण कोहनूर, कोहेनूर भी हैं ) सदियों पहले गोलकुंडा की हीरा खदान से निकाला गया था, जो सदियों पहले दुनिया की इकलौती हीरा खदान थी । कोहिनूर दुनिया का सबसे विशाल हीरा था और इसके आकार की वजह से ही मुगलकाल में इसे रोशनी का पहाड़ जैसा नाम मिला । अंग्रेजी में गुफा को केव कहते हैं जो भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और इसकी रिश्तेदारी भी कुह् से है । डगलस हार्पर की एटिमआनलाइन के मुताबिक केव CAVE बना है प्रोटो इंडोयूरोपीय धातु क्यू keue- से जिसका अर्थ है मेहराब या पहाड़ के भीतर जाता ऐसा छिद्र जो भीतर से चौड़ा हो ।

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Friday, January 11, 2013

देहात की बात

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ग्रा मीण अंचल के लिए गाँव-देहात शब्दयुग्म का हिन्दी में खूब प्रयोग होता है । “वे दूर देहात से आए हैं,” “देहात में रहने के अपने फ़ायदे हैं,” जैसे वाक्यों में देहात का अर्थ गाँव ही है । गँवई या ग्रामीण के लिए देहात से देहाती विशेषण बनता है । देहात हमें भारतीय परिवेश से जुड़ा शब्द लगता है तो इसलिए क्योंकि यह भारत-ईरानी भाषा समूह का शब्द है और फ़ारसी मूल के ‘देह’ से हिन्दी की बोलियों में आया । फ़ारसी में देह के दीह, दिह जैसे रूप भी मिलते हैं । देह यानी गाँव और देह का बहुवचन देहात यानी ग्रामीण क्षेत्र । हिन्दी में देह, देहात जैसे शब्दों का प्रयोग ग्यारहवीं सदी से ही शुरू हो चुका था । यूल-बर्नेल के एंग्लो-इंडियन कोश हॉब्सन-जॉब्सन के अनुसार पंद्रहवीं सदी के कम्पनी राज के दस्तावेज़ों में कोलकाता को ‘दे कलकत्ता’ लिखा गया है । यह ‘दे’ दरअसल फ़ारसी का ‘देह’ है जिसका अर्थ है ग्राम । ‘दे कलकत्ता’ का अर्थ हुआ गाँव कलकत्ता जो तब हुगली के मुहाने पर स्थित एक मामूली बसाहट थी । करीब साढ़े तीन सौ साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी की कासिम बाजार कोठी का फर्स्ट आफिसर था जाब चार्नक जो बाद में कंपनी एजेंट बना और उसी की देख-रेख में सूतानटी और ‘दे कलकत्ता’ का विकसित रूप आज की कोलकाता महानगरी है ।
ख्यात भाषाविद जूलियस पकोर्नी द्वारा खोजी गई प्रोटो भारोपीय धातुओं में dheigh (-धिघ, मोनियर विलियम्स ) से बना है अवेस्ता का ‘देगा’ जिसका अर्थ है निर्माण, बनाना, मिट्टी, ढाँचा अथवा लेपन । ईरानी परिवार की भाषाओं में इसके अन्य रूप हैं दिज़, देज़, दाएज़ा, दाएजायति जिनका अर्थ है दीवार, परकोटा या क़िला । अवेस्ता में पइरीदाएज़ा शब्द है जिसका अर्थ है जन्नत, वैकुण्ठ, स्वर्गवाटिका या परकोटा । अंग्रेजी का पेराडाइस इसका ही रूपान्तर है । यूनिवर्सिटी ऑफ़ टैक्सास के लिंग्विस्टिक रिसर्च सेंटर के मुताबिक पुरानी फ़ारसी में ‘दिदा’ का अर्थ कोट या क़िलेबंदी होता है । हिन्दी का ‘दीवार’ इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की इंडो-ईरानी शाखा का शब्द है और भारतीय भाषाओं में इसकी आमद फ़ारसी से हुई है । यह अवेस्ता के एक सामासिक पद ‘देगावरा’ [dega-vara] से बना है । संस्कृत की ‘दिह्’ धातु का रिश्ता dheigh से जुड़ता है । इसका अर्थ परकोटा, आश्रय, कोट, हदबंदी, किलेबंदी करना, बचाव करना, लीपना, पोतना आदि । ध्यान रहे घास-फूस के ढाँचे को मिट्टी से सान-पोत कर उसे मज़बूती दी जाती थी ।
फ़ारसी के ‘दहलीज’ शब्द में यही ‘देह’ है । इन सभी में बनाने या निर्माण की क्रिया शामिल है । ‘दहलीज’ का अर्थ होता है पौड़ी, सीढ़ी, द्वार या चौखट । इसी मूल से बने हैं देहरी, देहरा, देहरी जैसे शब्द जो चौखट या द्वार की अर्थवत्ता रखते हैं । गौर तलब है कि उत्तराखंड के कई स्थानों के साथ कोट, पौड़ी या द्वार शब्द जुड़े नज़र आते हैं जैसे कोटद्वार, हरिद्वार, पौड़ी गढ़वाल आदि । जहाँ तक ‘देहरादून’ के देहरा की व्युत्पत्ति का प्रश्न है , तमाम विकल्पों के साथ फ़ारसी के देह, दिह से भी देहरा की व्युत्पत्ति सम्भावित है जिसमें गाँव, दीवार, परकोटा जैसे भाव हैं । इस तरह ‘देहरादून’ का अर्थ हुआ वादी का गाँव । ग्वालियर के पास एक घाटीगाँव भी है । देहरादून का एक अर्थ दर ऐ वादी अर्थात घाटी का दरवाज़ा भी हो सकता है । वह बस्ती जहाँ से द्रोणिका अर्थात दून घाटी शुरू होती है । वैसे देहरादून का रिश्ता देवघर या डेरा से भी जोड़ा जाता है । इसी कड़ी में ‘टिहरी गढ़वाल’ भी आता है । संदर्भों के अनुसार टिहरी / टेहरी शब्द ‘त्रिहरी’ यानी तीन विषयों ( मनसा, वाचा, कर्मणा ) का शमन करने वाला स्थान । यह व्युत्पत्ति काल्पनिक है । ‘टिहरी’ शब्द भी ‘देहरी’ का रूपान्तर है, ऐसा मुझे लगता है ।
संस्कृत की दिह् धातु से बना है ‘देह’ शब्द जिसका अर्थ काया, शरीर होता है मगर इसका मूलार्थ है ढाँचा, आवरण, कवच या बचाव । गौर करें दिह् में निहित लेपन के अर्थ पर । किसी वस्तु पर लेपन उसे सुरक्षित बनाने के लिए ही किया जाता है । देह एक तरह से शरीर के भीतरी अंगों का सुरक्षा कवच है । मोनियर विलियम्स के कोश के अनुसार ‘देह’ का अर्थ है आवरण, लेपन, मिट्टी, ढाँचा, साँचा, गूँथना, ढालना आदि। दार्शनिक अर्थों में देह को मिट्टी से निर्मित भी कहा जाता है और इसे किले की उपमा भी दी जाती है। गौरतलब है कि अंग्रेजी के ‘डो’ dough का अर्थ होता है सानना, गूँथना आदि । डो का रिश्ता भी प्रोटो भारोपीय धिघ् dheigh से जुड़ता । कबीर ने मनुष्य को माटी का पुतला यूँ ही नहीं कहा । देह, दिह्, दिज़् शब्दों के भावार्थों पर जाएँ तो माटी के पुतले के निर्माण की सारी क्रियाएँ स्पष्ट होती है यानी मिट्टी को पीटना, सानना, राँधना, गूँथना, साँचा बनाना और फिर पुतला बनाना । स्पष्ट है कि संस्कृत के दिह् और फ़ारसी के दीह या देह परस्पर समानार्थी हैं और एक ही मूल से निकले हैं । 
गौर करें, फ़ारसी के दीह / दिह या देह शब्द में मूलतः क़िलेबंदी, हदबंदी या परकोटा बनाने का भाव ही है । प्राचीनकाल में आबादियाँ इसी तरह रहती थीं । ‘वास’ करने की वजह से ही राजस्थानी में ‘बासा’ शब्द है । बस्ती के मूल में भी ‘वास’ ही है । सर रॉल्फ़ लिली टर्नर के कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ के अनुसार संस्कृत के देही में ढूह, क़िला, परिधि, चाहरदीवारी, परकोटा की अर्थवत्ता का समावेश हैं । सिन्धी में यह दिहु है जिसका अर्थ पलस्तर लगाना, परत चढ़ाना, मज़बूत करना, ढूह बनाना आदि । फ़ारसी में इसका एकवचन रूप दिह या देह होता है और बहुवचन रूप देहात है जिसका अर्थ ग्रामीण क्षेत्र है । डीएन मैकेंजी के पहलवी कोश में ‘देह’, ‘दिह’ में देश, इलाक़ा, ग्राम या क्षेत्र, भूमि जैसे भाव हैं और इससे बने पहलवी के ‘दहिगन’ में ग्रामीण या कृषक का भाव है । दहिगन का फ़ारसी रूप देहक़ान होता है । हिन्दी में इसे दहकान भी लिखा जाता है । देहक़ानी या देहक़ानियत का अर्थ होता है गँवारू, गँवई या उजड्डपन । यह ठीक वैसे ही है जैसे ग्राम से गाँव और फिर गँवई । किसी व्यक्ति को असभ्य के अर्थ में गँवार इसीलिए कहा जाता है क्योंकि वह उजड्ड होता है । मगर इसका आशय यह है कि ग्रामीण व्यक्ति शहरी संस्कार से अपरिचित होता है सो वह गँवार हुआ । बाद में गँवार का रूढ़ार्थ ही असभ्य हो गया ।

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Friday, January 4, 2013

अहाते में…

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हि न्दी में अहाता शब्द इतना प्रचलित है कि गाँव-देहात से शहरों तक लोगों की ज़बान पर ये शब्द किसी भी घिरे हुए स्थान के संदर्भ में फ़ौरन ज़बान पर आता है । इसकी मिसाल देखिए कि सरकार ने आबक़ारी नीति के तहत शराब की हर दुकान की बगल में अहाता खोलने का प्रावधान करके इस शब्द को हर आदमी की ज़बान पर ला दिया है । अब मध्यप्रदेश के मयक़शों की ज़बान पर अहाता शब्द चढ़ा हुआ है । देश के मध्य में स्थित यह सूबा लगता है जल्दी ही मद्यप्रदेश बन जाएगा । बहरहाल, अहाता निहायत देशी रंग-ढंग वाला शब्द है । चलताऊ तौर पर इसे हाता भी कहा जाता है । इसीलिए ज़रा भी शुबहा नहीं होता कि अहाता अरब से चला और फ़ारसी के रास्ते हिन्दुस्तानी ज़बानों में दाख़िल हुआ ।
हाता का मूल रूप इहाता है और इसका जन्म अरबी धातु हा-वाव-थे यानी  ط – و -ح के पेट से हुआ है । अहाता को हाता कहने का चलन दरअसल भारतीय ज़मीन पर इस शब्द के बिगड़ने का प्रमाण नहीं है बल्कि अरबी में ही इहाता के अलावा हाता, हीता जैसे संक्षिप्त रूप पहले से मौजूद थे और ये भी जस के तस हिन्दी में चले आए । इहाता या अहाता के हाता, हीता जैसे संक्षिप्त रूप दरअसल शब्द-चलन की मुख-सुख प्रक्रिया से नहीं बने हैं बल्कि इन रूपों से इहाता, अहाता का व्युत्पत्तिक या धात्विक आधार मज़बूत होता है । अहाता की तुलना में h-w-t अर्थात ह-व-थ ध्वनियों से حاطه हाता का निर्माण होता है । अरबी में का स्वरूप स्वर के ज्यादा निकट है । हाता में स्वरागम की प्रक्रिया से इहाता या अहाता जैसे रूप बनते हैं ।
ल सईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक अरबी धातु हा-वाव-थे में मूलतः दीवार, घेरा, बाड़ा, समेटना, समाविष्ट करना, सुरक्षा, रखवाली करना, आरक्षित करना जैसे भाव हैं । इससे बने अहाता / इहाता जैसे शब्दों में घेरा हुआ, बाड़ा लगाना, हर तरफ़ से आरक्षित जैसे भाव हैं । भारतीय परिवेश में इसका प्रयोग आंगन, दालान की तरह ही ज्यादा होता रहा है । जैसे मेम्वार्ज ऑन द हिस्ट्री, फोकलोर, एंड डिस्ट्रीब्यूश ऑफ द रेसेस ऑफ द नॉर्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज़ ऑफ इंडिया (1869) में सर हेनरी मायर्स इलियट ने हाता के लिए परिसर, दालान, आंगन, प्रिमिसेस, कम्पाऊंड जैसे शब्द बताते हुए इसे अरबी के इहाता का बिगड़ा रूप बताया है ।
जॉन शेक्सपियर की हिन्दुस्तानी – इंग्लिश डिक्शनरी के मुताबिक इसमें फेंसिंग, बंद, घिरे हुए या अवरुद्ध क्षेत्र का भाव है । मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के कोश के मुताबिक अरबी का इहाता एक घर भी हो सकता है या चारदीवारी भी । इसमें वेष्ठन, प्राचीर के अलावा इलाक़ा, प्रदेश क्षेत्र या हलक़ा जैसे आशय भी वे बताते हैं । हिन्दी शब्दसागर में भी चारदीवारी के साथ साथ हाता में क्षेत्रवाची व्यापक अर्थवत्ता बताई गई है । इसका अर्थ प्रान्त, हलका या सूबा भी होता है जैसे बंबई हाता, या बंगाल हाता । इसके अलावा इसमें सरहद, सीमान्त या रोक जैसे भाव भी हैं । बाडा, चकला, मोहाल, कटरा, चक जैसा ही इलाक़ाई विशेषण भी हाता में है जैसे पंडित हाता, बाभन हाता, कुरमी हाता, हाता चौक आदि ।
हाता, हाता, इहाता आश्रय व्यवस्था से जुड़ी शब्दावली के शब्द हैं । दुनियाभर की सभ्यताओं में मनुष्य ने विकासक्रम में सबसे पहले घिरे हुए स्थान में ही आश्रय तलाशा । प्राकृतिक रूप से किसी जगह के घिरे होने की वजह से उसे उस स्थान का रक्षात्मक महत्व समझ में आया और फिर आगे चल कर वह खुद भी किसी स्थान के चारों ओर उसी तरह के सुरक्षात्मक सरंजाम जुटाने लगा । पहले कंदरा, फिर बाड़ा, फिर झोपड़ी और कालान्तर में भवन, क़िले आदि भी वह बनाने लगा । इस सबके मूल में सुरक्षा का भाव ही प्रमुख था । अरबी धातु हा-वाव-थे यानी ط- و- ح की कोख से एक और महत्वपूर्ण शब्द जन्मा है एहतियात जिसमें सावधानी, ख़बरदारी, होशयारी का भाव है । यूँ भी कह सकते हैं कि अहाते की तामीर इन्सान ने एहतियातन की । “ एहतियात बरतना”या “एहतियात बरतते हुए” जैसे वाक्य आम बोल-चाल में सुने जाते हैं ।

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Monday, December 31, 2012

चक, चकला, चकलादार

chakla-tokenहिन्दी के तीन चकले-2

क्र का चकला रूप मूलतः हिन्दी, पंजाबी में है । हिन्दी के चकला में चपटा, गोल, वृत्ताकार वाले आशय के साथ साथ प्रान्त का भाव भी है जबकि पंजाबी चकला में वृत्ताकार, गोल, घेरदार, विस्तीर्ण के साथ साथ शहर का खुला चौक, ज़िला अथवा वेश्यालय का आशय भी है । ज़ाहिर है ये फ़ारसी का असर है । भाषायी स्तर पर नहीं बल्कि मुस्लिम शासन का प्रभाव । विभिन्न संदर्भों से पता चलता है कि चकला मूलतः मुस्लिम शासन के दौरान भूप्रबन्धन, उपनिवेशन और राजस्व सम्बन्धी मामलों की शब्दावली से निकला है । चकला व्यवस्था से तात्पर्य एक राजस्व ज़िले से था । राजस्व अधिकारी चकलादार कहलाता था जिसे नाज़िम भी कहते थे । चकला में स्थानवाची भाव प्रमुख है । इसमें ‘चक’ में निहित तमाम आशय तो शामिल हैं ही, साथ ही आबादी और बसाहट का भाव भी है  । जिस तरह कई आबादियों के साथ चक नाम जुड़ा नज़र आता है ( रामपुर चक या चक बिलावली ) वही बात चकला में भी है जैसे मीरपुर चकला या चकला-सरहिन्द और दर्जनों ऐसे ही अन्य स्थानों के नाम । विभिन्न संदर्भों में चकला का अर्थ सर्किल, वृत्त, खण्ड या भाग होता है ।
मुस्लिमकाल की सरकारी भाषा अर्थात फ़ारसी में चकला यानी एक सब डिवीज़न या उपखण्ड जिसके अधीन कई परगना होते थे । आज इसे अनुभाग, उपवृत्त, उपखण्ड की तरह समझा जा सकता है । ख्यात इतिहासकार इरफ़ान हबीब के अनुसार क्षेत्रीय इकाई के रूप में चकला का संदर्भ शाहजहाँ के शासनकाल से मिलना शुरू होता है । परगना व्यवस्था के साथ साथ चकला व्यवस्था भी कायम थी । मुग़ल काल में लगभग समूचे उत्तर भारत में कई गाँवों के समूहों को पुनर्गठित कर उन्हें चकला कहा जाता था । चकले का प्रमुख नाज़िम, चकलादार या भूयान कहलाता था । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि मुग़ल दौर में अलग-अलग राज्य इकाई को ‘सरकार’ का दर्ज़ा प्राप्त था । ‘सरकार’ या ‘सिरकार’ अर्थात एक राज्य शासन । एक ‘सरकार’ कई छोटी राजस्व इकाइयों में बँटी होती थी जो चकला कहलाती थीं । पूर्वी भारत में एक चकले का आकार मुग़ल सरकार (प्रशासनिक इकाई) का छठा हिस्सा होता था । शेरशाह सूरी शासित क्षेत्र को 47 सरकारों में बाँटा गया था । एक अन्य संदर्भ के अनुसार मुर्शिदकुली खाँ के ज़माने में बंगाल को 13 चकलों में बाँटा गया था ।
कोठे के अर्थ में भी चकला शब्द का स्थानवाची आशय ही उभरता है । देहव्यापार केन्द्र के रूप में चकला शब्द कैसे सामने आया इसे जानने से पहले यह समझ लेना ज़रूरी है कि प्राचीनकाल से ही समाज के प्रभावशाली तबके द्वारा देह व्यापार को प्रश्रय दिया जाता रहा है । शासन, सामंत, श्रेष्ठीवर्ग ने वेश्यावृत्ति को बढ़ावा दिया । सत्ता का जैसे-जैसे विकास होता गया, स्त्री-देह राजतन्त्र का एक विशिष्ट उपकरण बनती चली गई । वेश्यावृत्ति या देहव्यापार के पीछे स्त्री की मजबूरी नहीं बल्कि उसे ऐसा करने के लिए विवश किया गया । ब्राह्मणों-पुरोहितों नें इसके लिए न जाने कितने विधान-अनुष्ठान रचे । धर्म से लेकर कर्म तक स्त्री जकड़ी हुई है । वैसे भी स्त्री के रूप-लावण्य के आगे उसकी जाति-धर्म-वर्ण को ब्राह्मणों-पुरोहितों ने गौण माना है । विवाह, संतानोत्पत्ति आदि मुद्दों पर भी उपविधान रच कर पुरोहित समाज ने श्रेष्ठियों के लिए किसी भी वर्ण की स्त्री को सुलभ बनाया । देवदासी, नगरवधु का दर्ज़ा देकर सत्ता ने उसे विशिष्ट बना दिया और गणिका, वेश्या कह कर श्रेष्ठी वर्ग ने उसे बाजार में बैठा दिया । कभी कूटनीतिक दाँवपेच का हिस्सा बनी स्त्री देह कालान्तर में निरन्तर युद्धरत शूरवीरों की यौनपिपासा को शान्त करने का ज़रिया बनी । सेनाओं के साथ सरकारी खर्चे पर वारांगनाओं का काफ़िला भी चला करता था ।
हिन्दी शब्दकोशों में चकला का अर्थ वृत्त, चौका, रोटी बेलने का गोल, सपाट पत्थर, राज्य, सूबा, इलाक़ा, क्षेत्र के अलावा देहव्यापार का अड्डा, तवाइफ़खाना, वेश्यालय आदि बताया गया है । चकला के स्थानवाची आशय के साथ इसमें कसबीनों, तवाइफ़ों और जिस्मफ़रोशी के डेरों की अर्थवत्ता पश्चिमोत्तर सीमान्त क्षेत्र की बोलियों में स्थापित हुई होगी, ऐसा लगता है । गाँव, सूबा, इलाक़ा के लिए चक़, चक़ला जैसे शब्द फ़ारसी, पश्तो, पहलवी, बलूची, सिंधी के अलावा अनेक पश्चिमी बोलियों में मिलते हैं । मुग़ल फ़ौजों के लिए वेश्याओं की अलग जमात चलती थी । यही नहीं मुग़ल दौर में यह पेशा काफ़ी फलाफूला । चकला, रंडीखाना, ज़िनाख़ाना, ज़िनाक़ारी का अड्डा, तवाइफ़ख़ाना, कोठा जैसे कितने ही पर्यायी शब्दों की मौजूदगी से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है जो मुग़लदौर में प्रचलित थे । यही नहीं फ़ौजी चकला, रेजिमेंटल चकला जैसे शब्दों से भी इसकी पुष्टि होती है कि पहले मुग़ल दौर में और फिर औपनिवेशिक दौर में सामान्य चकला आबादी से इन चकलों को पृथक करने के लिए इनके आगे फौजी या रेजिमेंटल जैसे विशेषण लगाए गए । गौरतलब है कि दो सदी पहले तक यूरोप में भी मिलिटरी ब्रॉथेल जैसी व्यवस्था प्रचलित थी । रेजिमेंटल चकला भी वही है । ये सरकारी चकले होते थे ।
क़रीब सवा सौ साल पहले एलिजाबेथ एन्ड्र्यू और कैथरीन बुशनैल द्वारा लिखी गई पुस्तक - “द क्वींस डॉटर्स इन इंडिया” में फ़िरंगियों की सरपरस्ती में चलते ऐसे ही वेश्यालयों की दारुण गाथा बयान की गई है । क़िताब में इन अड्डों के लिए चकला शब्द का प्रयोग ही किया गया है । किताब बताती है कि ब्रिटिश दौर की हर अंग्रेज छावनी में चकला होता था जहाँ के रेट भी सरकार ने फिक्स किए हुए थे । चकलों के बारे में किताब में लिखा है कि, “In the regimental bazaars it is necessary to have a sufficient number of women, to take care that they are sufficiently attractive, to provide them with proper houses, and, above all, to insist upon means of ablution being always available.” ध्यान रहे रेजिमेंटल बाजार यानी छावनी बाजार जिनकी मूल पहचान रूपजीवाओं के डेरों यानी चकलों की वजह से ही थी । कृ.पा. कुलकर्णी के ‘मराठी व्युत्पत्ति कोश’, रॉल्फ़ लिली टर्नर की 'ए कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़’ के मुताबिक चकला शहर का केन्द्रीय स्थान भी है । शहर के मध्य स्थित वृत्ताकार क्षेत्र, बाज़ार, पीठा, कोई भी गोलाकार बसाहट, अड्डा, दुकान, चौक आदि । यह मध्यवर्ती बसाहट ही कोठों का इलाक़ा यानी चक़ला था । किसी ज़माने में चक़ला तवाइफ़ों की बस्ती थी । बाद में चकला एक पेशे का पर्याय भी हो गया । कुछ लोग चक़ला और कोठा को एक मानते हैं । चक़ला शुरू से ही देह व्यापार केन्द्र रहा है जबकि कोठा महफ़िलों से आबाद होता था । चकला क्षेत्र था, कोठा इमारत थी । 
संदर्भों के मुताबिक मुग़ल बादशाहों ने जहाँ-जहाँ अपने स्थायी पड़ाव और लश्कर आदि रखे वहाँ तवायफ़ों और वेश्याओं को बसाया । जब लश्कर और पड़ाव जैसी आबादियाँ स्थायी बस्तियों में तब्दील हुईं तो वहाँ क़िलों की तामीर की गईं । फौज़ी और सरकारी अमलों की दिलज़ोयी के लिए इन नाचने-गानेवालियों, डेरेदारनियों, वेश्याओं को स्थायी ठिकाना बनाने के लिए जगह दी गईं । इन्हें भी चकला कहा गया । ये बसाहटें प्रायः छोटी गढ़ियों के बाहर और बड़े क़िलों में मुख्य बाज़ार से जुड़े हिस्सों में होती थीं । गौर करें चावड़ी बाज़ार शब्द पर । यह भी औपनिवेशिक दौर का शब्द हैं । चावड़ी यानी शहर के मध्य स्थित मुख्य चौराहा या चौक । इन्हें ही चावड़ी बाजार chawri bazar कहा गया। धनिकों के मनोरंजन के लिए ऐसे ठिकानों पर रूपजीवाओं के डेरे भी जुटने लगते हैं । इसीलिए चावड़ी बाजार शब्द के साथ तवायफों का ठिकाना भी जुड़ा है । ग्वालियर के चावड़ी बाजार की भी इसी अर्थ में किसी ज़माने में ख्याति थी । स्पष्ट है कि वेश्यालय के अर्थ में रसोई का चकला या स्थानवाची चकला में सिर्फ़ वृत्ताकार लक्षण की ही समानता है । स्थाननाम के साथ जुड़े चकला शब्द में पहले सिर्फ़ भूक्षेत्र का भाव था । बाद में इसमें बसाहट या आबादी का आशय जुड़ा । ब्रॉथेल की अर्थवत्ता वाले चकले में भी मूलतः आबादी, बसाहट का भाव था, न कि देहव्यापार का । समाप्त [ पिछली कड़ीः हिन्दी के तीन चकले-1]

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Tuesday, December 25, 2012

मोदीख़ाना और मोदी

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[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]

पिछली कड़ी- मोदी की जन्मकुंडली

मोदी की अर्थवत्ता में शामिल भावों पर गौर करें तो इसका रिश्ता आपूर्ति, भंडार, स्टोर, राशन, दुकान, रसद, मिलिट्री सप्लाई, किराना, राजस्व, कर वसूली आदि से जुड़ता है । इन आशयों से जुड़े शब्दों की एक लम्बी शृंखला सेमिटिक धातु मीम-दाल-दाल (م د د ) यानी m-d-d से बनी है जिसमें आपूर्ति, सप्लाई, सहायता, सहारा, फैलाव जैसे भाव है । गौर करें हिन्दी में सहायता का लोकप्रिय पर्याय ‘मदद’ है जो इसी कड़ी से जुड़ा है । मद्द’ में निहित आपूर्ति या सहायता के भाव का विस्तार मदद में हैं जिससे मददगार, मददख़्वाह जैसे शब्द बने हैं । इसी कड़ी में आता है ‘इमदाद’ जिसका अर्थ भी आपूर्ति, सहायता, आश्रय, हिमायत अथवा सहारा होता है ।
द्द धातु से बने शब्दों में एक और दिलचस्प सब्द की शिनाख़्त होती है । बहीखातों की पहचान लम्बे-लम्बे कॉलम होते हैं जिनमें हिसाब-किताब लिखा जाता है । अरबी में इसके लिए ‘मद्द’ शब्द है । घिसते घिसते हिन्दी में यह ‘मद’ हो गया । हिन्दी में इसका प्रयोग जिन अर्थों में होता है उसका आशय खाता, पेटा, हेड या शीर्षक है जैसे- “यह रकम किस ‘मद’ में डाली जाए” या “मरम्मत वाली ‘मद’ मे कुछ राशि बची है” आदि । मद / मद्द के कॉलम, स्तम्भ या सहारा वाले अर्थ में अन्द्रास रज्की के अरबी व्युत्पत्ति कोश में अलहदा धातु ऐन-मीम-दाल से बताई गई है । इससे बने इमादा, इमाद, अमीद, अमूद और उम्दा जैसे शब्द हैं जिनमें सहारा, मुखिया, स्तम्भ, प्रमुख, विश्वसनीय, प्रतिनिधि जैसे भाव भी हैं, अलबत्ता ये हिन्दी में प्रचलित नहीं हैं । सम्भव है यह मद्द की समरूप धातु हो ।
मोदी शब्द की व्युत्पत्ति को मद्द से मानने की बड़ी वजह है इसमें निहित वे भाव जिनसे मोदी की अर्थवत्ता स्थापित होती है । ‘मद’ तो हुआ खाता मगर इसका ‘मद्द’ रूप भी हिन्दी में नज़र आता है जैसे मद्देनज़र, मद्देअमानत आदि । मद्देनज़र का अर्थ है निग़ाह में रखना । ‘मदद’ में जहाँ सहायता का भाव है वहीं आपूर्ति भी उसमें निहित है । ‘मदद’ अपने आप में सहारा भी है सो ‘मदद’ में निहित ‘मद्द’ पहले कॉलम या स्तम्भ हुआ फिर यह बहीखातों का कॉलम या खाना हुआ और फिर इसे मदद की अर्थवत्ता मिली । अरबी में एक शब्द है ‘मद्दा’ जिसका अर्थ है विस्तार, फैलाव, सहारा वहीं इसमें सामान, वस्तु, चीज़, पदार्थ अथवा मवाद आदि की अर्थवत्ता भी है । शरीर के भीतर जख्म होने पर जब वह पकता है तो उसका आकार फूलता है । प्रसंगवश ‘मवाद’ शब्द भी अरबी का है और इसी मूल से निकला है । ‘मद्द’ में निहित फैलाव, विस्तार इसमें निहित है । ध्यान रहे आपूर्ति में भी विस्तार, फैलाव की अर्थवत्ता है । किसी स्थान पर किसी चीज़ की आपूर्ति से फैलाव होता है । गुब्बारे में हवा की आपूर्ति से समझें । भोजन करने पर पेट के फूलने से समझें । इसी तरह विशाल क्षेत्र में राशन की आपूर्ति में भी फैलाव का वही आशय है ।
यूँ मुग़लदौर में एक सरकारी विभाग ‘मोदीखाना’ भी प्रसिद्ध था जिसका अर्थ था रसद-आपूर्ति विभाग । हिन्दुस्तानी – फ़ारसी कोशों में मोदीखाना शब्द मिलता है जिसका अर्थ भण्डारगृह , किराना-स्टोर, अनाज की आढ़त, granary या commissariat ( कमिसरियत, सेना रसद विभाग ) मिलता है । हालाँकि इन्स्टीट्यूट ऑफ सिख स्टडीज़ के डॉ. कृपाल सिंह ने अपनी पुस्तक सिख्स एंड अफ़गान्स में ‘मोदी’ को अरबी शब्द माना है और इसका अर्थ “भुगतान किया जा चुका” बताया है । इसी पुस्तक में वे ‘मोदीखाना’ के बारे में बताते हैं कि यह दरअसल मुस्लिम दौर की उन सरकारों में एक महत्वपूर्ण विभाग था जहाँ किन्हीं कारणों से मौद्रिक लेन-देन कम होता था  और भू-राजस्व का भुगतान जिन्सी तौर पर किया जाता था । अर्थात मुद्रा के बदले अनाज, राशन, पशु आदि दे दिए जाते थे । सरकार इसे ही महसूल समझ कर रख लेती थी । इसी मोदीखाने का प्रमुख ‘मोदी’ कहलाता था । यह ‘मोदी’ कर वसूल करता था । उसे जमा करता था और फिर जमा की गई जिंसों को वह शासन द्वारा निर्धारित मूल्य पर बेच भी सकता था । ज़ाहिर है इस नाम के पीछे मद्दा में निहित वस्तु, सामग्री, जिंस, चीज़ जैसे आशय ही व्युत्पत्तिक आधार हैं । प्रसंगवश सुलतानपुर के नवाब दौलत खां लोधी के मोदीखाने में अपने शुरुआती जीवन में गुरुनानक भंडारी (मोदी) के पद पर थे जहाँ खाद्यान्न के रूप में लगान जमा किया जाता था ।
सेनाओं में प्राचीनकाल से ही यह परिपाटी रही है कि कूच करते वक्त उनके साथ दुनियाजहान का असबाब भी चलता था । चालू भाषा में जिसे लवाजमा या फौजफाटा कहते हैं उसका तात्पर्य यही है । मुग़ल दौर में जब फौज चलती थी उसके साथ पंसारी की दुकान भी होती थी जिसे मोदीख़ाना कहते थे । दवाईखाना, मरम्मतखाना, फराशखाना जैसे विभागों में ही एक विभाग मोदीखाना था । स्थायी तौर पर किसी श्रेष्ठी को सेना में रसद आपूर्ति का काम मिल जाता था और कभी शासन की तरफ़ से ही प्रत्येक बड़े शहर में वणिकों को फौज को राशन पहुँचाने का अनुबंध मिल जाता था । सरकार के स्वामीभक्त व्यवसायी, प्रभावशाली धनिक ऐसे करार (ठेके) पाने के लिए जोड़-तोड़ करते थे । मगर उसकी मुश्किलें भी थीं । ये काम पाने के लिए उन्हें आज की ही तरह से सरकार के असरदार लोगों की जेबें गर्म करनी पड़ती थीं । आठवीं-नवीं सदी के भारत में भ्रष्टाचार के कई नमूने शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम’ नाटक से भी पता चलते हैं ।
चार्य विष्णुशर्मा लिखित पंचतन्त्र में इसका उल्लेख है जिससे पता चलता है कि सेना में रसद आपूर्ति का काम प्राचीनकाल से ही मोटी कमाई वाला माना जाता था । पंचतन्त्र की संस्कृत – हिन्दी व्याख्या में श्यामाचरण पाण्डेय लिखते हैं- गौष्ठिककर्मनियुक्तः श्रेष्ठी चिन्तयति चेतसा हृष्टः। वसुधा वसुसम्पूर्णा मयाSद्य लब्धा किमन्येन ।। अर्थात “मोदी का काम करने वाला व्यापारी जब किसी राजकीय सेना आदि को रसद पहुँचाने का कार्य पा जाता है तो प्रसन्न होकर अपने मन में सोचता है कि आज मैने पृथ्वी पर सम्पूर्ण धन ही प्राप्त कर लिया है । पुनः निश्चित होकर लोगों को लूटता है ।” आज के दौर के बड़े कारोबारियों के पुरखों ने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में रसद आपूर्ति ठेकों में करोड़ों के वारे-न्यारे किए थे, यह किसी से छुपा नहीं है । सेना सहित विभिन्न विभागों के कैंटीन और रेलवे की खानपान सेवा जैसी व्यवस्थाएँ दरअसल “मोदीखाना” जैसी प्राचीन आपूर्ति सेवाओं के ही बदले हुए रूप हैं । यूँ ‘मोद’ से भी ‘मोदी’ का रिश्ता जोड़ा जा सकता है क्योंकि उसके सारे प्रयत्न खुद के आमोद-प्रमोद के लिए होते हैं ।-समाप्त 

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Monday, December 24, 2012

मोदी की जन्मकुंडली

gnatmodikhana[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]
प्रा  यः सभी भाषाओं के बुनियादी शब्दभंडार में जिन ख़ास स्रोतों से शब्द आते हैं उनमें सैन्य-प्रशासन जैसे क्षेत्र भी है । ऐसा ही एक शब्द है ‘मोदी’ modi वणिक वर्ग का एक उपनाम भी है जैसे प्रसिद्ध व्यावसायिक घराना ‘मोदी’ के संस्थापक रायबहादुर गूजरमल मोदी । उपनामों पर अगर गौर करें तो अधिकांश उपनामों के निर्माण का आधार स्थानवाची या कर्मवाची है अर्थात उपनाम धारण करने वाले के निवास या उसके खानदानी पेशा का संकेत इसमें छुपा होता है जैसे दारूवाला ( मद्य व्यवसाय ) या पोखरियाल (पोखरा वाला अर्थात पोखरा का निवासी ) आदि । ऐसा ही एक नाम ‘मोदी’ है मगर दो अक्षरों के इस सरनेम से ऐसा कोई संकेत नहीं निकलता जिससे इसमें निहित व्यवसायगत या जातिगत संकेत मिलें । हम सिर्फ़ रूढ़ अर्थ में जानते हैं कि ‘मोदी’ बनिया जाति का एक उपनाम है और बनिया व्यापार करता है । किन्तु मोदी शब्द में व्यापार जैसी अर्थवत्ता भी नहीं है । जानते हैं ‘मोदी’ की जन्मकुंडली ।

ब्दकोशों में ‘मोदी’ शब्द के बारे में तसल्लीबख़्श जानकारियाँ नहीं मिलतीं । लगभग सभी शब्दकोशों में ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत के ‘मोद’ ( आनंद ) या मोदक ( लड्डू ) से जोड़ने का प्रयत्न नज़र आता है । खास बात यह भी कि तमाम कोशों में इसका अर्थ बनिया, अनाज का व्यापारी, नून-तेल-मिर्ची, आटा-दाल-चावल का आढ़ती, खाद्य सामग्री बेचने वाला परचूनिया, राशन-अनाज का किरानी आदि बताया गया है । ये सभी आशय संस्कृत के ‘मोद’ अर्थात आनंद, हर्ष, सुख के व्यावहारिक अर्थ से मेल नहीं खाते । जॉन प्लैट्स ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत से जोड़ते हैं मगर उसका मूल नहीं बताते । यही नहीं, वे मोदी का मुख्य अर्थ मिठाईवाला या हलवाई बताते हैं । सम्भव है उनके दिमाग़ में ‘मोद’ से ‘मोदक’ अर्थात एक क़िस्म का लड्डू रहा हो । ‘मोदी’ का रिश्ता ‘मोदक’ से हिन्दी शब्दसागर में भी जोड़ा गया है, अलबत्ता ‘मोदक’ के अलावा उसके अरबी मूल का होने की सम्भावना भी जताई गई है । 

प्लैट्स के कोश में भी ‘मोदी’ को दुकानदार, बनिया, भंडारी आदि बताया गया है । गुजरात में मोढ़ वैश्य समुदायको मोढी भी कहा जाता है। इसका उच्चार भी कहीं कहीं मोदी की तरह किया जाता है। इस तरह यह स्थानवाची शब्द हुआ।  कुछ लोग सोचते हैं कि देशव्यापी मोदी का रिश्ता गुजरात के मोढेरा या गुजराती मोढ़ वैश्य समूदाय से है तो वह संकुचित दृष्टि है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में साहू तेली होते हैं। यह साहू मूलतः साह, साधु से ही आ रहा है। प्रभावशाली वर्ग। अरबी मोदी की तुलना में मोढी या मोढ़ उपसर्ग का अर्थ व्यापक है। मोढेरा से जिनका रिश्ता है वे सभी मोढ हैं। खास तौर पर वणिकों और ब्राह्मणों में आप्रवासन ज्यादा हुआ सो मोढेरा के लोग मोढ हो गए। गुजाराती विश्वकोश के मुताबिक मोढ़ समुदाय में ब्राह्मण, वैश्य, किरानी, तेली, पंसारी, साहूकार सब आ जाते हैं।
 

मारा मानना है कि ‘मोदी’ भी सैन्य शब्दावली से आया शब्द है । इसका रिश्ता सेना की रसद आपूर्ति व्यवस्था से है । ‘मोदी’ का निर्माण निश्चित ही मुस्लिम दौर में हुआ जब अरबी-फ़ारसी शब्दों की रच-बस भारतीय भाषाओं में हो रही थी । फ़ौजदार, जमादार, नायब, एहदी, बहादुर, नौकर, चाकर, ज़मींदार, कानूनगो, मुनीम समेत सैकड़ों अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं जो अरबी-फ़ारसी मूल के हैं और जिनका रिश्ता फ़ौज से रहा है । ‘मोदी’ भी मूल रूप से अरबी ज़बान से बरास्ता फ़ारसी, हिन्दी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में दाखिल हुआ । इतिहास-पुरातत्व के ख्यात विद्वान हँसमुख धीरजलाल साँकलिया ने गुजरात के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में इसे अरबी मूल का माना है । हालाँकि एस. डब्ल्यू फ़ैलन की न्यू हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी में भी ‘मोदी’ का रिश्ता मोदक अर्थात लड्डू से जोड़ा गया है । ध्यान रहे मोदक का रिश्ता ‘मोद’ अर्थात आनंद से हैं ।
मोदी शब्द के अरबी होने के कई प्रमाण हैं । औपनिवेशिक शब्दावली के प्रसिद्ध कोश हैंक्लिन-जैंक्लिन में भी बनिया प्रविष्टि के अंतर्गत ‘मोदी’ का भी उल्लेख है । इसमें लिखा है कि “रियासती दौर में लगान की वसूली अनाज के रूप में होती थी उसे जिस गोदाम में इकट्ठा किया जाता था उसे मोदीखाना कहते थे । व्यापारी के अर्थ में एक अन्य शब्द ‘मोदी’ भी हिन्दी में प्रचलित है जिसका दर्ज़ा पंसारी या किरानी का है ।” आज भी देश के सैकड़ों शहरों-क़स्बों में ‘मोदीखाना’ नाम की इमारतें हैं जिनकी वजह से समूचे मोहल्ले या इलाक़े को भी मोदीखाना modikhana के नाम से जाना जाता है जैसे जयपुर का चौकड़ी मोदीख़ाना । इतिहास की क़िताबों में पंसारी या दुकानदार की अर्थवत्ता से इतर ‘मोदी’ शब्द के जो संदर्भ हैं उनमें उसे लगान अधिकार, कारिंदा, गुमाश्ता, दीवान, गाँव का मुखिया आदि बताया है। 

कृ.पा. कुलकर्णी के प्रसिद्ध मराठी व्युत्पत्तिकोश में ‘मोदी’ शब्द का अर्थ अनाज व्यापारी, दीवान, चौधरी, भंडारी आदि बताया है । ‘मोदी’ की व्युत्पत्ति अरबी के ‘मुदाई’ से बताई गई है जिसका अर्थ होता है विश्वस्त या भंडारी । मोदी के साथ ही मोदीखाना शब्द भी है जिसका अर्थ है फौजी रसद विभाग । ज़ाहिर है मोदी ही फ़ौजी रसद विभाग का प्रमुख यानी भंडारी हुआ । सिख विकी में भी मोदी शब्द का रिश्ता रसद, राशन, किराना से ही जुड़ता है न कि मिठाई या हलवाई से – “Modi Khana is a reference to a provision store or a food supplies store. It is referred to in the Janamsakhis of Guru Nanak when he worked in a food store in Sultanpur while staying in the town where his sister, Nanaki and her husband Bhai Jai Ram lived. ”  यही नहीं फारसी-मराठी कोशों में भी मोदी शब्द का उल्लेख है और इसका मूल ‘मुदाई’ बताया गया है ये अलग बात है कि अरबी, फ़ारसी, उर्दू कोशों में मुदाई शब्द नहीं मिलता । 
sutlerइंग्लिश-हिन्दुतानी, इंग्लिश-इंग्लिश, फ़ारसी-हिन्दी कोशों में मोदी का अर्थ सामान्य तौर पर आढ़ती ( grain merchant ) पंसारी ( grocer) बनिया ( trader ) विक्रेता ( vender ), व्यापारी ( Merchant ) दुकानदार ( shopkeeper ) के अलावा बतौर हलवाई या मिठाईवाला  'A sweetmeat-maker, a confectioner' भी मिलता है जिसका व्युत्पत्तिक सम्बन्ध कोशकारों नें ‘मोद’ या ‘मुद’ से जोड़ा है । ऐसा लगता है कि कोशकारों के मन में मोद = आनंद = मिठाई = हलवाई जैसा समीकरण रहा होगा अगर इसे किसी तरह कबूल भी कर लिया जाए तो भी यह मानना कठिन है कि हलवाई की अर्थवत्ता में पंसारी, आढ़ती, व्यापारी, बनिया, दुकानदार जैसे भाव कहाँ से समा गए ?

इसी कड़ी में क़रीब 110 साल पहले पोरबंदर रियासत के गजेटियर में ‘मोदी’ के बारे में लिखी ये पंक्तियाँ ध्यान देने लायक हैं- “In order No. 45* dated 17-8-1901 published in State Gazette Vol. XV regarding the Modi's duty to be present when called to fix the Nirakh of the Modikhana, the word " Modi " includes gheevvalas, fuel sellers, grocers, sweetmeat sellers, butchers &c.( The Porbandar State directory (Volume 2)” गजेटियर यह भी लिखता है कि मोदीखाना के लिए साल में एक बार स्थानीय व्यापारियों में से किसी एक को ठेका दिया जाता था ।
डिक्शनरी ऑफ़ द प्रिन्सीपल लेंग्वेजेज़ स्पोकन इन द बेंगाल प्रेसिडेंसी में पी.एस. डी’रोजेरियो भी ग्रोसर अर्थात किरानी के पर्याय के लिए ‘मोदी’ शब्द ही बताते हैं । हालाँकि वे इसके बांग्ला रूप ‘मुदी’ का उल्लेख करते हैं । बांग्ला और मराठी में ‘मोदी’ के साथ ‘मुदी’ mudi शब्द भी मिलता है । अंग्रेजी में एक शब्द है सटलर sutler जो मध्यकालीन डच भाषा के soeteler से बना है अर्थात सेना के लिए खान-पान सेवा चलाने वाला व्यापारी । अधिकांश प्रसिद्ध कोशों के पुस्तकाकार या ऑनलाईन संस्करणों में इसका हिन्दी अनुवाद मोदी ही दिया हुआ है । ध्यान रहे सामान्य तौर पर कैंटीन का अर्थ भी रसोई ही होता है । फौजी छावनियों को केंटोनमेंट cantonment कहते हैं जिसका संक्षेप कैंट होता है । अंग्रेजी कोशों में भी कैंट का मूलार्थ फौजी छावनी में राशन की दुकान है । अरबी के ‘आमद्दा’ में राशन पहुँचाने, मदद पहुँचाने या आपूर्ति का भाव है । ग्रोसर या पंसारी के तौर पर अरबी में ‘मोदी’ शब्द नहीं मिलता और फ़ारसी में भी नहीं पर इससे मिलते जुलते शब्द हैं जैसे मद्दी ( विषय-वस्तुओं में रुचि रखनेवाला), मुअद्दी ( पहुँचानेवाला, भेजनेवाला ), मद्दा ( विषय-वस्तु, सामग्री, चीज़, पदार्थ ) आदि जिनसे फ़ारस या भारत की ज़मीन पर मोदी शब्द विकसित हुआ होगा और वहीं से अन्य मुस्लिम शासित इलाक़ों की बोलियों में यह रचा-बसा होगा । –जारी 
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Monday, November 5, 2012

चारों ‘ओर’ तरफ़दार

direction

दिन भर के कार्यव्यवहार में इंगित करने, दिशा बताने के संदर्भ में हम कितनी बार ‘तरफ़’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, अन्दाज़ लगाना मुश्किल है । इस तरफ़, उस तरफ़, हर तरफ़ जैसे वाक्यांशों में तरफ़ के प्रयोग से जाना जा सकता है कि यह बोलचाल की भाषा के सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में एक है । ‘तरफ़’ अरबी ज़बान का शब्द है और बज़रिये फ़ारसी इसकी आमद हिन्दी में हई है । ‘तरफ़’ की अर्थवत्ता के कई आयाम हैं मसलन- ओर, दिशा, जानिब, पक्ष, किनारा, सिरा, पास, सीमा, पार्श्व , बगल, बाजू आदि । तरफ़ का बहुप्रयुक्त पर्याय हिन्दी में ओर है जैसे ‘इस ओर’, ‘उस ओर’, ‘चारों ओर’, ‘सब ओर, ‘चहुँ ओर’ आदि । ओर में भी इंगित करने या दिशा-संकेत का लक्षण प्रमुखता से है ।
रबी धातु T-r-f ता-रा-फ़ा [ ف - ر ط - ] में संकेत करने का आशय है । मूलतः इस संकेत में निगाह घुमाने, रोशनी डालने, पलक झपकाने, झलक दिखाने जैसी क्रियाएँ शामिल हैं । अरबी में इससे बने तरफ़ / तराफ़ में दिशा ( पूरब की तरफ़, उत्तर की तरफ़), ( मेरी तरफ़, तेरी तरफ़ ), किनारा ( नदी के उस तरफ़) का आशय है । इसके अलावा उसमें सिरा, छोर, पास, कोना, जानिब जैसी अर्थवत्ता भी है । तरफ़ में दिशा-संकेत का भाव आँख की पुतलियों के घूमने से जुड़ा है । सामने देखने के अलावा पुतलियाँ दाएँ-बाएँ घूम सकती हैं । आँख के दोनो छोर, जिसे कोर कहते हैं, तरफ़ का मूल आशय उससे ही है । पुतलियाँ जिस सीमा तक घूम सकती हैं, उससे बिना बोले या हाथ हिलाए किसी भी ओर इंगित किया जा सकता है । आँख के संकेत से दिशा-बोध कराने की क्रियाविधि से ही तरफ़ में दिशा, ओर, छोर, किनारा, पास, साइड side जैसे अर्थ स्थापित हुए । तरफ़ में फ़ारसी का बर प्रत्यय लगने से बरतरफ़ शब्द बनता है जिसका आशय बर्खास्तगी से है ।
रफ़ में पार्श्व, पक्ष या पास जैसी अर्थवत्ता भी है । अरबी के तरफ़ में फ़ारसी का ‘दार’ प्रत्यय लगने से तरफ़दार युग्मपद बना जिसका अर्थ है समर्थक, पक्ष लेने वाला अथवा हिमायती । जो आपके साथ रहे वह पासदार कहलाता है और तरफ़दार में भी साथी का भाव है । इससे ही तरफ़दारी बना जिसमें किसी का पक्ष लेने, पासदारी करने का आशय है । किसी को अपने पक्ष में करने के लिए कहा जाता है कि उसे अपनी तरफ़ मिला लो । सामान्यतया किसी एक का पक्ष लेने वाला व्यक्ति पक्षपाती कहलाता है । तरफ़दार निश्चित ही किसी एक पक्ष का समर्थनकर्ता होता है । हिन्दी के पक्षपाती में जहाँ नकारात्मक अर्थवत्ता नज़र आती है वहीं तरफ़दार में ऐसा नहीं है । उचित-अनुचित का विचार करने के बाद किसी पक्ष का समर्थन करने वाला तरफ़दार है । दोनों पक्षों की थाह लिए बिना मनचाहे पक्ष की आँख मूँद कर हिमायत करने वाला पक्षपाती है । चीज़ के दो पहलू होते हैं । तरफ़ में जो पक्ष का भाव है वह और अधिक स्पष्ट होता है उससे बने एकतरफ़ा, दोतरफ़ा जैसे युग्मपदों से । एकतरफ़ा में पक्षपात हो चुकने की मुनादी है जैसे एकतरफ़ा फ़ैसला । जबकि दोतरफ़ा में दोनों पक्षो का भाव है ।
ब्दों के सफ़र में अब चलते हैं उस दिशा में जहाँ खड़ा है तरफ़ का पर्याय 'ओर' । भाषाविदों के मुताबिक ओर का जन्म संस्कृत के ‘अवार’ से हुआ है जिसमें इस पार, निकटतम किनारा, नदी के छोर या सिरा का आशय है । मोनियर विलियम्स के मुताबिक अवार का ही पूर्वरूप अपार है । गौरतलब है कि आर्यभाषा परिवार की ‘व’ ध्वनि में या में बदलने की वृत्ति है । संस्कृत के अप में दूर, विस्तार, पानी, समुद्र आदि भाव हैं । इसी का एक रूप अव भी है जिसमें दूर, परे, फ़ासला, छोर जैसे भाव हैं । अवार के ‘वार’ में भी ‘पार’ का भाव है । इस किनारे के लिए पार और उस किनारे के लिए वार । ज़ाहिर है कि उस किनारे वाले व्यक्ति के लिए किनारों के संकेत इसके ठीक उलट होंगे । 
पार का ही अन्य रूप अवार है और अवार से ओर का निर्माण हुआ जिसमें छोर, किनारा, दिशा, दूरी, अन्तराल जैसे आशय ठीक अरबी के ‘तरफ़’ जैसे ही हैं । पारावार और वारापार शब्दों में यही भाव है । ‘वार’ और में ‘पार’ में मूलतः व और प ध्वनियों का उलटफेर है । पार का निर्माण पृ से हुआ है और वार का ‘वृ’ से । पार के मूल में जो पृ धातु है उसमें गति का भाव है सो इसका अर्थ आगे ले जाना, उन्नति करना, प्रगति करना भी है । आगे बढ़ने के भाव का ही विस्तार पार में । पार यानी किसी विशाल क्षेत्र का दूसरा छोर । वैसे पार का सर्वाधिक प्रचलित अर्थ नदी का दूसरा किनारा ही होता है । पार शब्द भी हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमालशुदा शब्दों में है । आर-पार को देखिए जिसमें मोटे तौर पर तो इस छोर से उस छोर तक का भाव है, मगर इससे किसी ठोस वस्तु को भेदते हुए निकल जाने की भावाभिव्यक्ति भी होती है । आर-पार में पारदर्शिता भी है यानी सिर्फ़ भौतिक नहीं, आध्यात्मिक, मानसिक भी ।
संबंधित शब्द- 1. पक्ष. 2. पारावार. 3. वारापार. 4. वस्तु. 5. नदी. 7. आँख. 9. वार.

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Tuesday, October 30, 2012

बच के रहना उस्ताद से !!

सम्बन्धित शब्द-1.गुरुघंटाल. 2.इच्छा. 3.ईंट. 4.ठग. 5.पाखंडी. 6.पालक.7.मदारी. 8.जादूगर. 9.पंडित

क्सर शब्द अपना चोला बदल लेते हैं । “हरि रूठे गुरु ठौर है । गुरु रूठे नहीं ठौर।।” जैसी उक्ति पर भरोसा करने वाले समाज ने जब गुरु की होशियारी, सूझबूझ तथा दूसरों पर भारी पड़ने जैसे गुणों का प्रयोग अभिव्यक्ति को बढ़ाने के लिए किया तो गुरु की अर्थवत्ता तो बढ़ गई मगर इसकी अवनति भी हो गई । अब चोर, ठग, जालसाज़, धंधेबाज, चालबाज सब गुरु की श्रेणी में आ गए । ‘गुरुघंटाल’ जैसा मुहावरा और “गुरु, हो जा शुरु” जैसी कहावत चल पड़ी । ‘उस्ताद’ का भी यही हाल है और गुरुपद पर पहुँचे हुए तमाम लोग उस्ताद का दर्ज़ा भी पा गए । अरबी, फ़ारसी और हिन्दुस्तानी में तो उस्ताद की महिमा कायम रही मगर हिन्दी में बहुत पहले से इस शब्द ने अपना रुतबा छोड़ दिया था, मगर इसकी रच-बस बनी रही । यूँ उस्ताद का अर्थ गुरू, शिक्षक, प्रशिक्षक, हुनरमंद, कलाकार, हरफ़नमौला होता है । उस्ताद के स्त्रीवाची ‘उस्तानी’ का जन्म हिन्दुस्तानी की कोख से हुआ है जिसमें गुरुपत्नी या गुरुआनी का भाव है ।
स्ताद’ शब्द को अरबी का समझा जाता है मगर मूलतः यह सामी परिवार का न होकर भारत-ईरानी परिवार का शब्द है । अरबी में इसका रूप ‘उस्ताध’ है और फ़ारसी में ‘ओस्ताद’। हिन्दी और भारत की अन्य बोलियों में भी उस्ताद के कई रूप प्रचलित हैं जैसे उस्ताद, उत्ताद, उस्ताज, वस्ताद ( मराठी, दक्कनी ) आदि । यूँ देखा जाए तो उस्ताद के उस्ताज रूप को गँवारू समझा जाता है और माना जाता है कि उस्ताद में यह प्रदूषण भारत आने के बाद आया होगा मगर ऐसा नहीं है । अरबी में उस्ताद का बहुवचन असातिजा(ह) होता है । उर्दू में इसे असातिजा लिखा जाता है जैसे “मदरसों में असातिजा ( शिक्षकों) की भरती।“ मज़े की बात यह कि एकवचन रूप में अरबी में उस्ताद के लिए अरबी के ‘दाल’ वर्ण का प्रयोग होता है मगर बहुवचन में इसी ‘द’ मे तब्दीली होती है और वह ‘ज़’ अर्थात ‘ज़ाल’ में बदल जाता है । इसी वजह से उस्ताद के स्थान पर उस्ताज़ कहने का चलन भी अरबी में ही शुरू हो गया था । अरबी प्रभाव में ही हिन्दुस्तानी में भी उस्ताज रूप प्रचलित हुआ । यह हमारा गँवारूपन नहीं है, ‘असातिजा’ की गवाही सामने है ।
फिक आगस्ट की (कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ इंडो-यूरोपियन लैंग्वेजेज़) में ज़ेंदावेस्ता के अइविस्ती शब्द को उस्ताद का मूल माना गया है । जिसमें शिक्षक, गुरु, संरक्षक जैसे भाव हैं । यह कोश ‘अईविस्ती’ को संस्कृत के अभिष्टि के समरूप बताता है । विल्हैम गिगर भी हैंडबुक ऑफ़ अवेस्ताप्राशे में यही बात कहते हैं । डीएन मैकेन्जी के पहलवी कोश में अइविस्ती का पहलवी रूप आस्ताद है । मैकेन्जी के मुताबिक मनिशियन पर्शियन में इसका रूप अविस्तद था । आज की फ़ारसी में इसका रूप ओस्ताद हुआ । जॉन प्लैट्स के कोश में पहलवी रूप ओस्तात और पुरानी फ़ारसी में वश्तात रूप बताया गया है । फिक आगस्ट की (कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ इंडो-यूरोपियन लैंग्वेजेज़) में अईविस्ती को संस्कृत के अभिष्टि के समरूप बताता है ।
मोनियर विलियम्स की संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी में अभिष्टि का अर्थ पालक, संरक्षक, श्रेष्ठ, विजेता आदि बताया गया है साथ ही सहायक या मददगार जैसी अर्थवत्ता भी इसमें है । अभिष्टि बना है इष्ट में अभि उपसर्ग लगने से । हिन्दी-संस्कृत में ईश्वर के अर्थ में इष्ट या इष्टदेव शब्द भी प्रचलित है । यूँ इष्ट का अर्थ होता है इच्छित, प्रिय, अभिलषित, पूज्य, आदरणीय आदि । इच्छा, इषणा यानी अभिलाषा , कामना जैसे शब्द भी इष् से ही बने हैं । वैदिक अभि उपसर्ग में मूलतः निकट, सामने, पहले, ऊपर जैसे भाव हैं । गौरतलब है कि संस्कृत के अभि उपसर्ग का ज़ेंद रूप अइवी या अइबी (aiwi, aibi ) होता है । अभिष्टि का अर्थ हुआ जो इच्छापूर्ति करे, जो कामनाओं को पूरा करे अर्थात स्वामी, पालक, गुरु, गाईड आदि । अभिष्टि का बरास्ता जेंदावेस्ता आज की फ़ारसी में रूपान्तर कुछ यूँ हुआ अभिष्टि = अइविस्ती > अविस्तद (वश्तात) > ओस्तात > ओस्ताद ( फ़ारसी) / उस्ताद (हिन्दी-उर्दू)
यूँ उस्ताद में शिक्षक, स्वामी के साथ-साथ निपुण, प्रवीण, पण्डित, गुणी, सिद्धहस्त, सुविज्ञ, होशियार, कुशल, दक्ष, विशेषज्ञ जैसे भाव भी हैं । उस्ताद की व्याप्ति दुनिया की कई भाषाओं में है जैसे अज़रबेजानी और उज्बेकी में यह उस्ता है तो स्वाहिली में स्तादी । तुर्किश में यह उस्तात है । स्पेनिश में इसका रूप उस्तेद होता है । उर्दू में सामान्य शिक्षक उस्ताद कहलाता है मगर हिन्दी में उस्ताद का दर्ज़ा वही है जो पण्डित का है अर्थात निष्णात या प्रवीण । सामान्य शिक्षक की तुलना में पण्डित का प्रयोग उपाधि और सम्मान की तरह होता है । आमतौर पर कलागुरुओं को उस्ताद कहा जाता है । संगीत के क्षेत्र में स्पष्टतः आला दर्ज़े के मुस्लिम फ़नकारों के नाम के आगे उस्ताद लगता है और गुरुपद पर पहुँचे हिन्दू कलावंतों के आगे पण्डित लगाया जाता है । गाँव-देहात का आदमी मदारी और जमूरे के खेल की मार्फ़त उस्ताद शब्द से परिचित है । गौरतलब है कि मदारी या जादूगर को उसका जमूरा उस्ताद कहता है । उसका उच्चार भी ओस्ताद की तरह होता है । मदारी जो बाजीगरी दिखाता है, लोग उससे चमत्कृत होते हैं । उस्ताद की उस्तादी यहाँ उभरती है और उस्तादी दिखाना चमत्कृत करने से जुड़ जाता है । बाद में हाथ की सफ़ाई दिखाने, दूसरों को बेवकूफ़ बनाने या ठगने जैसे कामों को भी उस्तादी कहा जाने लगा । यही हश्र कलाकार और कलाकारी शब्द का भी हुआ जैसे- “उससे बच कर रहना, बहुत बड़ा कलाकार है!!!”
राठी में उस्ताद के वस्ताद रूप को तवज्जो दी जाती है । दरअसल वस्ताद शब्द भी मराठी के साँचे में नहीं ढला बल्कि स्थानीय प्रभाव के साथ दक्कनी तुर्कों द्वारा अपनाया रूपान्तर है । यूँ मराठी में भी उस्ताद चलता है । उस्ताद, उस्तादगिरी, उस्तादी जैसे शब्द यहाँ प्रचलित हैं । इसी तर्ज़ पर वस्तादी, वस्तादगिरी भी प्रचलित हैं । उस्तादाना का अर्थ होता है उस्तादों की तरह । जिस तरह पाखंड सम्प्रदाय के साधु पाखंडी कहलाते थे पर ढकोसलों के चलते इस शब्द की अवनति हो गई और पाखंडी बदले हुए माहौल में ढोंगी और फ़र्ज़ी व्यक्ति के दर्ज़े पर पहुँच गया । यही उस्ताद के साथ भी हुआ । हिन्दी का उस्ताद धूर्त भी है और चालाक भी । वह गुरुघंटाल है और महाचालबाज है । कभी उस्ताद के पास जाने की नसीहतें देने वाला समाज ही आज कहता है कि “फलाँ से बच कर रहना, उस्ताद है !!” “उस्तादी दिखाना” आज हुनर या होशियारी से अलहदा छल या ठगी का प्रदर्शन हो गया है ।

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Thursday, October 25, 2012

‘समय’ की पहचान

time

क्त अपने साथ ताक़त और रफ़्तार दोनो लेकर चलता है । यह साबित होता है हिन्दी के उन कई कालसूचक शब्दों से जो गतिवाची, मार्गवाची क्रियाओं से बने हैं । कहने की ज़रूरत नही कि गति का स्वाभाविक सम्बन्ध शक्ति से है । गति, प्रवाह, वेग दरअसल शक्ति को ही दर्शाते हैं । देवनागरी का ‘इ’ वर्ण संस्कृत में क्रिया भी है जिसमें मूलतः गति का भाव है, जाना, बिखरना, फैलना, समा जाना, प्रविष्ट होना आदि ‘इ’ क्रिया का का विशिष्ट रूप अय् है और इसमें भी गति है । अय् में सम् उपसर्ग लगने से बनता है समय । ‘सम’ यानी साथ-साथ ‘अय’ यानी जाना यानी साथ-साथ चलना, जाना । दरअसल हमारे आसपास का गतिमान परिवेश ही समय है अर्थात समूची सृष्टि, ब्रह्माण्ड, प्रकृति जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य हमारे इर्दगिर्द गतिमान है, वह सब काल के दायरे में है । जो कुछ घट रहा है, वह काल है । मनुष्य के लिए उससे तादात्म्य बिठाना ही समय है । बिहारी ने कहा है- समै समै सुंदर सबै, रूप कुरुप न कोय । मन की रुचि जैति जितै, तित तैति रुचि होय ।।
प्रकृति की लय में लीन हो जाना ही जीवन है । मोनियर विलियम्स के कोश में सम + इ के मेल से समय बनता है । ‘इ’ का समरूप अय् इसमें निहित है । जिसमें समागम, मिलन, एक होना, व्यवस्थित होना जैसे भाव इसमें हैं । इसके अलावा मौसम, अवधि, युग, काल, ऋतु, अवसर, सीमा, परिधि, संकेत, अवकाश, अन्तराल जैसे भाव भी इसमें हैं । समयोचित और सामयिक जैसे शब्दों में समय पहचाना जा रहा है समय में गति है इसीलिए हम कहते हैं कि वक्त बीत रहा है या बीत गया । समय का सम्बन्ध परिवेश में होने वाले बदलावों से है । “समय को पहचानों” का तात्पर्य संसार को पहचानने से है । “समय बदल रहा है” में दुनिया की रफ़्तार से रफ़्तार मिलाने की नसीहत है । स्पष्ट है कि समय में परिवेश का भाव प्रमुख है । जो घट रहा है, जो बीत रहा है के संदर्भ में ‘दुनिया मेरे आगे” ही समय है । संस्कृत के वीत में जाने का भाव है । इससे बना एक शब्द है वीतराग अर्थात सौम्य, शान्त, सादा, निरावेश । राग का अर्थ कामना, इच्छा, रंग, भावना होता है । वीतराग वह है जिसने सब कुछ त्याग दिया हो । एक पौराणिक ऋषि का नाम भी वीतराग था। वीतरागी वह है जो संसार से निर्लिप्त रहता है ।
सी कड़ी में आता है चरैवेति जो चर + वेति का मेल है । चर यानी चलना, आगे बढ़ना । वेति में ढकेलना, उकसाना, ठेलना ( सभी में शक्ति ), पास आना, ले जाना, प्रेरित करना, प्रोत्साहित करना, बढ़ाना, भड़काना, उठाना जैसे अर्थों को चरैवेति के सकारात्मक भाव से जोड़ कर देखना चाहिए ।सभी धर्मों में, संस्कृतियों में काल की गति को सर्वोपरि माना गया है मगर इसके साथ जीवन को, मनुष्यता को लगातार उच्चतम स्तर पर ले जाने की अपेक्षा भी कही गई है । चलना एक सामान्य क्रिया है । चर के साथ वेति अर्थात प्रेरणा ( ठेलना, ढकेलना ) का भाव सौद्धेश्य है । प्रेरित व्यक्ति एक दिशा में चलता है । उच्चता के स्तर पर मनुष्य लगातार अनुभवों से गुज़रते रहने पर ही पहुँचता है । “चरैवेति-चरैवेति” की सीख भी यही कह रही है कि निरंतर गतिमान रहो । ज्ञानमार्गी बनो । ज्ञान एक मार्ग है जिस पर निरंतर गतिमान रहना है । अनुभव के हर सोपान पर, हर अध्याय पर मनुष्य कुछ और शिक्षित होता है, गतिमान होता है, कुछ पाठ पढ़ता है ।
देवनागरी के ‘व’ वर्ण में ही गति का भाव है । इससे बनी ‘वा’ क्रिया में प्रवाह, गति का आशय है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली का वेग इसी कड़ी में है । मार्गवाची शब्दों के निर्माण में भी ‘व’ की भूमिका है । वर्त्मन यानी राह । बाट इसी वर्त्मन का देशज रूप है । अंग्रेजी का वे way को देखें जिसका अर्थ पथ, रास्ता, मार्ग है । यह भारोपीय मूल की ‘वे’ wegh से बना है जिसका समरूप विज् है जिससे संस्कृत का वेग बना है । राह कहीं ले जाती है । लिथुआनी के वेजू में ले जाने का आशय । रूसी में भी यह वेग और वेगात ( भागना ) है । संस्कृत वात ( फ़ारसी बाद ) यानी वायु , वह् से हवा आदि । वीत में जाना और आना दोनों हैं । वीथि यानी रास्ता इससे ही बनता है । रामविलास शर्मा संस्कृत की ‘वा’ के समानान्तर ‘या’ क्रिया का उल्लेख करते हैं । इनमें गति के साथ जलवाची अर्थवत्ता भी है । जल के साथ हमेशा ही गतिबोध जुड़ता है । मोनियर विलियम्स के कोश से इसकी पुष्टि होती है । संस्कृत का वारि जलवाची है तो रूसी के वोद ( वोदका ) का अर्थ पानी है । तमिल में नदी के लिए यारू शब्द है । ‘या’ में जाना, चलना, गति करना निहित है साथ ही इसमें खोज, अन्वेषण भी है । चलने पर ही कुछ मिलता है । चलने की क्रिया मानसिक भी हो सकती है । ‘या’ में ध्यान का भाव भी है । ‘आया’, ‘गया’ में इस गति सूचक ‘या’ को पहचानिए ।
संस्कृत में यान का एक अर्थ मार्ग तो दूसरा वाहन भी है । हीनयान, महायान, वज्रयान, सहजयान में रीति, प्रणाली की अर्थवत्ता है । किन्हीं व्याख्याओं में वाहन के प्रतीक को भी उठाया गया है । दोनों में ही ले जाने का भाव है । तमिल में इसके प्रतिरूप यानई और आनई हैं । कभी इनका अर्थ वाहन रहा होगा, अब ये हाथी के अर्थ में रूढ़ हैं । एक शब्द है याम जिसमें भी मार्ग के साथ वाहन का भाव है । याम में कालवाची भाव भी है अर्थात रात का एक पहर यानी तीन घण्टे की अवधी याम है । महादेवी वर्मा ने यामा का प्रयोग रात के अर्थ में किया है । दक्ष की एक पुत्री, और एक अप्सरा का नाम भी यामा, यामी, यामि मिलता है । इसी तरह यव का अर्थ द्रुत गति के अलावा महिने का पहला पखवाड़ा भी है । इसी कड़ी में आयाम भी है । आयाम अब  पहलू के अर्थ में रूढ़ हो गया है । इसका अर्थ है समय के अर्थ  में विस्तार । किसी चीज़ की लम्बाई या चौड़ाई । किसी  विषय के आयाम का आशय उस विषय के विस्तार से है ।
फिर समय पर लौटते हैं । समय के अय् में गमन, गति का भाव है, जिसकी व्याख्या ऊपर हो चुकी है । इस अय से अयन बनता है । अयन यानी रास्ता, मार्ग, वीथि, बाट, जाने की क्रिया आदि । इसका अर्थ आधे साल की अवधि भी है । दक्षिणायन और उत्तरायण में अवधि का संकेत है । दक्षिणायन में सूर्य के दक्षिण जाने की अवधि और गति का आशय है जिसके ज़रिये सर्दियों का आग़ाज़ होता । तब सूर्य कर्क रेखा से दक्षिण की ओर मकर रेखा की ओर बढ़ता है । सूर्य की उत्तरायण अवस्था इसके उलट होती है । इससे गर्मियों का आग़ाज़ होता है । संस्कृत का वेला, तमिल का वरई, कन्नड़ वरि, हिन्दी का बेला, मराठी का वेळ ये तमाम शब्द भी इसी कड़ी में हैं और समय सूचक हैं । संझाबेला, सांझबेला जैसे शब्द कालवाची ही हैं ।
काल यानी समय अपने आप में गति का पर्याय है। दार्शनिक अर्थों में चाहे समय को स्थिर साबित किया जा सकता है पर लौकिक अर्थो में तो समय गतिशील है। हर गुज़रता पल हमें अनुभवों से भर रहा है। हर अनुभव हमें ज्ञान प्रदान कर रहा है, हर लम्हा हमें कुछ सिखा रहा है । आज के प्रतिस्पर्धा के युग में हम अनुभवों की तेज रफ्तारी से गुज़र रहे हैं। आज से ढाई हजार साल पहले भी इसी ज्ञान की खातिर भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को यही सीख दी थी– चरत्थ भिक्खवे चारिकम । बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय । हे भिक्षुओं, सबके सुख और हित के लिए चलते रहो….।

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