Saturday, March 22, 2008

आसमां पे है खुदा और ज़मीं पे हम... [बकलमखुद -7]

बकलमखुद की सातवीं कड़ी में जानते हैं विमल वर्मा के आत्मकथ्य में आगे का हाल। आज़मगढ़ से इलाहाबाद का सफ़र... रंगमंच और नुक्कड़ नाटकों की मौजमस्ती, फिर भटकाव....और दिल्ली को कूच ...दिल्ली में साथियों के साथ संघर्ष का हाल ...

तिलकब्रिज रेलवे क्वार्टर्स में धमाचौकड़ी

मैं,मनोज वाजपेई और निखिल वर्मा दिल्ली के तिलक ब्रिज रेलवे क्वाटर्स में किराये के मकान में रहते थे।तिलक ब्रिज से मंडी हाऊस बहुत नज़दीक था। हमारी शामें काफ़ी गुलज़ार हुआ करती। इस कमरे में ज़्यादातर रंगकर्मी ही आते थे।...

खूब धमाचौकड़ी मची रहती। रात में आप लेट हो गये तो अपने घर में खुद को ही सोने की जगह मिल नहीं पाती थी! एक दिन मकान मालिक ने बताया कि उन्होने कमरा किसी और को दे दिया है, लिहाज़ा आपका ये महीना आखिरी है.. हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था इस कमरे में हमने कितनी महफ़िलें जमाई थी, रघुवीर यादव, निर्मल पांडे और भी बहुत से लोग जिस जगह मंडली जमाए बैठे रहते थे, वो जगह हमें छोड़नी होगी! अभी सोच ही रहे थे कि नया किरायेदार आ गया! हमें आनन फ़ानन में कमरा छोड़ना पड़ गया। हम दिन भर मंडी हाऊस में सुबह से बैठे रहते और रात में पता नहीं किन-किन मित्रों के घर रहे
निशात क़ैसर की दरियादिली...


ऐसे मौके पर निशात कैसर, जो जामियाँ मिलिया में पढ़ाते थे, पहले भी मिला करते थे और मिलने पर एक ही बात कहा करते थे कि इलाहाबाद में आप लोगों ने जैसा काम किया है वैसा यहाँ भी किया जाय! पर यहाँ तो हम पेट की लड़ाई में शामिल हो चुके थे लिहाज़ा मैं उनकी बात को गम्भीरता से लेता भी नहीं था। निशात अगर कहीं दिख गये तो हम किनारा कर लिया करते थे। ऐसे में एक दिन वो दिखे, मैने मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया था कि उनसे बचने की कोशिश कर रहा था कि मेरे नज़दीक आए और बोले कि कैसे हैं? उनको देखकर चौंकने का नाटक करते हुए मैने झल्लाहट में कहा, खानाबदोश हो गए है हम! रहने की जगह नहीं है और पैसे भी खत्म होते जा रहे हैं... तो उन्होने मुस्कुरा कर कहा- 'तो इसमें इतना परेशान क्यौं हैं, मेरे यहाँ आ जाइये.. मैं तो पास ही एक तेलगु देशम सांसद के बंगले पे रहता हूँ...' मैने कहा हमारे साथ दो लोग और है उन्होंने कहा मुझे कोई समस्या नहीं है, आप आज ही आ जाइये.. सो रात में हम उनके बंगले पर सामान सहित पहुँच भी गये। करीब एक महीने मैं और मनोज बाजपेई और मनोज वर्मा साथ रहे...उन्होंने हमें अपने घर बहुत प्यार से रखा ...और ज़रूरत पड़ने पर पैसे से भी मदद की ...


यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यूं है ?


खैर एक महीने बाद हमें लक्ष्मी नगर में एक फ़्लैट किराये पर मिल गया ....करीब एक साल बाद निशात कैसर हमें खोजते खोजते हमारे कमरे पर पहुँचे और कहने लगे जिस समस्या से कभी आप गुज़रे थे वो समस्या आज मेरे सिर आन खड़ी हुई है! जिस तेलगू देशम सांसद के बंगले पर रहता था वो दर असल हार गया है और मुझे जल्दी ही वो घर खाली करना पड़ेगा! किराये का मकान तो मिल जा रहा है पर मेरा नाम सुनकर लोग देने से इंकार कर देते हैं! जबकि कभी मैने अपने को मुसलमान नही समझा, अब तुम लोग मेरी मदद करो..... खैर, बहुत खोजने के बाद किसी पत्रकार से कहकर उनको किराये का मकान दिलवाया गया.. पर फ़्लैट के लिये उनकी परेशानी सुनकर रोने का मन कर रहा था।


बाहर की दुनिया और कुछ अंदर की...

[ विमल वर्मा और प्रमोदसिंह दिल्ली में। यह चित्र 1980 के बीच का है। ]
अब मेरी सबसे बड़ी चिन्ता माँ को साथ रखने की थी.. और कुछ समय बाद अपने मित्रों के साथ रहते हुए माँ को अपने पास दिल्ली बुला लिया। पर घर में एक नई समस्या आ गई। हमारी फ़्रीलांसिंग माँ की समझ से बाहर थी। उन्होने पिता को देखा था जो समय से ऑफ़िस जाते और समय पर वापस घर आया करते। कुछ दिन तो काम नहीं भी रहता तो भी हम नौ बजे कहीं चले जाते और रात में कुछ इस तरह आते कि बहुत सारा काम कर के लौटे हैं! मुझे लग रहा था कि शायद माँ मुझसे यही उम्मीद रखती हो। जहां तक अभिनय का सवाल था उसे मैने लम्बे समय तक के लिये टाल दिया था। वैसे भी अभिनेता का संघर्ष कुछ ज़्यादा मुश्किल है, यही सोच कर मैं नौकरी की जुगाड़ मे लग गया और इधर उधर हाथ मारते मारते एक नौकरी आखिर मिल ही गई। माँ की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था! धीरे धीरे माँ ठीक होती गई और दोस्तों को खूब खाना बना-बना कर खिलाया - जगतमाता हो गई थी अम्मा और .. हाँ, इस बीच ये तो बताना भूल ही गया अभय तिवारी वहाँ जामिया मिलिया से मास कम्युनिकेशन में पढ़ाई कर रहे थे और कोई भी वीडियो शूट करना होता तो मुझे अभिनय के लिये बुला लेते थे। मुझे खुशी है कि स्कूल के दिनों में अभय तिवारी की पहली शॉर्ट फ़िल्म में मैने अभिनय किया था। बहरहाल कुछ ही दिनों में मेरी शादी हो गई, ये १९९३ की बात है। शादी के कुछ दिनों के भीतर मुम्बई तबादला हो गया तब प्रमोद सिंह यहीं मुम्बई में थे और मेरा छोटा भाई नवीन जिसे प्यार से गुड्डा कहते हैं, वो भी पहले से मुम्बई में ही कैमरामैन राजन कोठारी को असिस्ट रहा था।
[बाकी हाल अगली कड़ी में ]


यूनुस भाई और अनिताकुमार के सोजन्य से विमल जी की आवाज़ की दूसरी पेशकश

17 कमेंट्स:

इरफ़ान said...

बहुत अच्छा भाई विमलजी. माता जी को मेरा प्रणाम कहें.

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह विमल सफर जारी रहे। इस पोस्ट का आखिरी चरण उस से पहले वाले चरण से जुड़ नहीं पा रहा है।

विजय गौड़ said...

aage intjar he, likho to padoonga

Sanjay Karere said...

विमल जी की कही कई बातें बहुत जानी पहचानी सी क्‍यों लगती हैं..

Yunus Khan said...

ये सच है कि संस्‍मरण और वो भी विमल जी जैसे जीवन के...उनको पढ़ना एक बीहड़ जीवन से गुज़रने जैसा होता है । किसी कविता किसी कहानी में वो रस नहीं जो यहां है । विमल जी जारी रखिए हम पढ़ रहे हें । :D

Sajeev said...

विमल जी बहुत रस आया अब तक के सफर में, ऐसा लगा कई बार जैसे अपनी ही कहानी पढ़ रहा हूँ, दरअसल बहुत कुछ बदलता भी नही है शायद कमोबेश हम सब ऐसे ही संघर्षों से गुजरते हैं, जब हम लोग मंडी हौस के चक्कर काटा करते थे, उन दिनों मनोज बज्पाई और निर्मल पाण्डेय आदि लगभग स्थापित हो चुके थे, समझिए की आपके बाद अगला बैच हमारा ही था,....
और " काले में दाल " बहुत ही बढ़िया लगा, विकास ने तबला भी अच्छा बजाया

Sanjeet Tripathi said...

पढ़ रहा हूं कहना गलत होगा शायद, कल्पना ही कर रहा हूं कि दिल्ली में क्या दिन रहे होंगे विमल जी के, और क़ैसर साहब वाली समस्या अब तो शायद और भी विकराल रूप धारण कर चुकी है।

माताजी को प्रणाम, सब माताएं शायद एक तरह ही होती हैं, फ़्रीलांसिंग पल्ले नही पड़ती उनकी या फ़िर अपने बच्चे को सुव्यवस्थित ज़िंदगी जीते देखना ही उनकी ख्वाहिश होती है।

प्रतीक्षा रहेगी अगली कड़ी की!!

वैसे विमल जी, आपकी मंडली के बाकी मित्र भी बकलमखुद में लिखे तो और ज्यादा सही रहेगा!! क्योंकि एक ही समय को अलग-अलग आंखो-मन से देखना ज्यादा स्पष्टता लाता है।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

संघर्ष से हर्ष की तलाश में अडिग- अकंप रहे
आपके इस सफरनामा के कथानायक की
जगतमाता को नमन करता हूँ मैं .
माँ के त्याग की महिमा वैसे भी शब्दातीत है .

हमारी गुज़ारिश का आपने रखा ख्याल
किस्सा विमल जी का रखिएगा बहाल
कि इसमें जोश है और जश्न भी है,
इसमें उत्तर हैं और प्रश्न भी हैं !

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लग रहा है आपकी आपबीती पढ़ना। आगे की कड़ी का इंतजार है।

अजित वडनेरकर said...

विमल जी के संस्मरण से हमें भी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। तिलक ब्रिज रेलवे क्वार्टर्स में 1988 के दौर में कभी हम भी यूं ही गश्त लगाया करते थे। एक मित्र के मकान में इसी तरह डेरा लगा करता था। एक जगतमाता थीं। खाना खाने के बाद फिर टहलकदमी। कभी गांधी शाति प्रतिष्ठान तक तो कभी ग़ालिब अकादमी तक। हमारा दफ्तर भी पास ही था बहादूरशाह ज़फर मार्ग पर टाइम्स हाऊस।

Anita kumar said...

विमल जी बहुत अच्छा लग रहा है आप के संघर्ष के दिनों के बारे में पढ़ना, आप ने सही कहा किसी भी मां को फ़्रीलॉसिंग नहीं समझ आता, सुरक्षित भविष्य की इच्छा जो रहती है। आप की माता जी को देख बरबस अपनी मम्मी की याद आ गयी, लगता है सब माएँ एक जैसी ही लगती भी हैं

मीनाक्षी said...

बहुत दिनों बाद ब्लॉगर के माध्यम से ही टिप्पणी दे पा रहे हैं. विमल जी के बारे में पढ़कर दिल्ली की वही गलियाँ याद आ गईं जहाँ हम भी घूमते थे...
माँ देख कर माँ की याद आ ही जाती है.

Dr Parveen Chopra said...

आप की पोस्ट पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। आपकी माताश्री को हमारा सलाम कहियेगा.....अनिता जी ने बिल्कुल सही कहा है कि हिंदोस्तान की सभी माएं एक जैसी ही लगती हैं। खुश रहो ।

इरफ़ान said...

मित्रो! विमलजी जो कह रहे हैं वो तो ठीक है लेकिन बहुत कुछ नहीं कह रहे हैं. उनकी जिस एक क्षमता का मैं मुरीद हूँ वो है उनकी छोटी-छोटी चेज़ों में हास्य-व्यंग्य ढूँढ लेने की. मेरा ख़याल है मुझे यह फ़रमाइश करनी चाहिये कि वो एक लतीफ़ा यहाँ ज़रूर रिकॉर्ड करके जारी करें जिसमें एक आदमी एक रेस्त्राँ में वेटर से कुछ मँगा रहा है...उसकी आवाज़ में एक नेज़ल साउंड है और वेटर को पता नहीं चल रहा है कि आदमी क्या चाहता है?....ये एक ऐसा लतीफा है जिसे लिखा नहीं जा सकता.

इरफ़ान said...

ब्लॉग पर हमें वो सारे संसाधन मिले हैं जिनसे इस बक़लम ख़ुद को और भी समृद्ध किया जा सकता है. यह किसी किताब या पत्रिका में संभव नहीं हैं. मैंने जब सस्ता शेर बनाया था तो सबसे पहला निमंत्रण विमलभाई को इसी लिये भेजा था कि हम उनके ठहाकों को फिर से जी सकेंगे. शायद वक़्त के थपेडों ने उनसे ये ट्रेट छीन लिया हो तो नहीं कहता.

मीट माय वाइफ़ सेक्शन में आपने जो तनूजा से मिलवाया (बक़लम ख़ुद-8)इसके लिये अजीत जी बधाई के पात्र हैं.

विमलजी कृपया क़िस्से को अगर आप यहाँ विराम भी देना चाहते हैं तो अपने कुछ प्रिय चुटकुलों से महफिल को गुलज़ार करें.

VIMAL VERMA said...

इरफ़ानजी, आप ज़िद करने लग जाते है, अब धीरे धीरे कुछ कुछ अपने को लाइन पर लाने की कोशिश में लगा हूँ....और वेटर वाला चुटकुला सिर्फ़ सुनने वाला तो है नहीं,उसे देखना भी पड़ेगा,तो उसका कभी अच्छा वीडियो बन सके यही कोशिश रहेगी बाकी तो ये कि मेरे अपने अनुभव में आपकी भूमिका कम तो है ही नहीं,पर मैं डर रहा था कि आज़मगढ़ से मुम्बई पहुँचने में देर बहुत लग जाती,और मित्र लोग भाग खड़े होते, आप सभी का आभार कि मेरे अनुभवों को आप सभी ने पढ़ा...

azdak said...

एक छोटी शिकायत है. मालूम नहीं आपसे होनी चाहिए या विमल से. ऊपर की तस्‍वीर का समय 1980 नहीं, सन् नब्‍बे के करीब का है. अपने ऐतिहासिक होने की तो हमें हमेशा से ख़बर थी, मगर इस तरह प्रागैतिहासिक बनाये जाने का हम विरोध करते हैं..

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