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Saturday, October 22, 2016

महिषासुर के कितने ठिकाने !!!


प्रा चीन भारतीय समाज में वृक्षों, जन्तुओं, नदियों की पहचान पर नामवाची संज्ञाएँ बनती रही हैं। चाहे व्यक्तिनाम हो, समूह नाम हो या स्थाननाम हो। जैसे सैन्धव, नार्मदीय, (सिन्धु, नर्मदा से) पीपल्या, बड़नगर, इमलिया, वडनेरकर (पीपल, इमली, वट से) गोसाईं, घोसी, गोमन्तक, गोवा (गाय से), हिरनखेड़ा, हिरनमगरी, हरनिया (हिरण से) आदि अनेक संज्ञाएँ सामने आती हैं।

ताज़ा महिषासुर प्रसंग में महिषासुर-दुर्गा को लेकर पाण्डित्य बह रहा है। आख्यानों के आख्यान रचे जा रहे हैं। इन मिथकीय आधारों का उल्लेख धार्मिक साहित्य में सर्वाधिक हुआ है। लोक ने अपनी कल्पना से इसमें बहुत कुछ जोड़ा। वह सब भी धार्मिक-सांस्कृतिक आधार बनता गया। मगर अब तो पुरातात्विक या नृतत्वशास्त्रीय स्थलों को भी मिथकों का प्रमाण मानते हुए मनमानी व्याख्या सामने आ रही हैं। यानी अगर सरस्वती देवी का दस सदी पुराना मन्दिर मिल जाए तो इसे पुरातात्विक प्रमाण मान लिया जाना चाहिए कि सरस्वती देवी थीं।

वेद-पुराण के प्रमाणों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषित करने की ज़रूरत होती है। अनेक लोगों ने यह काम किया है। परम्पराओं, मान्यताओं और आख्यानों की तह में जाकर ही जनजातीय समाज और हिन्दूसंस्कृति की गहन बुनावट को समझा जा सकेगा। इस विषय पर डॉ भगवान सिंह जैसे विद्वान ही आधिकारिक तौर पर बेहतर लिख सकते हैं।

हम सिर्फ़ यही कहना चाहते हैं कि असुर, राक्षस जैसे नामों को लेकर एक नकारात्मक कल्पना हमारे समाज का दोष है। शिक्षानीति में भी इस पर ध्यान नहीं दिया गया। मूलतः ये जातीय समूह रहे हैं और अलग अलग कालखण्डों में ये प्रभावशाली रहे हैं, बात इतनी भर है। कल की अनेक क्षत्रिय जातियाँ आज हीन सामाजिकता झेल रही हैं। बुंदेलखंड पर राज करने वाले खंगार क्षत्रिय अब कोटवार या चौकीदार के तौर पर जाने जाते हैं।

देशभर में पसरी पड़ी भैंस या महिष की संज्ञा वाली बस्तियों को आज भी पहचाना जा सकता है। स्वाभाविक है कि वहाँ भैंस प्रजाति की बहुतायत होगी। यह भी संभव है की यह किसी समूह की टोटेम पहचान हो जिसके आधार पर उस स्थान को नाम मिला। क्या देश के एक खास क्षेत्र को काऊबैल्ट या गोपट्टी नहीं कहते ? भैंस शब्द 'महिष' से निकला है जिसमें शक्ति, बल का भाव है। मूलार्थ है सूर्य। स्वाभाविक है कि कृषि के लिए जिस काल में भैंसे का प्रयोग होने लगा तब शक्ति व बल के आधार पर उसे भी यही नाम मिल गया।

यूँ महिष का मूल भी मह् से है जिससे महान शब्द बनता है। महान यानी बलवान, शक्तिवान। बिहार में महिषी, मध्यप्रदेश में भैंसदेही, भैंसाखेड़ी गढ़वाल में भैंसगाँव, पूर्वांचल में भैंसाघाट, निमाड़ में माहिष्मती, पश्चिम बंगाल में महिषादल, महेश्वर, मराठवाड़ा में म्हैसमाळ और कर्णाटक में मैसूर (महिषासुर) जैसे स्थान-नामों से क्या साबित होता है? यही कि हमारे सांस्कृतिक इतिहास में महिष एक महत्वपूर्ण जनजातीय प्रतीक रहा है।

मैं अनेक जनजातीय क्षेत्रों में गया हूँ। उन समाजों में बड़ादेव (बूढादेव< बुड्ढ < वुड्ढ < वृद्ध= सर्वोच्च) की पूजा होती है। यह बड़ादेव मूलतः शिव हैं। गौर करें, शिव को देवाधिदेव या महादेव कहते हैं। क्या ये नाम जनजातीय बड़ादेव का ही रूपान्तर नहीं? शिव जो स्वयं बलशाली हैं, ‘महा’ हैं, महेश कहलाते हैं। महेश यानी महा + ईश। वही बड़ादेव का रूपान्तर। पर मूल महेश को देखें तो यह महिष से उद्भूत है। यूँ भी महिष का अर्थ शक्तिवान, बलवान है। महिषी उसका स्त्रीवाची है। प्राचीनकाल में राजमहिषी इसीलिए रानी को कहते थे। शिव का वाहन नन्दी है।

‘साण्ड’ शब्द ‘षण्ड’ से उद्भूत है जिसका अर्थ है शिव। जो जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। प्रायः असुरों ने उन्हें तप से पाया है। अनेक कथाओं में शिव स्वयं संतान बनकर भक्तों को कृतार्थ करते नज़र आते हैं। उन्हें असुरों का देव भी कहा गया है। शिव अगर संहारक हैं तो संहार का सामना भी तो करते होंगे? गौर करें हमारे गोत्रनामों में भी भैंसा है। शाण्डिल्य गोत्र में भी यही षण्ड हो सकता है, गो कि इससे मिलते जुलते ऋषिनाम भी है। सण्डीला नाम का एक कस्बा है। राजस्थान में सांडेराव भी है। और भी मिल जाएंगे। बंगालियों का सान्याल उपनाम, शाण्डिल्य का ही रूपान्तर है।

गौवंश में भैंसे की ही तरह बलशाली बैल होता है। बल से ही बैल नाम पड़ा है। यह बैल भी गाय की तरह ही संस्कृति पर अपनी छाप छोड़ता है। तो संक्षेप में इतना ही कहना चाहूँगा कि धर्म कठिन रास्ता है। किसी भी विवाद को उस रास्ते पर न ले जाया जाए। हम संस्कृति को समझें जो निरन्तर परिवर्तनशील है। बेहद सावधानी से हमें इतिहास की परतों को टटोलते हुए उसके उन सिरों का परीक्षण करना होता है जो वर्तमान तक आते हैं। ऐसा न करने पर हमारे सामने भविष्य का रास्ता भी दिशाहीन हो जाता है।
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Friday, July 29, 2016

'कमाल' की बात



ज देखते हैं कमाल की कुण्डली। हम सब अधूरे हैं। आम आदमी इस अधूरेपन को पूरा करने के चक्कर में ईश्वर का आविष्कार कर बैठा। ज्ञानमार्गियों ने पूर्णता की व्याख्या अनेक तरीकों से करते हुए अध्यात्म और दर्शन का घनघोर संसार रच दिया। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकला कि हर कोई अगर अपना अपना काम सही ढंग से करता चला जाए तो बात पूरी हो जाती है।

पूर्णता में ही 'कमाल'
यह जो पूर्णता है बड़ी चमत्कारी है। किसी चीज़ के पूरा होने का अहसास हमें गहरी शान्ति से भर देता है। पूर्णता सुख का सर्जन करती है और आगे बढ़ने का रास्ता खोलती है। हमारे हाथों उस चमत्कारी भविष्य की नींव रखी जाती है जिसके लिए हमने ईश्वर का आविष्कार किया था। ज्ञानियों ने इस कर्मयोग को ही ईश्वरोपासना कह दिया। बहरहाल पूर्णता में ही ‘कमाल’ है।

उपज्यो पूत 'कमाल'
अरबी से फ़ारसी होते हुए हिन्दी में आए कमाल के डीएनए में इसी पूर्णता का भाव है। कबीर ताउम्र इन्सानियत की बात करते रहे। वे सन्त थे। ज्ञानमार्गी थे जिसका मक़सद सम्पूर्णता की खोज था। आख़िर क्यों न वे अपने पुत्र का नाम कमाल रखते ! कमाल अपने पूरे कुनबे के साथ उर्दू में है और कुछ संगी साथी हिन्दी में भी नज़र आते हैं। कमाल کمال बना है अरबी की मूलक्रिया कमल کمل से जो मूलतः क-म-ल है, अर्थात काफ़(ک) मीम( م ) लाम (ل) से जिसमें पूर्ण होने, पूर्ण करने का भाव है।

'कमाल' का चमत्कार
इस तरह कमाल में परम, सम्पूर्णता, सिद्धि, पराकाष्ठा, सर्वोत्कृष्टता जैसे भाव स्थापित हुए हिन्दी में कमाल का बर्ताव चमत्कारी, अद्भुत या आश्चर्यजनक के अर्थ में ज्यादा होता है। जबकि इसका मूल भाव Completion, perfection या entire है। जब कोई चीज़ अपनी सम्पूर्णता में रची जाती है या घटित होती है तब सामान्य मनुष्य के लिए वह आश्चर्य ही होता है। इसीलिए सम्पूर्ण उपलब्धि को हम अनोखापन मानते हैं।

'कमाल' के मुहावरे
हिन्दी में कमाल दिखाना, कमाल करना, कमाल है जैसे मुहावरे हमारी रोज़मर्रा की अभिव्यक्ति का हिस्सा हैं। इनके बिना काम नहीं चलता। कमाल शब्द ग्रामीण बोली से लेकर शहरी ज़बान में छाया हुआ है। “कमाल की चीज़’, ‘कमाल की बात”, “कमाल की एक्टिंग”, “कमाल की सोच”, “कमाल की तकनीक”, “कमाल का हुनर”, “कमाल का आदमी”, “कमाल की औरत” जैसे दर्जनों पद हम रोज़ इस्तेमाल करते हैं जिसमें कमाल का अर्थ या तो प्रवीणता, पराकाष्ठा है अन्यथा आश्चर्य का भाव है।

'कमाल' का कुटुम्ब
कमाल-कुटुम्ब का ही एक अन्य शब्द है जो सम्पूर्णता के अर्थ में हिन्दी में प्रतिष्ठित है वह है مکمل मुकम्मल। कुछ लोग मुकम्मिल भी लिखते हैं। अनेक लोग मुक्कमल लिख देते हैं। सही मुकम्मल है अर्थात मीम काफ मीम लाम। मुकम्मल बना है कमाल से पहले ‘मु’ उपसर्ग लगने से जो मूलतः सम्बन्धकारक है।

'कमाल' यानी सम्पूर्णता

जिसमें सम्पूर्णता का गुण है उसका अर्थ होगा सम्पूर्ण। सो मुकम्मल में सम्पूर्ण, सर्वोत्कृष्टता जैसे भाव हैं। मुकम्मल वह है जो परिपूर्ण है, निर्मित है, बना हुआ है। वह जिसमें कुछ भी करने को शेष न रह गया हो। इसी कड़ी में आता है कामिल کامل इसमें भी यही सारे भाव समाहित हैं। कामिल अरबी की प्रसिद्ध और लोकप्रिय पुरुषवाची संज्ञा भी है। अखिल,योग्य, परिपूर्ण, सम्पूर्ण, सक्षम जैसी अर्थवत्ता इसमें है।

नामों में 'कमाल'
इसी तरह ताकमाल, मुकतामिल, ताकमुल, ताकमिल, कमालान जैसे पुरुषवाची नाम हैं तो कामिलात, कामिलिया, कमिल्ला जैसे स्त्रीवाची नाम भी इसी मूल से निकले हैं जिनमें उपरोक्त भाव ही हैं। इस कड़ी के ये सभी शब्त अरबी, फ़ारसी, हिन्दी, तुर्की, अज़रबैजानी, स्वाहिली, इंडोनेशियाई आदि अनेक भाषाओं में इस्तेमाल होते हैं। हिन्दी के अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में भी इस शृंखला के शब्द हैं।

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Monday, January 18, 2016

‘फ़ैशनपरस्त’ से ‘वामपरस्त’ तक


हिन्दी में सरपरस्त, खुदपरस्त, बुतपरस्त जैसे शब्द खुब बोले-सुने जाते हैं। दरअसल फ़ारसी में ‘परस्त’ जैसा एक कारसाज़ औज़ार (प्रत्यय) है जिसे किसी भी शब्द के पीछे जोड़ कर एक नया शब्द बनाया जा सकता है। यहाँ तक कि विदेशी शब्दों के साथ भी उसे जोड़ा जा सकता है मसलन खुद फ़ारसी वालों ने अरबी के हुस्न से जोड़ कर ‘हुस्नपरस्त’ बना डाला। अंग्रेजी के फ़ैशन से इसे मिला दिया और ‘फ़ैशनपरस्त’ बन गया जो हिन्दी में भी बड़ा मशहूर है। तो चलिए इस ‘परस्त’ का आगा-पीछा तलाशा जाए।

भारोपीय भाषाओं में आधार, स्थित अथवा स्थान के लिए ‘स्थ’ स्थि, स्था (sta, stha) जैसे मूलक्रिया रूप हैं जिनसे ऐसे सैकड़ों शब्द बने हैं जिनका रिश्ता खड़े रहने (स्टैंड), ठहरने, रुकने, थमने (स्टे), स्थान (आस्तान, स्तान) या गमन करने, जाने (प्रस्थान) जैसे अंग्रेजी, उर्दू व हिन्दी शब्दों से है। इनके ज़रिये स्थिति का बोध होता है, किसी से जुड़ने की जानकारी मिलती है। हिन्दी के स्तम्भ, स्तब्ध, स्थल हों या अंग्रेजी के स्टूल, स्टॉल, स्टेशन से लेकर अरेस्ट, असिस्ट जैसे शब्द हों, गौर करें तो इन सबमें ‘स्थ्’, ‘स्था’ (sth, stha) की छाया दिखाई देगी। तो संस्कृत में भी ‘स्थ’ से बने अनेक शब्द है जिनमें ‘प्रस्थ’ का भी शुमार है और जिसका आशय है स्थिर, अटल, अचल, दृढ़, टिकाऊ, मज़बूत, पुख़्ता, अविचल, समतल, बराबर, चौरस, समस्तरीय, मैदान, आधार, सपाट, बंधाव, जुड़ाव, साथ जाना, साथ चलना जैसे लगभग मिलते-जुलते आशय हैं।

‘स्थ’ से बने कुछ शब्दों में इसका आशय एकदम स्पष्ट होता नज़र आता है मसलन ध्यानस्थ, सिंहस्थ, योगस्थ, गृहस्थ या प्रस्थ से बने इन्द्रप्रस्थ, खाण्डवप्रस्थ जैसे शब्दों से स्पष्ट होता है। यही ‘प्रस्थ’ जब ‘वन’ से जुड़ता है तो वानप्रस्थ बनता है जिसका मूल आशय तो गृहस्थाश्रम के अगले पड़ाव से है। प्राचीनकाल में सभी जिम्मेदारियाँ निभाने के बाद लोग वनवास करने चले जाते थे ताकि शान्ति से जी सकें। यूँ वानप्रस्थ में वनगमन का भाव भी है और वनवास करने का भी। प्रस्थ में साथ चलने, साथ जाने का आशय भी है।

इसी ‘प्रस्थ’ का फ़ारसी रूप होता है ‘परस्त’। गौरतलब है वैदिक संस्कृत और अवेस्ता में बहनापा रहा है अर्थात काफी समानता रही है। संस्कृत का ‘प्र’ उपसर्ग अवेस्ता में ‘फ्र’ या ‘फ्रा’ में बदल जाता है। प्रस्थ का अवेस्ता में समरूप ‘फ्रस्त’ है और फ़ारसी में इससे ‘पर’ बन जाता है। डीएन मैकेंजी के पहलवी कोश में परस्ताक, परस्तिह, पिरिस्त, परिस्तदन, परिस्तिश्न जैसे रूप मिलते हैं। फ़ारसी में इसका परस्त रूप सामने आया जिसमें तत्पर, निष्ठावान, अनुरागी, भक्त, आराधक जैसे अर्थ निहित थे। आशय समर्पणयुक्त साहचर्य या सहगमन का ही था। ध्यान रहे ‘प्रस्थ’ में निहित साथ चलने (प्रस्थान) का भी आशय है। शृद्धालु पन्थ के साथ चलता है। समर्पित व्यक्ति भी साथ-साथ चलता है। सो ‘परस्त’ से ही ‘परस्तिश’ भी बन गया जिसका अर्थ है पूजा, अर्चना, आराधना हो गया। ‘परस्त’ से ही बन गया ‘परस्तार’ यानी सेवक या सहचर। यह पहलवी में भी है।

अब देखें कि बुत से परस्त जुड़कर बुतपरस्त में मूर्तिपूजक नज़र आता है और हुस्न से वाबस्ता होकर परस्त सौन्दर्योपासक बन जाता है। इसी तरह खुद से चस्पा होकर खुदपरस्त बन जाता है स्वार्थी, अहंकारी। पूजास्थल के अर्थ में इसी कड़ी में परस्तिशक़दा या परस्तिशखाना भी जुड़ जाते हैं। अब हिन्दीवालों को सोचना है कि इस प्रस्थ या परस्त से वो और कौन कौन से नए शब्द बना सकते हैं। दो शब्द तो हम अभी दे रहे हैं। प्रस्थ से वामप्रस्थी और परस्त से वामपरस्त।
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Friday, January 15, 2016

सुब्हान तेरी कुदरत यानी ‘सुभानअल्ला’



मो हतसिब तस्बीह के दाने पे ये गिनता रहा
किन ने पी, किन ने न पी, किन किन के आगे जाम था

मुमकिन है इस मशहूर शेर को पढ़ कर आप सुभानअल्ला कह उठें। ये है ही इस लायक। पर आप ‘सुभानअल्ला’ ये सुनकर भी कहेंगे कि ‘तस्बीह’ और ‘सुभान’ दोनो बहन-भाई हैं। ‘सुभानअल्ला’ को बतौर प्रशस्तिसूचक अव्यय हिन्दी में भी बरता जाता है। यूँ इसका प्रयोग विस्मयकारी आह्लाद प्रकट करने के लिए भी होता है। यह लगभग ‘क्याब्बात’, ‘अद्भुत’ या ‘ग़ज़ब’ जैसा मामला है। यूँ सुभानअल्ला में बहुत अच्छा, धन्य-धन्य अथवा वाह-वाह जैसी बात है। ऐसा भी कह सकते हैं कि सुभानअल्ला में vow factor भी है। जानते हैं सुभानअल्ला की जन्मकुण्डली।

सुभानअल्ला अरबी से बरास्ता फ़ारसी हिन्दी में आया है। यह एक शब्द नहीं बल्कि संयुक्त पद है। मूल रूप से अरबी का ‘सुब्हान’ ही हिन्दी में सुभान बन कर ढल गया। अरबी सुब्हान बना है त्रिवर्णी मूलक्रिया सबाहा ح ب س
यानी सीन-बा-हा से जिसमें परमेश्वर के गुणगान और प्रशस्ति का भाव है। इसका ही विकसित रूप है सुब्हान سبحان (सीन बा हा अलिफ़ नून) जिसका फ़ारसी रूप सोब्हान होता है और हिन्दी सुभान।

दरअसल सबाहा यानी सीन-बा-हा में जो मूल भाव है उसमें अनंत का भाव है मसलन विशाल जलराशि में तैरना, वह सब जो दृष्टिपटल के सामने है, जो नज़रों में है उसके वैभव को अनुभव करना। तैरते हुए देखने के इस भाव को हिन्दू संस्कृति में संसार को भवसागर मानने के रूपक से समझा जा सकता है। उस अनंत को निहारना, उसकी विशालता को अनुभव करते हुए उसमें बने रहने का भाव ही सबाहा का मूल है। और हासिल ? हासिल वह है जो बलदेवप्रसाद मिश्र की इस कविता के ज़रिये ज़ाहिर होता है-

जिस ओर निगाहें जाती हैं
उसके ही दर्शन पाती हैं
सम्पूर्ण दिशाएं सुख -सानी
उसका ही गौरव गाती हैं
तो सबाह से बने सुब्हान में सचमुच सुब्हान तेरी कुदरत का ही आशय है। प्रकृति से कोई पार नहीं पा सका है। प्रकृति ही ईश्वर है। जो कुछ हमने नहीं रचा, पर जो सब हमारे लिये है। ऐसी अनुभूति के बाद अगर सुभानअल्ला जैसी उक्ति ही निकलती है।

इसी सबाहा से विकसित हुआ एक और शब्द है तस्बीह यानी सुमिरनी जिसका जन्म सुमिरन से हुआ। विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में नाम स्मरण की परम्परा रही है। इस्लाम में भी नाम स्मरण का रिवाज़ है। परम्परा के अनुसार सुमिरनी को हाथ में पकड़ कर उस पर एक छोटी सफेद थैली डाल ली जाती है। तर्जनी उंगली और अंगूठे की मदद से नाम स्मरण करते हुए सुमिरनी के दानों को लगातार आगे बढ़ाया जाता है। सुमिरनी दरअसल एक उपकरण है जो नामस्मरण की आवृत्तियों का स्मरण भक्त को कराती है।

संस्कृत के स्मरण से विकसित है सुमिरन। स्मरण > सुमिरण > सुमिरन के क्रम में इसका विकास हुआ। पंजाबी में इसका रूप है ‘सिमरन’ जहाँ प्रॉपर नाऊन की तरह भी इसका प्रयोग होता है। व्यक्तिनाम की तरह स्त्री या पुरुष के नाम की तरह सिमरन का प्रयोग होता है। बहुतांश हिन्दीवाले पंजाबी के ‘सिमरन’ की संस्कृत के ‘स्मरण’ से रिश्तेदारी से अनजान हैं क्योंकि सुमिरन की तरह से पंजाबी के सिमरन का प्रयोग हिन्दीवाले नहीं करते हैं बल्कि उसे सिर्फ व्यक्तिनाम के तौर पर ही जानते हैं। स्मरण शब्द बना है संस्कृत की ‘स्मर्’ धातु से। मोनियर विलियम्स के संस्कृत इंग्लिश कोश के मुताबिक स्मर् में याद करना, न भूलना, कंठस्थ करना, याददाश्त जैसे भाव हैं। अंग्रेजी के मेमोरी से इसकी रिश्तेदारी है। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक लैटिन के मैमॉर् अर्थात स्मृति में ‘मर्’ के स्थान पर मॉर है। संस्कृत के स्मर, स्मरण, स्मृति में स-युक्त यही मर् है।

तो जब कभी किसी अनिवर्चनीय अनुभव से गुज़रें, किसी अनोखेपन के लिए मुँह से प्रशस्तिसूचक ‘वाह’ निकले तो सुभानअल्ला कहने में गुरेज़ न करें। और हाँ, खुदा की कुदरत को भी सुब्हान कहें और “मेरे महबूब को किसने बनाया” ये पहेली खुदा को बूझने दीजिए।
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Sunday, March 10, 2013

‘बिलंदर’ की बुलंदी

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त्रकार एम. हुसैन ज़ैदी की मुंबई माफ़िया पर लिखी क़िताब डोंगरी टू दुबई मराठी अनुवाद पढ़ते हुए एक नए शब्द से साबका पड़ा- बिलंदर। दाऊद इब्राहिम के अंडरवर्ल्ड में बढ़ते असर के संदर्भ में उसे बिलंदर कहा गया। कुछ कुछ अंदाज़ तो था कि इस बिलंद का हिन्दी-फ़ारसी के बुलंद से रिश्ता होना चाहिए। जिसमें पक्का, परम, कारगुज़ार, कद्दावर, असली जैसी अर्थवत्ता है। फ़ारसी शब्द चोला बदल कर जिस तरह से मराठी भाषा में पैठ गए हैं, वैसा हिन्दी में नहीं है। इस पर विस्तार से कभी लिखेंगे, फ़िलहाल बात बुलंद की। हिन्दी में भी बुलंद का एक रूप बिलंद होता है पर यह क़रीब-क़रीब अप्रचलित है। हिन्दी फ़ारसी में जहाँ बुलंद, बुलंदी में सकारात्मक भाव हैं वहीं वहीं मराठी के बिलंदर में आमतौर पर ठग, लुच्चा, चोर, भामटा या नीच जैसी अर्थवत्ता है। अर्थात बुलंद में निहित तमाम विशेषताएँ निम्न श्रेणी में प्रयुक्त होती हैं। हालाँकि सकारात्मक प्रयोग भी होता है पर कम है। देखा जाए तो बिलंदर का इस्तेमाल हिन्दी में किया जा सकता है।
हिन्दी-उर्दू के बुलंद, बुलंदी में ऊँचाई, उच्चता का भाव है। बुलंद इरादे, बुलंद हौसला जैसे वाक्याँश की मुहावरेदार अर्थवत्ता से यह ज़ाहिर है। इसके अलावा गुरुतर, भव्य, शीर्ष, उत्तुंग, मुख्य, भारी, प्रमुख, प्रतिष्टित, प्रतापी जैसे आशय भी इसमें हैं। मराठी में बुलंद अल्पप्रचलित है और बिलंद, बिलंदी या बिलंदर जैसे शब्द यहाँ मौजूद हैं। बिलंद रूप हिन्दी में भी है। बिलंदर मराठी का अपना आविष्कार है। फ़ारसी में बिलंदर नहीं है। वहाँ बुलंद ही चलता है। तब भी शुद्धता के नज़रिये से बलंद उच्चार ज़्यादा सही माना जाता है। बुलंद फ़ारसी ज़बान का शब्द है और इसके मूल में जो उच्चता, श्रेष्ठता, परम या खरा असल जैसा भाव है इसका रिश्ता बहुत गहराई से न सिर्फ इंडो-ईरानी भाषा परिवार से जुड़ता है बल्कि इसकी अर्थछायाएं पश्चिम एशियाई सांस्कृतिक आधार वाली भाषाओं यानी सुमेरी ( मेसोपोटेमियाई), बाबुली (बेबिलोनियन) और इब्रानी (हिब्रू) में भी नजर आती है।
सुमेरी यानी मेसोपोटेमियाई भाषा में यह शब्द बेल है और हिब्रू में बाल Baal के रूप में मिलता है। बाल शब्द बहुत महत्वपूर्ण है और इसकी अर्थवत्ता बहुत व्यापक है जिसमें शीर्षस्थ, प्रकाशमान, ऊपरी, बड़ा, परम शक्तिमान, भव्य, देवता अथवा स्वामी जैसे भाव समाए हैं। हिन्दी, उर्दू व फारसी में भी यह प्रचलित है। बाल में निहित ऊँचाई दूध की ऊपरी परत बालाई में नज़र आती है। हिन्दी में इसे मलाई कहते हैं जो फ़ारसी बालाई से ही बना है। लोगों को रत्ती भर खबर हुए बिना अंजाम दी गई कारगुजारी को बाले बाले (बाला) कहते हैं। यहाँ ऊपर ऊपर मामले को निपटाने का भाव ही प्रमुख है। पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाखाना कहते थे। बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान या कोष्ठ। अग्रेजी की बालकनी में भी ऊँचाई का ही भाव है और बालाख़ाना से बालकनी का ध्वनिसाम्य भी गौरतलब है।
सुमेर और अक्कादी मूल से उठ कर ही बाल शब्द फ़ारसी में भी दाख़िल हुआ। बाला ऐ ताक़ का अर्थ है किसी चीज़ को ऊपर रख देना। बालानशीं का अर्थ होता है सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च, सर्वोत्तम। मराठी में कही हुई बात, उल्लेख, ज़िक़्र, चर्चा के लिए फ़ारसी के मज़क़ूर शब्द का खूब प्रयोग होता है। उर्दू में मज़क़ूरे-बाला टर्म का प्रयोग ‘उपरोक्त’ यानी ऊपर लिखी हुई बात की तर्ज़ पर किया जाता है। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की ‘भ’ ध्वनि फारसी, ईरानी समेत सेमिटिक भाषाओं में जाकर ‘ब’ में बदलती रही है। संस्कृत के भर्ग में भी ऊँचाई का भाव है। इसका फारसी रूप बुर्ज होता है जिसका अर्थ मीनार या ऊंचा गुम्बद है। बुर्ज का huangshan ही यूरोपीय भाषाओं में बर्ग, बरो में रूपांतर होता है। कई स्थान नामों में यह जुड़ा नजर आता है। प्राचीन मनुष्य की शब्दावली और उसकी अर्थवत्ता का विकास प्रकृति के अध्ययन से ही हुआ था।
प्रायः ऊँचाई को इंगित करनेवाले शब्दों का मूलार्थ रोशनी, चमक, दीप्ति था। प्रकाशमान वस्तु के रूप में मनुष्य ने आसमान में चमकते खगोलीय पिण्डों को ही देखा था। पूर्व वैदिक भाषाओं में ‘भा’ ध्वनि में इसीलिए ऊंचाई के साथ चमक, कांति का भाव भी निहित है। संस्कृत के भर्गस् में एक साथ चमक, प्रकाश, भव्यता का भाव निहित है। The Nostratic macrofamily: a study in distant linguistic relationship पुस्तक में एलन बोम्हार्ड, जॉन सी कर्न्स ने विभिन्न भाषा परिवारों में प्रकाश और ऊंचाई संबंधी समानता दर्शानेवाले कई शब्द एक साथ रखे हैं। प्रोटो एफ्रोएशियाटिक भाषा परिवार की धातुओं bal और bel का अर्थ भी यही है और प्रोटो सेमिटिक के bala / bale में भी यही भाव है।
स्पष्ट है कि प्राचीन भारोपीय ध्वनि भा यहां बा में बदल रहा है। गहराई से देखें तो भा ध्वनि में निहित चमक का भाव विभा, विभाकर, भास्कर जैसे शब्दों में साफ है। तमिल-तेलुगू के pala pala में भी कांति, दीप्ति, चमक का भाव है। भा के बा में बदलने की मिसाल वजन के अर्थ में हिन्दी के भार और फारसी के बर या बार (बारदान, बारदाना, बोरी) से भी स्पष्ट है। ध्यान दें, बहुत महीन अर्थ में यहां भी ऊँचाई का भाव है। जिसे ऊपर उठाया जाए, वही भार है। अंग्रेजी के बर्डन में यही बार छुपा हुआ है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। रूस की बोल्शेविक क्रांति दुनिया में प्रसिद्ध है। बोल्शेविक का शाब्दिक अर्थ हुआ बहुसंख्यक। मगर इसमें भी बाल यानी सर्वशक्तिमान की महिमा नजर आ रही है।

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Friday, March 1, 2013

असली ‘दारासिंह’ कौन?

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मूचे भारतीय उपमहाद्वीप में ‘दारा’ नाम शक्ति का प्रतीक माना जाता है। पश्चिम में पेशावर से लेकर पूर्व में पूर्णिया तक ‘दारा’ नामधारी लोग मिल जाएँगे जैसे हिन्दुओं में दारा के साथ ‘सिंह’ का प्रत्यय जोड़ कर दारासिंह जैसा प्रभावी नाम बना लिया जाता है वहीं मुस्लिमों में ‘खान’ या ‘अली’ जैसे प्रत्ययों के साथ दाराख़ान या दाराअली जैसे नाम बन जाते हैं। कहते हैं यह ख्यात पहलवान, अभिनेता दारासिंह के नाम का प्रभाव है कि ‘दारा’ नाम के साथ ताक़त जुड़ गई। चलिए मान लिया। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाँचवे-छठे दशक में उनके नाम का वो ज़हूरा था कि वे एक चलती-फिरती किंवदंती बन गए थे। उनका नाम मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने लगा और कहावतें तक चल पड़ीं। सवाल यह है कि वो ‘दारा’ कौन था जिससे प्रभावित होकर दारासिंह के पिता ने अपने बेटे का नाम रखा और इस नाम के मायने क्या हैं ?
ब्दों का सफ़र में अक़्सर इतिहास में गोते लगाने की नौबत आ जाती है। इतिहास में ऐसे क़िरदार या प्रतीक मशहूर हो जाते हैं जिनकी खूबियाँ मनुष्य खुद में देखना चाहता है। नतीजतन वे लोग प्रतीक / संज्ञा-नाम में बदल जाते हैं। लोग अपनी संतानों, नायक-नायिकाओं को उन नामों से बुलाने लगते हैं। ऐसा ज्यादातर पुरुषवाची नामों के साथ ही होता है। उदाहरण कई हैं जैसे राम ( रामदयाल, रामकृपाल, रामनरेश, आयाराम, गयाराम आदि), कृष्ण (रामकृष्ण, हरिकृष्ण, रामकिशन आदि), बहादुर (वीरबहादुर, रामबहादुर), सिंह (रामसिंह, वीरसिंह, बहादुरसिंह) आदि कई नाम हैं। इसी कड़ी में दारा का नाम भी आता है जो ईरान के प्रसिद्ध हखामनी वंश के संस्थापक साइरस प्रथम जितना ही महान, वीर और महत्वाकांक्षी नरेश था। इस राजवंश का चौथा शासक था। दरहक़ीक़त हम जिस दारा की बात कर रहे हैं, वह इतिहास में डेरियस प्रथम के नाम से जाना जाता है। फ़ारस के इतिहास में दो साइरस और तीन डेरियस हुए हैं।
यूँ तो तीनों ही डेरियस वीर, लड़ाके थे मगर इतिहास में दारा के नाम से जो डेरियस प्रसिद्ध हो गया वह चौथा हखामनी शासक डेरियस प्रथम ( 521- 486 ) ही था। इतिहास में फ़ारस के हख़ामनी वंश को ही भारत पर चढ़ाई करने वाला पहला विदेशी वंश माना जाता है। इस वंश के संस्थापक साइरस ने 551-530 के बीच अपना साम्राज्य पेशावर से लेकर ग्रीस तक फैला लिया था। डेरियस का पिता विष्तास्पह्य भी हखामनी राजवंश का क्षत्रप था। समझा जाता है कि उसने साइरस के अधीन भी काम किया था। बहरहाल, डेरियस ने साइरस महान की आन, बान और शान को कायम रखा था इसीलिए उसके जीवनकाल में ही उसे भी डेरियस महान कहा जाने लगा था। हखामनी वंश की राजधानी पर्सेपोलिस के शिलालेखों पर ऐसा ही दर्ज है। पुरातत्व पर्यटन के लिए मशहूर पर्सेपोलिस शहर डेरियस की राजधानी हुआ करता था। ऐसा माना जाता है कि यह शहर उसने ही बसाया था। पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ परशियनों का शहर। ध्यान रहे ईरान का पुराना नाम फ़ारस था जिसके मूल में अवेस्ता का पार्श (संस्कृत का पर्शु) शब्द था। पार्श से ही फ़ारस बना। ग्रीक संदर्भों में इसे पर्शिया कहा गया। ग्रीक भाषा के पोलिस प्रत्यय का अर्थ वही होता है जो हिन्दी में पुर या पुरी का होता है। इस तरह पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ पर्शुपुरी अर्थात पारसिकों की राजधानी हुआ।
प्राचीन फ़ारसवासी अग्निपूजक थे। भारत के पारसी उन्हें के वंशज हैं। इस्लाम की आंधी में उजड़ कर वे भारत आ बसे, फ़ारस के पारसी मुसलमान होते चले गए। दारा का मूल दरअसल डेरियस भी नहीं है। पर्सेपोलिस के शिलालेख के मुताबिक उसका शुद्ध पारसिक उच्चारण दारयवौष है। शिलालेख में दर्ज़ कीलाक्षर लिपि वाले मज़मून का रोमन और देवनागरी उच्चार इस तरह है- Dârayavauš दारयवौष xšâyathiya क्षायथिय vazraka वज्रक xšâyathiya क्षायथिय xšâyâthiânâm क्षायथियानाम xšâyathiya क्षायथिय dahyunâm दह्युनाम Vištâspahya विष्तास्पह्य Haxâmanišiya पुश puça हक्ष्मनिषिय hya ह्य imam इमम taçaram तशराम akunauš अकौनष। इसका अर्थ है- “यह प्रासाद हखामनी वंश के विस्ताष्पह्य के पुत्र और महाराज, राजाधिराज, राज्याधिपति दारयवौष के द्वारा बनवाया गया है”। विद्वानों ने इसे पहलवी का प्राचीन रूप बताया है जो अवेस्ता के क़रीब थी। अवेस्ता को संस्कृत की मौसेरी बहन समझा जाता है।
ह समझना आसान है कि अवेस्ता के दारयवौष का ही ग्रीक रूप डेरियस हुआ होगा। ग्रीक इतिहासकार हेरियोडोटस के उल्लेखों से यही रूप प्रचलित हुआ। इसी तरह वर्णसंकोच के साथ दारयवौष का परवर्ती रूप दारा हुआ। दारयवोष के रूपान्तर की दो दिशाएँ रहीं। दारयवौष > दारयवश >दारयस > दारा (फ़ारसी) > डेरियस (ग्रीक) । पश्चिम की ओर यह डेरियस हुआ जबकि पूर्व की ओर इसका रूपान्तर दारा हुआ। दरअसल का दारा रूप ही अब व्यावहारिक तौर पर प्रचलन में है। ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश आदि में दारा कई नामों में मौजूद है जैसे- दाराबख्त, दाराअली, दाराखान, वीरदारा, दारा शुकोह, दाराप्रसाद, दारानाथ, दारासिंह आदि। दारायवौष की पूर्व में दारा के नाम से प्रसिद्धी की बड़ी वजह उसके पंजाब और सिंध अभियानों की कामयाबी रही। वर्तमान पाकिस्तान का पेशावर प्रान्त दारा के आधिपत्य में था। पश्चिम में मिस्र, ग्रीस, उत्तर में आमू दरिया और पूर्व में पंजाब-सिंध दारा के साम्राज्य की सीमाएँ थीं। यही उस काल का ज्ञात विश्व भी था।
देखते हैं दारा का, प्रकारान्तर से दारियवौष का अर्थ क्या है, इसका जन्मसूत्र क्या है। आज की फ़ारसी में दारा का दाराब रूप भी मिलता है। भारत-ईरानी भाषाओं के अध्येता क्रिश्चियन बार्थोलोमिए ने (1855-1925) ने दारयवौष को अवेस्ता का शब्द माना है और इसे जरथ्रुस्ती शब्दावली में स्थान दिया है। इसका अर्थ है धारण करने वाला। राज्य को धारण करना, प्रजा को धारण करना, शासन को धारण करना, नायकोचित गुणों को धारण करना और सद्गुणों को धारण करना इसमें निहित है। दारियवौष के मूल में प्रोटो भारोपीय धातु dher है। भाषाविद् जूलियस पकोर्नी इसका रिश्ता वैदिक धातु धर् से जोड़ते हैं। धर् में उठाने, सम्भालने, देखभाल करने, अंगीकार करने जैसे भाव है। धारण करने में ये सारे भाव निहित हैं। धर् से संस्कृत, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के अनेक शब्द बने हैं। पृथ्वी को धारिणी कहा जाता है। धरती में यही धर है। आधार यानी टिकाव, पड़ाव, फाऊंडेशन में भी यही ‘धर’ है जिसमें स्थिरता है। डॉ रामविलास शर्मा ‘धर्’ के एक रूप ‘स्थर’ की कल्पना करते हैं। संस्कृत ‘दारु’, ‘द्रुम’, ‘तरु’, ग्रीक ‘द्रुस’, अंग्रेजी के ‘ट्री’ में दरअसल धर् के रूपान्तर ‘दर्’ और ‘तर्’ हैं । यह भी दिलचस्प है की ‘धर’ में निहित स्थिरतामूलक धारण करने के भाव से ही गतिवाचक धारा शब्द भी बनता है । धारा वह जो धारण करे, अपने साथ ले जाए । धर, धरा के मूल में धृ धातु है । स्थिरता का परम प्रतीक ध्रुव का जन्म भी इसी धृ धातु से हुआ है । दारयवौष् से बने दारा का अर्थ हिन्दी फ़ारसी में सर्वशक्तिमान, भगवान, राजा, पालक आदि है।
स्पष्ट है कि ताक़त, वीरता आदि के पर्याय के रूप में दारा नाम डेरियस अर्थात दारयवौष् से आ रहा है। इसका प्रचार अनेक देशों में हुआ। नायकोचित नामकरण की अभिलाषा में अनेक दारा सामने आए मगर भारत में तो पंजाब के दारासिंह की ख्याति ने डेरियस द ग्रेट को भी पछाड़ दिया।

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Monday, February 25, 2013

क़िस्सा दक़ियानूस का

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दु नियाभर में प्रचलित मुहावरों-कहावतों में शासकों या प्रभावशाली लोगों का अत्याचारी, सनकी चरित्र भी झलकता है। ऐसे क़िरदारों में रावण, कंस, नीरो या तुग़लक जैसे नाम स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। कुछ नामों के पीछे न तो कहानी नज़र आती है न ही क़िस्सा। ऐसा ही एक नाम है दक़ियानूस जो सिर्फ़ एक संज्ञा भर नहीं बल्कि एक प्रसिद्ध रोमन सम्राट था। आज के तुर्की और प्राचीन अनातोलिया का इफ़ेसस शहर इसके राज्य में शामिल था। अंधविश्वासी या पुरानी सोच वाले व्यक्ति को दक़ियानूस कहते हैं। बोलचाल की हिन्दी में यह शब्द खूब प्रचलित है। इसी तरह दकियानूसी शब्द के तहत पुरानी सोच वाला, रूढ़ीवादी और अधिक उम्र वाला, कोई बेकार, पुरानी और मनहूस चीज़ या पुरातनपंथी विचारधारा आती है। मसलन दक़ियानूसी लोग, दक़ियानूसी बातें, दक़ियानूसी चीज़े। अरबी-फ़ारसी में दक़ियानूस शब्द का सही रूप दक़्यानूस है।
हिन्दी-फ़ारसी के कोशों में अव्वल तो दक़ियानूस के संदर्भ में ज्यादा जानकारियाँ नहीं मिलतीं। कुछ कोशों में तो इसका संदर्भ बतौर रोमन शासक भी नहीं मिलता और कहीं पर उसके अत्याचारी सम्राट होने जितनी ही संक्षिप्त जानकारी मिलती है। ग्रीक संदर्भों में दकियानूस का उल्लेख बतौर देसियस मिलता है। पश्चिम एशिया के समाज-संस्कृति पर यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों धर्मों की गहरी छाप पड़ी है। ईसाइयत पर यहूदी धर्म का असर और इस्लाम पर अपने पूर्ववर्ती यहूदी और ईसाई चिन्तन का असर नज़र आता है। बाईबल के गोस्पेल और कुरान के सूरों (सुरह) की अनेक कथाओं में समानता से यह साबित भी होता है। बाइबल और कुरान दोनों में ही थोड़ी बहुत भिन्नता के साथ देसियस या दक़्यानूस के बारे में लगभग एक जैसी ही कहानी है।
सा के जन्म के वक़्त पश्चिम एशिया और समूचे यूरोप में मूर्तिपूजा का ही बोलबाला था। ईसा के बाद भी रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा का चलन था। किन्हीं संदर्भों में इतिहास प्रसिद्ध इस निरंकुश सम्राट को 359 ईपू. का बताया गया है मगर यह भ्रामक है। दक्यानूस यानी देसियस का काल ईसा के क़रीब ढाई सदी बाद का है। रोमन साम्राज्य में शासकों की मूर्तिपूजा सम्बन्धी सनक, अत्याचार और उत्पीड़न का इतिहास ईसा के सूली पर चढ़ने के बाद सातवीं आठवीं सदी तक भी जारी रहा रहा। देसियस या दक़्यानूस का रिश्ता अनातोलिया से जोड़ा जाता है और माना जाता है कि तुर्की के प्रसिद्ध तारसस और इफ़ेसस शहरों पर उसका शासन था। ईसाई धर्म के महान प्रचारक सेंट पॉल का जन्म तारसस में ही हुआ था। माना जाता है कि कि तारसस का नाम तार्कु के आधार पर पड़ा है जो हित्ती भाषा का शब्द है। इस इलाके में बसने वाले आदिजन हिट्टाइट ही थे। तार्कु एक देवता था जिसकी पूजा हित्तीजन करते थे। वैसे अधिकांश संदर्भो में इफ़ेसस से इसका सम्बन्ध जोड़ा जाता है। यह वही इफ़ेसस है जहाँ का आर्टेमिस का मंदिर सात अजूबों में गिना जाता है। अरब-फ़ारसी संदर्भों में इफ़ेसस को अफ़सूस कहा जाता है।
देसियस मूर्तिपूजा में विश्वास रखता था। उसका शासन बड़ा सख़्त और पूजा-विधान के आधार पर चलता था। कहने की ज़रूरत नहीं कि ईसाइयत के बढ़ते प्रभाव की वजह से रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा के लिए आग्रह ज्यादा बढ़ा-चढ़ा था। देसियस का नज़रिया इस सिलसिले में ज्यादा सख़्त था। पूरे राज्य में उसके जासूस फैले हुए थे जो राई-रत्ती की खबरें देते थे। मूर्तिपूजा के विरोधियों को देसियस बर्दाश्त नहीं करता था। ईश्वर एक है और अदेखा है जैसी बातों पर यक़ीन करने वालों को वह आनन-फ़ानन में सज़ाए मौत सुना देता था जिसके तहत दोषियों को ज़िंदा जलाने, ज़मीन में गाड़ देने, हाथ-पैर काट कर पशुओं का ग्रास बनाने जैसे अमानवीय तरीके  शामिल थे। बहरहाल, बाइबल में वर्णित कथा के अनुसार इफ़ेसस के सात युवा लोगों ने शहर की देवी के मंदिर में सिर झुकाने से इनकार कर दिया। किन्हीं संदर्भों में यह घटना 156ईस्वी की भी बताई गई है। देसियस के कोप से बचने के लिए उन्होंने शहर के बाहर पहाड़ी गुफा में शरण ली। थके हारे सातों लोग गुफ़ा में जाते ही नींद के आग़ोश में चले गए। उधर देसियस को जब ख़बर लगी तो उसने गुफ़ा का दरवाज़ा चट्टानों से बंद करवा दिया ताकि वे अंदर ही मर-खप जाएँ। गोस्पेल के मुताबिक ये लोग दो सदियों तक सोते रहे। इसके आगे क्या हुआ ये जानने से पहले इस कहानी के इस्लामी संस्करण का जायज़ा लिया जाए।
गोस्पेल की तरह कुरान के अध्यायों को सूरा (सुरह) कहा जाता है। गुफ़ा में सोए लोगों की कहानी कुरान के सूरह-कह्फ़ (18वाँ अध्याय) में आती है। कहानी के मुताबिक अफ़सूस शहर (ग्रीक इफ़ेसस) में सात लोगों का एक समूह था जो ईसाइयत में भरोसा रखते थे। दक्यानूस के कहर से बचने के लिए उन्होंने गुफ़ा में शरण ली, जिसका दरवाज़ा उसके ही हुक्म से बंद करा दिया गया। इस्लामी संदर्भों में इन सात लोगों को अस्हाबे-कह्फ़ कहा गया है। अस्हब का अर्थ होता है पैग़म्बर के कृपापात्र, मोहम्मद के दोस्त। मूलतः अस्हब, साहिब का बहुवचन है जिसका अर्थ है साहिबान, मान्यवर आदि। इसी तरह कह्फ़ का अर्थ होता है गुफ़ा, कंदरा, गार आदि। कह्फ़ अरबी का शब्द है लेकिन, गुहा, गुफा, कोह, खोह जैसे इंडो-ईरानी परिवार के शब्दों से इसकी साम्यता गौरतलब है।
गोस्पेल के मुताबिक क़रीब दो सौ साल ये लोग सोते रहे जबकि सूरह् के मुताबिक इनकी नींद 309 साल बाद टूटी। जो भी हो, नींद टूटने पर इनमें से कुछ लोग भोजन की तलाश में पास की बस्ती तक पहुँचे। उन्होंने कुछ रोटियाँ खरीदी। जब नानबाई को इन्होंने कुछ सिक्के दिए तो वह हैरत में पड़ गया। सिक्के उसके लिए अनजाने थे। धीरे-धीरे ये बात पूरे बाज़ार में फैल गई कि कुछ अनोखे लोग वहाँ आए हैं। जानकारों ने देख-परख कर पहचाना कि इन सिक्कों पर दक़्यानूस नाम के राजा की तस्वीर छपी है जो क़रीब तीन सदी पहले हुआ था और बेहद ज़ालिम था। नींद से जागने वालों के लिए अब हैरत में पड़ने की बारी थी। उन्होंने बताया कि बेशक दक़्यानूस ज़ुल्मी है और उससे बचने के लिए ही तो वे कल शहर छोड़ कर भागे थे। वो तो झपकी लग गई और वे नींद में ग़ाफ़िल हो गए। तीन सदी लम्बी नींद उनके लिए ही नहीं, सबके लिए बड़ी ख़बर थी। फिर यह हुआ कि वे सातों लोग वहीं रहने लगे। उनकी यही चाहत थी कि जिस काल की गुफा में सदियों तक सोते हुए उन्हें ईश्वरीय अनुभूति हुई है, उनकी उम्र पूरी होने के बाद वे हमेशा के लिए भी उसी गुफा में सोएँ। शहरवासियों ने उनकी यह इच्छा भी पूरी की। बाद के दौर में आम लोगों में भी यह धारणा बनी कि उस गुफा में दफ़नाए जाने पर उन्हें मोक्ष मिलेगा।  पुरातत्ववेत्ताओं को एशिया व यूरोप में तुर्की, जॉर्डन से लेकर चीन के उईगुर प्रान्त तक में ऐसी गुफाएँ मिली हैं जिन्हें स्थानीय लोग अस्हाबे-कह्फ कहते हैं। इन सभी स्थानों पर कब्रें हैं। 
क़िस्सा-कोताह यह कि इस्लाम और ईसाई दोनों ही धर्मों में इस कहानी का प्रयोग अपने अपने पैग़म्बर की महानता स्थापित करने में किया। लोगों को यह पता चला कि कुल मिला कर एकेश्वरवाद ही सही रास्ता है। ईश्वर एक है और उन्होंने ही ज़ालिम के कहर से बचाने के लिए अपने सात नेक बंदों को सदियों तक सुलाए रखा। कहानी जो भी कहती हो, धर्मों की बात धर्मोपदेशक जानें, शब्दों के सफ़र में हमें तो दक़ियानूस लफ़्ज का सफ़र जानना था, जो जान लिया। अल्लाह के उन सात नेक बंदों का नाम आज कोई नहीं जानता। हाँ, जुल्मी दक़ियानूस को हम क़रीब क़रीब रोज़ ही याद कर लेते हैं।

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Friday, November 2, 2012

तारीफ़ अली उर्फ़…

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प्र शंसा के अर्थ में हिन्दी मे तारीफ़ शब्द बोलचाल में रचा-बसा है । प्रशंसा क्या है ? हमारे आस-पास जो कुछ खास है उसकी शैली, गुण, वृत्ति, स्वभाव के बारे में सकारात्मक उद्गार । तारीफ़ दरअसल किसी व्यक्ति, वस्तु के गुणों का बखान ही होता है । हिन्दी की विभिन्न बोलियों समेत मराठी, गुजराती, बांग्ला में भी तारीफ़ शब्द है । तारीफ़ सबको अच्छी लगती है । कई लोग सिर्फ़ तारीफ़ सुनने के आदी होते हैं और कई लोग तारीफ़ करना जानते हैं ।  ज़रा सी तारीफ़ दो लोगों के बीच मनमुटाव खत्म कर सकती है । इसलिए तारीफ़ ज़रिया है, रिश्ता है, पुल है । खुशामदी लोग अक्सर तारीफ़ों के पुल बांध देते हैं । कहना न होगा कि झूठी तारीफ़ के रिश्ते इसलिए जल्दी ढह जाते हैं । वैसे तारीफ़ों के पुल ही नहीं बनते, तारीफ़ो की बरसात भी होती है ।
तारीफ़ सेमिटिक मूल का शब्द है और अरबी से बरास्ता फ़ारसी बोलचाल की हिन्दी में दाखिल हुआ । तारीफ़ के मूल में अराफ़ा क्रिया है जिसका जन्म अरबी धातु ऐन-रा-फ़ा [ع-ر-ف] से हुआ है । ऐन-रा-फ़ा [ 'a-r-f ] में पहचानना, मानना, स्वीकार करना जैसे भाव हैं । प्रकारान्तर से इसके साथ ज्ञान, बोध, अनुभूति, परिचय जैसे भाव जुड़ते हैं । “आपकी तारीफ़” जैसे वाक्य में परिचय का आशय है, न कि सामने वाले के मुँह से उसकी प्रशंसा सुनने की मांग ।  कुछ कोशों में इसका अर्थ गन्ध दिया हुआ है । यूँ देखा जाए तो गन्ध से ही किसी चीज़ की पहचान, बोध या ज्ञान होता है । अरबी का ‘ता’ उपसर्ग लगने से तारीफ़ बनता है जिसमें मूलतः किसी घोषणा, उद्गार (सकारात्मक) का भाव है । तारीफ़ में विवरण, वर्णन भी होता है । तारीफ़ में प्रशंसाभर नहीं बल्कि इसका एक अर्थ गुण भी है । सिर्फ़ प्रशंसा झूठी हो सकती है, मगर गुण का बखान झूठ की श्रेणी में नहीं आता । सो गुण ( परिचय ) की जानकारी, उसकी व्याख्या, विवरण, प्रकटन, बखान आदि तारीफ़ के दायरे में है ।
सामान्यतया परिचय के अर्थ में हम तआरुफ़ शब्द का प्रयोग करते हैं । ताआरुफ़ सिर्फ़ किन्ही दो लोगों को एक दूसरे से मिलाना अथवा किन्ही दो लोगों का आपस में परिचय भर नहीं है । अराफ़ा में जानने का भाव है, जो सीखने के लिए ज़रूरी है । इसी तरह औरों को योग्य बनाने के लिए सीखना ज़रूरी है । हमने जो कुछ जाना है, वही दूसरे भी जान लें, यही तआरुफ़ है । बुनियादी तौर पर तआरुफ़ में समझने-समझाने, शिक्षित होने का भाव है । इसका एक रूप तअर्रुफ़ भी है जिसका अर्थ जान-पहचान, समझना आदि है । इसी शृंखला के कुछ और शब्द हैं जो हिन्दी क्षेत्रों में इस्तेमाल होते हैं जैसे संज्ञानाम आरिफ़ जिसका अर्थ है जानकार, विशेषज्ञ, प्रवीण, निपुण, चतुर आदि । इसी तरह एक अन्य नाम है मारूफ़ । संज्ञानाम के साथ यह विशेषण भी है । मारूफ़ वह है जिसे सब जानते हों । ख्यात । प्रसिद्ध । नामी । जाना-माना । बहुमान्य । मशहूर आदि । साहित्य में मारूफो-मोतबर ( नामी और विश्वसनीय ) या मारूफ़ शख्सियत जैसे प्रयोग जाने-पहचाने हैं ।
सी कड़ी में उर्फ़ भी है । हिन्दी में उर्फ़ शब्द का प्रयोग भी बहुतायत होता है । उर्फ़ तब लगाते हैं जब किसी व्यक्ति के मूल नाम के अलावा अन्य नाम का भी उल्लेख करना हो । उर्फ़ यानी बोलचाल का नाम, चालू नाम । जैसे राजेन्द्रसिंह उर्फ़ ‘भैयाजी’ । ज़ाहिर है मूल नाम के अलावा जिस नाम को ज्यादा लोकमान्यता मिलती है वही ‘उर्फ़’ है । उस शख्सियत का बोध समाज को प्रचलित नाम से जल्दी होता है बजाय औपचारिक नाम के । इसलिए उर्फ़ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि समाज में उसी नाम से लोग उसे पहचानते हैं । फ़ारसी में इसका उच्चार ‘ओर्फ़’ की तरह होता है । लोग कहतें है, ज़रा सी तारीफ़ करने में क्या जाता है ? अर्थात तारीफ़ में कोई मेहनत नहीं लगती, अपनी जेब से कुछ नहीं जाता । एक धेला खर्च किए बिना तारीफ़ से काम हो जाता है । ऐसी तारीफ़ खुशामद कहलाती है । 
रबी, तुर्की में ही तारीफ़ का तारिफ़ा रूप भी है जिसका अर्थ किसी चीज़ का मूल्य अथवा किराया है । करें कि जिस तरह किसी चीज़ की गन्ध ही उसका परिचय होती है या यूँ कहें कि किसी चीज़ के अस्तित्व का बोध उसकी गंध से होता है । मनुष्य जीवन में मूल्यवान अगर कुछ है तो वह गुण ही हैं । गुणों से ही स्व-भाव विकसित होता है । मूल्य बना है ‘मूल’ से जिसमें मौलिक, असली, खरा का भाव है । जो जड़ में है । जो उसका स्व-भाव है । जब हम किसी चीज़ का मूल्य आँकते हैं तब गुणवत्ता की परख ही महत्वपूर्ण होती है । गुण ही मूल्य हैं । गुण ही किसी चीज़ को विशिष्ट बनाते हैं, मूल्यवान बनाते हैं । मनुष्य के आचार-विचार ही उसके गुण हैं । वही उसके जीवनमूल्य होते हैं । कहते हैं कि सिर्फ़ तारीफ़ से पेट नहीं भरता । इसका अर्थ यह कि गुण का मूल्यांकन करने के बाद ज़बानी प्रशंसा काफ़ी नहीं है ।
सी तरह किसी चीज़ का मूल्य दरअसल उसका परिचय ही है । भौतिकवादी ढंग से सोचें तो किसी चीज़ का मूल्य अधिक होने पर हम फ़ौरन उसकी खूबी ( गुण ) जानना चाहते हैं । यानी मूल्य का गुण से सापेक्ष संबंध है । तारिफ़ा में मूल्य का जो भाव है उसका अर्थ भी प्रकारान्तर से परिचय ही है । अरबी के तारिफ़ा में जानकारी, सूचना जैसे भावों का अर्थसंकोच हुआ और इसमें मूल्य, मूल्यसूची, खर्रा, फेहरिस्त समेत दाम, दर, शुल्क, भाव, मूल्य, कर जैसे आशय समाहित हो गए । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि अंग्रेजी के टैरिफ़  tariff शब्द का मूल भी अरबी का तारिफ़ा ही है । अरब सौदागरों का भूमध्यसागरीय क्षेत्र में दबदबा था । मूल्यवाची अर्थवत्ता के साथ तारिफ़ा लैटिन में दाखिल हुआ और फिर अंग्रेजी में इसका रूप टैरिफ़ हो गया जिसमें मूलतः शुल्क, दर या कर वाला अभिप्राय है ।

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Thursday, October 18, 2012

पग-पग पैग़म्बर

pag
सं देश के अर्थ में फ़ारसी का पैग़ाम शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है ।  पैग़म्बर का रिश्ता भी पैग़ाम से ही है यानी वो जो पैग़ाम लाए । पैग़ाम का ही दूसरा रूप पयाम payam भी होता है । पैग़म्बर की तरह ही इससे पयम्बर बनता है । यह उर्दू में अधिक प्रचलित है । संवाद से जुड़े विभिन्न शब्द दरअसल किसी भी भाषा की आरम्भिक और मूलभूत शब्दावली का हिस्सा होते हैं । भाषा का जन्म ही संवाद माध्यम बनने के लिए हुआ है । पुराने ज़माने में पदयात्रियों के भरोसे ही सूचनाएँ सफ़र करती थीं । बाद में इस काम के लिए हरकारे रखे जाने लगे । ये दौड़ कर या तेज चाल से संदेश पहुँचाते थे । आगे चलकर घुड़सवार दस्तों ने संदेशवाहकों की ज़िम्मेदारी सम्भाली । इसके बावजूद शुरुआती दौर से लेकर आज तक पैदल चल कर संदेश पहुँचाने वालों का महत्व बना हुआ है । हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी के शब्दकोशों में पैग़ाम के बारे में व्युत्पत्तिमूलक जानकारी नहीं मिलती ।

पैग़ाम शब्द की रिश्तेदारी निश्चित रूप से संदेशवाहन की पैदल प्रणाली से होनी चाहिए । जॉन प्लैट्स के फ़ारसी, हिन्दुस्तानी, इंग्लिश कोश में पैग़ाम paigham शब्द को संस्कृत के प्रतिगम्  pratigam शब्द का सगोत्रीय बताया गया है जिसमें किसी की ओर जाना, मिलने जाना, वापसी जैसे भाव हैं । संस्कृत की बहन अवेस्ता में प्रति उपसर्ग का समरूप पैति है । डॉ अली नूराई द्वारा बनाए गए इंडो-यूरोपीय भाषाओं के रूटचार्ट में पैति-गम शब्द मिलता है मगर उन्होंने इसका रिश्ता न तो संस्कृत के प्रतिगम् से और न ही फ़ारसी के पैग़ाम जोड़ा, अलबत्ता एक अलग प्रविष्टि में पयाम ज़रूर दिया है । नूराई पैतिगम का अर्थ बताते हैं- निकलना ( संदेश के साथ ) ।  स्पष्ट है कि यह फ़ारसी पैग़ाम से पैतिगम का संदेशवाची रिश्ता जोड़ने का प्रयास है मगर  इससे कुछ पता नहीं चलता । यह ध्वनिसाम्य पर आधारित व्युत्पत्ति है । भारोपीय भाषाओं में पैर के लिए पेड ped तथा इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में इसका रूप पद् होता है । पद् से ही संस्कृत में पद, पदम्, पदकम् जैसे शब्द बनते हैं । अवेस्ता में भी पद का अर्थ पैर है । इसका एक अर्थ चतुर्थांश भी होता है । अंग्रेजी के फुट foot, ped, गोथिक के फोटस fotus, लैटिन के pes जैसे शब्दों में ये धातुरूप नज़र आते हैं । भारोपीय धातु पेड ped से बनने वाले शब्दों की लम्बी शृंखला है । गौर करें कि प्रतिगम में सिर्फ़ गति उभर रही है, साधन गौण है जबकि संदेशवाहक मूलतः सेवक है और इस आशय वाले शब्दों के मूल में पैदल चलना एक आवश्यक लक्षण है ।  प्यादा, हरकारा, प्यून, धावक, अनुचर, परिचर आदि शब्दों में चलना (पैदल) एक अनिवार्य ज़िम्मेदारी है ।
संस्कृत में पैदल चलने वाले को पादातिक / पदातिक कहते हैं । मूलतः इसमें अनुचर, सिपाही या संदेशवाहक का आशय है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली में पदातिक रूप प्रचलित है । संस्कृत में इसका अन्य रूप पायिक भी होता है । मोनियर विलियम्स इसका अर्थ a footman , foot-soldier , peon बताते हैं । वे पायिक को पादातिक का ही संक्षिप्त रूप भी बताते हैं । पद में पैर और कदम दोनो भाव हैं । इससे बने पदक, पदकम् का अर्थ कदम, डग, एक पैर द्वारा चली गई दूरी है । पदक का प्राकृत रूप पअक  है जिससे इसका अगला रूप पग बनता है । हिन्दी की बोलियों में में पग-पग, पगे-पगे या पैग-पैग जैसे रूप भी चलते हैं । मीरां कहती हैं- “कोस कोस पर पहरा बैठ्या पैग पैग  बटमार।”  इसी तरह मलिक मुहम्मद जायसी लिखते हैं – “पैग पैग पर कुआँ बावरी । साजी बैठक और पाँवरी ।” हमारा मानना है कि पैगाम में यही पैग उभर रहा है । निश्चित ही फ़ारसी के पूर्व रूपों में भी पदक से पैग रूपान्तर हुआ होगा ।
बसे पहले पादातिक का पायिक रूप संस्कृत में ही तैयार हो गया था । मैकेन्जी के पहलवी कोश के मुताबिक फ़ारसी के पूर्वरूप पहलवी में यह पैग payg है । पायिक की तर्ज़ पर इसे पायिग भी उच्चारा जा सकता है, मगर पहलवी में यह पैग ही हुआ है । पायिक से बने पायक का अर्थ हिन्दी में  पैदल सैनिक, या हरकारा होता है । इसी ‘पैग’ से संदेश के अर्थ वाला पैगाम शब्द तैयार होता है । कोशों में पैगाम और नुक़ते वाला पैग़ाम दोनो रूप मिलते हैं । मद्दाह के कोश में नुक़ते वाला पैग़ाम है । गौर करें कि अवधी का पैग, फ़ारसी में पैक के रूप में मौजूद है जिसका अर्थ है चिट्टीरसाँ, दूत, पत्रवाहक, डाकिया, हरकारा, प्यादा या एलची । पैग, फ़ारसी में सिर्फ़ पै रह जाता है जिसका अर्थ पदचिह्न या पैर है । फ़ारसी में पै के साथ ‘पा’ भी है जैसे पापोश, पाए-तख्त या पाए-जामा (पाजामा), पाए-दान (पायदान) आदि ।
पैगाम से ही ईश्वरदूत की अर्थवत्ता वाला पैग़म्बर शब्द बनता है । आमतौर पर पैग़म्बर नाम से इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद का बोध होता है । इंडो-ईरानी भाषाएँ बोलनेवाले समूहों में ईश्वरदूत, मुक्तिदाता के अर्थ में मुहम्मद के लिए पैग़म्बर शब्द रूढ़ हो गया । यूँ मूलतः इसमें संदेश लाने वाले का भाव ही है । दरअसल पैग़म्बर में वही अर्थवत्ता है जो हिन्दी के विभूति शब्द में है । दुनियseभर में जितनी भी विभूतियाँ पैदा हुई हैं, उनका दर्ज़ा ईश्वरदूत का ही रहा है । ग़लत राह पर चलते हुए कष्ट पाते मनुष्य को मुक्ति दिलाने के लिए समय समय पर ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने मानवता को राह दिखाई है । दुनिया ने ऐसे लोगों को ईश्वर का संदेश लाने वाले के तौर पैगम्बर माना । कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद सब ईश्वरदूत, पथप्रदर्शक या धर्मप्रवर्तक थे । पैगम्बर शब्द बना है पैग़ाम में फ़ारसी का ‘बर’ उपसर्ग लगने से । मूलतः पैग़ाम में संदेश भिजवाने का भाव है । संदेश भिजवाने की अत्यन्य प्राचीन तकनीक पग-पग या पैग-पैग ही थी सो पैग़ाम में संदेश की अर्थवत्ता पग-पग चल कर गन्तव्य तक मन्तव्य पहुँचाने की क्रिया से उभर रही है ।
भारोपीय धातु इंडो-यूरोपीय धातु bher से जिसमें बोझ उठाना, या ढोना जैसे भाव हैं । संस्कृत में एक धातु है ‘भृ’ जिसकी व्यापक अर्थवत्ता है मगर मोटे तौर पर उसमें संभालने, ले जाने, भार उठाने आदि का भाव है । इससे ही बना है भार शब्द जिसका अर्थ होता है वज़न, बोझ आदि । भार का एक रूप भर  है । यह वज़न की इकाई भी है । फ़ारसी में यह बर है जिसका आशय उठाना, ले जाना है । बर अपने आप में प्रत्यय है । पैग़ाम के साथ जुड़ कर इसमें “ले जाने वाला” का आशय पैदा हो जाता है । इस तरह पैग़ाम के साथ बर लगने से बनता है पैग़ाम-बर अर्थात संदेश ले जाने वाला । पैगामबर का ही रूप पैगंबर या पैगम्बर हुआ । पैग़म्बरी का अर्थ है पैग़म्बर होने का भाव या उसके जैसे काम । पैग़म्बरी यानी एक मुहिम जो इन्सानियत के रास्ते पर चलने को प्रेरित करे । इन्सानियत पर चलना ही ईश्वर प्राप्ति है । पैगम्बर भी डगर-डगर चल कर औरों के लिए राह बनाता है । सो पैगम्बर सिर्फ़ पैग़ाम लाने वाला नहीं बल्कि पैग-पैग चलाने वाला, पार उतारने वाला भी है । संदेशवाहक के लिए पैग़ामगुजार शब्द भी है ।
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5.
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Friday, September 7, 2012

नाम में ही धरा है सब-कुछ !!

things

ना म में क्या रखा है ? शेक्सपीयर के प्रख्यात प्रेम-कथानक की नायिका जूलियट के मुँह से रोमियो के लिए निकला यह जुमला इस क़दर मक़बूल हुआ कि आज दुनियाभर में इसका इस्तेमाल मुहावरे की तरह किया जाता है । चूँकि ये बात इश्क के मद्देनज़र दुनिया के सामने आई और इश्क में सिवाय इश्क के कुछ भी ज़रूरी नहीं होता...तब रोमियो के इश्क में मुब्तिला जूलियट के इस जुमले को ज्यादा तूल नहीं दिया जाना चाहिए । दुनियादारी में तो नाम ही सबकुछ है । यानी “बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ” जैसा नकारात्मक आशावाद आज ज्यादा चलन में है । ये नाम की महिमा है कि हर आशिक रोमियो, फरहाद, मजनू जैसे नामों से नवाज़ा जाता है और हर माशूक को जूलियट, शीरीं, लैला का नाम मिल जाता है । नाम दरअसल क्या है ? हमारी नज़रों के सामने, समूची सृष्टि में जितने भी पदार्थ हैं उनका परिचय करानेवाला शब्द ही नाम है । इसे संज्ञा भी कहा जाता है । संज्ञा हिन्दी का जाना पहचाना शब्द है । प्राथमिक व्याकरण के ज़रिए हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति इससे परिचित है । संज्ञा के दायरे में हर चीज़ है । जड-गतिशील, स्थूल-सूक्ष्म, दृष्य-अदृष्य, वास्तविक-काल्पनिक, पार्थिव-अपार्थिव इन सभी वर्गों में जो कुछ भी हमारी जानकारी में है, उसे संज्ञा कहा जा सकता है । संज्ञा के मूल में सम + ज्ञा है । सम अर्थात बराबर, पूरी तरह, एक जैसा आदि । अर्थात जिससे किसी पदार्थ के रूप, गुण, आयाम का भलीभाँति पता चले, वही संज्ञा है । संज्ञा यानी नाम ।
संस्कृत की ज्ञा धातु में जानने, समझने,बोध होने, अनुभव करने का भाव है । बेहद लोकप्रिय और बहुप्रचलिशब्द नाम के मूल में यही ज्ञा धातु है । अंग्रेजी के नेम name का भी इससे गहरा रिश्ता है । संस्कृत में ज्ञ अपने आप में स्वतंत्र अर्थ रखता है जिसका मतलब हुआ जाननेवाला, बुद्धिमान, बुध नक्षत्र और विद्वान। ज्ञा क्रिया का मतलब होता है सीखना, परिचित होना, विज्ञ होना, अनुभव करना आदि । संज्ञा में चेतना का भाव है और होश का भी । ये दोनो ही शब्द बोध कराने से जुड़े हैं । अचेत और बेहोश जैसे शब्दों में कुछ भी जानने योग्य न रहने का भाव है । संज्ञाशून्य, संज्ञाहीन यानी जिसे कुछ भी बोध न हो । ज्ञ दरअसल संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है । इसके उच्चारण में क्षेत्रीय भिन्नता है । मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ञ्ज ध्वनि है। दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है । भाषा विज्ञानियों ने प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए जो धातु ढूंढी है वह है gno यानी ग्नो । 
ज़रा गौर करें इस ग्नों से ग्न्य् की समानता पर । ये दोनों एक ही हैं। अब बात इसके अर्थ की । ज्ञा से बने ज्ञान का भी यही मतलब होता है। ज+ञ के उच्चार के आधार पर ज्ञान शब्द से जान अर्थात जानकारी, जानना जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति हुई। अनजान शब्द उर्दू का जान पड़ता है मगर वहां भी यह हिन्दी के प्रभाव में चलने लगा है । मूलतः यह हिन्दी के जान यानी ज्ञान से ही बना है जिसमें संस्कृत का अन् उपसर्ग लगा है । ज्ञा धातु में ठानना, खोज करना, निश्चय करना, घोषणा करना, सूचना देना, सहमत होना, आज्ञा देना आदि अर्थ भी समाहित हैं । यानी आज के इन्फॉरमेशन टेकनोलॉजी से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें अकेले इस वर्ण में समाई हैं । इन तमाम अर्थों में हिन्दी में आज अनुज्ञा, विज्ञ, प्रतिज्ञा और विज्ञान जैसे शब्द प्रचलित हैं। ज्ञा से बने कुछ अन्य महत्वपूर्ण शब्द ज्ञानी, ज्ञान, ज्ञापन खूब चलते हैं। गौर करें जिस तरह संस्कृत-हिन्दी में वर्ण में बदल जाता है वैसे ही यूरोपीय भाषा परिवार में भी होता है। प्राचीन भारोपीय भाषा फरिवार की धातु gno का ग्रीक रूप भी ग्नो ही रहा मगर लैटिन में बना gnoscere और फिर अंग्रेजी में ‘ग’ की जगह ‘क’ ने ले और gno का रूप हो गया know हो गया । बाद में नालेज जैसे कई अन्य शब्द भी बने। रूसी का ज्नान ( जानना ), अंग्रेजी का नोन ( ज्ञात ) और ग्रीक भाषा के गिग्नोस्को ( जानना ), ग्नोतॉस ( ज्ञान ) और ग्नोसिस (ज्ञान) एक ही समूह के सदस्य हैं । गौर करें हिन्दी-संस्कृत के ज्ञान शब्द से इन विजातीय शब्दों के अर्थ और ध्वनि साम्य पर ।
ब आते हैं नाम पर । संस्कृत में भी नाम शब्द है । इसका आदिरूप ज्ञाम अर्थात ग्नाम ( ग्याम नहीं ) रहा होगा, ऐसा डॉ रामविलास शर्मा समेत अनेक विद्वानों का मत है । ग्नाम से आदि स्थानीय व्यंजन का लोप होकर सिर्फ नाम शेष रहा । ज्ञाम से नाम के रूपान्तर का संकेत संस्कृत रूप नामन् से भी मिलता है । अवेस्ता में भी यह नाम / नामन् है । फ़ारसी में यह नाम / नामा हो जाता है । इसका लैटिन रूप नोमॅन है जो संस्कृत के नामन के समतुल्य है । नामवाची संज्ञा के अर्थ में अंग्रेजी का नेम name का विकास पोस्ट जर्मनिक के नेमॉन namon से हुआ । वाल्टर स्कीट के मुताबिक इसका सम्बन्ध लैटिन के नोमॅन और ग्रीक ग्नोमेन से है । लैटिन नोमॅन, ग्रीक ग्नोमेन gnomen से निकला है । मोनियर विलियम्स नामन् के मूल में ज्ञा अथवा म्ना धातुओं की संभाव्यता बताते हैं । विलियम व्हिटनी जैसे भारोपीय भाषाओं के विद्वानों के मुताबिक म्ना चिन्तन, मनन, दर्शन का भाव है । गौर करें कि ज्ञा और म्ना दोनो की अनुभूति एक ही है । नाम शब्द ज्ञा और ग्ना शब्दमूल से बना है ऐसा डॉ रामविलास शर्मा का मानना है । ज्ञा अर्थात gna । इसका एक रूप jna भी बनता है और kna भी (know में ) । ख्यात प्राच्यविद थियोडोर बेन्फे संस्कृत नामन् का एक रूप ज्नामन भी बताते हैं जो पूर्व वैदिक ग्नामन की ओर संकेत करता है । नाम का पूर्व रूप ग्नाम रहा होगा, यही बात डॉ रामविलास शर्मा भी कह रहे हैं । वाल्टर स्कीट की इंग्लिश एटिमोलॉ डिक्शनरी में भी ये दोनों रूप मिलते हैं । रूसी में इसका रूप ज्नामेनिए है ।
पनाम के लिए हिन्दी में सरनेम शब्द अपना लिया गया है । इसमें नेम वही है जो नाम है और अंग्रेजी के सर उपसर्ग में ऊपर, परे, उच्च वाला आशय है । सरनेम से आशय कुलनाम या समूह की उपाधि से है जो उसके सदस्यों की पहचान होती है । नाम से बने अनेक शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं मसलन नामक  का भी खूब इस्तेमाल होता है जिसमें नामधारी का भाव है । नामधारी यानी उस नाम से पहचाना जाने वाला । नाम रखने की प्रक्रिया नामकरण कहलाती है । गौर करें, संज्ञाकरण का अर्थ भी नाम रखना होता है । किसी सूची या दस्तावेज़ में नाम लिखवाने को नामांकन कहते हैं । मनोनयन के लिए नामित शब्द भी प्रचलित है । इसका फ़ारसी रूप नामज़द है । नामराशि शब्द भी आम है यानी एक ही नाम वाला । नामवर यानी प्रसिद्ध । नाममात्र यानी थोड़ी मात्रा में । नाम शब्द की मुहावरेदार अर्थवत्ता भी बोली-भाषा में सामने आती है । नामकरण तो नवजात का नाम रखने की क्रिया है पर नाम धरना या नाम रखना में नकारात्मक अर्थवत्ता है जिसका अर्थ होता है बुराई करना, निंदा करना आदि । नाम उछालना या नाम निकालना में भी ऐसे ही भाव हैं । नाम रोशन करना यानी अच्छे काम करना । कीर्ति बढ़ाना । प्रसिद्ध होना । नाम बिकना यानी खूब प्रभावी होना । नामो-निशां मिटना यानी सब कुछ खत्म हो जाना । नाम जपना यानी किसी का नाम रटना । किसी के प्रति आस्था जताना ।

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Wednesday, September 5, 2012

मतलबी तालिबान

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कु छ शब्द ऐसे होते हैं जो सामान्य बातचीत का अभिन्न हिस्सा होते हैं । ऐसे शब्दों के बिना कोई संवाद हो ही नहीं सकता । ऐसा ही एक शब्द है मतलब । “ क्या मतलब ?” “ मतलब ये कि...” गौर करें कि सुबह से शाम तक इन दो छोटे वाक्यों का साबका हमसे कितनी बार पड़ता है और क्या इनके बिना हमारा अभिप्राय और उद्धेश्य सिद्ध हो सकता है ? कई लोगों को 'मतलब' की 'तलब' इतनी ज्यादा होती है कि उनका तकियाकलाम ही “मतलब कि…” बन जाता है । “मतलब कि…” वाली बैसाखी का इस्तेमाल किए बिना उनकी बात पूरी हो ही नहीं सकती । मतलब के ज़रिए हमारी कितनी तरह की बातों को अभिव्यक्त करते हैं जैसे- इरादा, उद्धेश्य, प्रयोजन, इष्ट, मनोरथ, अभिप्राय, अर्थ, मुराद, हेतु, इरादा, विचार, लक्ष्य, बात, विषय आदि । सामान्य तौर पर मतलब का प्रयोग अर्थ जानने के संदर्भ में होता है ।
तलब की व्याप्ति मराठी, गुजराती से लेकर उत्तर भारत की लगभग सभी भाषाओं मे है और उद्धेश्य, अर्थ, अभिप्राय अथवा प्रयोजन जानने के संदर्भ में इसका प्रयोग होता है । सेमिटिक मूल का मतलब अरबी से बरास्ता फ़ारसी, भारतीय भाषाओं में दाखिल हुआ । सेमिटिक धातु त-ल-ब / ṭā lām bā यानी ( ب ل ط ) से जन्मा है । अल सईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक इसमें तलाश, खोज, चाह, मांग, परीक्षा, अभ्यर्थना, विनय और प्रार्थना जैसे भाव हैं । इससे ही जन्मा है 'तलब' शब्द जो हिन्दी का खूब जाना पहचाना है । तलब यानी खोज या तलाश । तलब के मूल मे 'तलाबा' है जिसमें रेगिस्तान के साथ जुड़ी सनातन प्यास का अभिप्राय है । आदिम मानव का जीवन ही न खत्म होने वाली तलाश रहा है । दुनिया के सबसे विशाल मरुक्षेत्र में जहाँ निशानदेही की कोई गुंजाइश नहीं थी । चारों और सिर्फ़ रेत ही रेत और सिर पर तपता सूरज । ऐसे में सबसे पहले पानी की तलाश, आसरे की तलाश, भटके हुए पशुओं की तलाश...अंतहीन तलाशों का सिलसिला थी प्राचीन काल में बेदुइनों की ज़िंदगी । तलब शब्द का रिश्ता आज भी प्यास से जुड़ता है । ये अलग बात है कि अब पीने-पिलाने या नशे की चाह के संदर्भ में तलब शब्द का ज्यादा प्रयोग होता है ।
लब समेत इससे बने कुछ और शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे तलबगार यानी इच्छुक, चाहनेवाला, मांगनेवाला आदि । आरामतलब यानी सुविधाभोगी । इसका प्रयोग आलसी के अर्थ में भी होता है । तलब में मुहावरेदार अर्थवत्ता है जैसे तलब करना । इसका अर्थ है किसी को बुलाना । अक्सर इसमें आदेशात्मक भाव ही होता है । यह भाव और स्पष्ट होता है तलबनामा से । अदालती शब्दावली में इसका इस्तेमाल होता है जिसका अर्थ है न्यायालय में हाज़िर होने का आज्ञापत्र । इसे समन भी कह सकते हैं । पूर्वी उत्तरप्रदेश में तलबाना वह रकम है जो गवाहों को अदालत में बुलवाने के खर्च के तौर पर (रसीदी टिकट या स्टाम्प पेपर ) वसूला जाता है । कुल मिलाकर चाह, इच्छा के अलाव इसमें बुलाहट, बुलावा का भाव भी है । तलब में ही अरबी का ‘म’ उपसर्ग लगने से मतलब बना है । इसमें भी चाह, इच्छा, तलाश, प्रार्थना, कामना, लालसा, मांग जैसे भाव हैं जो सीधे सीधे तलब से जुड़ते हैं ।
तलब की विशिष्ट अर्थवत्ता दरअसल चाह, कामना, मांग से आगे जा कर अर्थ, अभिप्राय, आशय, उद्धेश्य, मंशा या वजह से जुड़ती है और ज्यादातर भारतीय भाषाओं में इन्हीं अर्थों में मतलब का प्रयोग होता है । “मेरा मतलब ये है” और “मैं यह कहना चाहता हूँ” दोनों का अभिप्राय एक ही है । मतलब और चाह एक दूसरे के आसान पर्याय हैं । मतलब का कई तरह से प्रयोग होता है । खुदगर्ज़, स्वार्थी इन्सान को मतलबी कहा जाता है । अर्थात वह सिर्फ़ अपनी मंशा साधने या इच्छापूर्ति के प्रयास में लगा रहता है । यही आशय मतलबपरस्त का भी है । मतलब की दोस्ती, मतलब की यारी जैसे मुहावरेदार प्रयोग भी आम हैं । मराठी में स्वार्थी का पर्याय आपमतलबी भी होता है । मतलबदार और मतलबीयार जैसे प्रयोग भी मराठी में हैं ।
लब से ही 'तालिब' बनता है जिसका अर्थ है ढूंढनेवाला, खोजी, अन्वेषक, जिज्ञासु । तालिब-इल्म का अर्थ हुआ ज्ञान की चाह रखनेवाला अर्थात शिष्य, चेला, विद्यार्थी, छात्र आदि । इस तालिब का पश्तो में बहुवचन है तालिबान । तालिब यानी जिज्ञासु का बहुवचन पश्तो में आन प्रत्यय लगा कर बहुवचन तालिबान बना । उर्दू में अंग्रेजी के मेंबर में आन लगाकर बहुवचन मेंबरान बना लिया गया है । आज तालिबान दुनियाभर में दहशतगर्दी का पर्याय है । तालिबान का मूल अर्थ है अध्यात्मविद्या सीखनेवाला । हम इस विवरण में नहीं जाएंगे कि किस तरह अफ़गानिस्तान की उथल-पुथल भरी सियासत में कट्टरपंथियों का एक अतिवादी विचारधारा वाला संगठन करीब ढाई दशक पहले उठ खड़ा हुआ । खास बात यह कि उथल-पुथल के दौर में नियम-कायदों की स्थापना के नाम पर मुल्ला उमर ने अपने शागिर्दों की जो फौज तालिबान के नाम से खड़ी की, उसने तालिब नाम की पवित्रता पर इतना गहरा दाग़ लगाया है कि तालिबान शब्द शैतान का पर्याय हो गया ।
इन्हें भी देखें-1.औलिया की सीख, मुल्ला की दहशत .2.मुफ्ती के फ़तवे.3.ये मतवाला, वो मस्ताना.4.दरवेश चलेंगे अपनी राह.5.इश्क पक्का, मंजिल पक्की6.दमादम मस्त कलंदर7.करामातियों की करामातें.8.बेपरवाह मस्त मलंग.9.ऋषि कहो, मुर्शिद कहो, या कहो राशिद.10.मदरसे में बैठा मदारी.11.ख्वाजा मेरे ख्वाजा.12.सब मवाली… गज़नवी से मिर्ची तक.13.बावला मन… करे पिया मिलन.14.पीर-पादरी से परम-पिता तक

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Tuesday, September 4, 2012

बेफजूल आलिम-फ़ाज़िल

teaching

हमारे आस-पास जो दुनिया है वह दरअसल बाज़ार है और ये बाज़ार ही भाषा की टकसाल भी है । आए दिन न जाने कितने शब्दों की यहाँ घिसाई, ढलाई होती है । न जाने कितने शब्दों का यहाँ रूप, रंग, चरित्र बदल जाता है । भोलानाथ तिवारी के शब्दों में कहें तो कुछ मोटे हो जाते हैं तो कुछ दुबले । यहाँ तक कि कुछ शब्द तो यहाँ गुम भी हो जाते हैं । हिन्दी में अरबी-फ़ारसी शब्दों की बड़ी रेलमपेल लगी रहती है । कई शब्द जस के तस हमने अपना लिए तो कई का चेहरा बदल दिया  जैसे व्यर्थ, निरर्थक की अर्थवत्ता वाला ‘फिजूल’ शब्द । दरअसल अरबी का मूल शब्द ‘फ़ुज़ुल’ है मगर मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह साहब ने अपने कोश में इसका एक रूप फ़िज़ूल भी दिया है । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक इसका हिन्दी रूप ‘फुजूल’ है,मगर आज़ादी के बाद की हिन्दी ने ‘फुजूल’ नहीं, फिजूल / फ़िज़ूल को अपनाया है । हाँ, देहाती अंदाज़ में इसे फजूल भी कहा जाता है । फ़ारसी के ‘बे’ उपसर्ग में रहित का भाव होता है सो ग्रामीण समाज ने फिजल को और ज़ोरदार बनाने के लिए ‘बेफजूल’ शब्द भी बना डाला । हमारा मानना है कि नुक़ते के बिना अरबी-फ़ारसी शब्दों के साथ न्याय नहीं हो पाता । ‘फ़ुज़ूल’ बोलना हिन्दी में नाटकीय लगेगा इसलिए प्रचलित ‘फुजूल’ या ‘फजूल’ की बजाय ‘फिजूल’ ही चलना चाहिए । चाहें तो नुक़ता लगा कर इसे ‘फ़िज़ूल’ लिख सकते हैं ।
किसी व्यक्ति की विद्वत्ता का उल्लेख करते हुए हम ‘आलिम-फ़ाज़िल’ पद का प्रयोग भी करते हैं । यह हिन्दी साहित्य में भी मिलता है और बोलचाल बोलचाल की भाषा में भी इसका प्रयोग होता है । ‘आलिम-फ़ाज़िल’ में मूलतः खूब पढ़े-लिखे होने का भाव है । शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से देखें तो ‘आलिम’ यानी शिक्षक, जानकार । जिसने बुनियादी तालीम ली हो । इस तरह आलिम का अर्थ स्नातक होता है । ‘फ़ाज़िल’ में उत्कृष्टता का भाव है ज़ाहिर है ‘फ़ाज़िल’ यानी उच्चस्नातक । इस तरह आलिम-फ़ाज़िल की मुहावरेदार अर्थवत्ता बनी खूब पढ़ा-लिखा, विद्वान, काबिल आदि । जहाँ तक आलिम-फ़ाज़िल वाले फ़ाज़िल का प्रश्न है, यह सेमिटिक धातु f-z-l (फ़ा-ज़ा-लाम) का शब्द है इसका सही रूप ‘फ़ज़्ल’ है जिसमें मेहरबानी, कृपा, दया, योग्यता, क़ाबिलियत, गुणवत्ता के साथ साथ आधिक्य, श्रेष्टत्व, अत्युत्तम जैसे भाव हैं । '”खुदा के फ़ज़ल से” या “अल्लाह के फ़ज़ल” से जैसे वाक्यों में हम इसे समझ सकते हैं । f-z-l के भीतर सम्मानित करना, विभूषित करना जैसे भाव हैं । ‘फ़ज़्ल’ की कड़ी में ही आता है ‘अफ़ज़ल’ जो चर्चित व्यक्तिनाम है जिसका अर्थ है आदरणीय, सम्मानित, मेहरबान, कृपालु, गुणवान, सर्वोत्तम आदि । स्पष्ट है कि आलिम यानी होने के बाद फ़ाज़िल होना भी ज़रूरी है । यह उससे ऊँची उपाधि है । इल्म की तालीम लेने के बाद आप आलिम बनते हैं । यह ज्ञान जब चिन्तन की ऊँचाई पर पहुँचता है तो ‘आलिम’ आगे जाकर  ‘फ़ाज़िल’ बनता है ।
सी कड़ी में ‘फ़ुज़ूल’ भी आता है । ‘फ़िज़ूल’ का सबसे ज्यादा प्रयोग अत्यधिक खर्च सम्बन्ध में होता है जैसे ‘फ़िज़ूलखर्च’ या ‘फ़िज़ूलखर्ची’ आदि । दिलचस्प यह है कि यह फ़िज़ूल दलअसल फ़ज़ल या फ़ज्ल के पेट से निकला है जिसका अर्थ है कृपा, दया, सम्मान, मेहरबानी, विद्वत्ता, श्रेष्ठत्व आदि । फ़ज़्ल में निहित तमाम सकारात्मक भावों से फ़ुज़ूल / फ़िज़ूल में निहित अनावश्यक, अत्यधिक, बेकार, बेमतलब, बेकार, निकम्मा जैसे भावों से साम्य नहीं बैठता । जान प्लैट्स के अ डिक्शनरी ऑफ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश के मुताबिक यह फ़ज़्ल का बहुवचन है । फ़ज़्ल में निहित अत्यधिक के भाव पर गौर करें । हर पैमाने पर जो अपने चरम पर हो, उसका बहुवचन कैसा होगा ? अति सर्वत्र वर्जयेत । अत्यधिक मिठास दरअसल कड़ुआ स्वाद छोड़ती है । फ़ज़्ल के फ़ुज़ूल बहुवचन का लौकिक प्रयोग दरअसल इसी भाव से प्रेरित है । अत्यधिक श्रेष्ठत्व दम्भ पैदा करता है । दम्भ के आगे श्रेष्ठत्व फ़िज़ूल हो गया । बहुत सारी चीज़ों का संग्रह भी बेमतलब का जंजाल हो जाता है । फ़िज़ूल में यही भाव है ।
लिम शब्द का ‘इल्म’ से रिश्ता है । अन्द्रास रज्की के अरबी व्युत्पत्ति कोश में आलिम के मूल में ‘अलामा’ शब्द है जिसमें ज्ञान का भाव है । जिस तरह विद्वत्ता का विद्या से रिश्ता है और विद्या के मूल में ‘विद्’ धातु है जिसमें मूलतः ज्ञान का भाव है । वह बात जो उजागर हो, पता चले । इसीलिए ‘ज्ञानी’ को ‘जानकार’ कहते हैं । ‘ज्ञान’ का ही देशी रूप ‘जान’ है जिससे ‘जानना’, ‘जाना’ (तथ्य), ‘जानी’ (बात) या ‘जानकारी’ जैसे शब्द बने हैं । अरबी मूल का है इल्म जिसमें जानकारी होना, बतलाना, ज्ञान कराना, विज्ञापन जैसे भाव है । सेमिटिक धातु अलीफ़-लाम-मीम (a-l-m) में जानना, मालूम होना, अवगत रहना, ज्ञान देना या सूचित करना जैसे भाव हैं । इससे बने कई शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं । ‘आलिम’ का मूल अर्थ है अध्यापक, पंडित, अध्येता, विद्वान आदि । महाकवि सर मोहम्मद इक़बाल की ख्याति एक दार्शनिक कवि की थी और इसीलिए उन्हें ‘अल्लामा’ की उपाधि मिली हुई थी जिसका अर्थ है सर्वज्ञ, सर्वज्ञाता, पंडित आदि । इसी कतार में आता है ‘उलेमा’ जिसका अर्थ भी ज्ञानी, जानकार, शिक्षक होता है । इसका सही रूप है ‘उलमा’ ulama मगर हिन्दी में इसे उलेमा ही लिखा जाता है । बहुत सारे आलिम यानी उलमा यानी विद्वतजन । मगर हिन्दी के बड़े-बड़े ज्ञानी भी का बहुवचन ‘उलेमाओं’ लिखते हैं । यह ग़लत है । उलेमा अब धार्मिक शिक्षक के अर्थ में रूढ़ हो गया है ।
हिन्दी में ‘तालीम’ talim शब्द भी शिक्षा के अर्थ में खूब चलता है । ‘तालीम’ भी ‘इल्म’ से जुड़ा है और इसके मूल में अरबी का ‘अलीमा’ है । अन्द्रास रजकी के कोश के मुताबिक अरबी के ‘अलामा’ और ‘अलीमा’ शब्दों में मूलतः ज्ञान का आशय है । तालीम शब्द के मूल में अलीमा है जिसमें अलिफ़-लाम-मीम ही है मगर ‘ता’ उपसर्ग लगा है जिसमें परस्परता, सहित या तक का भाव है । कृपा कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश के मुताबिक इसका अर्थ अध्यापन, अनुशासन, नियम, व्यायाम और प्रशिक्षण है । इसका मूल रूप तअलीम t’alim है । इधर मराठी में शारीरिक व्यायाम के अर्थ में तालीम शब्द रूढ़ हो गया है । मराठी में तालीमखाना यानी व्यायामशाला या अखाड़ा होता है और तालीमबाज यानी व्यायामप्रिय । जबकि हिन्दी में तालीम से बने तालीमगाह यानी पाठशाला और तालीमयाफ़्ता यानी पढ़ा-लिखा जैसे शब्द हिन्दी के जाने-पहचाने हैं । आजकल हमारे शिक्षा संस्थानों में भी दरअसल दाव-पेच ज्यादा होते हैं । उन्हें तालीमगाह की बज़ाय तालीमखाना यानी अखाड़ा कहना  बेहतर होगा ।
झंडे को अरबी में अलम alam कहा जाता है । सेमिटिक धातु a-l-m में निहित जानकारी कराने के भाव पर गौर करें । कोई भी ध्वज दरअसल किसी न किसी समूह या संगठन की पहचान होता है । अलम का अर्थ चिह्न, निशान इस मायने में सार्थक है । ध्वजवाहक के लिए हिन्दी में झंडाबरदार शब्द है जिसकी मुहावरेदार अर्थवत्ता है । यह हिन्दी के झंडा के साथ फ़ारसी का बरदार लगाने से बना है । मुखिया, नेता या अगुवा के अर्थ में भी झंडाबरदार शब्द प्रचलित है । ध्यान रहे किसी संगठन या समूह की इज़्ज़त, पहचान उसके मुखिया से जुड़ी होती है । उसे बरक़रार रखने वाला ही झंडाबरदार कहलाता है । हालाँकि इसमें भाव ध्वज थामने वाले का ही है । अरबी के अलम के साथ फ़ारसी का बरदार लगाने से बना है जिसका ‘वाला’ का भाव है । इस तरह अलमबरदार का अर्थ भी पताका थामने वाले के लिए प्रचलित है ।
जिस तरह अलीमा अर्थात ज्ञान में ‘ता’ उपसर्ग लगने से तालीम बनता है उसी तरह ‘मा’ उपसर्ग लगने से ‘मालूम’ बनता है । अवगत रहने, पता रहने, जानकारी होने के अर्थ में मालूम शब्द रोज़मर्रा की हिन्दी के सर्वाधिक प्रयुक्त शब्दों में शुमार है । मालूम में ज्ञात अर्थात known का भाव है । अलीमा में know का भाव है तो ‘मा’ उपसर्ग लगने से यह ज्ञात में बदल जाता है । उत्तर प्रदेश के देवबंद में इस्लामी शिक्षा का विख्यात केन्द्र ‘दारुलउलूम’ है जिसका अर्थ है विद्यालय यानी वह स्थान जहाँ ज्ञान मिलता हो । इसमें जो उलूम है उसका अर्थ है विविध विद्याएँ, विषय अथवा ज्ञान की बातें । दरअसल यह इल्म यानी ज्ञान का बहुवचन है । जिस तरह आलिम का बहुवचन उलमा हुआ वैसे ही इल्म का बहुवचन उलूम हुआ अर्थात विविध आयामी सांसारिक और आध्यात्मिक ज्ञान । हमें जिस चीज़ का भी इल्म है, दरअसल वह सब संसार और भवसंसार से सम्बन्धित है इसलिए इसी कड़ी में आता है आलम यानी संसार । जो कुछ भी ज्ञात है, वही संसार है ।

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Monday, August 13, 2012

षड्यन्त्र का पर्दाफ़ाश

SKULL
हि न्दी की तत्सम शब्दावली के सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले शब्दों में ‘षड्यन्त्र’ का शुमार होता है । षड्यन्त्र के साथ सबसे खास बात यह है कि अपनी मूल प्रकृति में यह शब्द तत्सम शब्दावली का होते हुए भी इसका इन्द्राज संस्कृत के किसी कोश में नहीं मिलता । षड्यन्त्र यानी साजिश, भेद, अहितकर्म, फँसाना, अनिष्ट साधन, साँठगाँठ, कपट, भीतरी चालबाजी, दुरभिसन्धि, कुचाल, जाल बिछाना, दाँवपेच या कांस्पिरेसी इत्यादि । सभ्यता के विकास के साथ-साथ समाज में पेचीदापन बढ़ता रहा है । हर चीज़ में राजनीति का दखल नज़र आता है । राजनीति के साथ ही षड्यन्त्रों का चक्र शुरू हो जाता है । जिस तरह वक्त के साथ राजनीति का अर्थ भी बदलता चला गया उसी तरह सदियों पहले षड्यन्त्र का जो अभिप्राय था, आज उससे भिन्न है । आज तो राजनीति और षड्यन्त्र एक दूसरे के पर्याय हो गए हैं । बल्कि यूँ कहें कि राजनीति शब्द धीरे-धीरे बोलचाल की हिन्दी से षड्यन्त्र को बेदखल कर देगा । “ज्यादा राजनीति मत करो”, “मेरे साथ राजनीति हो गई”, “वो बहुत पॉल्टिक्स करता है” जैसे वाक्यों का प्रयोग अक्सर षड्यन्त्र को व्यक्त करने में भी होता है ।

ड्यन्त्र हिन्दी शब्दसम्पदा की षट्वर्गीय शब्दावली का हिस्सा है जैसे षट्कर्म, षट्कार, षट्कोण आदि । षड्यन्त्र मूलतः ‘षट्’ + ‘यन्त्र’ से बना है । ‘षट्’ का अर्थ तो स्पष्ट है अर्थात छह । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक संस्कृत के ‘षट्’ से ही षट् > षष् > छ (प्राकृत) और छह (अपभ्रंश) के क्रम में हिन्दी के ‘छह’ का विकास हुआ है । संस्कृत में ‘ट’ का ‘य’ के साथ मेल होने पर अक्सर ‘ट’ ध्वनि , ‘ड’ में बदल जाती है । जैसे ‘जाट्य’ का ‘जाड्य’ ( जो जड़ है ) रूप भी प्रचलित है । संस्कृत के यन्त्र शब्द की बहुआयामी अर्थवत्ता है । ऐसा उपकरण जिससे उठाने, धकेलने, ठेलने, खोदने, काटने जैसी विविध क्रियाएँ सम्पन्न हो सकें । मूलतः यन्त्र में बल, शक्ति, साधन के भाव के साथ किन्ही वस्तुओं, क्रियाओं अथवा लोगों को काबू में करने के उपकरण, प्रणाली या विधि का आशय निहित है । काबू पाने, वश में करने जैसे भावों की अभिव्यक्ति होती है ‘नियन्त्रण’ शब्द से । इसमें छुपे यन्त्र को हम आसानी से पहचान सकते हैं । ‘यन्त्रण’ में रहित के भाव वाला ‘निः’ उपसर्ग लगाने से बनता है ‘नियन्त्रण’ जिसमें स्वयंचालित या किसी अन्य व्यवस्था के अधीन काम करने वाली वस्तु या व्यक्ति को अपने अधीन करने का आशय है ।
गौरतलब है कि प्रणाली या सिस्टम के अर्थ में मराठी का ‘यन्त्रणा’ शब्द ‘यन्त्रण’ से ही आ रहा है जबकि हिन्दी के ‘यन्त्रणा’ का प्रयोग कष्ट, संत्रास, दुख, पीड़ा, व्यथा को अभिव्यक्त करने में होता है न कि किसी व्यवस्था या प्रणाली के अर्थ में । ‘यन्त्र’ में ‘अन’ प्रत्यय लगने से बहुआयामी अर्थवत्ता वाला ‘यन्त्रण’ शब्द बना जिसमें प्रणाली, विधि या व्यवस्था के साथ-साथ पीड़ा, वेदना या व्यथा का भाव भी है । आशय ऐसी चीज़ से है जो एक खास तरीके से संचालित हो रही है । प्रश्न है यन्त्र से बने यन्त्रणा में संत्रास, पीडा या वेदना के भाव की क्या व्याख्या है । दरअसल यन्त्र में दबाव, काबू, जकड़न, कसना, बांधना जैसे भाव हैं । मशीन वाली यान्त्रिकता के तहत ये सभी भाव एक व्यवस्था से जुड़ते हैं या यूँ कहें कि यन्त्र किन्हीं कलपुर्जों, उपकरणों का समुच्चय है जो आपसे में गुँथे हैं, बन्धे हैं, कसे हैं, जकड़े हैं । किन्तु जब इन्हीं भावों के साथ यन्त्रणा शब्द बनता है तो उसका अर्थ जहाँ मराठी में जहाँ मशीनी व्यवस्था से लिया जाता है वहीं हिन्दी में यह सचमुच यातना से जुड़ता है । कोई भी बन्धन, कसाव, जकड़न या दबाव संत्रास, पीड़ा या कष्ट का कारण बनते हैं ।
न्त्र में भौतिक उपकरण के अलावा तान्त्रिक वस्तु या चिह्न का भाव भी है जैसे गंडा, ताबीज या यौगिक रेखाचित्र । कल्पित अतीन्द्रिय शक्तियों की आराधना के लिए तन्त्र-योग आदि शास्त्रों में कई तरह के प्रतीकों का प्रयोग होता है । ऐसा माना जाता है कि इनमें निहित शक्तियों के ज़रिये दूर स्थित शत्रुओं या विपरीत ताक़तों पर काबू पाया जा सकता है । बौद्धधर्म का अवसानकाल भारत में तन्त्र-मन्त्र और योगिक शक्तियों के अभूतपूर्व उभार का था । ‘षड्यन्त्र’ दरअसल मध्यकाल के इसी परिवेश से उपजा शब्द है । पूरवी बोली में षड्यन्त्र को ‘खड्यन्त्र’ भी कहते हैं । ‘ष’ का रूपान्तर ‘ख’ में होता है । ‘षड्यन्त्र’ अर्थात छह तरह की विधिया, प्रणाली या तरीके जिनके ज़रिये शत्रु को वश में किया जा सके । सीधी से बात है, यौगिक तन्त्र-मन्त्र का विस्तार ही जादू-टोना में हुआ । अलग-अलग पंथों के मान्त्रिकों के अपने अपने नुस्खे, मन्त्र और यन्त्र थे । हर कोई इनके ज़रिये बस षड्यन्त्रों में लगा रहता था । आज षड्यन्त्र को जिस अर्थ में प्रयोग किया जाता है उसमें बदले हुए परिवेश में कुचाल, दुरभिसन्धि या कांस्पिरेसी जैसे भाव हैं जबकि पुराने ज़माने में शत्रु पर विजय पाने के टोटके जैसा भाव इसमें था ।
ड्यन्त्र के तहत जिन छह विधियों का हवाला दिया जाता है वे हैं- 1.जारण 2. मारण 3. उच्चाटन 4. मोहन 5. स्तंभन और 6. विध्वंसन । ‘जारण’ का अर्थ जलाना या भस्म करना है । यह संस्कृत के ‘ज्वल्’ से निकला है । टोटका के रूप में हम झाड़-फूँक से परिचित हैं । यह जो फूँक है दरअसल इसमें अनिष्टकारी शक्तियों को भस्म करने का आशय है । ‘मारण’ यन्त्र का आशय एकदम स्पष्ट है । शत्रु का अस्तित्व समाप्त करने, उसे मार डालने के लिए जो जादू-टोना होता है वह ‘मारण’ कहलाता है । ‘उच्चाटन’ का अर्थ है स्थायी भाव मिटाना । वर्तमान परिस्थिति को भंग कर देना । उखाड़ना, हटाना आदि । विरक्ति, उदासीनता या अनमनेपन के लिए आम तौर पर हम जिस उचाट, दिल उचटने की बात करते हैं उसके मूल में संस्कृत का ‘उच्चट’ शब्द है जो ‘उद्’ और ‘चट्’ के मेल से बना है । उद्-चट् की संधि उच्चट होती है । ‘उद’ यानी ऊपर ‘चट्’ यानी छिटकना, अलग होना, पृथक होना आदि । ‘उच्चाटन’ भी इसी उच्चट से बना है जिसका अर्थ हुआ उखाड़ फेंकना, जड़ से मिटाना, निर्मूल करना आदि ।
ब ‘जारण’, ‘मारण’, ‘उच्चाटन’ जैसे यन्त्रों से काम नहीं बनता तो ‘मोहिनी विद्या’ काम आती है । ‘मोहन’ का अर्थ है मुग्ध होना । इसके मूल में ‘मुह्’ धातु है जिसका अर्थ है सुध बुध खोना, किसी के प्रभाव में खुद को भुला देना । अक्सर नादान लोग ऐसा करते हैं और इसीलिए ऐसे लोग ‘मूढ़’ कहलाते हैं । मूढ़ भी ‘मुह्’ से ही निकला है और ‘मूर्ख’ भी । ‘मोहन यन्त्र’ का मक़सद शत्रु पर ‘मोहिनी शक्ति’ का प्रयोग कर उसे मूर्छित करना है । श्रीकृष्ण की छवि में ‘मोहिनी’ थी इसलिए गोपिकाएँ अपनी सुध-बुध खो बैठती थीं इसलिए उन्हें ‘मोहन’ नाम मिला । पाँचवी विधि है ‘स्तम्भन’ जिसका अर्थ है जड़ या निश्चेष्ट करना । यह ‘स्तम्भ’ से बना है । जिस तरह से काठ का खम्भा कठोर, जड़ होता है उसी तरह किसी सक्रिय चीज़ को स्तम्भन के द्वारा निष्क्रिय बनाया जाता था । षड्यन्त्र की छठी और आखिरी प्रणाली है ‘विध्वंसन’ अर्थात पूरी तरह से नाश करना ।
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