Thursday, May 15, 2008

बेजी, और बेवकूफ ! हरगिज़ नहीं ...[बकलमखुद-35]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र और अफ़लातून को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के आठवें पड़ाव और तैतीसवें सोपान पर मिलते हैं दुबई निवासी बेजी से। ब्लाग जगत में बेजी जैसन किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका ब्लाग मेरी कठपुतलियां हिन्दी कविताओं के चंद बेहतरीन ब्लाग्स में एक है। वे बेहद संवेदनशील कविताएं लिखती हैं और उसी अंदाज़ में हमारे लिए लिख भेजी है अपनी वो अनकही जो अब तक सिर्फ और सिर्फ उनके दायरे में थी।

मम्मी-पापा की तपस्या का पहला फल

बंदर , हाथी, सफेद राजस्थानी कपड़े और लाल पगड़ी पहने दूधवाले, गर्मी का मौसम, खसखस के गीले पर्दों से आती भीनी खुशबू में महकती नम हवा.....सब छोड़ पहुँचे गुजरात। गम था तो अपने प्यारे साथियों के पीछे छूटने का। लक्ष्मी और प्रीति दोनो पीछे रह गये थे।
गुजरात पहुँचे तो हमारा माथा ठनका। अचानक से गँभीर लोगों के बीच पहुँच गये। तहजीब, नियम, और्गनाइज़्ड गेम्स। हमें देखते ही इग्नोर कर दिया गया। एक और बेवकूफ रावतभाटा से। अपने जन्मस्थान का अपमान सहन नहीं हुआ। और हमने पहली बार आठवी कक्षा में किताबों को अध्ययन करने के इरादे से उठाया।

फिर नहीं रुके। सफलता का चस्का भी जल्द लग गया। टीटी , टैनीकाइट , थ्रो बॉल खेलना सीखा। जैवलिन, शॉटपुट और डिस्कस फेंकना सीखा। निबंध, वाद विवाद प्रतियोगिला में भाग लेने लगे। कपड़ों के साथ हमारे जूते भी सुबह से शाम तक धूमिल हुए बिना टिकने लगे। पसंदीदा बच्चों में गिने जाने लगे। रावतभाटा की बेवकूफ अणुमाला के क्रीम स्टूडेन्ट में तब्दील हो गई।
भाई पर दिखने जैसा खास फर्क नहीं था। पढ़ने वो भी लगा था। पर वह परफौर्म करने के लिये नहीं पढ़ता था। एक बात के पीछे दूसरी बात।मैं जब आठवीं में थी वो दसवी में। उसका परिणाम आया तो साठ प्रतिशत।
पापा बहुत गुस्से में थे। बाजू में कर के बोले।
मेरा सपना था कि तुम कुछ बड़ा बनो। ऐसे पढ़ोगे तो मेरे बाप दादा ने पैसे कमा के नहीं रखे कि तुम्हे डोनेशन देकर पढ़वा सकूं। पढ़ना हो तो आखिरी मौका है। तुम तय करो। नहीं तो अगले साल आई टी आई में भर्ती करवा दूँगा। खुद कमाओ और खाओ।
भाई जागा। अँग्रेजी का व्याकरण और बायोलोजी मैने पढ़ाना शुरु किया। गणित के लिये ट्यूशन रखा। फिजिक्स और कैमिस्ट्री में उसे यूँ भी दिलचस्पी थी।
बारहवीं में वो और दसवी में मैं....बोर्ड में उस छोटे से स्कूल में दोनो टॉपर्स...
मम्मी पापा की तपस्या का पहला फल .....। हाथ में मिठाई का डिब्बा....अपने बॉस से वाहवाही पाते पापा.....और आगे के सपनों की चमक लेकर मम्मी....।
कपड़े प्रेस करना, सॉरी थैंक्यू करना, पाँव में हमेशा चप्पल पहनना, टीम का होना, लिखे नियम का होना, स्कूल की तरफ से खेलना, ......यह सब हमने यहाँ जाना।
एक दुनिया ऐसी भी है जो आगे हमारा इंतज़ार कर रही है...इसका अंदाज़ा हुआ। पहली बार आज से हटकर आने वाले कल के बारे में सोचने लगे। उस दिन ‘आज’ हाथ से फिसला था....तब से अब तक हम बीते हुआ या आनेवाले कल में ही रहने लगे।हमारे गुजरात आने के एक साल बाद लक्ष्मी आ गई। दो साल बाद प्रीति। छूटी दोस्ती फिर नये सिरे से आगे बढ़ाई। अब हम तीनो दोस्त थे। सबसे अच्छे...और सबसे करीब। उस समय के सबसे खूबसूरत पल इनके साथ गुजरे। बचपन से जवानी के सफर में यह साथ रहे। जारी

चित्रः रावतभाटा मे सरकार यानी घरेलू सहकारी के साथ बेजी और भाई ]


[ साथियों, आपको इस बार ज़रूर लगेगा कि बेजी की अनकही का यह पड़ाव काफी छोटा है। सच है, मगर इससे अगली कड़ी में बेजी आपको अपनी जिंदगी के सबसे खास हिस्से में ले जाने वाली हैं लिहाज़ा जहां उन्होने इस अध्याय को खत्म किया , वहीं तक हम दे रहे हैं। ]

21 कमेंट्स:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अजित भाई, भाषा की दारुण गड़बड़ हैं. आपसे होकर आया है तो किसको माफ़ करना है, बताएं? हा हा हा! माफ़ करने की फ़ीस (फी) फ्री है. और एपीसोड भी आपको तय करना चाहिए.. कट टू..

वैसे आपको अब 'जहाज का कप्तान' बन ही जाना चाहिए (टोटल फिलिम डाइरेक्टर). अफलातून जैसों को छोड़कर, क्योंकि ये ख़ुद डाइरेक्टर हैं.

अजित वडनेरकर said...

विजय भाई , आप मुझे ही कोस लें। नेट की धीमी रफ्तार ... की बोर्ड पर उंगलियों की जल्दबाजी तो सबसे कुछ न कुछ ग़लतियां करवाती है। उन्हें अकसर सुधारना चाहता हूं, सुधारता रहता हूं। मगर बहुत ज्यादा ध्यान मैं तब भी नहीं दे पाता, पढ़ने में मगन हो जाता हूं।
आगे से और ध्यान रखूंगा। साथियों की इसमें कोई चूक नहीं है...प्लीज़ कोई अन्यथा न ले...ये हम दोनों के बीच का वार्तालाप है...

Neeraj Rohilla said...

कुछ काम की वजह से पिछला पडाव छूट गया था, आज दोनो पढ लिये । सच में मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चों के जीवन में कितनी समानता होती है ।

मुझे अभी भी याद है, मम्मी कहा करती थी कि पढ लिख ले वरना हमारे पास सिर्फ़ इतने ही पैसे हैं कि नीबू का ठेला लगवा देंगे और दिन भर नीबू बेचना और पैसे कमाना । कई बार लगता था घर वाले मजाक कर रहे हैं, कभी कभी सीरियस भी लगता था आखिर घर की आर्थिक स्थिति तो पता ही थी ।

बेजी और उनके भाई के बारे में पढकर अपनी बडी बहन की याद आ गयी, बस फ़र्क इतना है वो मुझसे पढाई में दो साल बडी थी, और इधर बेजी पढाई में दो साल छोटी :-)

अगली कडी का बहुत बेसब्री से इन्तजार रहेगा ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बेजी जी,
चलिये,
अब आप गुजरात पहुँच गयीँ और जलवे बिखेरना शुरु कर ही दिया :)
ये किश्त पढकर भी बहुत खुशी हुई! अजित भाई हिन्दी ब्लोग- जगत को आप सही तरीके से,
समृध्ध कर रहे हैँ-
-- लावण्या

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

हाँ, अब यह हम दोनों के बीच का वार्तालाप जो ठहरा! अरे कोई है जो इन दो दुर्जनों के बीच का वार्तालाप सुन नहीं पा रहा?? हूहूहू!!!

Udan Tashtari said...

आप तो ताड़ गये-हम कहने ही वाले थे कि यह अध्याय बहुत छोटा रहा...मगर आपका नोट दिख गया सो चुप हैं. बहुत बहती हुई कथा चल रही है-क्या शैली और क्या भाव-वाह!!!

दिनेशराय द्विवेदी said...

बेजी, बाल से किशोर, घर-पडौस छूटा.... लेकिन याद है अब तक।

Unknown said...

विजयजी,

अजितजी को कहा ज़रूर था भाषा और वर्तनी की गड़बड़ देखें...किन्तु गड़बड़ तो हमारी ही है...अब देखिये दारुण शब्द हमारे शब्दकोष में था ही नहीं...पर मुझे पूरा विश्वास है आप सिखाने से परहेज नहीं करेंगे....।

और माफ करने का आभार...लगता नहीं है कि आपकी फीस देने की औकात होगी।
:))
समाईली लगा रही हूँ...बहुत कोशिश करके भी भाषा में घोल नहीं सकी..।

azdak said...

किसकी क्‍लास लेनी है? मैं लूं? कोई मेरी? लेगा?

Dr. Chandra Kumar Jain said...

गर्मी का मौसम, खसखस के गीले पर्दों से आती भीनी खुशबू में महकती नम हवा.....सब छोड़ पहुँचे गुजरात.
=================================
यह किस्त भी है कविता जैसी !
चीज़ों और घटनाओं को तरतीब देना भी
किसी रचना से कम नहीं है.
गुज़री बातों की यादें और
गुजरात पहुँचने की ये बातें
न सिर्फ़ दिलचस्प हैं बल्कि
अपने पीछे एक मौसम छोड़कर
नये मौसम को गले लगाने और
आहिस्ता-आहिस्ता अपने सपनों के लिए
नया मौसम पैदा कर लेने की दास्तान भी है.
===================================

क़ामयाबी का राज़ बताती प्रस्तुति.
बधाई.
डा.चंद्रकुमार जैन

Priyankar said...

हमहूं सुन रहा हूं !

'का भासा का संस्कृत प्रेम चाहिए सांच' या ऐसा ही कुछ .....

वैसे भी विभाषी डॉ. बेजी की भाषा हिंदी के औसत पत्रकारों से बेहतर है . वह एक अलग रूप-रस-गंध वाली समंजनकारी हिंदी है . सूखे चमड़े जैसी मानक भाषा भी नहीं और चुटियाधारियों की पंडिताऊ हिंदी भी नहीं .

शुद्धतावादियों के हाथ पड़ जाए तो वे मुक्तिबोध की भी भाषा सुधार देंगे .

पर यह कड़ी पिछली कड़ियों के मुकाबले अवरोही और अपूर्ण-सी है .

अफ़लातून said...

जो 'हिन्दी वाले' किसी लोक भाषा के हक़ मे न हो कर शुद्धतावादी आग्रह रखते हैं वे अंग्रेजी के पक्षधर हैं ।
मामूली वर्तनी सुधार अजितजी को कर लेनी चाहिए। चिट्ठेकार खुद के बारे में लिख रहे हैं इसलिए लोग पढ़ने आ रहे हैं - अजितजी के चिट्ठे पर। मेरे आत्मकथ्य में कई वर्तनी की ग़लतियाँ रह गयी थीं।

अजित वडनेरकर said...

अफ़लातून जी, त-ट, ठ-ढ जैसे कई मामले तो ध्यान में आ गए थे और ठीक कर दिए थे मगर उसके बाद भी हर बार कुछ छूट ही गए। बहुत सारे छोटे-छोटे दूसरे झमेले भी जुडे हैं पोस्टिंग से पहले। ग़लतियां तो यूं भी छूटी हैं कि किसी को पूर्ण विराम की जगह बिंदी की आदत है तो किसी को खड़ी पाई की। कोई कोई हिंदी लिख रहा है तो कोई हिँन्दी अब हर नासिक्य ध्वनि के लिए अगर अँ का प्रयोग मिले तो सोचिये कितनी बार वर्तनी सुधारी गई होगी ? क्योंकि यह तो चल ही नहीं सकती थी, बेहद खटकती :)
वैसे भी जो ग़लती दिखी और सुझाई गई उसे पोस्टिंग के बाद भी दुरुस्त किया करता रहा हूं ..सो बताते रहिये :)

कंचन सिंह चौहान said...
This comment has been removed by the author.
कंचन सिंह चौहान said...

intazar hai us agli khas kishta ka jis ke karan hame aaj rukna pad gaya

mamta said...

बेजी के बारे मे जानते हुए अच्छा लग रहा है।
ये पोस्ट थी तो वाकई छोटी क्यूंकि पढने के साथ ही ख़त्म हो गई ।
अगली खास पोस्ट का इंतजार है।

Shiv said...

बहुत अच्छा लग रहा है...आगे की कड़ियों का इंतजार है.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

क्षमा चाहता हूँ! मैं तो सिर्फ टाइपिंग की बात कर रहा था. बेजी की भाषा में एक प्रवाह है. यह प्रवाह बना रहे. आमीन!
पूरे मनोयोग से पढ़ रहे हैं, उनकी संघर्षमय राह की यह गाथा.

Anita kumar said...

हमें तो बेजी जी की भाषा और प्रस्तुतिकरण दोनों बहुत भाये। अगली कड़ी का इंतजार है। सच कहा बेजी जी ने कल की चिन्ता में आज हाथ से छूट गया।

अनूप शुक्ल said...

हम हड़बड़ी में हैं। अगली कड़ी पोस्ट हो गयी है। उसको पढ़ने जा रहे हैं।

Yunus Khan said...

ओह बचपन याद आ गया । जरा कहीं जम पाते थे कि पिता का ट्रांसफर । नई जगह । पहला दिन । नया स्‍कूल । सबकी नजरें गड़तीं । जैसे हम मंगल ग्रह से आये हों । फिर वही । कलाओं का अपना पिटारा खोलते । कहीं वाद विवाद । कहीं कविता । कहीं निबंध । बस अपना चबूतरा तैयार हो जाता । महफिल जम जाती । फिर बंजारों की तरह अगले शहर का रूख करते । आपके लिखे से वो सब याद आया ।

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