शहनाई एक ऐसा वाद्ययंत्र है जिसकी ध्वनि मांगलिक मानी जाती है ।
शहनाई के सुरों से ही किसी भी शुभकार्य का श्रीगणेश करने की परंपरा भारतीय समाज में रही है। पहले मंदिरों-मांगलिक अवसरों पर बजाए जाने वाले साज़ ने पिछली सदी में इतनी ख्याति अर्जित की कि इसे संगीत की महफिलों में एक खास मुकाम हासिल हो गया। सागवान की लकड़ी से बना यह एक सुषिर वाद्य है । सुषिर यानी फूंक से बजाया जाने वाला वाद्ययंत्र । हिन्दुस्तान में यूं तो कई आला दर्जे के शहनाई बजानेवाले हुए हैं मगर बिस्मिल्लाखान तो जैसे शहनाई का पर्याय बन गए हैं।
शहनाई से मिलते जुलते कई वाद्ययंत्रों का प्रचलन हिन्दुस्तान में रहा है जैसे बांसुरी-वंशी , सुंदरी, नादस्वरम् आदि। नादस्वरम् को शहनाई के काफी नज़दीक माना जा सकता है। सुंदरी भी क़रीब क़रीब शहनाई जैसा ही होता है मगर आकार में शहनाई से काफी छोटा होता है। शहनाई दरअसल अरबी-फारसी के मेल से बना शब्द है। अरबी में नाई [nay] दरअसल फूंक मारकर बजाए जाने वाले वाद्य के लिए प्रयोग में आने वाला शब्द है। फारसी में शहनाई के लिए सुरना शब्द है। इसमें शुरूआती सुर का वही मतलब है जो हिन्दी में होता है। स्वर से ही सुर बना है जो फारसी में भी कायम है। संस्कृत धातु स्वृ का अर्थ होता है शब्द करना , प्रशंसा करना। इससे बने स्वरः का अर्थ होता है संगीत ध्वनि, लय , श्वासवायु और सात की संख्या आदि। गौरतलब हैं कि संगीत में भी सात सुर ही होते हैं और ज्यादातर सुषिर वाद्यों में सात छिद्र होते हैं । मगर यह बहुत स्थायी नियम नहीं है। कई वाद्यों में इससे कम या ज्यादा भी होते है। सुरना या सुरनाई में भी सुर और नाई का मेल है जो फारसी और अरबी शब्द हैं। अरबी में भी सुर शब्द है जिसका मतलब भी सुषिर वाद्य ही होता है। शहनाई शब्द भी शाह+नाई के मेल से बना है अर्थात हवा से [ फूंक से ] बजाए जाने वाले सभी वाद्यों का सरताज, सबसे श्रेष्ठ ।
शहनाई के लगभग समूचे एशिया में इससे मिलते जुलते नाम हैं जैसे-उज्बेकिस्तान, किरगिजिस्तान, ताजिकिस्तान में सुरनाई, ईरान और अफगानिस्तान में सोरना, कश्मीर, पाकिस्तान आदि में कई जगह पर सुरनाई मगर साथ ही शहनाई भी प्रचलित, आरमीनिया, दागिस्तान, अज़रबैजान, तुर्की, सीरिया, इराक़ आदि में ज़ुरना या ज़ोरना, ग्रीस, बुल्गारिया में ज़ोरनस, मेसिडोनिया में ज़ुरला और रोमानिया में सुरला आदि।
Sunday, May 4, 2008
शहनाई के मीठे सुर
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 2:03 AM
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6 कमेंट्स:
अजित भाई ऐसी ही सुरीली प्रविष्टीयाँ लिखती रहीये ...
-लावण्या
अजित भाई, साथ साथ हमें शहनाई की उत्पत्ति का इतिहास भी पता लगता तो सोनें में सुहागा था। क्यों की शहनाई की यात्रा के साथ ही उसके नामकरण की यात्रा भी चली होगी।
काशी विश्वनाथ के नौबतखा़ने में बरसों शहनाई बजती रही । बिस्मिल्लाह ख़ाँ साहब के पुरखे बजाते थे । अवध के नवाब द्वारा भेजा गया धन उन्हें काशी नरेश के जरिए मिलता था । अब उसी स्थान से विदेशियों को बाबा के दर्शन कराए जाते हैं ।
शहनाई के शहंशाह पर
सुर-सधी जानकारी दी आपने.
आज ये इतवार लय में ढल गई साहब !
शुक्रिया.....!
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कमाल ये भी है कि एक शहनाई किसी को
बिस्मिल्लाख़ान बना सकती है तो अनेक
ऐसे भी हैं जिनके पास शहनाई ही नहीं है !
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लेकिन ... हवा में फूँक मारने की तबीयत
अगर दुरुस्त हो तो फाक़े की ज़िंदगी भी
शिकायत के बज़ाय
सुर पैदा कर सकती है !
हर उस्ताद इसकी मिसाल होता है.
आपका
डा.चंद्रकुमार जैन
सुषिर यानी फूंक से बजाया जाने वाला वाद्ययंत्र आज ही जाना। सोरना सुरनाई सुरला आदि शहनाई के नाम आज ही जाने । द्विवेदी जी की बात से सहमत हूँ कि,,,,शहनाई की उत्पत्ति का इतिहास भी पता लगता तो सोनें में सुहागा था।
बहुत बढ़िया। 'मेरा दागिस्तान' में ज़ुरना बाजे का जिक्र बार-बार आता है, लेकिन यह शहनाई से मिलता-जुलता बाजा है, इसका पता आपको ही पढ़कर लगा।
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