Saturday, September 12, 2009

पहुंचना सरदार का मायानगरी में[बकलमखुद-103]

पिछली कड़ी- 1.कानून और समाजवाद की पढ़ाई[बकलमखुद-101]  

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के पंद्रहवें पड़ाव और एक सौ दो वे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

कां ग्रेस के भीतर के अनुभवों और खास तौर पर नगरपालिका चुनाव के बाद सरदार को समझ आ चुकी थी कि कांग्रेस जनपक्षी होने का भ्रम बनाए रखती है, लेकिन उस पर वास्तविक आधिपत्य देश के सब से धनी उद्योगपतियों और भूस्वामियों का है। इमरजेंसी समाप्त हुई और आम चुनाव आ गए। अब कांग्रेस में होते हुए भी उस की कोई रुचि उस में नहीं रह गई थी। यहाँ भी टिकट वितरण में यही हुआ था, युवाओं को तरजीह नहीं मिली थी। चुनाव में कांग्रेस की पराजय हुई। उस के बाद नगर कांग्रेस की बैठक हुई। बैठक जिस हॉल में थी, उस में आधे में धुली सफेद चादरों से ढके गद्दे बिछे थे और आधे में जूट के टाट। सारे नेता गद्दों पर बैठ गए। हरिजन कार्यकर्ता बहुत थे। वे सब टाट पर बैठ गए। सरदार को यह बहुत ही बुरा लगा था। उसे बहुत कहा गया कि वह गद्दे पर आ कर बैठे। लेकिन वह हरिजन कार्यकर्ताओं के साथ टाट पर जम गया। विचार विमर्श आरंभ हुआ।
र कोई प्रचार की कमी बता रहा था। सरदार ने सीधे गद्दों पर बैठे लोगों पर हमला किया। आप लोग हरिजनों के उद्धार की बात करते हैं और उन से दूरी बनाए रखते हैं। गाँधी जी की कांग्रेस में अब सवर्णों और हरिजनों के बीच की विभाजन रेखा स्पष्ट दिखाई देती है। क्यूँ नहीं सारे हॉल में गद्दे बिछाए गए? क्यूँ हरिजन यहाँ इस टाट पर बैठे हैं वे सब से पहले बैठक में आते हैं। वे ही यहाँ बिछात बिछाते हैं। लेकिन वे आप का सम्मान करते हैं इस कारण से पहले से नहीं बैठ जाते। वे चाहें तो पहले से गद्दों पर बैठ सकते हैं और फिर आप लोगों को टाट पर बैठना पड़ेगा। जब तक यह कांग्रेस वापस बिना भेदभाव वाली गांधी की कांग्रेस नहीं बन जाती, कांग्रेस की वापसी संभव नहीं। यह भेद कांग्रेस को समाप्त करना होगा।” इस वक्तव्य का कोई जवाब किसी के पास नहीं था। बैठक खत्म हो गई। बाहर आ कर नेता सरदार से भिड़ गए। कहने लगे उस पर कम्युनिस्टों की संगत का असर हो रहा है। हमें हरिजनों के साथ बिठाने की बात करता है। हम बैठेंगे? जातिगत बराबरी केवल दिखावे की है समाज तो जैसे बरसों से चल रहा है वैसे ही चलेगा।
स बैठक ने कांग्रेस से सरदार के साथ सूत्र-बंधन को जो बहुत कमजोर रह गया था, उसे भी समाप्त कर दिया। उस ने अपनी सदस्यता का नवीनीकरण नहीं कराया और स्वतंत्र हो गया। अपनी राजनैतिक संबद्धता पर वह स्वतंत्र रह कर विचार करना चाहता था। वकालत की पढ़ाई के दो साल पूरे हो चुके थे, तीसरा और आखिरी साल चल रहा था। दोपहर बारह बजे तक वह कोटा पहुँचने और शाम छह बजे कक्षा लगने तक छह घंटों तक बेकार इधर उधर घूमना उसे अखरने लगा था। उस ने स्टेशन और कॉलेज के बीच की एक इमारत से प्रकाशित हो रहे समाचार पत्र में जिसे कोटा का पहला दैनिक होने का श्रेय हासिल था, काम का जुगाड़ भिड़ा लिया। उसे वहाँ चार घंटे काम करना था। वेतन कितना दिया जाएगा यह अखबार के मालिक कम प्रधान संपादक पर छोड़ दिया गया। कुल चार पेज का अखबार था। समाचार संसाधन कुछ नहीं थे। संवाददाताओं द्वारा भेजे गए समाचार जो अक्सर डाक से प्राप्त होते थे, कुछ ताजा समाचार तार से प्राप्त होते थे। बाकी सब कुछ ऑल इंडिया रेडियो के धीमे-प्रसारण के भरोसे रहता था। सरदार डेस्क पर बैठने लगा, उसे संपादन के लिए अंदर के दो पेज मिले।
रोज संपादकीय और कम से कम तीन दिन अग्रलेख लिखना पड़ता, समाचारों का पुनर्लेखन करना और उन्हें शीर्षक देने होते। समाचार कंपोजिंग में चले जाते। वहाँ से प्रूफ आता, वह भी पढ़ना पड़ता। कंपोजिंग सेक्शन को कभी भी मैटर की कमी नहीं होनी चाहिए थी, वर्ना प्रति लाइन कंपोजिंग की दर पर काम करने वालो कंपोजीटर हंगामा खड़ा करने लगते थे। जल्दी ही उस ने काम पर काबू पा लिया था। पता नहीं क्या हुआ कि अखबार में काम करने वाले दोनों संपादक काम छोड़ गए, सरदार अकेला रह गया। यह जरूरी हो गया कि अखबार के चारों पृष्ठों का काम वही देखे। इस के लिए उसे दोपहर के एक बजे से रात दो बजे तक, जब तक कि अखबार के चारों पेज बंध कर उन के प्रूफ न आ जाएँ लगातार काम करना पडता। प्रधान संपादक जी ने वहीं प्रेस में रहने की व्यवस्था कर दी। सरदार चारों पृष्ठों का अकेला संपादन करने लगा। यहाँ तक कि एक माह तक कानून की कक्षा में भी नहीं जा सका। दूसरे माह किसी दूसरे अखबार से एक पत्रकार को तोड़ कर अखबार में लाया गया तभी कॉलेज जाना आरंभ हो सका।
राजनीतिक गतिविधियों से अलग होने से उस की गतिविधियाँ साहित्य में बढ़ गई थीं। हाड़ौती क्षेत्र के सभी साहित्यकारों से नजदीकी संबंध बन गए। हाड़ौती भाषा के ख्यात गीतकार दुर्गादान सिंह गौड़ नजदीक रहते थे। बम्बई के राजस्थानी उन्हें बुला रहे थे। वहाँ उन्हें कुछ आमदनी होने का भी भरोसा था। बम्बई को देखना हर नौजवान की तरह सरदार का भी सपना था। दुर्गादान जी ने सरदार को साथ चलने के लिए पटा लिया। बम्बई में सरदार के पास एक मात्र संपर्क-सूत्र साल भर पहले नवभारत टाइम्स से अलग हुए जितेन्द्र कुमार मित्तल थे, जो अब हिन्दी फिल्मों की विदेशों में मार्केटिंग कर रहे थे। एक फिल्म –आंदोलन- प्रोड्यूस भी की थी। उसी फिल्म के प्रमोशन के चक्कर में उन से संपर्क हुआ था। सरदार छात्र तो था ही उस ने रेल से विद्यार्थी यात्रा के लिए सस्ता टिकट जुगाड़ लिया। अखबार से पन्द्रह दिनों का अवकाश ले लिया गया। जिस दिन बम्बई के लिए रवाना होना था उस के दो दिन पहले दुर्गादान जी की पत्नी बीमार हो गईं। उन का जाना रद्द हुआ। सरदार को बम्बई देखने का सपना टूटता लगने लगा। उस ने मित्तल जी को संपर्क किया। वे बोले –आ जाओ। सरदार ने अकेले जाने का निश्चय कर लिया और तय दिन सुबह देहरादून एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में बैठने की सीटों के ऊपर सामान रखने की एक बर्थ कब्जा कर बम्बई की यात्रा आरंभ कर दी। सर्दी का वक्त था। गरम कपड़े और कंबल आदि के कारण बैडिंग और एक अटैची साथ थी। पर जैसे ही सूरत निकला गर्म कपड़े काटने लगे। एक-एक कर उन्हें उतारना आरंभ किया तो बम्बई पहुँचते-पहुँचते बदन पर बस एक टी-शर्ट रह गई। मित्तल जी का निवास अंधेरी में था। बम्बई सेन्ट्रल के स्थान पर सरदार बोरीवली उतर कर लोकल ट्रेन से अंधेरी स्टेशन पहुँच गया।

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12 कमेंट्स:

kshama said...

मै आपके आलेख गौरसे पढ़ती आ रही हूँ ...किसी भी नेता या पार्टी का एजेंडा देश हित का होताही नही...चुनाव के दौरान जो कुछ कहा जाता है,बादमे भुला दिया जाता है...जनताने 'प्रोटेस्ट' वोट के प्रावधान का उपयोग करना चाहिए.....न हो तो , बवाल खडा चाहिए..मैंने खुद ये किया है...

अजित वडनेरकर said...

बहुत दिलचस्प सफ़रनामा। कांग्रेस का ही नहीं, ज्यादातर संगठनों का भीतरी चेहरा यही है। दिखाने का कुछ, असली कुछ। इसलिए भाजपा जैसी तथाकथित काडर बेस्ड पार्टी में भी वाजपेयी को मुखौटा कहा गया था। वामपंथ का हश्र आजादी के छठे दशक में खूब नज़र आया। तथाकथित ऩए खू़न-राजनाथ और कारात की अगुवाई में इनके संगठनों की जितनी खराब हालत हुई, उतनी कभी नहीं हुई।
निश्चित ही कोटा में राजस्थान के अन्य शहरों की तुलना में राजनीतिक सामाजिक चेतना ज्यादा रही होगी, ऐसा मुझे लगता है। बाकी हाल की प्रतीक्षा है।

हेमन्त कुमार said...

आज जो कुछ भी है इस बदले हुए तेवर का नतीजा है । शानदार रहा ये सफर । अगली कड़ी का बेसब्री से इन्त्जार है । आभार ।

Ashish Khandelwal said...

दिलचस्प शृंखला.. हैपी ब्लॉगिंग

Arvind Mishra said...

तो पहुंच गया सरदार मोहमयी नगरी -देखिये अब आगे आगे होता है क्या ?

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

पता नहीं क्यों आपके ज़माने में बम्बई कितने नौजवान अपने सपने पूरे करने घर से भाग कर जाते थे . आप तो बुलावे पर गए . आगे का इंतज़ार

Udan Tashtari said...

लो जी, सरदार भी पहुँच गया मायानगरी में..बताते चलें.

Abhishek Ojha said...

बम्बई आ गए आप तो पढाई पर कितना असर पड़ा ये भी बताइए.

निर्मला कपिला said...

पता नहीं क्यों मैं बकलम्खुद की कोई भी कडी क्यों नहीम पढ पाई शायद तब तक इस ब्लाग का पता नहीं था दिवेदी जी की ये सारी पोस्ट शुरू से पढूँगी इसे सहेज लिया है। अनवरत तो पूरी पढ ली है । उनकी लेखनी और कर्मनिष्ठा को सलाम है

समयचक्र said...

सरदार की मायानगरी में बल्ले बल्ले हो गई बकलमखुद अजी देखते है की आगे होता है क्या ? रोचक पोस्ट...आभार...

shobhana said...

aisa lgta hai mano koi uchhkoti ka punyas padh rhe hai .
bhut umda lekhan.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आप मेरे जन्म स्थान मुम्बई , पहुंचे ..फिर क्या हुआ ?
ये सवर्ण - तथा दुसरे सभी से अलग व्यवहार , बहुत बुरी चीज है
आपने अच्छा उद`घाटन किया यहां --
- लावण्या

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