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Monday, April 3, 2023

‘नाबाद’ के बहाने ‘बाद’ की बातें

Sachin-Tendulkar[5]

रो जमर्रा की भाषा में ऐसे अनेक शब्दों का समावेश रहता है जिनका अक्सर अन्य भाषाओं में अलग तरीके से इस्तेमाल होता है। ऐसे शब्दों के साथ उपसर्ग या प्रत्यय जुड़ने से भी नए शब्द बनते हैं और ये शब्द भी अन्य भाषाओं में लोकप्रिय हो जाते हैं। हिन्दी में क्रिकेट की शब्दावली का एक जाना पहचाना शब्द है नाबाद जिसका अर्थ होता है नॉट आऊट । पारी के समाप्त होने तक अगर कोई खिलाड़ी मैदान में डटा रहता है तो उसे नॉट आऊट यानी नाबाद कहते हैं। हिन्दी में यह शब्द आम है मगर यह आया कहाँ से? नाबाद शब्द का जन्म मराठी की कोख से हुआ है मगर मूलतः यह यौगिक शब्द है और अरबी के बाद (BA’DA) शब्द में हिन्दी फ़ारसी का ना उपसर्ग लगने से बना। हिन्दी शब्दकोशों में इस शब्द की उपस्थिति नहीं है।
बाद शब्द का मूल अरबी रूप है ब’अद जिसके मायने हैं दूरस्थ, सुदूरवर्ती, फ़ासले पर, अलग या पृथक आदि। परवर्ती विकास के दौरान इसका अर्थ विस्तार हुआ। दूरस्थ, सुदूरवर्ती या फ़ासले पर जैसे अर्थों में अनंतर, पश्चात जैसे भाव भी स्थापित हुए। गौरतलब है कि दूरस्थ या सुदूरवर्ती जैसा भाव सापेक्ष है अर्थात एक बिन्दू विशेष से किसी स्थान या वस्तु की स्थिति बताने के लिए सुदूरवर्ती शब्द का प्रयोग होता है। अब देखिए कि किस तरह अर्थवत्ता विकसित होती है। बाद में पश्चातवर्ती भाव का विकास अंतराल से जुड़ा है। विस्तार के दो बिन्दुओं के बीच अंतराल होता है। जो दूरवर्ती है, उसका विलोम निकटवर्ती है अर्थात दूरवर्ती से कहीं पहले निकटवर्ती है। जाहिर है निकट के आगे कहीं दूर है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि निकट के पश्चात या बाद में दूरवर्ती स्थान या वस्तु होती है। दूरी से ही दूर है।
र्मन भाषाशास्त्री एमएम ब्रॉमनन स्टडीज़ इन सेमिटिक फ़िलोलॉजी में बाद शब्द पर विस्तार से चर्चा करते हैं। उनके मुताबिक प्रोटो सेमिटिक धातु bi-‘ad है जिसमें bi ( या ba ) का अर्थ है ‘में’ और ad का अर्थ है तदापि, तथापि, अब तक आदि। इस तरह अरबी के बा’अद ( या बाद ) का अर्थ हुआ के पश्चात, तद्नुरूप, तथापि, के कारण आदि। बरास्ता अरबी यही बा’अद फ़ारसी, उर्दू, के बाद हिन्दी में भी बाद के रूप में दाखिल हुआ। जहाँ इसका अभिप्राय के पश्चात या बाद में ही है। हिब्रू में भी यह कुछ परिवर्तन के साथ इसी अर्थ में इस्तेमाल होता है। 
राठी शब्दकोशों के मुताबिक बाद शब्द में किसी सूची से कमी का, निकालने का, हीन करने का भाव है। म.श्री. सरमोकदम और जी.डी.खानोलकर की द न्यू स्टैंडर्ड मराठी- इंग्लिश- मराठी डिक्शनरी के मुताबिक बाद का अर्थ काम से निकालने, रद्द करने, स्थगित करने, पीछे रखने का, हटाने का भाव है। इसी तरह कृ.पा. कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश में भी इसका अरबी रूप ब’अद बताया गया है जिसमें निकाला हुआ, कम किया हुआ जैसे भाव हैं। निश्चित ही ये सभी अर्थ भी दूरवर्ती, फ़ासले पर या बाद में जैसे अर्थों का विस्तार है। गौर करें की किसी सूची में जब नाम जोड़े जाते हैं तब महत्वपूर्ण नाम आगे और कम महत्वपूर्ण नाम पीछे रखे जाते हैं। महत्व तय करते मामूली महत्व के नामों के लिए भी भी यही निर्देश दिया जाता है कि इन्हें बाद में रखना। सामान्य बोलचाल में भी
सी क्रम में मराठी में बाद का अर्थ स्थगित करना, निकालना, हटाना होता है। सामान्य तौर पर ‘ बाद में ’ अब एक टर्म या पद का दर्जा पा चुका है जिसमें किसी काम को न करने, टालने या स्थगित करने का भाव ही अधिक है। बाद में देखेंगे या बाद में करेंगे, बाद में आना, बाद में चलेंगे में यही भाव है कि अभी कुछ होने की फिलहाल उम्मीद नहीं है। अभी की सूची से उसे निकाला जा चुका है। उसे आगे कभी होना है। इस आगे में जो विस्तार है वही ब’अद है। इसमें जो स्थगिति है वही ब’अद है। इसमें जो निकाले जाने का भाव है वही ब’अद है और इसका रूपान्तर बाद है। हिन्दी-उर्दू के बाद में पश्चातवर्ती भाव प्रमुखता से बना रहा जबकि मराठी में विस्तार, अंतराल, निकालना जैसे भाव प्रमुख रूप से विकसित हुए। इसीलिए मराठी में बाद के साथ ना उपसर्ग लगाने से बने नाबाद शब्द का अर्थ डटे रहना, अविजित रहना, बने रहना, कायम रहना आदि हुआ। क्रिकेट की शब्दावली में बड़ी सहजता से मराठी में ही सबसे पहले नॉट आऊट के लिए नाबाद शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ जिसे हिन्दी में भी खुशी खुशी और खिलाड़ी भाव से अपनाया गया।

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Saturday, February 4, 2017

चुभने-चुभाने की बातें

क्षुब्ध, विक्षोभ जैसे शब्दों का बुनियादी अर्थ है विदीर्ण,असन्तोष आदि।pain-body-mind

भी काँटे ‘चुभ’ जाते हैं कभी बातें चुभती हैं। चुभ / चुभना / चुभाना हिन्दी में सर्वाधिक प्रयुक्त क्रिया है। हिन्दी शब्दसागर इसे अनुकरणात्मक शब्द बताता है जो अजीब लगता है। अनुकरणात्मक शब्द वह है जो ध्वनि साम्य के आधार पर बनता है जैसे रेलगाड़ी के लिए छुकछुक गाड़ी। हिनहिनाना, टनटनाना, मिनमिनाना जैसे अनेक शब्द हमारे आसपास है। अब सोचें कि चुभ, चुभना को किस तरह से अनुकरणात्मक शब्द माना जाए ! इसी कड़ी के दो और शब्द है खुभ / खुभना या खुप / खुपना जिसे समझे बिना चुभना की जन्मकुण्डली नहीं समझी जा सकती।
मेरे विचार में चुभना संस्कृत की ‘क्षुभ्’ क्रिया से आ रहा है जिससे क्षोभ, विक्षोभ बना है। क्षुब्ध, विक्षुब्ध, क्षोभ, विक्षोभ जैसे शब्दों का बुनियादी अर्थ है विदीर्ण, चीर, दबाव, धक्का, भयभीत, कम्पन, आन्दोलन, बखेड़ा, असन्तोष, गड़बड़ी, कोप आदि। मगर रूढ़ अर्थों में हिन्दी में अब क्षोभ या क्षुब्ध का प्रयोग ज्यादातर नाराज़गी, कोप, गुस्सा के अर्थ में ही होता है और उक्त सारे भाव विक्षोभ से व्यक्त होते हैं। गौर करें मौसमी सूचनाओं में अक्सर ‘पश्चिमी विक्षोभ’ टर्म का प्रयोग होता है जो दरअसल वेस्टर्न डिस्स्टर्बेंस का अनुवाद है। इसका अभिप्राय समन्दर पर या ऊपरी आसमान में हवाओं के ऐसे उपद्रव से है जिसकी वजह से कहीं बवण्डर या चक्रवात बनते हैं तो कहीं हवा अचानक शान्त हो जाती है जिसे कम दबाव क्षेत्र भी कहते हैं।
ख़ैर, बात चुभने-चुभाने की हो रही थी। गौर करें चुभना किसी तीक्ष्ण वस्तु का भीतर घुसना है। इसका भावार्थ भीतर की हलचल, मन्थन, हृदय की चोट, दिल की उमड़-घुमड़, किसी बात का घर कर जाना आदि है। क्षुभ् क्रिया में यही सारी बातें शामिल हैं। गौर करें विदीर्ण में दो हिस्से होने, चीर लगने का भाव है। दो हिस्सों में बाँटे बिना कोई चीज़ भीतर जा नहीं सकती। प्रत्येक आलोड़न, आन्दोलन, मन्थन, हलचल का कोई न कोई केन्द्र होता है जो इसे धारदार बनाता चलता है। यही धँसना, गड़ना,चुभना है। हिन्दी की प्रकृति है ‘क्ष’ का ‘छ’ और ‘ख’ में बदलना जैसे अक्षर से ‘अच्छर’ और ‘अक्खर’ (आखर, अक्खड़ जैसे भी) जैसे रूप भी बनते हैं। पूर्वी बोलियों में ‘क्षुब्ध’ को ‘छुब्ध’ भी कहा जाता है। इसी तरह ‘क्षुब्ध’ से ‘खुब्ध’ भी बनता है। गौर करें क्षुब्ध से चुभ बनने में क्ष > छ > च के क्रम में ध्वनि परिवर्तन हो रहा है जबकि क्षुब्ध से खुभ बनते हुए क्ष > ख के क्रम में परिवर्तन हो रहा है।
‘खुभना’ का अर्थ भी चुभना, गड़ना या धँसना ही है। कृ.पा. कुलकर्णी भी मराठी खुपणे जिसका अर्थ भीतर घुसकर कष्ट देना, चीरना, छेद करना आदि है, का मूल क्षुभ् से ही मानते हैं। इसका प्राकृत रूप खुप्प, खुप्पई है। सिन्धी में खुपणु, गुजराती में खुपवुँ, मराठी में खुपणे अथवा खोंपा, खोंपी जैसे शब्द इसी क्षुभ् मूल से व्युत्पन्न है। इसी कड़ी में ऊभचूभ पर भी विचार कर लें। कुछ विद्वान मानते हैं कि ऊभ के अनुकरण पर चूभ बना है, पर ऐसा नहीं है। अलबत्ता ऊभ की तर्ज़ पर चुभ का ह्रस्व ज़रूर दीर्घ होकर चूभ हो जाता है। ऊभचूभ का अर्थ होता है आस-निरास की स्थिति, डावाँडोल होना, आन्तरिक हलचल, ऊपर-नीचे होना, डूबना-उतराना आदि।
हिन्दी ‘ऊभ’ का अर्थ है ऊपर आना, उभरना। चूभ और चूभना पर तो ऊपर पर्याप्त बात हो चुकी है। मुख्य बात यह कि अनुकरण वाले शब्द की अपनी स्वतन्त्रप्रकृति नहीं होती। मुख्य पद के जोड़ का पद रच लिया जाता है। उसका कोई अर्थ नहीं होता। ऊभचूभ में जो चूभ हो वह अनुकरण नहीं बल्कि ऊभ का विलोम है। उसकी स्वतन्त्र अर्थवत्ता है। ऊभ का रिश्ता उद्भव से है जिसमें उगने, ऊपर आने का भाव है। उद् यानी ऊपर उठना भव यानी होना। प्राकृत का 'उब्भ' इसी कड़ी का है। उब्भ का ही विकास ऊभ है। उभरना, उभार भी इसी कड़ी में आते हैं।
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Wednesday, September 21, 2016

जलकुक्कड़ और तन्दूरी-चिकन


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छली पोस्ट में हमने वामियों के सन्दर्भ में ‘जलकुक्कड़’ का प्रयोग किया जिस पर सफ़र के साथी प्रदीप पाराशर ने जिज्ञासा दिखाई। ‘जलकुक्कड़’ एक मुहावरा है जो आमतौर पर ईर्ष्यालु के सन्दर्भ में इस्तेमाल होता है। यूँ इसमें शक, शंका, कपट, संदेह या डाह करने का भाव है। ‘सौतिया-डाह’ वाली जलन को मुहावरे में भी खूब महसूस किया जाता है। गौर करें, ये सभी भाव अग्नि से जुड़ते हैं। संदेह, शक या शंका दरअसल एक चिंगारी है। ‘डाह’ तो सीधे-सीधे दाह का ही रूपान्तर है। संस्कृत में ‘दह’ का आशय तपन, ताप, अगन, जलन, झुलसन से है।

जलकुक्कड़ में जो जल है वह ज़ाहिर है दाह या जलन वाले ‘जल’ के अर्थ में है न कि पानी वाले अर्थ में। कुक्कड़ यानी मुर्ग़। कुक्कड़ संस्कृत के कुक्कुट का देशी रूप है। कुक्कुट का कुर्कुट रूपान्तर होकर कुक्कड़ बना, ऐसा कृपा कुलकर्णी मराठी व्युत्पत्तिकोश में लिखते हैं। वैसे कुक्कुट से कुक्कड़ बनने के लिए कुर्कुट अवतार की ज़रूरत नहीं। ‘ट’ का रूपान्तर ‘ड़’ में होने से कुक्कुट सीधे ही कुक्कड़ बन जाता है।

जलकुक्कड़ को समझने के लिए “जल-भुन जाना” मुहावरे पर गौर करें। शरीर का कोई अंग आग के सम्पर्क में आने पर झुलस जाता है। जल-भुन वाले मुहावरे में यही जलन है। दूसरा मुहावरा देखिए- “जल-भुन कर कबाब होना”। कबाब एक ऐसा व्यंजन है जिसे सीधे तन्दूर पर या तवे पर खूब अच्छी तरह भूना जाता है। जब ज्यादा ही “अच्छी तरह” भून लिया जाए तो वह जल-भुन कर कोयला हो जाता है, कबाब नहीं रह जाता।

एक अन्य पद देखिए- “तन्दूरी-मुर्ग़”। मुर्ग़े को जब आग पर सालिम भूना जाता है उसे ही तन्दूरी-मुर्ग़ कहते हैं। कहते हैं, ये बेहद लज़ीज़ होता है। अब अगर इसका हाल भी कबाब जैसा हो जाए तो? आशय ईर्ष्याग्नि से ही है। ऐसा आवेग, उत्ताप जो मौन या मुखरता से झलके। इस कुढ़न को ही ये तमाम मुहावरे अभिव्यक्त कर रहे हैं। जलकुक्कड़ में भी यही आशय है।

कई बार पूछा जाता है कि फलाने का क्या हाल है? जवाब आता है कि खबर सुनने के बाद से “तन्दूरी-मुर्ग़” हो रहे हैं। कई लोग जो स्वभाव से दूसरों की खुशहाली देख कर कुढ़ते रहते हैं, हमेशा डाह रखते हैं या अपनी ईर्ष्या का प्रदर्शन करते रहते हैं उन्हें स्थायी तौर पर जलकुक्कड़ का ख़िताब मिल जाता है। वे हमेशा ईर्ष्या के तन्दूर पर जलते रहते हैं। ईर्ष्या की आग जिसमें तप कर कुन्दन नहीं कोयला ही बनता है। ऐसे ही लोगों के लिए हिन्दी में जलोकड़ा या जलोकड़ी जैसे विशेषण भी हैं। कभी कभी सिर्फ़ जलौक भी कह दिया जाता है।

प्रसंगवश बताते चलें कि कुक्कुट दरअसल ध्वनिअनुकरण के आधार पर बना शब्द है। संस्कृत में एकवर्णी धातुक्रिया ‘कु’ में दरअसल ध्वनि अनुकरण का आशय है अर्थात कुकु कुक या कुट कुट ध्वनि करना। कोयल, कौआ, कुक्कुट और कुत्ता में ‘कु’ की रिश्तेदारी है । दरअसल विकासक्रम में मनुष्य का जिन नैसर्गिक ध्वनियों से परिचय हुआ वे ‘कु’ से संबंद्ध थीं। पहाड़ों से गिरते पानी की , पत्थरों से टकराकर बहते पानी की ध्वनि में कलकल निनाद उसने सुना। स्वाभाविक था कि इन स्वरों में उसे क ध्वनि सुनाई पड़ी इसीलिए देवनागरी के ‘क’ वर्ण में ही ध्वनि शब्द निहित है। सो मुर्ग़ का कुक्कुट नामकरण दाना चुगने की ‘कुट-कुट’ ध्वनि के चलते हुआ। अंग्रेजी का कॉक cock भी इसी आधार पर बना है।

इसे भी देखें- कुक्कुट

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Monday, February 29, 2016

चूँ-चपड़ नई करने का...


पर लिखी नसीहत से किसी न किसी दौर में सभी गुज़र चुके हैं। फ़ारसी का यह ज़रा सा ‘चूँ’ बड़ा विकट है। ...और बच्चों का ‘चूँ’ तो और भी खतरनाक! आखिर उन्हें धमकाना ही पड़ता है “ज्यादा चूँ-चपड़ किया तो भगा देंगे” (चपड़ अनुकरणात्मक है। इसका एक आशय प्रतिरोध को दबाना भी है। ज़ाहिर है प्रतिरोध सवालों के साथ ही उभरता है इसलिए किसी भी प्रतिवाद या प्रतिरोध को दबाने के लिए भी इसी मुहावरे का इस्तेमाल किया जाता है, चूँ-चपड़ नई करने का... आशय सवालों से बरजने का ही है। मज़े की बात ये कि जिनकी रोज़ीरोटी ही ‘चूँ’ की मुनहसिर है, वे भी इस ‘चूँ’ से वास्ता नहीं रखते। हमारी मुराद अख़बारनवीसों से ही है। चलिए, खोलते हैं ‘चूँ’ की जन्मकुण्डली।

यह जानना बेहद जरूरी है कि सवालिया निशान के दायरे में जितने भी सवाल हैं, पूरी दुनिया में ‘क’ से ही अभिव्यक्त होते हैं। इसे अंग्रेजी में 5W & 1H अथवा “पंचवकार, एक हकार” कहा जाता है। हिन्दी में ‘ककारषष्ठी’ कहा जा सकता है। यह दिलचस्प है कि संस्कृत के किम् में एक साथ तमाम प्रश्नवाची जिज्ञासाएँ समाई हुई है अर्थात क्या, क्यों, कब, कहाँ आदि...। इस किम से ही हिन्दी के तमाम प्रश्नवाची सर्वनामों यानी ‘कौन’, ‘कब’, ‘कहाँ’, ‘क्या’, ‘कैसे’, ‘किस’ आदि पैदा हुए हैं। इनमें सबका अपना-अपना महत्व है। कोई भी मानवीय जिज्ञासा इन सवालों के बिना पूरी नहीं होती। कोई भी कथा तब तक पूरी नहीं होती जब तक इस ‘ककारषष्ठी’ का समावेश उसमें न कर दिया जाए।

पत्रकारिता में तो इन शब्दों का महत्व गीता-कुरान-बाइबल से भी ज्यादा है। किसी भी घटना/ वारदात/ प्रसंग को जब तक इन कब-क्यों से न गुज़ारा जाए, उसे खबर की शक्ल में ढाला नहीं जा सकता। अफ़सोस कि आज के पत्रकार खबर लिखने से पहले ‘ककारषष्ठी’ मन्त्र का आह्वान नहीं करते। शायद शर्म आती होगी तो ‘6K’ की तरह याद कर लें, इसे भूल कर कोई खबर बन नहीं सकती और आप साख कमा नहीं सकते।

तो ‘किम्’ से जन्में ‘क्यों ‘का ही एक रूप है ‘चूँ’ जिसमें सवाल छिपे हैं। ध्यान रहे कि बच्चे ‘क’ और ‘च’ ध्वनियाँ सहज रूप से उच्चार लेते हैं मगर संयुक्त ध्वनियों का उच्चार नहीं कर पाते। यह समस्या अनेक मानव समूहों में भी होती है। नासिक्य स्पर्श के साथ क+य से बने क्यों का रूपान्तर ‘चों’ जाता है। अनेक लोग इसी प्रश्नवाचक चों को उच्चारते हैं। ‘क्यों’ का एक रूप फ़ारसी-उर्दू में ‘क्यूँ’ हो जाता है। स्वाभाविक है कि ‘क्यों’ से ‘चों’ की तरह ‘क्यूँ’ से ‘चूँ’ भी बन जाता है।

अब ‘क्यूँ’ हो या ‘चूँ’, है तो सवाल ही। ...और हमारा समाज जवाबदेही से हमेशा बचता नज़र आता है। भाषाओं के विकास में ही मानव-विकास नज़र आता है। लोकतन्त्र विरोधी समाज ही सवालों से कतराता है। “ज्यादा चूँ-चपड़ की तो...” एकाधिकारवादी, सामन्तवादी और सवालों से कतराते समाज की अभिव्यक्ति है। इसमें यह निहित है कि ज्यादा सवाल पूछेंगे, तो ख़ैर नहीं।

इस तब्सरे के बाद यह समझना मुश्किल नहीं बात बात में बोला जाने वाला अव्यय ‘चूँकि’ यूँ तो फ़ारसी का है पर ‘क्यूँकि’ का ही रूपान्तर है। हालाँकि जॉन प्लॉट्स ‘चूँ’ को फ़ारसी के ‘चिगुन’ से व्युत्पन्न मानते हैं जिसमें क्यों, कहाँ, कैसे का भाव है। सवाल यह है कि जब फ़ारसी में स्वतन्त्र रूप में ‘चि’ अव्यय मौजूद है और उसमें भी वही प्रश्नवाची आशय मौजूद है तब ‘चिगुन’ स्वयं ‘चि’ से व्युत्पन्न है जिसका रिश्ता ‘किम’ से है। शब्दों का सफ़र में पहले बताया जा चुका है कि पुरानी फ़ारसी-तुर्की में ‘किम्’ का एक रूप ‘चिम्’ होता हुआ ‘चि’ में तब्दील हुआ है।

तो चूँकि में क्योंकि वाले आशय समाहित है अर्थात ‘इसलिए’, ‘जैसे कि’, ‘कारण कि’ वगैरह आशय इससे स्पष्ट होते हैं। फ़ारसी में चूँ-चपड़ की जगह ‘चूँ-चिरा’ या ‘चूँ ओ चिरा’ पद प्रचलित है जिसका आशय है “कब, क्यों कहाँ”. इससे जो मुहावरा बनता है “चूँ-चिरा न करना” यानी बात वही ज्यादा सवाल न पूछो। हिन्दी ने इससे ही चूँ-चपड़ बना लिया। पुरानी हिन्दी में यह बतौर “चूँचरा” मौजूद है जिसका अर्थ है प्रतिरोध, विरोध, प्रतिवाद आदि।

निष्कर्ष- पत्रकारों को हमेशा चूँ-चपड़ करते रहना चाहिए यानी 'ककारषष्ठी' मन्त्र का जाप जारी रहे।

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Friday, January 15, 2016

सुब्हान तेरी कुदरत यानी ‘सुभानअल्ला’



मो हतसिब तस्बीह के दाने पे ये गिनता रहा
किन ने पी, किन ने न पी, किन किन के आगे जाम था

मुमकिन है इस मशहूर शेर को पढ़ कर आप सुभानअल्ला कह उठें। ये है ही इस लायक। पर आप ‘सुभानअल्ला’ ये सुनकर भी कहेंगे कि ‘तस्बीह’ और ‘सुभान’ दोनो बहन-भाई हैं। ‘सुभानअल्ला’ को बतौर प्रशस्तिसूचक अव्यय हिन्दी में भी बरता जाता है। यूँ इसका प्रयोग विस्मयकारी आह्लाद प्रकट करने के लिए भी होता है। यह लगभग ‘क्याब्बात’, ‘अद्भुत’ या ‘ग़ज़ब’ जैसा मामला है। यूँ सुभानअल्ला में बहुत अच्छा, धन्य-धन्य अथवा वाह-वाह जैसी बात है। ऐसा भी कह सकते हैं कि सुभानअल्ला में vow factor भी है। जानते हैं सुभानअल्ला की जन्मकुण्डली।

सुभानअल्ला अरबी से बरास्ता फ़ारसी हिन्दी में आया है। यह एक शब्द नहीं बल्कि संयुक्त पद है। मूल रूप से अरबी का ‘सुब्हान’ ही हिन्दी में सुभान बन कर ढल गया। अरबी सुब्हान बना है त्रिवर्णी मूलक्रिया सबाहा ح ب س
यानी सीन-बा-हा से जिसमें परमेश्वर के गुणगान और प्रशस्ति का भाव है। इसका ही विकसित रूप है सुब्हान سبحان (सीन बा हा अलिफ़ नून) जिसका फ़ारसी रूप सोब्हान होता है और हिन्दी सुभान।

दरअसल सबाहा यानी सीन-बा-हा में जो मूल भाव है उसमें अनंत का भाव है मसलन विशाल जलराशि में तैरना, वह सब जो दृष्टिपटल के सामने है, जो नज़रों में है उसके वैभव को अनुभव करना। तैरते हुए देखने के इस भाव को हिन्दू संस्कृति में संसार को भवसागर मानने के रूपक से समझा जा सकता है। उस अनंत को निहारना, उसकी विशालता को अनुभव करते हुए उसमें बने रहने का भाव ही सबाहा का मूल है। और हासिल ? हासिल वह है जो बलदेवप्रसाद मिश्र की इस कविता के ज़रिये ज़ाहिर होता है-

जिस ओर निगाहें जाती हैं
उसके ही दर्शन पाती हैं
सम्पूर्ण दिशाएं सुख -सानी
उसका ही गौरव गाती हैं
तो सबाह से बने सुब्हान में सचमुच सुब्हान तेरी कुदरत का ही आशय है। प्रकृति से कोई पार नहीं पा सका है। प्रकृति ही ईश्वर है। जो कुछ हमने नहीं रचा, पर जो सब हमारे लिये है। ऐसी अनुभूति के बाद अगर सुभानअल्ला जैसी उक्ति ही निकलती है।

इसी सबाहा से विकसित हुआ एक और शब्द है तस्बीह यानी सुमिरनी जिसका जन्म सुमिरन से हुआ। विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में नाम स्मरण की परम्परा रही है। इस्लाम में भी नाम स्मरण का रिवाज़ है। परम्परा के अनुसार सुमिरनी को हाथ में पकड़ कर उस पर एक छोटी सफेद थैली डाल ली जाती है। तर्जनी उंगली और अंगूठे की मदद से नाम स्मरण करते हुए सुमिरनी के दानों को लगातार आगे बढ़ाया जाता है। सुमिरनी दरअसल एक उपकरण है जो नामस्मरण की आवृत्तियों का स्मरण भक्त को कराती है।

संस्कृत के स्मरण से विकसित है सुमिरन। स्मरण > सुमिरण > सुमिरन के क्रम में इसका विकास हुआ। पंजाबी में इसका रूप है ‘सिमरन’ जहाँ प्रॉपर नाऊन की तरह भी इसका प्रयोग होता है। व्यक्तिनाम की तरह स्त्री या पुरुष के नाम की तरह सिमरन का प्रयोग होता है। बहुतांश हिन्दीवाले पंजाबी के ‘सिमरन’ की संस्कृत के ‘स्मरण’ से रिश्तेदारी से अनजान हैं क्योंकि सुमिरन की तरह से पंजाबी के सिमरन का प्रयोग हिन्दीवाले नहीं करते हैं बल्कि उसे सिर्फ व्यक्तिनाम के तौर पर ही जानते हैं। स्मरण शब्द बना है संस्कृत की ‘स्मर्’ धातु से। मोनियर विलियम्स के संस्कृत इंग्लिश कोश के मुताबिक स्मर् में याद करना, न भूलना, कंठस्थ करना, याददाश्त जैसे भाव हैं। अंग्रेजी के मेमोरी से इसकी रिश्तेदारी है। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक लैटिन के मैमॉर् अर्थात स्मृति में ‘मर्’ के स्थान पर मॉर है। संस्कृत के स्मर, स्मरण, स्मृति में स-युक्त यही मर् है।

तो जब कभी किसी अनिवर्चनीय अनुभव से गुज़रें, किसी अनोखेपन के लिए मुँह से प्रशस्तिसूचक ‘वाह’ निकले तो सुभानअल्ला कहने में गुरेज़ न करें। और हाँ, खुदा की कुदरत को भी सुब्हान कहें और “मेरे महबूब को किसने बनाया” ये पहेली खुदा को बूझने दीजिए।
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Monday, December 28, 2015

बात तफ़सील की...


वि वरण या विस्तार के अर्थ में हिन्दी में तफ़सील تفصيل शब्द का इस्तेमाल भी खूब होता है जो फ़ारसी से हिन्दी में आया ज़रूर पर है अरबी शब्द। मराठी में तफ़सील का रूप तपशील होता है। तफ़सील में सीमा, हद या विभाजन का भाव है। लिखित अथवा कही गई बात या चर्चा की व्याख्या-विश्लेषण भी इसके दायरे में आता है। एक मुहावरा है-तफ़सीलवार अर्थात किसी बात को तोड़ तोड़ कर बताना। अलग-अलग कर बताना। दरअअसल यही विवरण देना यानी तफ़सीलवार बताना हुआ। उर्दू में तफ़्सील लिखा जाता है। इस कड़ी के कई शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे फ़स्ल (फसल), फ़ैसला, फ़ासला, फ़सील, तफ़सील और मुफ़स्सिल।

तफ़सील को थोड़ा तफ़सील से समझा जाए। तफ़सील का रिश्ता यूँ तो अरबी शब्द फ़साला से है जो फ़ा-साद-लाम (फ-स-ल) अर्थात ف- ص- ل से है जिसमें विभाजन, अलग करना, किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच का अन्तराल या दूरी, घेरा या बाड़ा, अवरोध या सीमा, पृथक, विवरण, विस्तार, निर्णय आदि है, किन्तु मूल सेमिटिक धातु है P-S-L अर्थात पू-सादे-लम्द। ध्यान रहे प्राचीन सेमिटिक लिपियों में ‘फ’ ध्वनि नहीं थी। मज़े की बात यह कि आज अरबी लिपि में ‘प’ ध्वनि के लिए कोई चिह्न नहीं है।

P-S-L का अर्थ था पत्थर को तराशना। बात यह है कि इसका सम्बन्ध प्राचीन अरबी समाज में प्रचलित सनमपरस्ती अर्थात मूर्तिपूजा से था यानी बुत तराशना। गौर करें, प्रतिमा निर्माण के लिए पत्थर को धीरे धीरे विभाजित किया जाता है। अनघड़ पत्थर को तोड़ कर, तराशकर जो रूपाकार निर्मित होता है उस भाव का विस्तार बाद में अरबी के फ़ा-साद-लाम में मूलतः विभाजन हुआ इस कड़ी के कई शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे फ़स्ल (फसल), फ़ैसला, फ़ासला, फ़सील, तफ़सील और मुफ़स्सिल।

फस्ल का मूलार्थ है अंतर, दूरी या अंतराल। दो ऋतुओं के बीच स्पष्ट अंतराल होता है। अर्थात काल, समय या वक्त का भाव भी फस्ल में है। फस्ले बहार या फस्ले गुल का अर्थ वसंत ऋतु और फस्ले खिज़ां यानी पतझड़। फ़स्ल यानी मौसम और हर मौसम की पैदावार को मिल गया फसल का नाम। इसी तरह किसी पुस्तक के अलग-अलग अध्यायों को भी फस्ल ही कहते हैं। किसी ज़माने में दो फसलों के बीच के अंतराल में कोई भी मामला सुलझा लिया जाता था इसलिए उसे फ़ैसला कहा गया। फ़ैसला किसी उलझी बात का सुलझा हुआ, उससे अलग किया गया अंश ही होता है। अंतराल या दूरी के अर्थ में फ़स्ल से ही बना है फासला। दो फसलों के बीच का वक्त ही फासला कहलाता था। प्राचीन बस्तियां परकोटों से घिरी होती थीं जिन्हें फ़सील कहते थे। शहर और वीराने का फासला जो बताए, वही है फ़सील।

इस विवरण के बाद तफ़सील की तफ़सील स्पष्ट हुई होगी। तफ़सील में किसी कविता, कहानी पर टीक या टिप्पणी लिखना भी शामिल है। कोई फ़ेहरिस्त भी तफ़सील हो सकती है। स्पष्ट करने वाली हर क्रिया तफ़सील के दायरे में आती है। कोई भी विवरण तफ़सील या ब्योरा है। ये सारे भाव विकसित हुए हैं विभाजन करने से जो फ़साला मूलभाव है। किसी चीज़ का विभाजन दरअसल विस्तार की पहली शर्त है। यह ब्रह्माण्ड एक पिण्ड के विभाजन का परिणाम है। अन्तरिक्ष में ये पिण्ड लगातार फैल रहे हैं। विस्तार हो रहा है। यह विभाजन का परिणाम है। लिखित विवरण तब ज्यादा समझ में आते हैं जब उन्हें अलग अलग अध्यायों में समझाया जाए। गौर करें समझाना भी विस्तार का ही एक नाम है। अध्याय टुकड़ा या खण्ड ही है, जो किसी मूल पिण्ड का विभाजित हिस्सा है।

इसी तरह पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल और महाराष्ट्र में मुफ़स्सल शब्द के अनेक रूप प्रचलित हैं मसलन मुफस्सिल (यूपी-बिहार), मोफस्सल (बंगाल) और मुफशील (मराठी) इन सभी भाषाओं में मुफ़स्सल का अभिप्राय भी अन्तराल, जुड़ा हुआ, सटा हुआ या अलग किया हुआ, दूर का, विस्तार ही होता है। मुफ़स्सिल का प्रयोग आमतौर पर भौगोलिक तौर पर दूर के क्षेत्रो के लिए होता है। इसका एक अर्थ देहात भी होता है जो शहर से सटा भी हो सकता है और दूरस्थ भी। मुफ़स्सिल अदालतें यानी दूर की या शहर की परिधि से बाहर के न्यायालय। मुफ़स्सिल संवाददाता यानी देहात के रिपोर्टर या ग्रामीण संवाददाता।
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Wednesday, February 5, 2014

अरे...अबे...क्यों बे...


हि न्दी समाज में यूँ तो ‘अबे’ सम्बोधन को हिकारत के अर्थ में लिया जाता है किन्तु इसका एक अभिप्राय निकटता जताना भी है। आमतौर पर यारी-दोस्ती और भाईचारे में अपनापा दर्शाने के लिए भी ‘अबे’ कहा जाता है। अबे से अ का लोप होकर सिर्फ ‘बे’ रह जाता है। यह भी सम्बोधन है और निकटता दरशाने के लिए प्रयुक्त होता है जैसे क्यों बे, हाँ बे, चल बे, नहीं बे आदि।

भोलानाथ तिवारी के अनुसार अबे सम्बोधनार्थी अव्यय संस्कृत के 'अयि' का रूपान्तर है। वाशि आपटे के मुताबिक यह 'अये' से आ रहा है और विस्मयबोधक अव्यय है। 'अये' में अरे का भी भाव है। कई लोगों का अरे सम्बोधन दरअसल 'अये' ही सुनाई पड़ता है। हिन्दी शब्दसागर 'अयि' रूप की बात लिखता है। हिन्दी में सही रूप 'अबे' है। हिन्दी और अन्य बोलियों में 'अबै' दरअसल अब के अर्थ में बोला जाता है। पंजाबी में ‘अबा-तबा’ भी यही है। हिन्दी में 'अबे-तुबे' करना आम मुहावरा है जिसमें बोलने वाले के अहंकार और किसी को अपमानित करने, हेयता प्रकट करने का भाव रहता है। यह जो तुबे है, अबे का अनुगामी है। अबे से दोस्ती निभाने के लिए बना लिया गया अनुकरणात्मक शब्द है।
‘अरे’ का मूल ‘आर्य’ है ऐसा कहने वाले कई नहीं ‘कुछ’ विद्वान हो सकते हैं। ईमानदारी से कहूँ तो इन में भी मेरे पास सिर्फ डॉ. भगवान सिंह का हवाला ही है जिनका मानना है कि भोजपुरी का अरे तो आर्य का ही बदला हुआ रूप है। अलबत्ता साम्य के आधार पर ‘आर्ये’ से अरे का रिश्ता तार्किक नहीं लगता। संस्कृत से जितना भी थोड़ा-बहुत परिचय है उससे लगता है कि 'आर्ये' स्त्रीवाची सम्बोधन है। सिर्फ़ स्त्रीवाची सम्बोधन से ‘अरे’ अव्यय का बनना तार्किक नहीं। दूसरी बात आर्य से अज्ज > बन ही रहा है। यह तार्किक नहीं लगता कि आर्य या आर्ये से बने अरे का प्रयोग "अरे दुष्ट, अरे मूर्ख, अरे नराधम" में जिस सहजता से हो रहा है वहाँ 'अरे' का आशय आर्य से रहा होगा। जबकि ‘जी’ या ‘अजी’ में जो ‘आर्य’ है उसके आधार पर कभी ऐसे वाक्यों की रचना दिखाई नहीं पड़ती, मसलन-'अजी दुष्ट, अजी मूर्ख' जैसे वाक्य नाटकीयता लाने के उद्धेश्य से या परिहास में, सायास तो कहे जा सकते हैं पर स्वाभाविक तौर पर नहीं। सो ‘अरे’ की रचना में जो आर्य है सम्बोधन उसमें निहित आदर, सम्मान का भाव वाक्य रचना में भी सुरक्षित रहेगा जैसे आर्य से बने ‘अजी’, ‘जी’ अव्यय वाले वाक्यों में यह सुरक्षित नज़र आता है।
परोक्त विवेचन को मेरा दुराग्रह न समझा जाए। वैसे भी अपने समय के शीर्ष विद्वान हिन्दी शब्दसागर से जुड़े थे, उसमें भी ‘अरे’ अव्यय के पीछे ‘आर्य’ सम्भावना पर विचार नहीं किया गया है। दरअसल संस्कृत के सातवें स्वर ऋ में एक सम्बोधनकारी अव्यय का भाव भी है जो स्वतंत्र रूप में ‘रे’ सम्बोधन में भी नज़र आता है और इससे ही बने ‘अरि’ में भी भद्र पुरुष का आशय है जो सम्बोधनकारक के रूप में प्रयुक्त हो सकता है। आर्य से अरे की तुलना में ऋ > री > रे या अरि > अरे > रे का विकास ज्यादा तार्किक लगता है। कृ.पां. कुलकर्णी के मुताबिक सम्बोधी अव्यय अरे के मूल में अरि का एकवचन रूप काम कर रहा है जिसका संक्षेप रे भी सम्बोधी अव्यय है। प्राचीन आर्यभाषाओं में इसके ही अपभ्रंश रूप प्रयुक्त हुए हैं। कुलकर्णी यह भी बताते हैं कि संस्कृत में अरि शब्द के दो रूप है नकारात्मक और सकारात्मक। नकारात्मक अरि का मूल सुमेरी शब्दावली का एरि है जिसका अर्थ शत्रु होता है।
‘अरे’, ‘रे’ के बारे में वामन शिवराम आपटे भी संबोधनात्मक अव्यय कहते हुए इसकी व्युत्पत्ति ‘ऋ’ से बताते हैं और इसका प्रयोग अपने से छोटों को सम्बोधित करने में बताते हैं। इसके अलावा इसका इस्तेमाल क्रोध, ईर्ष्या या घृणा को व्यक्त करने में भी किया जाता है। टर्नर भी ‘अरे’ को सम्बोधी अव्यय बताते हैं। वे शतपथ ब्राह्मण का हवाला भी देते हैं। पाली, प्राकृत में भी ‘अरे’ रूप हैं। इसके अलावा उत्तर भारत की अधिकांश भाषाओं में ‘अरे’ की व्याप्ति है।

यह भी देखें- जी हुजूरिया, यसमैन, जी मैन
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Thursday, May 30, 2013

ग़फ़लत में ग़ाफ़िल

confuse

बीर जब कहते हैं कि “रे दिल गाफिल गफलत मत कर, एक दिना जम आवेगा” तब दरअसल वे लोगों से अपनी आत्मा को जगाने की बात कहते हैं । यमलोक से बुलावा किसी भी दिन आ सकता है । जीवन अनित्य है इसलिए अंतरात्मा में ज्ञानजोत जलाने की ज़रूरत है । इसमें ग़ाफ़िल और ग़फ़लत दो शब्दों का प्रयोग किया गया है जो अरबी मूल से आए हैं । कबीर की भाषा सधुक्कड़ी यानी आम आदमी की ज़बान है । कबीर जैसे जनकवि जब ‘गाफिल-गफलत’जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं तो सहज ही समझा जा सकता है कि राज-काज की फ़ारसी भाषा का असर लोकबोलियों पर किस क़दर चढ़ चुका था । देखने की बात यह भी है कि कबीरबानी में गाफिल से बना गफिलाई शब्द भी आता है-“ ऐसा लोग न देखा भाई, भूला फिरे लिए गफिलाई।” यह गफिलाई निश्चित ही उस दौर के समाज में गाफिल का प्रचलित रूप रहा होगा। गाफिल या गफलत के शुद्ध रूप नुक़्ता लगा कर ग़फ़लत और ग़ाफिल बनते हैं ।
ग़ाफ़िल उसे कहते हैं जो बेख़बर हो । हेंस वेर और मिल्टन कोवेन की ए डिक्शनरी ऑफ़ मॉडर्न रिटन अरेबिक के मुताबिक ग़ाफ़िल के मूल में अरबी का ग़फ़ाला ghafala है जिसमें असावधानी, उपेक्षा, लापरवाही, भूल जैसे भाव हैं । इसकी धातु है ग़ैन- फ़ा-लाम (غ-ف-ل) । इससे बने ग़ाफ़िल में आत्मविस्मृत, असावधान, बेख़बर, आत्मलीन, निश्चेत, बेहोश के साथ-साथ काहिल, आलसी जैसी अर्थवत्ता भी है । गौर करें ग़फ़ाला के मूल भाव उपेक्षा या लापरवाही जैसे भावों पर । जो खुद में गुम है, जिसे ज़माने की ख़बर नहीं वह दरअसल कारोबारे-दुनिया की उपेक्षा ही तो कर रहा है । जिसे संसार की परवाह नहीं ऐसा व्यक्ति आत्मलीन योगी भी हो सकता है और अकर्मण्य, आलसी या लापरवाह भी हो सकता है ।
ग़फ़लत का प्रयोग भी हिन्दी में उधेड़बून, उलझन या गड़बड़ी के अर्थ में ज्यादा होता है । “बड़ी ग़फ़लत हो गई”, “ग़फ़लत मत करो”, “वो ग़फ़लत में रहता है” जैसे वाक्यों से यह स्पष्ट हो रहा है । गफ़लत में मूलतः - असावधानी, असतर्कता, बेख़बरी, संज्ञाहीनता, निश्चिष्टता, बेहशी, त्रुटि, भूल, चूक, उपेक्षा, आलस्य, बेपरवाही, काहिली के भाव हैं । ग़फ़ाला में निहित उपेक्षा इस शृंखला के जिस शब्द में सर्वाधिक उभर रही है वह है तग़ाफ़ुल । बोलचाल या लिखत-पढ़त की हिन्दी में तग़ाफ़ुल का इस्तेमाल नहीं होता मगर शेरो-शायरी में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए यह अजनबी भी नहीं है मसलन- “अब उसका तग़ाफ़ुल गवारा करो, मसीहा मसीहा पुकारा करो।” मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह तग़ाफ़ुल के मायने उपेक्षा, बेतवज्जोई, असावधानी, ग़फ़लत, ढील, विलम्ब, देर आदि बताते हैं ।
फ़लत से बने कुछ ख़ूबसूरत शब्द भी हैं जिनका प्रयोग किया जा सकता है जैसे ग़फ़लतक़दा जिसमें भवसंसार की व्यंजना उभरती है , मगर व्यंग्य के नज़रिए से । बुज़ुर्गों का कहना है कि ये दुनिया गड़बड़झाला ही है । यहाँ सब कुछ बेतरतीब है , सब कुछ उलझा हुआ है । इसे दुरुस्त करने का जिम्मा इन्सान का है, मगर वह खुद ही गफ़लतज़दा यानी असावधान रहता है । इसी तरह सुस्त, आलसी या आदतन असावधान व्यक्ति के लिए ग़फ़लतआश्ना जैसा शब्द भी है और ग़फ़लतपेशा भी। इन्हें हम एहदी, सुस्तशिरोमणी या आलसीराम की उपाधियों से नवाज़ते हैं ।

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Friday, May 24, 2013

गाछ और पेड़

mango-tree 

पे ड़ के अर्थ में पूर्वी भारतीय बोलियों में ‘गाछ’ शब्द बहुत आम है। बांग्ला में भी ‘गाछ’ का अर्थ वृक्ष ही है। पूर्वी बोलियों में ‘गाछी’ शब्द का अभिप्राय वृक्षवाटिका भी होता है और आम्रकुंज भी। खासतौर पर आम, कटहल, पीपल जैसे पेड़ों के समूह के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है। रतीनाथ की चाची उपन्यास में बाबा नागार्जुन ने बीजू आमों के बगीचे को गाछी कहा है। ‘बीजू’ यानी आम का वह पेड़ जिसे बीज बो कर लगाया गया हो। ‘कलमी’ आमों का बगीचा कलमी बाग कहलाता है। ‘गाछी’ का अर्थ छोटा पेड़ या पौधा भी होता है। इसी तरह ‘बाड़ी’ यानी छोटे बगीचे के लिए भी गाछी का प्रयोग देखा जाता है। कहीं कहीं गाछी और भी लघुता के चलते ‘गछिया’ हो जाती है। हिन्दी शब्दसागर में गाछ शब्द की प्रविष्टि में- “खजूर की नरम कोंपल जिसे लोग पेड़ कट जाने पर सुखाकर रख छोड़ते हैं और तरकारी के काम में लाते हैं । बोरा जो बैल आदि पशुओं की पीठ पर बोझ लादने के लिये रखा जाता है।” वैसे हिन्दी में पेड़ के लिए कई शब्द हैं जैसे अग, अगम, विटप, वृक्ष, द्रुम, अद्रि, कुट, जर्ण, झाड़, तरु, तरुवर, दरख़्त, पादप, भूजात या कुठारू आदि।
वृक्ष शब्द से कुछ नए नाम भी जन्मे हैं। वृक्ष से ‘व’ का लोप हुआ और रह गया ‘रूक्ष’। अब रूक्ष से मालवी-राजस्थानी में रूँख, रूँखड़ा जैसे कुछ नए नाम भी चल पड़े। इसी तरह वृक्ष से बिरछ, बिरिख या बिरिछ जैसे नाम भी चलन में हैं और लालित्यपूर्ण लेखन या देशी तड़का लगाने के लिए इनका प्रयोग सृजनधर्मी करते रहते हैं। वैसे वृक्ष के लिए ‘पेड़’ शब्द सर्वाधिक प्रचलित है। इसकी व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में दो तरह के मत हैं। कुछ लोगों का मानना है कि पेड़ का जन्म प्राकृत के ‘पट्टी’ की कोख से हुआ है। ‘पट्टी’ के मूल में ‘पत्री’ है जिसका रिश्ता संस्कृत के ‘पत्र’ से है। पत्र यानी पत्ता। जॉन प्लैट्स इसी मत के हैं। इसके विपरीत कुछ विद्वानों का मानना है कि पेड़ दरअसल ‘पिण्ड’ से आ रहा है। पिण्ड से पेड़ के उपजने की बात तार्किक भी है क्योंकि संस्कृत वाङ्मय के अनेक संदर्भों में पिण्ड का आशय वृक्ष से जुड़ता रहा है। कई तरह के वृक्षों के साथ ‘पिण्ड’ शब्द प्रत्यय या उपसर्ग की तरह लगा दिखाई देता है जिसमें ‘पिण्ड’ का अर्थ वृक्ष ही है जैसे पिण्ड खजूर। पिण्ड शब्द का अर्थ ताड़ जाति का वृक्ष, अशोक वृक्ष आदि भी है। इसी तरह आयुर्वैदिक गुणों वाले बेर जाति के एक कँटीले वृक्ष विकंकत का नाम पिण्डारा है जिसमें पिण्ड साफ़ नज़र आ रहा है। पिण्ड से पेंड और पेड़ का रूपान्तर होता चला गया। इसके विपरीत पत्र से पेड़ के रूपान्तर की कल्पना नहीं की जा सकती।
गाछ की बात। ‘गाछ’ अर्थात वृक्ष के मूल में संस्कृत शब्द ‘गच्छ’ है जिसका अर्थ है जाना, चलना, बढ़ना, गति करना। बतौर वृक्ष, गच्छ में लगातार बढ़ना, गति करना, वृद्धि करना जैसे भाव है। यूँ देखा जाए तो गति न करना भी वृक्ष की खासियत है और इस वजह से ही ‘अगम’ या ‘अग’ अर्थात जो चलते-फिरते नहीं, जैसे नाम भी उसे मिले हैं। यह दिलचस्प है कि निरन्तर ऊर्ध्वाधर गति और वर्ष में कई रूप बदलने वाले अनूठे-अपूर्व गुण के चलते ही एक ही स्थान पर बने रहने के बावजूद पेड़ों में लगातार गति करने का लक्षण भी देखा गया और इसीलिए उसे ‘गच्छ’ कहा गया और फिर उससे गाछ, गाछी जैसे शब्द बने हैं। पेड़ की व्युत्पत्ति पिण्ड से होने का एक मज़बूत आधार ‘गच्छ’ से बने एक समास में छुपा है।
गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित प्रख्यात बौद्ध ग्रन्थ महावस्तु में ‘गच्छ-पिण्ड’ शब्द आया है। मूलतः यह समास है। डॉ सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या इसे विचित्र समास मानते हुए इसके लिए अनुवादात्मक समास पद निर्धारित करते हैं। वैसे यह द्वन्द्व समास का उदाहरण है। ‘गच्छ’ यानी पेड़, पौधा आदि। गच्छ में निहित बढ़ने के भाव से गच्छ में वृक्ष का संकेत भी शामिल हुआ जिससे गाछ, गाछी आदि बने। पिण्ड किसी ढेर, अचल, ठोस, घन जैसा पदार्थ ही पिण्ड है। इसी तरह बढ़ने के अर्थ से ही गच्छ में परिवार, कुल या कुटुम्ब का भाव भी आया। इसी तरह पिण्ड में भी परिवार या कुल का भाव है। पश्चिमोत्तर भारत की बोलियों में मनुष्यों के आबाद समूह को पिण्ड भी कहा जाता है। गाँव के अर्थ में भी पिण्ड का प्रयोग होता है। अब जब पिण्ड का अर्थ भी वृक्ष है और गच्छ में भी पेड़ का ही भाव है तब ‘गच्छ-पिण्ड’ यानी ‘पेड़-पेड़’ जैसे समास से क्या अर्थसिद्धि हो सकती है? ज़ाहिर है जिस तरह ‘अच्छा-भला’ ‘ऋषि-मुनि’, ‘भाई-बंध’ या ‘कंकर-पत्थर’ आदि द्वद्व समास के उदाहरण हैं वैसा ही ‘गच्छ-पिण्ड’ के साथ भी है। मगर बात इतनी आसान नहीं है।
मेरे विचार में ‘गच्छ’ में वृद्धि का जो भाव है उससे ही ‘गच्छ-पिण्ड’ की अलग अर्थवत्ता स्थापित होती है। कुल, परिवार का महत्व उसके बढ़ते जाने के गुण से ही है। बाँस शब्द वंश से बना है। पूर्ववैदिक युग में वंश शब्द का अर्थ बांस ही रहा होगा। प्राचीन समाज में लक्षणों के आधार पर ही भाषा में अर्थवत्ता विकसित होती चली गई। स्वतः फलने फूलने के बाँस के नैसर्गिक गुणों ने वंश शब्द को और भी प्रभावी बना दिया और एक वनस्पति की वंश-परंपरा ने मनुष्यों के कुल, कुटुंब से रिश्तेदारी स्थापित कर ली। सो ‘गच्छ’ में निहित परिवार, कुल, कुटुम्ब के अर्थ में ही अगर वृद्धि का अर्थ वंश-परम्परा से लगाया जाए तो ‘गच्छ-पिण्ड’ का सीधा सा अर्थ वंश-वृक्ष निकलता है। बौद्धग्रन्थ महावस्तुअवदानम् में बुद्ध के जातक रूपों का उल्लेख है। स्पष्ट है कि यहाँ गच्छ-पिण्ड से तात्पर्य वंश-वृक्ष से ही होगा।

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Sunday, April 21, 2013

कल-कल की शब्दावली

भा षा का विकास प्राकृतिक ध्वनियों का अनुकरण करने से हुआ है। पानी के बहाव का संकेत ‘कल-कल’ ध्वनि से मिलता है। इस ‘कल’ के आधार पर देखते हैं कि हमारी भाषाओं को कितने शब्द मिले हैं। कल् की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। नदी-झरने की कल-कल और भीड़ के कोलाहल में यही कल ध्वनि सुनाई पड़ रही है। पक्षियों की चहचह और कुहुक के लिए प्रचिलत कलरव का अर्थ भी कल ध्वनि (रव) ही है। हिन्दी में गला, गली, खर्राटा, खल्ला, गरियाना, गुर्राना, कुल्ला, कल्ला, गाल आदि और अंग्रेजी का कॉल, कैलेंडर जैसे अनेक शब्द इसी कल की शृंखला से बंधे हुए हैं। चलिए, पहचानते हैं इन्हें।
प्राचीन रोम में पुरोहित नए मास की जोर-शोर से घोषणा करते थे इसे calare कहा जाता था। अंग्रेजी का call भी इससे ही बना है। रोमन में calare का अर्थ होता है पुकारना या मुनादी करना। कैलेयर से बने कैलेंडे का मतलब होता है माह का पहला दिन। माह-तालिका के लिए कैलेंडर के मूल में भी यही कैलेयर है। भाषा विज्ञान के नजरिये से calare का जन्म संस्कृत के कल् या इंडो-यूरोपीय मूल के गल यानी gal से माना जाता है। इन दोनों ही शब्दों का मतलब होता है कहना या शोर मचाना, जानना-समझना या सोचना-विचारना।
ल-कल में ध्वनिवाची संकेत से पानी के बहाव का अर्थ तय हुआ मगर ध्वनिवाचक अर्थ भी बरक़रार रहा। बहाव के अर्थ में बरसाती नाले को खल्ला / खाला कहते हैं। यह स्खल से आ रहा है जिसमें गिरने, फिसलने, बहने, टपकने, नीचे आने, निम्नता जैसे भाव हैं। ज़ाहिर है कल का अगला रूप ही स्खल हुआ जिससे नाले के अर्थ में खल्ला बना। कल का ही अगला रूप गल होता है। ज़रा सोचे पंजाबी के गल पर जिसका मतलब भी कही गई बात ही होता है। साफ़ है कि अंग्रेजी का कॉल, संस्कृत का कल् और पंजाबी का गल एक ही है।
ल् का विकास गल् है जिसका अर्थ है टपकना, चुआना, रिसना, पिघलना आदि। यह कल के बहाववाची भावों का विस्तार है। गौर करें इन सब क्रियाओं पर जो जाहिर करती हैं कि कहीं कुछ खत्म हो रहा है, नष्ट हो रहा है। यह स्पष्ट होता है इसके एक अन्य अर्थ से जिसमें अन्तर्धान होना, गुजर जाना, ओझल हो जाना या हट जाना जैसे भाव हैं। गलन, गलना जैसे शब्दों से यह उजागर होता है। कोई वस्तु अनंत काल तक रिसती नहीं रह सकती। स्रोत कभी तो सूखेगा अर्थात वहाँ जो पदार्थ है वह अंतर्धान होगा। गल् धातु से ही बना है गला जिसका मतलब होता है कंठ, ग्रीवा, गर्दन आदि। ध्यान रहे, गले से गुज़रकर खाद्य पदार्थ अंतर्धान हो जाता है।
ल् से गला बना है और गली भी। निगलना शब्द भी इसी मूल से बना है। गले की आकृति पर ध्यान दें। यह एक अत्यधिक पतला, सँकरा, संकुचित रास्ता होता है। गली का भाव यहीं से उभर रहा है। कण्ठनाल की तरह सँकरा रास्ता ही गली है। गली से ही बना है गलियारा जिसमें भी तंग, संकरे रास्ते का भाव है। गल् में निहित गलन, रिसन के भाव का अंतर्धान होने के अर्थ में प्रकटीकरण अद्भुत है। कुछ विद्वान गलियारे की तुलना अंग्रेजी शब्द गैलरी gallery से करते हैं। यूँ गुज़रने और प्रवाही अर्थ में भी सँकरे रास्ते के तौर पर कल, गल से होते हुए गला और गली के विकास को समझा जा सकता है।
गौर करें सुबह सोकर उठने के बाद मुँह में पानी भर कर गालों की पेशियों को ज़ोरदार हरक़त देने से ताज़गी मिलती है। इसे कुल्ला करना कहते हैं। यह कुल्ला मूलतः ध्वनि अनुकरण से बना शब्द है और इसमें वही कल-कल ध्वनि है जो पत्थरों से टकराते पानी में होती है। वैसे कुल्ला का मूल संस्कृत के कवल से माना जाता है। हिन्दी में जो गाल है वह संस्कृत के गल्ल से आ रहा है। फ़ारसी में गल्ल से कल्ला बनता है जिसका प्रयोग हिन्दी में भी होता है जैसे कल्ले में पान दबाना यानी मुँह में पान रखना। गल्ल और कल्ल की समानता गौरतलब है। गल्ल से हिन्दी में गाल बनता है और फ़ारसी में कल्ला। मगर दोनों ही भाषाओं में कुल्ला का अर्थ गालों में पानी भरकर उसमें खलबली पैदा करना ही है।
ताज़गी के लिए कुल्ला के अलवा गरारा भी किया जाता है। यह संस्कृत के गर्गर (गर-गर) से आ रहा है। कल कल का ही विकास गर गर है। आमतौर पर गर गर ध्वनि गले से अथवा नाक से निकलती है। इस ध्वनि के लिए नाक या गले में नमी होना भी जरूरी है। क वर्णक्रम की ध्वनियाँ आमतौर पर एक दूसरे से बदलती हैं। नींद में मुँह से निकलनेवाली आवाजों को खर्राटा कहा जाता है। इसकी तुलना गर्गर से करना आसान है। यहाँ ध्वनि में तब्दील हो रही है। ख, क ग कण्ठ्य ध्वनियाँ है मगर इनमें भी संघर्षी ध्वनि है और बिना प्रयास सिर्फ निश्वास के जरिये बन रही है। सो खर्राटा शब्द भी इसी कड़ी से जुड़ रहा है। हाँ, गुर्राने गो भी न भूल जाएँ। 
अंग्रेजी के गार्गल gargle शब्द का प्रयोग भी शहरी क्षेत्रों में आमतौर पर होने लगा है। इसकी आमद मध्यकालीन फ्रैंच भाषा के gargouiller मानी जाती है जो प्राचीन फ्रैंच के gargouille से जन्मा है जिसमें गले में पानी के घर्षण और मंथन से निकलने वाली ध्वनि का भाव निहित है। इस शब्द का जन्म गार्ग garg- से हुआ है जिसमें गले से निकलने वाली आवाज का भाव है। इसकी संस्कृत के गर्ग (रः) से समानता गौरतलब है। गार्गल शब्द बना है garg- (गार्ग) + goule (गॉल) से। ध्यान रहे पुरानी फ्रैंच का goule शब्द लैटिन के गुला gula से बना है जिसका अर्थ है गला या कण्ठ। लैटिन भारोपीय भाषा परिवार से जुड़ी है। लैटिन के गुला और हिन्दी के गला की समानता देखें।
पशब्द, निंदासूचक या फूहड़ बात के लिए हिन्दी उर्दू में गाली शब्द है। प्रायः कोशों में इसका मूल संस्कृत का गालि बताया गया है। ध्यान रहे कल् या गल् में कुछ कहने का भाव है प्रमुख है। कल्-गल् की विकास यात्रा में अपशब्द के लिए गालि का विकास भी इसी गल् से हुआ। गल् यानी ध्वनि। कहना। गाल यानी वह अंग जहाँ जीभ व अन्य उपांगों से ध्वनि पैदा होती है। गला यानी वह महत्वपूर्ण अंग जहाँ से ध्वनि पैदा होती है। गुलगपाड़ा, शोरगुल, कोलाहल, कल-कल, कॉल, गल, कलरव, गर-गर, गॉर्गल जैसे शब्दों में कहना, ध्वनि करना ही महत्वपूर्ण है। गाली का एक अन्य रूप गारी भी होता है। उलाहना, भर्त्सना, धिक्कार या झिड़कने को गरियाना भी कहते हैं। किसी को दुर्वचन कहने, लताड़ने, फटकारने के अर्थ में भी इसका प्रयोग किया जाता है। जॉन प्लैट्स के कोश में गाली की व्युत्पत्ति प्राकृत के गरिहा से बताई गई है। संस्कृत में इसका मूल गर्ह् है जिसका अर्थ भर्त्सना या धिक्कार ही है। गर्ह् के मूल में भी गर् ध्वनि को पहचाना जा सकता है।
गाली बकने की क्रिया के लिए गाली-गलौज शब्द भी है। इसमें गलौज ध्वनि अनुकरण से बना है। गलौज, गलौच, गलोच में क्या सही है, क्या ग़लत इसके फेर में नहीं पड़ना चाहिए। वैसे हिन्दी कोशों में गलौज को ही सही बताया गया है। चूँकि ध्वनि अनुकरण का मामला है इसलिए अलग अलग क्षेत्रों में और का फ़र्क़ हो सकता है।  इसी कड़ी में गाली-गुफ्तार पर विचार करें। गुफ्तार मुख-सुख से नहीं आया है मगर गाली-गुफ्तार पद का प्रयोग हिन्दी में गाली-गुफ्ता की तरह होता है। अनजाने में गालीगुप्ता भी देखा जाता है।

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Saturday, April 20, 2013

‘छद्म’ और ‘छावनी’

से शब्द जो हिन्दी की तत्सम शब्दावली के हैं मगर बोलचाल की हिन्दी में आज भी डटे हुए हैं उनमें छद्म शब्द भी शामिल है। कपटपूर्ण व्यवहार के संदर्भ में हिन्दी में इसका प्रयोग होता है। छल-छद्म एक आम मुहावरा है जिसका अर्थ है छल, कपट या धोखे का प्यवहार। छद्मवेषी व्यक्ति वह है जो अपना असील रूप छिपाने के लिए रूप बदल कर रहता है। छद्म करनेवाले व्यक्ति को छद्मी कहते हैं। ध्यान रहे, देहात में पाया जाने वाला संज्ञानाम छदामी (लाल) या छदम्मी (लाल) इस छद्मी का अपभ्रंश रूप नहीं है। ये नाम दरअसल यूनानी मुद्रा द्रख्म से आ रहे हैं जो मौर्यकाल में भारत में द्रम्मम् के नाम से चलती थीं जिनका देशी रूप दाम, दमड़ी हुआ। मूल्य के अर्थ में दाम शब्द यहीं से आ रहा है। दाम का छठा हिस्सा छदाम कहलाया। दो दमड़ी यानी एक छदाम। पुराने ज़माने में दमड़ीमल भी होते थे और छदामीलाल भी। ख़ैर बात छद्म की चल रही थी।
द्म में जो फ़रेब, झूठ, छुपाव, बनावटीपन आदि का भाव है वह दरअसल छद् से आ रहा है। संस्कृत में छद् का अर्थ है आवरण। छद् का ‘छ’ है वह ‘छत’ अर्थात ‘छाया’ का प्रतीक है। संस्कृत छाया का ही फारसी रूप साया है। मगर हिन्दी के ‘छाया’ में अब सिर्फ़ परछाईं का भाव रह गया है वहीं फारसी के साया में परछायी के साथ साथ ‘छत’ का भाव भी बरकरार है। संस्कृत की ‘छद्’ धातु में छत, छाया, ढके होने का भाव है। छद् का मतलब होता है ढकना , छिपाना , पर्दा करना आदि। छद् से ही बना है छत्र, छत्रक या छत्रकम् । इन्ही शब्दों से बने हैं छाता, छत्री छतरी जैसे शब्द जिसका मतलब होता है ऐसा आवरण जिससे सिर ढका रहे, छाया बनी रहे। राजाओं के सिंहासन के पीछे लगे छत्र से भी यह साफ है । छत्रपति, छत्रधारी जैसे शब्द इससे ही निकले हैं। मंडपनुमा इमारत भी छतरी ही कहलाती है। राजाओं की याद में भी पुराने ज़माने में जहाँ उन्हें दफनाया जाता था, छतरियाँ बनाईं जाती थीं।
नावटी, नकली, जाली या फर्जी में मूलतः सच्चाई को छुपाने का भाव है। ऐसा व्यवहार जिसमें सच को छुपाया जाए, उस पर पर्दा या आवरण डाला जाए, छद्म की श्रेणी में आता है। छद्म में छद् को अगर पहचाना जाए तो सब स्पष्ट हो जाता है। छद का छत रूप अगर संरक्षण है तो वह एक आवरण भी है। संस्कृत में छद्मन् का अर्थ है स्वांग, बहाना, छुपाव, कपट आदि। छल शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी शब्दसागर में स्खल से बताई गई है जो मेरे विचार में ठीक नहीं है। छल में भी वही ‘छ’ है जिसमें छुपाव या आवरण का भाव है। छल-छद्म में दुराव या छुपाव की पुनरुक्ति है।
फ़ौजी पड़ाव के लिए हिन्दी में छावनी शब्द आम है। कई बड़े शहरों में छावनी नामधारी इलाके होते हैं। इसका मतलब यह किसी ज़माने में वहाँ सेना का स्थायी या अस्थायी बसेरा था। उन्हीं स्थानों पर बाद में नई आबादी बस जाने के बावजूद इलाके के नाम के साथ छावनी शब्द जुड़ा रहा जैसे छावनी चौराहा या छावनी बाज़ार आदि। आज के दौर में भी जिन शहरों में आर्मी कैंटोनमेंट होता है उसे छावनी ही कहते हैं। कैंटोनमेंट बोर्ड को भी छावनी बोर्ड ही कहते हैं। जानते हैं छावनी शब्द कहाँ से आया और इसका अर्थ क्या है। संस्कृत में आच्छादन का अर्थ होता है आवरण, वस्त्र या छाजन आदि। आच्छादन में भी छद् को पहचाना जा सकता है। उपसर्ग के बाद छादन बचता है। किसी ज़माने में बटोही राह में जब रुकते थे तो टहनियों को अर्धवृत्ताकार मोड़ कर उनके दोनों सिरे ज़मीन में गाड़ देते थे और उस ढाँचे पर चादर तान देते थे। यह उनका अस्थायी आश्रय बन जाता था।
गौर करें, यह जो चादर है वह भी इसी कड़ी का शब्द है। छद् के चादर में तब्दील होने का क्रम कुछ यूँ रहा होगा – छत्रक > छत्तरअ > छद्दर > चद्दर > चादर। मराठी में छादनी का अर्थ होता है ढक्कन, आवरण आदि और इसी रूप में यह हिन्दी में भी है। छादनी से छावनी में तब्दील होने का क्रम यूँ रहा- छादनी > छायणी > छायणी > छावणी। हिन्दी शब्दसागर छादनी का उल्लेख नहीं करता किन्तु इसका रिश्ता छाना क्रिया से जोड़ता है साथ ही देशी छायणिया, छायणो जैसे शब्दों से इसका सम्बन्ध बताता है। स्पष्ट है कि छायणिया या छायणो जैसे रूप प्राकृत-अपभ्रंश के हैं और इनका मूल छादन या छादनी है। इसी कड़ी में छाँह, छाँव, छावण, छावन, छाजन, छप्पर जैसे शब्द भी हैं जिनमें आवरण, डेरा, तम्बू, आश्रय, ढक्कन जैसे भाव हैं।

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Monday, April 15, 2013

घोंघाबसंत

Garden Snail (Helix aspersa).

लसी और महामूर्ख के अर्थ में ‘घोंघाबसन्त’ मुहावरा खूब प्रचलित है। ‘घोंघा’ शब्द भी अपने आप में ‘गावदी’ या ‘घोंचू’ प्रकृति के व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है। गुमसुम या चुपचाप रहने वालों को भी ‘घोंघा’ कहा जाता है। घोंघा के साथ ‘बसन्त’ का मेल चौंकाता है। जिस तरह से गधे के लिए बैसाखनंदन उपमा है क्या उसी तरह घोंघाबसन्त में भी ‘बसन्त’ का तात्पर्य ऋतु से ही है ? चलिए, पहले ‘घोंघा’ की खबर लेते हैं, फिर ‘बसन्त’ की भी सुध ली जाएगी। घोंघा शब्द एक नज़र में अनुकरणात्मक लगता है मगर इसमें अनुकरण का संकेत आसानी से पकड़ में नहीं आता। शब्दकोशों में घोंघा का अर्थ शंख, सीप, कवच, खोल, आवरण आदि है। घोंघा से आशय जोंक जैसे रेंगने वाले उस प्राणी से है जो दलदली, नम भूमि पर या कछारी क्षेत्र में पाया जाता है। यह शंखनुमा कवच में रहता है। चलते समय यह आवरण से बाहर निकलता है मगर इसकी रफ़्तार बहुत सुस्त रहती है। थोड़ी भी हलचल से घबराकर यह फिर अपने खोल में घुस जाता है। घोंघा शब्द में मुख्य आशय उस आश्रय से है जिसमें रेंगने वाला कीड़ा रहता है। यह आश्रय शंखनुमा घुमावदार, उभारदार वलयाकृति वाला होता है।
लिली टर्नर घोंघा शब्द की तुलना घेंघा से करते हैं। ध्यान रहे, घेंघा गले का एक रोग होता है जिसमें कण्ठनाल में एक उभार या गठान जैसा आकार बन जाता है। घोंघा की रचना में भी उभार ही प्रमुख हैं। टर्नर के कोश में घेंटु यानी गला अथवा गर्दन का उल्लेख भी है और इसकी तुलना भी गले के घुमावदार उभार से की गई है। कण्ठ (गला ), गण्ड (उभार, ग्रन्थि), कण्ड (जोड़) जैसे शब्द एक ही कड़ी के हैं। गलगण्ड यानी गले का उभार। कई लोग इसे गले की घण्टी भी कहते हैं। घूर्णन (घुमाव), घूम, घूमना, घण्टा, घण्टी, घट, घाटी जैसे कई शब्दों में इसे समझा जा सकता है। ‘घ’ ध्वनि / वर्ण में निहित घुमाव का भाव घोंघा की सर्पिल गति से भी स्पष्ट है। मराठी में एक साँप का नाम ‘घोण’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में भी घोण नाम के सर्प का उल्लेख है। स्पष्ट है कि घोंघा या घेंघा ( गले की ग्रन्थि ) में अनुकरणात्मकता है मगर इसका तार्किक रिश्ता ‘घ’ ध्वनि में निहित घुमाव के आशय से है।
घोंघा के साथ जुड़े बसन्त शब्द को बसन्त ऋतु से न जोड़ते हुए खड़ी बोली के ‘अन्त’ प्रत्यय से बना हुआ शब्द मानना चाहिए जैसे रटन्त। गौरतलब है इस प्रत्यय से अपनी आवश्यकतानुसार मुख-सुख के शब्द बनाए जाते रहे हैं मसलन, घुसन्त, उठन्त, घुमन्त, फिरन्त, चलन्त आदि। किसी विशिष्ट भाव के लिए बनाया गया पद रूढ़ भी हो सकता है। बसन्त के ‘बस’ में बैठने, स्थिर होने का भाव है। ‘बस’ से मराठी में ‘बसना’ क्रिया बनती है जिसका अर्थ है बैठना। हिन्दी का ‘बसना’ कुछ अलग अर्थवत्ता रखता है और इसमें निवास करने, स्थिर होने का भाव है। गुजराती में बैठिए के लिए ‘बेसो’ शब्द है। संस्कृत के वस् में बसने का भाव है और हिन्दी मराठी का बसना, इसी वस् से आ रहा है। आवास, निवास जैसे शब्द इसी मूल के हैं।  मूर्ख की तरह बैठे रहने वाले अर्थ में ‘बसन्त’ इसी तरह घोंघाबसन्त में रूढ़ हो गया होगा, ऐसा लगता है। यह भी सम्भव है कि ‘घोंघाबसन्त’ का अर्थ है वह जो खोल घुस कर बैठा रहे। घरघुस्सू व्यक्ति यान घर में घुस कर बैठे रहने वाले व्यक्ति को भी समाज में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। बुद्ध मुद्रा में बैठे रहने वाले व्यक्ति के लिए भी आखिरकार गावदी के अर्थ में ‘बुद्धू’ शब्द रूढ़ हुआ और एकटक ताकते रहने वाले व्यक्ति को ‘मूढ़’ की संज्ञा दी गई।

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Sunday, March 31, 2013

हथियारों के साथ ‘पंचहत्यारी’

‘पंचहत्यारी’ शिवाजी की सैन्य शब्दावली का एक शब्द है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानों इसका रिश्ता पाँच जनों की हत्या करने वाली से हो। दरअसल यह एक विशेषण, पद या उपाधि है जिसका अर्थ है बंदूक, भाला, ढाल, तलवार और तीर-कमान से सज्जित सैनिक या शिकारी पशु। यहाँ अभिप्राय मुख समेत चारों पंजों के ज़रिये शिकार को चीर-फाड़ करने से है। पंच से तो पाँच स्पष्ट है, हत्यारी क्या है ? दरअसल मराठी में हथियार को हत्यार ही लिखते और बोलते हैं। ‘पंचहत्यार’ का तात्पर्य पाँच हथियारों से है। हिन्दी में ‘हत्यार’ का आशय ‘हत्यारा’ से है और हत्यारी यानी हत्या करने वाली स्त्री।
ऐसे ही बनती है। मराठी में हथियार की 'थ' ध्वनि से 'ह' का लोप होकर 'त' शेष रहा। मध्य वर्ण 'य' चूँकि अन्तस्थ व्यंजन है इसलिए 'त' में निहित 'इ' स्वर य से जुड़ गया और 'त' का बर्ताव अर्धव्यंजन की तरह होने से हथियार का देशी रूप ‘हत्यार’ हुआ। उधर हिन्दी का ‘हत्यार’ दरअसल ‘हत्यारा’ से बन रहा है। इसके मूल में ‘हत्या’ है। जिसका अर्थ किसी के प्राण लेना है। संस्कृत के हत से हत्या का रिश्ता जोड़ा जाता है। वैसे वैदिकी में ‘हथ’ शब्द भी है जिसका अर्थ है मारना, जान लेना, धकेलना, वार करना आदि। इस हथ से साबित होता है कि वैदिक संस्कृत में भी हस्त से ‘हथ’ रूप बन चुका था जिसमें हाथ से सम्बन्धित का भाव था। गौर करें हथियार का रिश्ता दरअसल ‘हाथ’ से नज़र आता है। प्राकृत में ‘हत्थ’ शब्द का अर्थ हाथ है। ‘हत्थ’ का संस्कृत या वैदिक रूप ‘हस्त’ है। ये दोनों शब्द हिन्दी के हाथ के पुरखे हैं। हथेली, हथौड़ी, हत्था, हाथी जैसे अनेक शब्दों के मूल में हस्त ही है। ‘हथिया’ में ‘आर’ प्रत्यय लगने से हथियार बना जिसमें ऐसे उपकरण का आशय है जिसे हाथ में पकड़ कर या हाथों से फेंक कर कोई काम किया जाए या किसी पर घात किया जाए। मूलतः हथियार में शस्त्र का भाव है।
थियार हिन्दी का बहुप्रयुक्त शब्द है। शस्त्रास्त्रों के लिए इसका इस्तेमाल आम है। मराठी में इसकी प्रकृति बदल गई और यह ‘हत्यार’ हो गया। हथियार से जुड़े कई मुहावरे प्रचलितहैं जैसे हथियार डालना यानी पराजय स्वीकार करना, हथियार चलाना यानी लड़ाई छेड़ना, हथियार बांधना या हथियार लगाना यानी संघर्ष के लिए सुसज्ज होना। चलताऊ या बाज़ारू हिन्दी में ‘हथियार’ शब्द का प्रयोग पुरुष जननेन्द्रिय के लिए भी होता। हथिया से ही ‘हथियाना’ क्रिया भी बनती है जिसका अर्थ है जबर्दस्ती कब्ज़ा करना, अपने स्वामित्व में लेना आदि।

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Tuesday, March 5, 2013

बर्ताव, आचरण और व्यवहार

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हि न्दी की प्रचलित शब्दावली में ‘बर्ताव’ शब्द का शुमार भी है। व्यवहार, ढंग, आचरण या शैली के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग होता है मसलन- “उनके बर्ताव को सही नहीं कहा जा सकता”। हिन्दी शब्दकोशों में हालाँकि बर्ताव की वर्तनी ‘बरताव’ बताई गई है मगर अब आम चलन बर्ताव का ही है। बर्ताव के मूल में संस्कृत ‘वर्तन’ है जिसमें घूमना, फिरना, जीने का ढंग या व्यवहार आदि आशय है। वर्तन के मूल में वैदिक धातु ‘वृत’ है। इसमें भी मूलतः घूमना, फिरना, घेरा, गोल, टिके रहना, होना, दशा या परिस्थिति आदि भाव हैं। ‘वृत’ से बने ‘वृत्त’ में घेरा या गोलाई स्पष्ट है। आचरण, स्वभाव के संदर्भ में ‘वृत्ति’ शब्द का प्रयोग भी हम करते हैं जैसे-“वह अच्छी वृत्ति का व्यक्ति है।”। आचरण दरअसल क्या है? इसमें ‘चरण’ है जो चलते हैं। चरण जो करते हैं, वही चलन है अर्थात ‘चाल-चलन’ ही आचरण है।
र्तन में निहित घूमना, फिरना, जीने का ढंग या व्यवहार सम्बन्धी जो आशय हैं वे ‘वृत’ में निहित घूमने-फिरने के भाव से जुड़े हैं। व्यक्तित्व घूमने-फिरने से ही बनता है। विचार भी इससे ही बनते हैं और आचरण भी। ध्यान रहे विचार में भी ‘चर’ यानी गति का भाव है। मानसिक विचरण से ही विचार बनते हैं। वर्तन में भी यही सब है। ‘वृत्ति’ का एक अर्थ जीविका भी है और दूसरा अर्थ आचरण भी। जीविका के लिए भी घूमना पड़ता है, गतिशील रहना पड़ता है इसीलिए वृत्ति का एक अर्थ आजीविका है और दूसरा अर्थ आचरण। ‘वर्त’ में घूमने का भाव एक अलग ढंग से यात्रा करता हुआ ‘वर्तिका’ जैसा शब्द बनाता है जिसका अर्थ है दीये की बाती। कपास को जब उंगलियों के ज़रिये घुमाया जाता है, उसका वर्तन किया जाता है तो वर्तिका बनती है। संस्कृत में इसके लिए ‘वर्ती’ या ‘वर्ति’ शब्द भी हैं। हिन्दी में इससे ही ‘बत्ती’ या बाती जैसे शब्दों का निर्माण होता है। कपास के वर्तन से ही धागा बनता है जिसे सूत कहते हैं जिसका मूल सूत्र है। आर्य भाषाओं में व ध्वनि ब में बदलती है। वर्ति > बत्ती होता है। मराठी में वर्तिका > वट्टिका > बट्टिआ > वाट बनता है। ‘वाट लगना’ आज लोकप्रिय मुहावरा है जिसका अर्थ है किसी चीज़ को नष्ट कर देना। मूल भाव है जल कर नष्ट होना। दीये की बत्ती जल कर नष्ट ही होती है। दूसरी ओर किसी चीज़ को जलाने के लिए उसे बत्ती छुआई जाती है। हिन्दी में ‘बत्ती देना’ मुहावरा है जिसका अर्थ भी नष्ट करना ही है।
र्तन में गति के साथ साथ स्थिरता या ठहराव भी है। घुमाव, वृत्त गति से वर्तन में भी गति का आशय व्यापक रूप लेता है और इसमें चाल-ढाल, बोल-चाल, हाव-भाव का समावेश होता है। लगातार ‘वर्तन’ के बाद ही कोई विशिष्ट गुण वृत्ति के रूप में स्थिर होता है। वेतन के रूप में वृत्ति में भी यही स्थिरता है। प्रतिदिन, प्रतिमाह या प्रतिवर्ष दिया जाने वाला तयशुदा मेहनताना। वृत्ति में ही व्यवसाय, रोज़गार या पेशा का भाव भी आ गया। रसोई में काम आने वाले पात्र गोल होते हैं। ये बरतन कहलाते हैं। यह भी वर्तन से बना शब्द है। वर्तन में हिन्दी का आव प्रत्यय लगने से बर्ताव शब्द बनता है जिसमें उसी ढंग से आचरण या व्यवहार की अर्थवत्ता स्थापित होती है जिसकी ऊपर व्याख्या की गई है। वर्तन से ‘बरतना’ क्रिया भी बनती है। बरतने का भाव ही दरअसल बर्ताव है। किन्हीं लोगों के किए जाने वाले व्यवहार, किन्ही वस्तुओं के उपयोग के तरीके को बरताव कहते हैं। हमारे हाव-भाव, बोल-चाल और अन्य क्रियाएँ जिनके ज़रिये हम लोक के सम्पर्क में आते हैं, बरताव के दायरे में आती हैं।
चरण शब्द बर्ताव की तुलना में ज्यादा व्यापक है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि आचरण में ‘चलना’ यानी ‘चर’ क्रिया प्रमुख है। आ+चरण यानी चल कर पहुँचना, यह रूढ़ अर्थ हुआ। चरित्र में भी यही ‘चर’ है। परिनिष्ठित भाषा में इसमें निहित ‘चल कर पहुँचना’ वाले भाव का विस्तार किसी काम को करने की शैली में प्रकट होता है। कहना, सुनना, ओढ़ना, पहनना सब कुछ इसमें आता है। ‘चाल चलन’ मुहावरे में आचरण के तमाम भाव हैं। बोल-चाल, हाव-भाव सब कुछ। आचरण या बर्ताव के लिए हिन्दी में ‘व्यवहार’ शब्द का प्रयोग खूब होता है जो आपटे कोश के मुताबिक वि + अव + हृ के मेल से बना है। संस्कृत की ‘हृ’ धातु में ग्रहण करना, लेना, प्राप्त करना, ढोना, निकट लाना, पकड़ना, खिंचाव या आकर्षण, हरण जैसे भाव हैं। संस्कृत-हिन्दी के ‘अव’ उपसर्ग की अनेक अर्थछटाएँ हैं जिनमें एक व्याप्ति भी है। इस तरह ‘वि’ उपसर्ग के अनेक अर्थ आयामों में क्रम, व्यवस्था का समावेश भी है। कुल मिला कर व्यवहार में किसी कार्य को व्यवस्थित करना। बाद में इसमें आचरण, बर्ताव, व्यापार, लेन-देन, कार्यव्यापार, शिष्टाचार जैसे अर्थ भी शामिल हो गए। बर्ताव की तुलना में आचरण और ज्यादा व्यापक है और आचरण की तुलना में व्यवहार का दायरा और भी विशाल है। आचरण और बर्ताव दोनों ही व्यवहार में शामिल हैं मगर व्यवहार में शामिल लेन-देन, व्यापार जैसी अर्थवत्ता इन दोनों शब्दों में नहीं है।

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Monday, February 25, 2013

क़िस्सा दक़ियानूस का

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दु नियाभर में प्रचलित मुहावरों-कहावतों में शासकों या प्रभावशाली लोगों का अत्याचारी, सनकी चरित्र भी झलकता है। ऐसे क़िरदारों में रावण, कंस, नीरो या तुग़लक जैसे नाम स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। कुछ नामों के पीछे न तो कहानी नज़र आती है न ही क़िस्सा। ऐसा ही एक नाम है दक़ियानूस जो सिर्फ़ एक संज्ञा भर नहीं बल्कि एक प्रसिद्ध रोमन सम्राट था। आज के तुर्की और प्राचीन अनातोलिया का इफ़ेसस शहर इसके राज्य में शामिल था। अंधविश्वासी या पुरानी सोच वाले व्यक्ति को दक़ियानूस कहते हैं। बोलचाल की हिन्दी में यह शब्द खूब प्रचलित है। इसी तरह दकियानूसी शब्द के तहत पुरानी सोच वाला, रूढ़ीवादी और अधिक उम्र वाला, कोई बेकार, पुरानी और मनहूस चीज़ या पुरातनपंथी विचारधारा आती है। मसलन दक़ियानूसी लोग, दक़ियानूसी बातें, दक़ियानूसी चीज़े। अरबी-फ़ारसी में दक़ियानूस शब्द का सही रूप दक़्यानूस है।
हिन्दी-फ़ारसी के कोशों में अव्वल तो दक़ियानूस के संदर्भ में ज्यादा जानकारियाँ नहीं मिलतीं। कुछ कोशों में तो इसका संदर्भ बतौर रोमन शासक भी नहीं मिलता और कहीं पर उसके अत्याचारी सम्राट होने जितनी ही संक्षिप्त जानकारी मिलती है। ग्रीक संदर्भों में दकियानूस का उल्लेख बतौर देसियस मिलता है। पश्चिम एशिया के समाज-संस्कृति पर यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों धर्मों की गहरी छाप पड़ी है। ईसाइयत पर यहूदी धर्म का असर और इस्लाम पर अपने पूर्ववर्ती यहूदी और ईसाई चिन्तन का असर नज़र आता है। बाईबल के गोस्पेल और कुरान के सूरों (सुरह) की अनेक कथाओं में समानता से यह साबित भी होता है। बाइबल और कुरान दोनों में ही थोड़ी बहुत भिन्नता के साथ देसियस या दक़्यानूस के बारे में लगभग एक जैसी ही कहानी है।
सा के जन्म के वक़्त पश्चिम एशिया और समूचे यूरोप में मूर्तिपूजा का ही बोलबाला था। ईसा के बाद भी रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा का चलन था। किन्हीं संदर्भों में इतिहास प्रसिद्ध इस निरंकुश सम्राट को 359 ईपू. का बताया गया है मगर यह भ्रामक है। दक्यानूस यानी देसियस का काल ईसा के क़रीब ढाई सदी बाद का है। रोमन साम्राज्य में शासकों की मूर्तिपूजा सम्बन्धी सनक, अत्याचार और उत्पीड़न का इतिहास ईसा के सूली पर चढ़ने के बाद सातवीं आठवीं सदी तक भी जारी रहा रहा। देसियस या दक़्यानूस का रिश्ता अनातोलिया से जोड़ा जाता है और माना जाता है कि तुर्की के प्रसिद्ध तारसस और इफ़ेसस शहरों पर उसका शासन था। ईसाई धर्म के महान प्रचारक सेंट पॉल का जन्म तारसस में ही हुआ था। माना जाता है कि कि तारसस का नाम तार्कु के आधार पर पड़ा है जो हित्ती भाषा का शब्द है। इस इलाके में बसने वाले आदिजन हिट्टाइट ही थे। तार्कु एक देवता था जिसकी पूजा हित्तीजन करते थे। वैसे अधिकांश संदर्भो में इफ़ेसस से इसका सम्बन्ध जोड़ा जाता है। यह वही इफ़ेसस है जहाँ का आर्टेमिस का मंदिर सात अजूबों में गिना जाता है। अरब-फ़ारसी संदर्भों में इफ़ेसस को अफ़सूस कहा जाता है।
देसियस मूर्तिपूजा में विश्वास रखता था। उसका शासन बड़ा सख़्त और पूजा-विधान के आधार पर चलता था। कहने की ज़रूरत नहीं कि ईसाइयत के बढ़ते प्रभाव की वजह से रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा के लिए आग्रह ज्यादा बढ़ा-चढ़ा था। देसियस का नज़रिया इस सिलसिले में ज्यादा सख़्त था। पूरे राज्य में उसके जासूस फैले हुए थे जो राई-रत्ती की खबरें देते थे। मूर्तिपूजा के विरोधियों को देसियस बर्दाश्त नहीं करता था। ईश्वर एक है और अदेखा है जैसी बातों पर यक़ीन करने वालों को वह आनन-फ़ानन में सज़ाए मौत सुना देता था जिसके तहत दोषियों को ज़िंदा जलाने, ज़मीन में गाड़ देने, हाथ-पैर काट कर पशुओं का ग्रास बनाने जैसे अमानवीय तरीके  शामिल थे। बहरहाल, बाइबल में वर्णित कथा के अनुसार इफ़ेसस के सात युवा लोगों ने शहर की देवी के मंदिर में सिर झुकाने से इनकार कर दिया। किन्हीं संदर्भों में यह घटना 156ईस्वी की भी बताई गई है। देसियस के कोप से बचने के लिए उन्होंने शहर के बाहर पहाड़ी गुफा में शरण ली। थके हारे सातों लोग गुफ़ा में जाते ही नींद के आग़ोश में चले गए। उधर देसियस को जब ख़बर लगी तो उसने गुफ़ा का दरवाज़ा चट्टानों से बंद करवा दिया ताकि वे अंदर ही मर-खप जाएँ। गोस्पेल के मुताबिक ये लोग दो सदियों तक सोते रहे। इसके आगे क्या हुआ ये जानने से पहले इस कहानी के इस्लामी संस्करण का जायज़ा लिया जाए।
गोस्पेल की तरह कुरान के अध्यायों को सूरा (सुरह) कहा जाता है। गुफ़ा में सोए लोगों की कहानी कुरान के सूरह-कह्फ़ (18वाँ अध्याय) में आती है। कहानी के मुताबिक अफ़सूस शहर (ग्रीक इफ़ेसस) में सात लोगों का एक समूह था जो ईसाइयत में भरोसा रखते थे। दक्यानूस के कहर से बचने के लिए उन्होंने गुफ़ा में शरण ली, जिसका दरवाज़ा उसके ही हुक्म से बंद करा दिया गया। इस्लामी संदर्भों में इन सात लोगों को अस्हाबे-कह्फ़ कहा गया है। अस्हब का अर्थ होता है पैग़म्बर के कृपापात्र, मोहम्मद के दोस्त। मूलतः अस्हब, साहिब का बहुवचन है जिसका अर्थ है साहिबान, मान्यवर आदि। इसी तरह कह्फ़ का अर्थ होता है गुफ़ा, कंदरा, गार आदि। कह्फ़ अरबी का शब्द है लेकिन, गुहा, गुफा, कोह, खोह जैसे इंडो-ईरानी परिवार के शब्दों से इसकी साम्यता गौरतलब है।
गोस्पेल के मुताबिक क़रीब दो सौ साल ये लोग सोते रहे जबकि सूरह् के मुताबिक इनकी नींद 309 साल बाद टूटी। जो भी हो, नींद टूटने पर इनमें से कुछ लोग भोजन की तलाश में पास की बस्ती तक पहुँचे। उन्होंने कुछ रोटियाँ खरीदी। जब नानबाई को इन्होंने कुछ सिक्के दिए तो वह हैरत में पड़ गया। सिक्के उसके लिए अनजाने थे। धीरे-धीरे ये बात पूरे बाज़ार में फैल गई कि कुछ अनोखे लोग वहाँ आए हैं। जानकारों ने देख-परख कर पहचाना कि इन सिक्कों पर दक़्यानूस नाम के राजा की तस्वीर छपी है जो क़रीब तीन सदी पहले हुआ था और बेहद ज़ालिम था। नींद से जागने वालों के लिए अब हैरत में पड़ने की बारी थी। उन्होंने बताया कि बेशक दक़्यानूस ज़ुल्मी है और उससे बचने के लिए ही तो वे कल शहर छोड़ कर भागे थे। वो तो झपकी लग गई और वे नींद में ग़ाफ़िल हो गए। तीन सदी लम्बी नींद उनके लिए ही नहीं, सबके लिए बड़ी ख़बर थी। फिर यह हुआ कि वे सातों लोग वहीं रहने लगे। उनकी यही चाहत थी कि जिस काल की गुफा में सदियों तक सोते हुए उन्हें ईश्वरीय अनुभूति हुई है, उनकी उम्र पूरी होने के बाद वे हमेशा के लिए भी उसी गुफा में सोएँ। शहरवासियों ने उनकी यह इच्छा भी पूरी की। बाद के दौर में आम लोगों में भी यह धारणा बनी कि उस गुफा में दफ़नाए जाने पर उन्हें मोक्ष मिलेगा।  पुरातत्ववेत्ताओं को एशिया व यूरोप में तुर्की, जॉर्डन से लेकर चीन के उईगुर प्रान्त तक में ऐसी गुफाएँ मिली हैं जिन्हें स्थानीय लोग अस्हाबे-कह्फ कहते हैं। इन सभी स्थानों पर कब्रें हैं। 
क़िस्सा-कोताह यह कि इस्लाम और ईसाई दोनों ही धर्मों में इस कहानी का प्रयोग अपने अपने पैग़म्बर की महानता स्थापित करने में किया। लोगों को यह पता चला कि कुल मिला कर एकेश्वरवाद ही सही रास्ता है। ईश्वर एक है और उन्होंने ही ज़ालिम के कहर से बचाने के लिए अपने सात नेक बंदों को सदियों तक सुलाए रखा। कहानी जो भी कहती हो, धर्मों की बात धर्मोपदेशक जानें, शब्दों के सफ़र में हमें तो दक़ियानूस लफ़्ज का सफ़र जानना था, जो जान लिया। अल्लाह के उन सात नेक बंदों का नाम आज कोई नहीं जानता। हाँ, जुल्मी दक़ियानूस को हम क़रीब क़रीब रोज़ ही याद कर लेते हैं।

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Saturday, February 9, 2013

होशियारी की बातें

ganesha

हि न्दी के प्रचलित शब्द भंडार में होशियार, होशियारी जैसे शब्द भी हैं जिसका इस्तेमाल रोज़मर्रा की भाषा में खूब होता है । होशियार शब्द दरअसल फ़ारसी मूल से भारतीय भाषाओं में दाख़िल हुआ है जिसका प्रयोग बतौर विशेषण सजग और बुद्धिमान के अर्थ में किया जाता है । चतुर, निपुण, कुशल, सावधान, समझदार और दक्ष की व्यंजना भी इसमें निहित है । होशियारी एक संज्ञा है और इसकी अर्थवत्ता में होशियार के सभी गुण शामिल हैं । हिन्दी में होशियार के होश्यार, हुशियार, होश्यार, हुस्यार, होशयार जैसे रूप प्रचलित हैं । मराठी में इसे हुशार कहा जाता है ।
होशियार या होशियारी के मूल में फ़ारसी का होश है जो इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । जोसेफ़ एच पीटरसन की डिक्शनरी ऑफ़ मोस्ट कॉमन अवेस्ता वर्ड्स में उषी शब्द है । जॉन प्लैट्स के कोश में इसका पहलवी रूप हुश या होश है जबकि डी.एन.मैकेन्जी की पहलवी डिक्शनरी के मुताबिक अवेस्ता उशी का पहलवी रूप ओश होता है जिसका एक अर्थ है ज्ञान, बोध, दूसरा अर्थ है मृत्यु और तीसरा अर्थ है उदय, प्रभात, सवेरा आदि । भाषाविज्ञानी एकमत है कि उशी, ओश जैसे शब्द वैदिक भाषा के उषः, उषा जैसे शब्दों के समरूप हैं जिसमें प्रभात, उदय या सवेरा का भाव है । वैदिक उष् धातु में ताप, तपाना जैसे भाव भी हैं । पहलवी ओश में पूर्व दिशा का भाव भी है । सूर्योदय के साथ ही ताप का एक नाम उष्मा भी है । उष्मा के मूल में भी यही उष् है । उष्मा से प्रकाश निकलता है । प्रकृति में उष्मा और प्रकाश का आदिप्रतीक सूर्य ही है जो पूर्व दिशा से उगता है । यही सारे संकेत वैदिक उष और पहलवी ओश में हैं ।
फ़ारसी में आकर ओश का रूपान्तर होश होता है और इसमें ज्ञान, बोध जैसे भाव स्थायी हो जाते हैं तथा सूर्योदय, प्रभात जैसे भाव इसमें से विलीन हो जाते हैं । पहलवी में सतर्क, जागरुक, सचेत के लिए ओशयार (osyar) शब्द है । इसका अगला रूप फ़ारसी का होशयार है । हिन्दी-उर्दू में यह होशियार बनता है । मुहम्मद मुस्तफ़ा खां मद्दाह के कोश में होश का अर्थ बुद्धि, समझ, अक़्ल, चेतना, संज्ञा, ख़बरदारी, विवेक, तमीज़ और नशे में उतार की अवस्था जैसे अर्थ बताए गए हैं । होशयार शब्द में जो यार है वह भी इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । यार शब्द का अर्थ है मित्र, दोस्त, बंधु, सखा, साथी आदि। यार शब्द की अर्थवत्ता में प्रेमी, आशिक , माशूक भी समाए हैं। इसके अलावा यह शब्द मददगार, सहायक का भाव भी रखता है। जॉन प्लैट्स के उर्दू इंग्लिश हिन्दुस्तानी कोश के मुताबिक यार शब्द की संभावित व्युत्पत्ति जारः से बताई गई है। संस्कृत के जारः शब्द में मूलतः प्रेमी, आशिक, उपपति का भाव है। किसी स्त्री के आशिक के अर्थ में जारः शब्द की अर्थवत्ता फारसी के यार में भी कायम है । यार शब्द बाद में सामान्य मित्र के अर्थ में समाज में रूढ़ हुआ । फ़ारसी का बे उपसर्ग लग कर बेहोश शब्द बनता है जिसका अर्थ है जिसमें चेतना न हो, अचेत ।
होशयार का अर्थ है जिसकी अक्ल से दोस्ती हो । अक़्ल का दुश्मन मुहावरा भी हिन्दी में प्रचलित है । ऐसे व्यक्ति के लिए उर्दू में होशबाख़्त शब्द है । इसके अलावा होशमंद, होशमंदी जैसे शब्द भी प्रचलित हैं । होशरुबा शब्द का अर्थ है चेतना हर लेने वाला, होश उड़ा देने वाला । हिन्दी में होशो-हवास पद भी खूब प्रचलित है । यह संकर पद है अर्थात होश फ़ारसी से आया है और हवास अरबी से । हवास शब्द अरबी धातु हा-सीन-सीन से बना है (ح س س ) जिसमें स्पर्श, संवेदना या समझ का भाव है । इससे बने हास्सः का अर्थ होता है इन्द्रियाँ जो स्पर्श, संवेदना की वाहक हैं । हास्सः का बहुवचन है हवास । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक इसका अर्थ है इन्द्रियाँ, संवेदना, चेतना, संज्ञा, होश आदि । ज़ाहिर है होश-हवास में वही भाव है जो हिन्दी के सुध-बुध में है । सुधि और बोध दोनो जहाँ स्थित हो वही होश-हवास की स्थिति है ।
होश से जुड़े अनेक मुहावरे व कहावतें हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे होश उड़ना, होश गुम होना या होश फ़ाख़्ता होना । इन सभी में भय, आशंका, चिन्ता या फ़िक़्र से सुध-बुध खोने या डर जाने की अभिव्यक्ति होती है । होश आना यानी ग़लती सुधार लेना, समझदार हो जाना आदि । होश दंग होना यानी चकित रह जाना । होश ठिकाने आना अर्थात सबक मिलना, बुद्धि जाग्रत होना, अधीरता या व्याकुलता मिटना, होश की दवा करना यानी अक्ल हासिल करना, समझदारी पाना आदि ।

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Tuesday, January 15, 2013

चर्चा कैसी कैसी !!

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हि न्दी से प्यार करने वालों का उसके साथ बर्ताव और व्यवहार भी अनोखा होता है । मिसाल के तौर पर चर्चा की बात करें । उर्दू-हिन्दी में बातचीत, कथन, उल्लेख, ज़िक़्र के संदर्भ में चर्चा शब्द का प्रयोग होता है । यह बहुत प्रचलित शब्द है । अक्सर यह बहस भी चलती रहती है कि चर्चा स्रीवाची है या पुरुषवाची । “चर्चा चलती है” या “चर्चा चलता है” । “चर्चा रही” या “चर्चा रहा” । कुछ लोग कह देते हैं कि कथन, ज़िक़्र या उल्लेख की तरह चर्चा के प्रयोग में पुलिंग लगना चाहिए जबकि कुछ लोग इसे स्त्रीवाची कहते हैं और इस तरह चर्चा पर चर्चा चलती ही रहती है । जो हिन्दीप्रेमी नुक़्ते से परहेज़ करते हैं उनका कहना है कि चर्चा के साथ उर्दू वाला पुल्लिंग लगाया जाए । इसके बरख़िलाफ़ जिन हिन्दीप्रेमियों को मुसलमानी बिन्दी से लगाव है वो चाहते हैं कि चर्चा को उर्दू का न माना जाए और इसके साथ स्त्रीलिंग का प्रयोग किया जाए । उर्दू में चर्चा से चर्चे बना लिया गया है जो बहुवचन है ।
बसे पहले तो एक बात साफ़ कर दें कि चर्चा हिन्दी की अपनी ज़मीन पर तैयार हुआ शब्द है और स्त्रीवाची है । यह मूलतः तत्सम शब्द है । इसमें और संस्कृत के चर्चा शब्द में अगर कोई मूलभूत फ़र्क़ है तो सिर्फ़ यही कि संस्कृत-वैदिक शब्दावली का चर्चा पुरुषवाची है और हिन्दी का चर्चा स्त्रीवाची । संस्कृत का चर्चा लोकभाषा में स्रीवाची चरचा था और हिन्दी की ज़मीन पर भी इसी रूप में सामने आया । आज से क़रीब छह सौ सात सौ साल पहले हिन्दी की विभिन्न शैलियों में चर्चा के चरचा रूप का स्त्रीवाची प्रयोग के लिखित साक्ष्य बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं । ज़ाहिर है बोलचाल में इसकी रचबस कई सदी पहले हो चुकी होगी । कबीर अपनी सधुक्कड़ी में कहते हैं - “संगत ही जरि जाव न चरचा नाम की । दुलह बिना बरात कहो किस काम की।।” वहीं विनयपत्रिका में तुलसी की अवधी में भी चरचा है- “जपहि नाम रघुनाथ को चरचा दूसरी न चालु।” तो उधर राजस्थानी में मीराँ के यहाँ भी चरचा है - “राम नाम रस पीजै मनुआँ, राम नाम रस पीजै । तज कुसंग सतसंग बैठ णित, हिर चरचा सुण लीजै ।।
र्चा शब्द में विभिन्न आशय शामिल हैं मगर आमतौर पर इसका अर्थ बहस या विचार-विमर्श ही है । चर्चा में मूलतः दोहराव का भाव है । तमाम कोश चर्चा के अनेक अर्थ बताते हैं मगर रॉल्फ़ लिली टर्नर कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ में चर्चा प्रविष्टि के आगे सिर्फ़ रिपीटीशन यानी दोहराव लिखते हैं । ज़ाहिर है, बाकी आशय बाद में विकसित हुए हैं विलियम व्हिटनी पाणिनी धातुपाठ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि चर्च् धातु दरअसल चर् धातु में निहित भाव की पुनरावृत्ति दिखाने वाला रूप है । चर् का मूल भाव गति है (करना, अनुष्ठान, व्यवहार, आचरण, अभ्यास आदि । इससे ही चलने की क्रिया वाला चर बना है) । चर्चर (चर-चर) में दोहराव है । बहरहाल, चर्चा के मूल में चर्च् धातु है जिसका मूलार्थ है दोहराव । आप्टे कोश के मुताबिक इसमें पढ़ना, अनुशीलन करना, अध्ययन करना, विचार-विमर्श करना जैसे भाव हैं । इसी के साथ इसमें गाली देना, धिक्कारना, निन्दा करना, बुरा-भला कहना जैसे आशय भी हैं । इससे बने चर्चा में आवृत्ति, तर्क-वितर्क, स्वरपाठ, अध्ययन, सम्भाषण, वाद-विवाद, अनुशीलन, परिशीलन, अनुसंधान के साथ-साथ शरीर पर उबटन लगाना, मालिश करना, लेपन करना जैसे भाव भी हैं ।
र्च् में निहित दोहराव वाले भाव पर गौर करें तो चर्चा के अन्य आशय भी स्पष्ट हो जाते हैं । बार-बार या दोहराव वाली बात विमर्श के दौरान भी उभरती है और विचार मन्थन में भी । अनुसंधान या खोज के दौरान भी बार बार उन्हीं रास्तों, विधियों, प्रविधियों से गुज़रना होता है । बहस-मुबाहसों में एक ही बिन्दू पर लौटना होता है या किसी एक मुद्दे का बार बार उल्लेख होता है । चर्चा में अफ़वाह, गपशप, चुग़लख़ोरी जैसी बातें भी शामिल हैं । अफ़वाह में आवर्तन की वृत्ति होती है । किसी भी क़िस्म की गप्प, गॉसिप या अफ़वाह जैसी बातें लौट-लौट कर आती हैं । सो बारम्बारता चर्चा का ख़ास गुणधर्म है । यही बारम्बारता मालिश, मसाज़ या लेपन में भी है । मालिश या लेपन करना यानी बार-बार किसी एक सतह पर दूसरी सतह फेरना सो चर्चित का आशय लेपित से भी है । बृहत हिन्दी शब्दकोश में इसका उदाहरण दिया है चन्दन-चर्चित काया । लेपन की क्रिया को चर्चन भी कहते हैं । चर् में निहित गति की पुनरावृत्ति ही ‘चर्चन’ है ।
र्च् से ही बना है चर्चित जिसका अर्थ है- ऐसा कुछ जिस पर लोग बातें करतें हैं । इसमें वस्तु, व्यक्ति, विचार कुछ भी हो सकता है । चर्चित यानी जिस पर चर्चाएँ चल रही हों । कोशों के मुताबिक चर्चित का अर्थ है जिस पर विचार किया गया हो, जिस पर चर्चा हुई हो, जिसे खोजा गया हो। इसके अलावा चर्चित वह भी है जिसकी मालिश हुई हो, जिस पर लेप किया हुआ हो, जो सुगंधित, सुवासित, अभ्यंजित हो । चर्चित के दोनों ही अर्थों में दोहराव की प्रक्रिया स्पष्ट है । आम अर्थों में चर्चित चेहरा वह होता है जो खबरों में हो । खबर को चर्चा का पर्याय मानें । बार बार कोई मुद्दा या व्यक्ति जब चर्चा में आता है तो वह चर्चित कहलाता है । चर्चा योग्य के लिए मुखसुख के आधार पर चर्चनीय शब्द भी बना लिया है । चर्चा करने वाले को वार्ताकार की तर्ज पर चर्चाकार कहते हैं । संस्कृत नाटकों की परम्परा में दो अंकों के बीच दृष्यविधान बदलते हुए दर्शकों के मनोरंजन के लिए गाया जानेवाला गीत चर्चरिका कहलाता था । फ़ाग, होली, बुआई, कटाई जैसे अवसरों पर भी चर्चरिका का चलन था । लोक भाषा में इसे चाँचर, चँचरी या चाँचरी कहते हैं । चाँचरी एक पहाड़ी लोकनृत्य की शैली भी है ।
र्चा प्रायः आर्यपरिवार की सभी भारतीय भाषाओं में है । लोगों की ज़बान पर जब किसी बात का उल्लेख आम हो जाए तो उसे मराठी में जनचर्चा या लोकचर्चा कहा जाता है । इसी तरह रामचर्चा पद है जिसका शाब्दिक अर्थ तो राम का नाम लेना है मगर इसमें मुहावरेदार अर्थवत्ता है । मोल्सवर्थ का इंग्लिश-मराठी कोश इसके बारे में कहता है - A phrase used emphatically or expletively in a speech expressing any positive and utter denial. 

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